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बुधवार, 14 अप्रैल 2021

संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है

मारी बिल्डिंग में कुल 11 अपार्टमेंट हैं। पाँच साल पहले हम इसके एक अपार्टमेंट में रहने आए। अभी तक यहाँ कोई सोसायटी नहीं बनी है, हम आपसी सहयोग से काम चला रहे हैं। सोसायटी बनाने के लिए उसका एक विधान बनाना पड़ेगा। वकील होने के नाते दूसरे निवासियों ने यह काम मुझ पर छोड़ दिया है। पर यह काम इतना आसान भी नहीं। मैं कुछ दूसरी सोसायटियों के विधानों का अध्ययन कर चुका हूँ, पर मुझे लगता है कि सबकी विशेषताओं को लेकर एक नया विधान बना दिया जाए तब भी उसमें कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। पिछले एक बरस में मुझे प्रायोगिक रूप से यह समझ आया कि कुछ नए नियम उसमें जोड़े जाने जरूरी हैं, अन्यथा सोसायटी का प्रशासन दुष्कर होगा। मुझे अब भी कुछ कमी लग रही है। मुझे कुछ समय और चाहिए। मैं सोसायटी का विधान बना दूंगा। फिर वह आम सभा में प्रस्तुत होगा। वहाँ संशोधनों के साथ या उनके बिना वह पारित हो जाएगा। इस तरह सोसायटी का विधान बन जाएगा, लेकिन फिर भी उसमें हमेशा इस बात की गुंजाइश बनी रहेगी कि आवश्यकता के हिसाब से उसमें कुछ जोड़ा या घटाया जा सके। मैं सोचता हूँ कि यदि मुझे किसी देश का संविधान बनाने को मिल जाए तो पूर्णकालिक तौर पर इसी काम में जुट जाने पर भी दो-चार वर्ष का समय मेरे लिए कम पड़ जाएगा।


हमारे देश की संविधान सभा ने बाबा साहेब को भारत के संविधान का प्रारूप बनाने का काम सौंपा था। उन्होंने उस काम को बेहतरीन तरीके से पूरा किया। संविधान सभा ने संविधान पारित किया। देश के संविधान का प्रारूप बनाने का जो बड़ा काम उन्होंने किया वह अकेला उन्हें सदियों तक स्मरण रखने के लिए पर्याप्त है। 26 जनवरी 1950 को संविधान प्रभावी होने के बाद भी अनेक क़ानूनों का प्रारूप उन्होंने ही तैयार किया। लेकिन इन क़ानूनी कामों को करने के साथ-साथ वे आज़ादी के आन्दोलन के एक प्रमुख सेनानी भी थे। उनके लिए आज़ादी की लड़ाई केवल अँग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई नहीं थी अपितु देश की अछूत जातियों को अस्पृश्यता से मुक्त कराने और उन्हें देश के अन्य नागरिकों के समान जीवन प्रदान करने की लड़ाई भी थी। इसके लिए उन्होंने शोध का बड़ा काम किया, जो आज उनके लेखन में देखा जा सकता है। वे जानते थे कि संविधान में सभी नागरिकों को समानता का मूल अधिकार प्रदान कर देने और अस्पृश्यता विरोधी क़ानून बना देने मात्र से अछूत जातियों के लोगों को समानता के स्तर पर नहीं लाया जा सकता। इसके लिए उन्होंने कुछ समय के लिए इन जातियों और आदिवासी जन जातीय समूहों के लोगों को कुछ विशेष अधिकार और सुविधाएँ प्रदान करने के लिए आरक्षण का प्रस्ताव रखा जिसे संविधान सभा ने मान लिया और यह दस वर्षों के लिए संविधान का अस्थायी भाग बन गया। भारतीय संसद इस अस्थायी प्रावधान को लगातार बढ़ाती रही और वह आज भी संविधान में विद्यमान है। आज नयी नयी जातियाँ भी जो न अछूत हैं और न ही आदिवासी आरक्षण की मांग कर रही हैं। हमारे देश की आजादी के बाद की राजनीति जो कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त से आरम्भ हुई थी, वाम राजनीति को छोड़ दें तो अब सीधे सीधे पूंजीपतियों के यहाँ बंधक रखी जा चुकी है, उसका केवल एक उद्देश्य रह गया है कि किसी तरह वोट प्राप्त कर सत्ता हथिया ली जाए और फिर पूंजीपतियों के हित साधे जाएँ। इस राजनीति ने वोट हासिल करने के अनेक दो-नम्बरी तरीके ईजाद कर लिए हैं।

बाबा साहब का योगदान इस देश को एक जनतांत्रिक संविधान प्रदान करने और अछूत जातियों की मुक्ति के लिए बहुत विशाल है। लेकिन हम प्रायोगिक रूप में देख सकते हैं कि यह संविधान और क़ानून न तो अछूत जातियों को देश की मुख्य धारा में विलीन कर सके और न ही देश के जनतन्त्र को अक्षुण्ण रखा जा सका। आज भी अछूत जातियों और जन जातीय समूहों को मुख्य धारा में आने का संघर्ष करना पड़ रहा है। आरक्षण ने उन्हीं के बीच दरार उत्पन्न कर दी है। जिन्हें आरम्भ में आरक्षण मिला उनकी एक क्रीमी लेयर बन गयी और अब आरक्षण के अधिकांश लाभों को वही निगल जाती है। जनतन्त्र पर पहला हमला इमर्जेंसी के अनुच्छेदों के ज़रीए हुआ और अब संसद में तरह तरह के कानून बना कर उसका गला घोंटा जा रहा है।

किसी भी देश के शोषित तबकों का संघर्ष एक व्यक्ति के व्यक्तित्व को समर्पित नहीं हो सकता। एक व्यक्ति अपने जीवनकाल में उस संघर्ष में बहुत कुछ जोड़ सकता है लेकिन फिर भी बहुत कुछ उससे छूट जाता है। परिस्थितियाँ लगातार बदलती हैं और नयी परिस्थितियों के लिए नयी नीतियों की तलाश करनी पड़ती है। आज अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, देश की सभी जातियों के गरीबों और मेहनतकशों की मुक्ति के लिए तथा जनतन्त्र के संरक्षण और विकास के लिए हमें नए मार्ग तलाशने की जरूरत है। हमें बाबा साहब अम्बेडकर, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह द्वारा स्थापित राहों से अलग अपनी राह तलाशने की जरूरत है। इस जरूरत को देश की अछूत जातियों, आदिवासी समूहों, सभी जातियों के ग़रीबों, मेहनतकशों और ग़रीब अल्पसंख्यकों के एकजुट आन्दोलन से ही पूरा किया जा सकता है। बाबा साहेब, नेहरू, गांधी, सुभाष, भगतसिंह आदि हमारे नेता आज़ादी और मनुष्य मुक्ति के आन्दोलन की ही उपज थे। अब यह नया आन्दोलन ही हमें नए नेता भी देगा। संघर्षरत जनता से बड़ा कोई नेता नहीं। संघर्षरत जनता ही सब नेताओं की जननी है।

आज बाबा साहब की जयन्ती के दिन हमें यही संकल्प लेने की जरूरत है कि हम समानता और आज़ादी की इस लड़ाई को तब तक जारी रखेंगे जब तक कि एक देश द्वारा दूसरे देश का और एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति का और एक व्यक्ति समूह द्वारा दूसरे व्यक्ति समूह का शोषण इस धरती से समाप्त न हो जाए।

मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

भारतीय दलितों के अमर सेनानी -डॉ. भीमराव अम्बेडकर

डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने देश के दलित, आदिवासी और निम्न जातियों के उत्पीड़न के हिन्दू (सनातन) धर्म के आधारों को खुल कर लोगों के सामने रखा और उसके विरुद्ध दलितों को एकजुट हो कर उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष के लिए तैयार किया। यहाँ तक कि उन्होंने हजारों लोगों के साथ हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उन्होंने भारतीय संविधान को तैयार करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। भारतीय संविधान का मूल ढाँचा उनके बिना तैयार नहीं हो सकता था।

उनसे बहुत असहमतियाँ हैं, जो उनकी दार्शनिक समझ से संबंधित हैं। वे बार-बार और लगातार दर्शन के भाववादी आधारों पर चोट करते रहे, लेकिन उससे अन्त तक मुक्त नहीं हो सके। भौतिकवादी दर्शनों के संसार की तरफ उनके पग बार बार उठते लेकिन पता नहीं किस मोहपाश के कारण वे वापस लौट जाते। यही एक कारण था कि वे किसी भी भौतिकवादी दर्शन को कभी ठीक से समझ ही नहीं सके। उनकी दार्शनिक समझ के इस अधूरेपन के कारण ही आज वे स्थितियाँ दलितों के बीच मौजूद हें जिसके कारण मनुवादी सत्ता को बार बार दलितों, आदिवासियों और पिछ़ड़ी जातियों की एकता तोड़ने में सफलता मिलती रही है। उनके तमाम लेखन में भाववाद के प्रति जो मोह है, उसी ने उनके जीवित रहते ही उनमें देवत्व उत्पन्न कर दिया। आज तो दलितों के एक बहुत बड़े हिस्से ने उन्हें भगवान का दर्जा दे दिया है। वे उन्हे उसी तरह पूज रहे हैं जैसे हिन्दू अपने देवताओं गणेश, शिव, विष्णु और ब्रह्मा को पूजते हैं। यही एक चीज है जो उनके तमाम संघर्षों को फिर से उसी भाववादी कीचड़ के सागर में डुबो देती है।

बावजूद अपनी इस कमजोरी के उन्होंने दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों के उत्थान और उनमें से हीनताबोध को नष्ट करने का जो बड़ा ऐतिहासिक काम किया है। उसके लिए वे भारतीय दलितों के अमर सेनानी के रूप  में सदैव याद किए जाएंगे। उनका नाम अमर हो गया है वह इतिहास के पृष्ठों से कभी मिटाया नहीं जा सकता।

आज उनके जन्मदिन पर उनके तमाम महान कार्यों के लिए मैं उनका नमन करता हूँ।


शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

दवा नहीं, दर्द निवारक : आरक्षण

म्बेडकर जी के बारे में मैं ने बहुत कम पढ़ा है, एक स्कूली विद्यार्थी के बराबर। पर इतना जानता हूँ कि वे अत्यन्त प्रतिभाशाली थे। उन्होंने भारतीय संविधान की रचना की और उसे संविधान सभा से पारित कराया। वे दलित थे और दलितों की दमन से मुक्ति चाहते थे। उन्हों ने बौद्ध धर्म अपना लिया था। लेकिन धर्म परिवर्तन से भी दलित का दलितपन गया नहीं। यह तो पुराना अनुभव था। दलितों के मुसलमान बन जाने से उन का दलितपन नहीं गया था। भारत में जाति रस्सी जैसा बंधन है जिसे जला भी दिया जाए तो उस का बल नहीं जाता। उन का ही कमाल था कि दलितों और आदिवासियों को संविधान में आरक्षण मिला। 

इस आरक्षण से दलितों और आदिवासियों को एक अधिकार मिला लेकिन उन का दलितपन और आदिवासीपन और मजबूत हो गया। अब दलित आदिवासी दलित आदिवासी बने रहना चाहते हैं जिससे उन का अधिकार बना रहे। यही इस आरक्षण का साइड इफेक्ट है। आरक्षण के और भी अनेक साइड इफेक्ट्स हैं। जैसे आरक्षण दलित और आदिवासी जातियों का भेद तक नहीं मिटा सका। मेघवाल और बैरवा एक जैसी स्थिति की दलित जातियाँ हैं, लेकिन बैरवा खुद को मेघवालों से आज तक ऊँचा समझते हैं। मीणा खुद को भीलों से बहुत बेहतर मानते हैं। इस तरह आरक्षण की इस दवा ने आदिवासी दलित जातियों की जातिगत संरचना को सीमेंट पिला कर मजबूत किया है।

मूल समस्या थी कि दलितों आदिवासियों के लिए समाज में जो भेदभाव है वह समाप्त हो, लेकिन वह कमजोर भी नहीं हुआ, समाप्त होना तो बहुत दूर की बात है। देश की मूल समस्या तो बेरोजगारी है। लोगों को उन की योग्यता के अनुरूप काम मिलना अनिवार्य हो जाए, अर्थात सब को काम मिलने लगे तो आरक्षण को कोई नहीं पूछेगा। पर हमारी सत्ता ऐसा नहीं कर सकती। पूंजीवाद का एक पाया बेरोजगारी भी है। यदि बेरोजगारी कम होती है तो पूंजीवाद लड़खडाने लगता है। यदि बेरोजगारी बिलकुल समाप्त हो जाए तो वह इतना भुरभुरा जाए कि साधारण से धक्के से गिर पडे़गा। पूंजीवाद हमेशा सस्ती मजदूरी पर निर्भर करता है और सस्ती मजदूरी इस बात पर निर्भर करती है कि देश में बेरोजगारों की संख्या कितनी अधिक है।

आरक्षण दवा नहीं थी बल्कि दर्द निवारक (पेन रिलीवर) था। लेकिन इस ने लोगों को इस का एडिक्ट बना दिया है। जिन के पास ये है वे इसे छोड़ना नहीं चाहते। जिन के पास नहीं है वे उसे पाना चाहते हैं लेकिन उस की निन्दा करते हैं। आरक्षण से सुधरता कुछ नहीं है दलितों और आदिवासियों में जिसे यह सुविधा मिलती है वह खुद को दूसरे दलितों और आदिवासियों से अलग कर लेता है। ऐसे लोगों की नयी प्रजाति बन गयी है। 

एक आदिवासी की शादी हो गयी। बाद में वह इंजिनियर हो गया। उसे सरकारी संस्थान में नौकरी मिल गयी। शादी के कोई दस साल बाद मेरे पास आया बोला वह अपनी पत्नी से तलाक चाहता है क्यों कि उस की पत्नी पढ़ी लिखी नहीं है, दिन भर में दो बंडल बीड़ी पी जाती है, रहन सहन उस का आदिवासियों जैसा है वह उस के साथ नहीं रह सकता। मैं ने कहा कि हिन्दू विधि से उस का तलाक नहीं हो सकता। उस का तलाक तो केवल पंचायत ही स्वीकृत कर सकती है। उस के बाद ही अदालत तलाक की की डिक्री पारित कर सकती है। उस ने कहा वह तो मुश्किल है जाति पंचायत इसे नहीं मानेगी। फिर कोई दस साल बाद वह अफसर मुझे मिला तो उस के साथ पत्नी के रूप में उस से कोई पन्द्रह बरस छोटी आधुनिक महिला थी। मैं ने उस से पूछा तो बताया कि पंचों के मुहँ में चांदीा भरी तो तलाक हो गया।

आरक्षण के कारण गरीब सवर्णों को गरीब आदिवासी दलितों के आरक्षण के अधिकार के खिलाफ खड़ा करना आसान हो गया। अब हमारी व्यवस्था सवर्णों को गरीब आदिवासियों और दलितो से घृणा करना सिखाती है। उस घृणा का राजनीतिज्ञ इस्तेमाल करते हैं। वे उस घृणा कोऔर सींचते हैं, कम नहीं करते हैं। गरीब दलितों और आदिवासियों को आरक्षण से रोजगार नहीं मिलता। उसे तो पहले इन जातियों के पढ़े लिखे सम्पन्न लोग हथिया लेते हैं। पर व्यवस्था ने उन के कंधों पर बग्घी का जुआ चढ़ा कर जोत दिया है और आगे चारा लटका दिया है। वे चारा खाने को आगे बढ़ते हैं, बग्घी चलती रहती है और चारा उतना ही आगे सरकता जाता है। उस तक गरीब दलितों आदिवासियों का मुहँ कभी नहीं पहुंचता। 

अब स्थिति यह है कि आरक्षण भारतीय समाज के जी का जंजाल बन गया है। वह इलाज नहीं है, उस से बीमारी मिट नहीं रही है। बल्कि उस से आंशिक रूप से दर्द का अनुभव नहीं होता। लोग उस के एडिक्ट हो गए हैं। एडिक्शन से पीछा छुड़ाने के लिए बीमारी का इलाज ढूंढना होगा। इस बीमारी का इलाज है सब को रोजगार, रोजगार का मूल अधिकार और उस अधिकार की शतप्रतिशत पालना। यह सब पूंजीवादी सामंती व्यवस्था में संभव नहीं है क्यों कि उस के लिए बेरोजगारी का समाप्त होना साइनाइड जैसा जहर है।