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गुरुवार, 3 जून 2021

साइकिल


यूँ तो हम नगर में रहते थे। लेकिन नगर इतना बड़ा भी नहीं था कि आसानी पैदल नहीं नापा जा सके। नगर से बाहर जाने के लिए बसें और ट्रेन थी। नगर में सामान ढोने का काम हाथ ठेले करते थे। बाकी इन्सान अधिकतर पैदल ही चलते थे। कुछ लोग जिन्हें काम से शहर के बाहर ज्यादा जाना होता था उनके पास सायकिलें थीं। मोटर सायकिलें बहुत कम थीं। चौपाया वाहन तो इक्का-दुक्का ही थे। हाँ सरकारी जीपें बहुत थीं। पिताजी अध्यापक थे, अक्सर बाहर पोस्टिंग रहती थी। बाकी हम सब का काम पैदल चलने से हो जाता था। पर जैसे जैसे मैं बड़ा होता गया सोचता जरूर था कि घर में एक साइकिल तो होनी चाहिए। आसपास के बच्चे किराए पर साइकिल ले आते और कैंची चलाते रहते। मेरा भी दिल तो करता था। पर सोचता साइकिल सीख भी लूंगा तो किस काम की, जब तक घर में न हो। बिना साइकिल के काम चलता रहा।

एक दिन पास के गाँव से जो चार किलोमीटर दूर था, किसी बिरादरी वाले के यहाँ से भोज का निमन्त्रण मिला। किसी न किसी का जाना जरूरी था। दादाजी जा नहीं सकते थे। घर में पुरुष मैं अकेला था। दादाजी ने आदेश दिया कि मैं चला जाऊँ। उन दिनों हमारे गाँव का लड़का गणपत गुप्ता पढ़ने के लिए हमारे साथ ही रहता था। मैंने दादाजी से कहा कि मैं गणपत को साथ ले जाऊँ, तो उन्होंने अनुमति दे दी।

भोज के लिए गाँव जाने के दो साधन थे। हम पैदल जा सकते थे, या फिर साइकिल से। साइकिल नहीं थी, पर किराए पर ली जा सकती थी। मुझे चलाना आता नहीं था। मैंने गणपत से पूछा, “तुम्हें चलाना आता है।”
उसने कहा, “आता है।”

मैं बहुत खुश था कि अब साइकिल किराए पर ले चलेंगे। गणपत चलाएगा, मैं कैरियर पर बैठ जाऊंगा। हम तीसरे पहर चार बजे करीब घर से निकले। नगर में आधा किलोमीटर चलने के बाद साइकिल की दुकान आई। हमने किराए पर एक साइकिल ले ली। साइकिल ले कर हम कुछ दूर पैदल चले। फिर मैंने गणपत से कहा, “तुम साइकिल चलाओ, थोड़ा धीरे रखना मैं उचक कर कैरियर पर बैठ जाउंगा।”

“मैं साइकिल तो चला लूंगा लेकिन मुझे पैडल से बैठना नहीं आता। कहीं ऊंची जगह होगी तो वहाँ पैर रख कर साइकिल पर चढ़ जाउंगा, तुम कैरियर पर बैठ जाना।” गणपत ने कहा।

“ठीक है”, मैंने कहा।
हम आधा किलोमीटर और चले। शहर खत्म हो गया। उसके बाद एक नाला आया। उसकी पुलिया पर पैर रख कर गणपत ने चालक की सीट संभाली। मुझे कहा तो मैं कैरियर पर बैठ गया।

“ठीक से बैठ गए?” गणपत ने मुझ से पूछा।

“हाँ, बैठ गया”.

“मैं पैडल मारूँ?”

“बिलकुल”, मैंने कहा।

गणपत ने पैडल मारा। साइकिल का हैंडल बायीं तरफ मुड़ा और पुलिया की मुँडेर खत्म होने के बाद सीधे नाले में। नीचे, साइकिल, ऊपर गणपत, उस पर मैं। एक दो बरसात हो चुकी थीं। नाले में मामली पानी था और खेतों से बहकर आई मुलायम मिट्टी। हमें चोट नहीं लगी। पर कपड़े उन पर मिट्टी पड़ गयी। हाथ पैर भी मिट्टी मे सन गए।

हम सोच रहे थे क्या करें? वापस जाने में बड़ी दिक्कत थी। शाम के खाने का क्या होगा? हमने आगे बढ़ना तय किया।

हम साइकिल लेकर पैदल चले। एक किलोमीटर बाद एक बावड़ी आई। उसमें हमने अपने कपड़ों से और शरीर से मिट्टी हटायी। फिर आगे चल पड़े। फिर उसी भोज में जाते कुछ परिचित मिले। उन्होंने कहा कि साइकिल होते हुए पैदल क्यों जा रहे हो? हमने अपनी दिक्कत बताई कि केवल गणपत को चलाना आता है लेकिन वह मुझे बिठा नहीं सकता। उनमें से एक ने मुझे अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा लिया। गणपत कहीं ऊँची जगह देख कर साइकिल पर चढ़ा और भोज वाले गाँव पहुँचे। वापसी में उन्हीं परिचित ने मुझे अपने घर के नजदीक छोड़ा। सुबह साइकिल दुकान वाले को जमा करा दी गयी। किराए सहित।
बाद में घर में साइकिल आई। उसके बाद के भी अनेक किस्से हैं। पर वे फिर कभी।

बुधवार, 3 जून 2020

बाबूजी की साइकिल

बाबूजी पंचायत समिति में स्कूल इंस्पेक्टर हुए तो उन्हें गाँवों के स्कूलों का निरीक्षण करने जाना पड़ता था। वहाँ जाने के लिए साइकिल, मोटर साइकिल और जीप ही साधन थे। सरकार ने तो कुछ उपलब्ध नहीं करा रखा था। बस भत्ता दे दिया करती थी। बाबूजी ने तब तक खुद कभी साइकिल तक नहीं चलाई थी। पैदल चलने के अभ्यासी थे। साइकिल उन्हें लक्जरी नजर आती थी। पच्चीस-तीस किलोमीटर जा कर काम कर के लौट आना उन के लिए साधारण बात थी। कई अध्यापक अपने गाँवों से दूर 10 से 30 किलोमीटर तक के स्कूलों में रोज आते जाते थे और उन्हों ने साइकिलें ले रखी थीं। ऐसे में इन्स्पेक्टर निरीक्षण करने पैदल पहुँचता तो कई संकट खड़े हो जाते। एक तो निकलते ही अध्यापकों को खबर हो जाती कि आज इंस्पेक्टर साहब किधर निरीक्षण करने वाले हैं और पहले ही सतर्क हो जातेनिरीक्षण का मतलब ही न रह जाता। रास्ते में हर कोई उन्हें अपनी साइकिल के कैरियर पर बिठा कर ले जाने की पेशकश करता। फिर लोग भी मजाक करते कि कैसे इंस्पेक्टर हैं साइकिल तक नहीं रखते, कम से कम मोटर साइकिल तो होनी चाहिए। पंचायत समिति के स्टाफ ने कम से कम साइकिल जरूर खरीद लेने की सलाह दी। उन्हें चलाना नहीं आता था। किसी सहकर्मी ने उन्हें चलाना सिखा दिया। नहीं सिखा पाया तो पैडल मार कर खुद से साइकिल पर चढ़ना नहीं सिखा पाया। वे खुद भी आजीवन यह तकनीक नहीं सीख पाए। उन्हों ने जब तक साइकिल चलाई तब तक किसी ऊँची जगह पर से साइकिल की सीट पर चढ़ कर साइकिल चलाते रहे। जब तक साइकिल पर चढ़ने लायक ऊँचा पत्थर आदि नहीं मिलता वे उसे साथ ले कर पैदल चलते रहते।

जब ये वाली साइकिल घर में आयी तब मैं नवीं कक्षा में पढ़ रहा था, उम्र बारह की हो चुकी थी। दूसरे साथी किराए की साइकिल ला कर चलाना सीख चुके थे। वे किराए पर घण्टे दो घण्टे के लिए साइकिल लाते और कैंची चलाते रहते। हम बड़ी हसरत से उन्हें देखते रहते। बाबूजी से तो कभी कहने की हिम्मत भी न पड़ती कि उन से किराए पर साइकिल लाने को पूछ लें। दाज्जी का मैं बहुत लाड़ का था। उन्हें डर लगता कि कहीं गिर गया या किसी और ने गिरा दिया या किसी बड़े वाहन ने टक्कर मार दी तो मुझे चोट लग जाएगी। उन्हों ने भी कभी अनुमति नहीं दी। उन दोनों की अथॉरिटी के बिना अम्माँ तो कभी इजाजत देने से रही। तो इस तरह साइकिल चलाने की विद्या के मामले में मैं भी कोरा था। बस एक ही हसरत थी कि कभी तो घर में साइकिल आएगी, तभी सीखेंगे और चलाएंगे। किराए की साइकिल ले कर सीखना और चलाना भी कोई चलाना है।

अब साइकिल घर में आ ही गयी थी तो मैं उसकी सेवा में लग गया। बाबूजी को ले जाने के लिए रोज उसे झाड़ पोंछ कर टनाटन रखता। घर हमारा सड़क से ऊंचा था। सीढ़ियों से आना जाना पड़ता था। रोज सुबह साइकिल को घर से उठा कर सड़क तक रखने और शाम हो जाने पर सड़क से उठा कर वापस घर में रखने का काम भी मैं ही करता। कभी उसे चलाने की हिम्मत भी नहीं होती। अब समस्या यह थी कि किसी तरह बाबूजी को यह विश्वास हो जाए कि मैं ने साइकिल चलाना सीख लिया है, तो साइकिल चलाने को मिले। मैं जुगाड़ में था कि यह कैसे हो।

मेरे एक फूफाजी थे, वे भी अध्यापक थे। कई साल तक वे नगर के स्कूल में ही थे। फिर उन की पदोन्नति हुई तो पदस्थापन 12 किलोमीटर दूर हुआ। उन्हों ने साइकिल खरीदी, सीखी और उसी से नौकरी जाने लगे। मेरी उन से खूब पटती थी। इतवार को उनकी छुट्टी रहती। आखिर एक इतवार उन के घर गया और साइकिल सिखाने की फरमाइश की। वे तुरन्त तैयार हो गए। साइकिल निकाली उस की सीट पर मुझे बैठाया। बोले पैडल और हेण्डल को नहीं देखना। बस सामने सड़क पर देखना। मैं पीछे कैरियर से पकड़ता हूँ गिरने नहीं दूँगा। तुम पैडल मारो और चलाओ। सीखना तो था ही। गिरने विरने और थोड़ा बहुत छिल जाने का डर पहले ही घर रख कर आया था। गिर भी गया तो फूफाजी साथ थे, फर्स्ट एड उन्हों ने ही कर देनी थी।

मैं ने पैडल मारा, साइकिल चली और चलती गयी। गति बढ़ती गयी। कोई चालीस पचास गज चल चुकी तब ध्यान आया कि फूफाजी पीछे से पकड़े भी हैं कि नहीं। मैं ने ब्रेक लगाया और साइकिल टेड़ी कर के बायाँ पैर जमीन पर जमा दिया। साइकिल रुक गयी। हम दोनों गिरने से बच गए। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा तो फूफाजी दस गज पीछे मुस्कुराते हुए चले आ रहे थे। बोले साइकिल चलाना तो तुम्हें आता है, बस अभ्यास करना शेष है। मुझे भी थोड़ा कोन्फिडेंस आ गया। फिर उन्हों ने मुझे साइकिल पर पैडल से चढ़ना और उतरना सिखाया आधे घण्टे बाद जब मैं इन दोनों करतबों में कामयाब हो गया तो उन्हों ने मुझे चलाने को साइकिल दे दी। मैं ने उस पहले दिन ही करीब एक घण्टे साइकिल चलाई। चौड़ी सड़क पर, फिर गली में। आखिरी बार फूफाजी उन के घर के सामने सड़क पर खड़े थे और मैं सामने की ढाई फुट की संकरी गली में से निकल कर उन तक पहुँचा तो कहने लगे। तुम आज से अपनी साइकिल बेधड़क चला सकते हो। जिस गली से साइकिल चलाते हुए निकल कर आए हो उस से तुम्हारा इम्तिहान हो चुका है और तुम पास हो गए हो। मैं ने उन्हें कहा, “जब तक आप खुद बाबूजी को इस इम्तिहान का रिजल्ट नहीं बता देंगे, मुझे साइकिल नहीं मिलेगी।“

अगले इतवार फूफाजी हमारे घर आए। बाबूजी को पूरा किस्सा सुनाया कि मैं ने कैसे साइकिल चलाना सीखा है, और अब अच्छी तरह साइकिल चला सकता हूँ। उन्हें किस्सा सुनाते देख मैं वहाँ से खिसक कर दूसरे कमरे में चला गया और वहाँ से छिप कर उन की बातें सुनता रहा। फूफाजी ने उन्हें खास तौर पर यह बताया कि मैं पैडल से चढ़ना उतरना भी सीख चुका हूँ। बाबूजी मेरी इस कामयाबी पर बहुत खुश थे।

कुछ दिन बाद बाबूजी को किसी काम से छुट्टी लेनी पड़ी। उन्हें साइकिल की जरूरत नहीं थी। मैं ने अवसर देख कर पूछा, “मैं साइकिल स्कूल ले जाऊँ?”

उन्हों ने मेरी ओर देखा। मैं बहुत सहमा हुआ खड़ा था। मुझे देख कर वे मुस्कुराने लगे।

“ले जाओ, पर गिरना गिराना मत।“ मैं फौरन वहाँ से खिसक लिया। कहीं बाबूजी का इरादा बदल न जाए। मेरा दिल बल्लियों उछल रहा था।

उस के बाद दो साल और बाबूजी इंसपेक्टर रहे। फिर उन का स्थानान्तरण विषय अध्यापक के पद पर दूर के कस्बे में हो गया। वे वहीं जा कर रहने लगे। हम दादाजी के साथ अपने शहर में ही रहते रहे। तब यह साइकिल स्थायी रूप से मेरी हो गयी।