@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: पत्नी
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शनिवार, 6 जून 2009

एक दम निजि पोस्ट : शादी में जाना है

साली के जेठूत की शादी है।  कोटा में मेरे घर से पचपन किलोमीटर दूर नेशनल हाई-वे पर है, कस्बा अन्ता।  आज वहाँ बारात रवाना होने के पहले होने वाली आखरी पारंपरिक रस्में होंगी।  कल बारात रवाना होनी है जो कोई पाँच सौ किलोमीटर का सड़क मार्ग तय कर मध्यप्रदेश के नगर सागर जाएगी। निमंत्रण तो बारात में जाने का भी है, पर अभी तो घर से निकलने के पहले ही पसीने छूट रहे हैं।  अखबार में कल पर्यावरण दिवस का टेम्परेचर चिपका है, अधिकतम 44 डिग्री और न्यूनतम 32.8 डिग्री सैल्सियस।  हवाएँ चल रही हैं, वरना यह शायद दो-दो डिग्री ऊपर होता।  साली साहिबा का बहुत आग्रह है, जाना होगा। बच सकने का कोई मार्ग नहीं है।  शोभा (पत्नी) पहले ही मेरी डायरी देख चुकी है कि उस में आज कोई मुकदमा दर्ज नहीं है।

कल एक संबंधी को फोन किया तो कहने लगे कि वे तो बाजार में व्यस्त रहेंगे। मैं उन की पत्नी और बेटे (4वर्ष) को साथ ले जाऊँ। इधर गर्मी के कारण अखबारों में रोज छपता है कि प्रदूषित पानी और भोजन से बचें। मुझे पता है कि अन्ता में इस का कोई ध्यान नहीं रखा जाएगा। वही कुएँ का पानी कपड़े से छाना हुआ और बर्फ डाल कर ठंडा किया हुआ ही मिलना है।  मैं उन को यही कहा कि कल सुबह बता दूंगा।  मुझे बच्चे का ध्यान आता है, वह कैसे गर्मी बर्दाश्त करेगा। कस्बे में चलती लू और उड़ते बरबूळों की धूल।  हलवाई का बना भोजन।  शोभा कहती है उन्हें बच्चे का बिलकुल ध्यान नहीं है।  बीमार हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।  सुबह उन का फोन आता है। मैं तरकीब से मना कर देता हूँ कि अभी तो मेरा ही जाने का मन नहीं है।

लोग इतनी भीषण गर्मी में शादी क्यों कर रहे हैं? कोई अच्छा मौसम नहीं चुन सकते?  क्यों वे सैंकड़ा के लगभग लोगों की बारात ले कर 500-600 किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं? क्या लड़की वालों को यहाँ नहीं बुला सकते थे? इस सवाल का उत्तर तो वे दे चुके हैं कि वे लड़की वाले तैयार नहीं इतनी दूर आने को। 

अपना जाना तो कल ही तय हो चुका था।  जब हम साली जी के लिए एक अदद साड़ी खरीद लाए थे। अब जाना है तो जाना है।  घड़ी देखता हूँ, नौ बजने को है।  बस इस पोस्ट को प्रकाशित कर उठता हूँ। स्नान करना है, और कपड़े पहन निकल लेना है। आज सब काम की छुट्टी, न वकालत का दफ्तर और न ब्लागिरी। रात को जल्दी और बिना किसी लफड़े के लौट आए, और यहाँ कोई लफड़ा हाजिर न मिला तो टिपियाएँगे।  आज का दफ्तरी काम कल पर चढ़ जाएगा। बहुत से ब्लाग पढ़ने से छूट जाएंगे, और टिपियाने से  भी।  अब और आगे टिपियाना संभव नहीं है।  किचिन से आवाज नहीं लगाई जा रही है लेकिन मुझे पता है पारा चढ़ रहा है। कब थर्मामीटर बर्स्ट हो जाए भरोसा नहीं। अब चलता हूँ।  वापस लौट कर लिखता हूँ आज की दास्तान।।

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

बदलाव की बयार और जंग लगा ग्रामीण समाज

मेरे राजस्थान के जोधपुर नगर से एक खबर  है कि वहाँ पिता के देहान्त पर उन की लड़कियों ने उन की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार वैसे ही किया जिस तरह वे पुत्र हों।  कल एक प्रान्तीय चैनल ने इस खबर को बहुत बार दिखाया।  एक बहस भी चलाने का प्रयत्न किया जिस में एक पण्डित जी से बात चल रही थी कि क्या यह शास्त्र संगत है।  पण्डित जी ने पहले कहा कि यह तो सही है और शास्त्रोक्त है।  लेकिन जब उन से आगे सवाल पूछे गए तो उन्हों ने इस में शर्तें लादना शुरू कर दिया कि यदि भाई, पुत्र, पौत्र आदि न हों और कोई अन्य पुरुष विश्वसनीय न हो तो शास्त्रों को इस में कोई आपत्ति नहीं है।  पण्डित जी ने अपने समर्थन में विपत्ति काल में कोई मर्यादा नहीं होती कह डाला।  कुल मिला कर पण्डित जी बेटियों को यह अधिकार देने को राजी तो हैं लेकिन पुत्र और पौत्र की अनुपस्थिति में ही।  शायद उन को अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आने लगा हो।

लेकिन इस के बावजूद उन चारों बेटियों पर कोई असर नजर नहीं आया।  उन में से एक का कहना था कि हमारे पिता ने हमें बेटे जैसा ही समझा, बेटों जैसा ही पढ़ाया लिखाया और पैरों पर खड़ा किया।  हमने अपना कर्तव्य निभाया है।  मुझे आशा है लोग इस से सीख ले कर अनुकरण करेंगे।  बेटियों को बेटो से भिन्न नहीं समझेंगे।  और बेटियाँ भी खुद को पिता के परिवार में पराया समझना बंद करने की प्रेरणा लेंगी।  यह तो एक ऐसा परिवार था जहाँ पुत्र नहीं था।  लेकिन पुत्र के होते हुए भी बेटियों को यह अधिकार समान रूप से मिलने में क्या बाधा है? 

हालाँ कि इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है इस से पहले भी राजस्थान में यह हुआ है।  लोग इस घटना से सीख ले कर अनुकरण करेंगे तो यह परंपरा बन लेगी।  यह सही रूप में महिला सशक्तिकरण है।

यहीं राजस्थान के हाड़ौती के मालवा से लगे हुए क्षेत्र से एक खबर  है कि हजारी लाल नाम के एक व्यक्ति ने 20 बरस पहले किसी स्त्री से नाता किया था। जिस के कारण उसे गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया था।  बीस साल से वह निकट ही कोई दस किलोमीटर दूर अकलेरा कस्बे में रह रहा था, लेकिन गाँव नहीं जा पा रहा था।  बीस साल बाद हजारी लाल ने यह सोचा  कि अब तो गाँव बदल गया होगा।  गाँव के लोग उससे मिलते रहते थे, शायद उस के व्यवहार से उस ने यह अनुमान लगाया हो।  वह बीस साल बाद गाँव में पहुँचा तो भी गाँव निकाले के फरमान ने उस की आफत कर दी।  गाँव के लोगों ने उसे पीटा और एक कमरे में बंद कर दिया।  कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस गाँव पहुँची तो उस पर पथराव हुआ और देशी कट्टे से फायर भी। पुलिस ने अपने एक सहायक इंस्पेक्टर को घायल हो ने की कीमत पर हजारी लाल को गाँव के लोगों से छुड़ाया।

हम गाहे बगाहे अपने व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ लिखते हैं।  लेकिन हमारा समाज अभी भी व्यक्तिगत कानून की सत्ता को ही स्वीकार कर ता है और उस के लिए पुलिस से सामना करने को तैयार हो जाता है।  क्या कभी कहीं देश के इन गाँवों के जंग लगे समाज का मोरचा हटा कर उन्हें चमकाने के  लिए प्रयास करते लोग नजर आते है?

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

अवनीन्द्र को सरप्राइज और रेस्टोरेंट केवल परिवार के लिए

मैं, वैभव और पाबला जी तीनों पैदल ही अवनींद्र के घर की ओर चले।   रास्ते में पाबला जी ने बताया कि रायपुर से संजीत त्रिपाठी पूछ रहे थे कि द्विवेदी जी रायपुर कब आ रहे हैं।  संजीव तिवारी ने फोन पर बताया कि दुर्ग बार चाहती है कि मैं वहाँ आऊँ।  लेकिन वह कल व्यस्त रहेगा।  मैं ने रास्ते में ही गणित लगाई कि 30 को शाम पांच बजे मेरी वापसी ट्रेन है इसलिए उस दिन रायपुर जाना ठीक नहीं, हाँ दुर्ग जाया जा सकता है।   मैं ने उन्हें बताया कि कल रायपुर और परसों दुर्ग चलेंगे।  कोई दो-तीन सौ मीटर पर ही हम दूर संचार कॉलोनी पहुँच गए।  गेट पर पूछताछ पर पता लगा कि आखिरी इमारत की उपरी मंजिल के फ्लेट में अवनीन्द्र का निवास है।

निचली मंजिल के दोनों फ्लेट के दरवाजों के आस पास कोई नाम पट्ट नहीं था।  इस से यह पहचानना मुश्किल था कि किस फ्लेट में कौन रहता होगा।  ऊपर की मंजिल पर भी यही आलम हुआ तो गलत घंटी भी बज सकती है। ऊपर पहुंचे तो एक फ्लेट पर अवनींन्द्र के नाम की खूबसूरत सी नाम पट्टिका देख कर संतोष हुआ।  घंटी बजाने पर अवनीन्द्र की पत्नी ज्योति ने दरवाजा खोला।  मुझे और पाबला जी को देख वह आश्चर्य में पड़ गई।  मैं  ने मौन तोड़ा, पूछा-अवनीन्द्र है? हाँ कहती हुई उस ने रास्ता दिया।  अवनीन्द्र ड्राइंग रूम में मिला।  देखते ही जो आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता उस  के चेहरे पर दिखाई दी उसका वर्णन कर पाना संभव नहीं है।  मैं ने बताया ये पाबला जी हैं।  उस ने पाबला जी से हाथ मिलाये।  मेरे संदर्भ से पाबला जी और अवनींद्र फोन पर बतिया चुके थे।
चित्र में अवनीन्द्र, मैं और वैभव
मैं ने बताया, तुम्हें सूचना न देना और अचानक आ कर सरप्राइज देना पाबला जी की योजना का अंग था जिसे मैं ने स्वीकार कर लिया।  पानी आ गया।  ज्योति ने कॉफी के लिए पूछा। तो हमने हाँ कह दी। बातें चल पड़ी घर परिवार की।   इस बीच कुछ मीठा, कुछ नमकीन आ गया।  परिवार की बातों के बीच पाबला जी कुछ अप्रासंगिक होने लगे तो मैं चुप हुआ फिर भिलाई के बारे में पाबला जी और अवनींद्र बातें करते रहे।  शहर के बारे में, बीएसपी के बारे में, बीएसएनएल के बारे में  और भिलाई के एक शिक्षा केन्द्र बनते जाने के बारे में।  पता लगा कि कोटा के सभी प्रमुख कोचिंग संस्थानों की शाखाएँ भिलाई में भी हैं।  भिलाई को कोटा से जोड़ने का एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी था।  इन संस्थानों में कोटा के लोग काम कर रहे थे। ज्योति कॉफी ले आई। उस ने भोजन के लिए पूछा तो मैं ने कहा आज पाबला जी ने इतना खिला दिया है कि खाने का मन नहीं है।  कल शायद दुर्ग या रायपुर जाना हो, तो कल शाम को यहाँ खाना पक्का रहा।  उस ने उलाहना दिया कि मुझे वहीं उस के यहाँ रहना चाहिए था।  उस की बात वाजिब थी।  मैं ने बताया कि मुझे पाबला जी से वेबसाइट का काम कराना है तो वहीं रुकना सार्थक होगा।  उस की शिकायत का यह सही उत्तर नहीं था, शिकायत अब भी उस की आँखों में मौजूद थी।

हम अवनीन्द्र के यहाँ कोई डेढ़ घंटा रुके।  इस बीच अवनींद्र के बारे में मैं ने पाबला जी को बताया कि वह पढ़ने में शुरू से आखिर तक सबसे ऊपर रहा।  एक वक्त तो उस की हालत यह थी कि महिनों वह बिस्तर पर नहीं सोता था।  टेबल कुर्सी पर पढ़ते पढते तकिया टेबल पर रखा और उसी पर सिर टिका कर सो लेता। सुबह उठता तो हमें लगता कि जैसे वह जल्दी उठ कर नहा धो कर तैयार हो लिया है।  उस का राज बुआ ने बताया कि यह नींद से जागते ही मुहँ धोता है और बाल गीले कर, पोंछ तुरंत कंघी कर लेता है।  जिस से वह हमेशा तरोताजा रहता है।  मैं ने भी आज तक ऐसा विलक्षण विद्यार्थी नहीं देखा।  वहाँ से चलने के पहले पाबला जी ने अपने कैमरे से हमारे चित्र लिए।

हम वापस पाबला जी के यहाँ पहुँचे तो पाबला जी की बिटिया सोनिया (रंजीत कौर) से भेंट हुई। सुबह उस से ठीक से भेंट न हो सकी थी वह कब तैयार हो कर अपने कॉलेज चली गई थी हमें पता ही नहीं लगा।  वह बहुत छोटी लग रही थी।  मैं समझा वह ग्रेजुएशन कर रही होगी।  पता लगा वह मोनू से कुछ मिनट बड़ी है और अक्सर यह बात अपने भाई को जब-तब याद दिलाती रहती है।  वह एमबीए कर रही है।   पाबला जी ने संजीत और संजीव को मेरा कार्यक्रम बता दिया।  संजीव ने बताया कि वह सुबह कुछ वकीलों के साथ आएँगे।  कुछ ही देर में पाबला जी ने घोषणा की कि भोजन के लिए बाहर चलना है।  हम चारों मैं, पाबला जी, मोनू और वैभव वैन में लद लिए।  जिस रेस्टोरेंट में हम गए वह बहुत ही विशिष्ठ था। मंद रोशनी और धीमे मधुर संगीत में भोजन हो रहा था और सभी टेबलों पर परिवार ही हमें दिखाई दिए।  मैं ने पूछा तो बताया गया कि इस रेस्टोरेंट में बिना महिलाओं के प्रवेश वर्जित है।  मैं समझ गया कि यह सार्वजनिक स्थल पर शांति बनाए रखने का सुगम तरीका है।  हमारे एक लीडर का वक्तव्य याद आ गया कि किसी भी संस्था की कार्यकारिणी की बैठक में फालतू बातों को रोकना हो तो एक दो महिलाएँ सदस्याएं होना चाहिए।

हमारे साथ कोई महिला न थी फिर भी हम वहाँ थे।  पाबला जी ने बताया कि प्रवेश करने के पहले द्वार पर मैनेजर ने टोका था और उसे यह कहा गया है कि बिटिया पीछे आ रही है।  लेकिन बाद में फोन पर रेस्टोरेंट के संचालक से बात करने पर ही भोजन का आदेश लिया गया।  भोजन स्वादिष्ट था।  हम घर लौटे तो ग्यारह बजे होंगे।  इतना थक गए थे कि वेबसाइट का काम कर पाना संभव नहीं था।  उसे अगली रात के लिए छोड़ दिया गया।  वैभव मोनू के कमरे में चला गया।  मैं भी कुछ देर नेट पर बिताने के बाद बिस्तर के हवाले हुआ।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

अजित वडनेरकर के साथ चार घंटे

शब्दों के सफर वाले अजित वडनेरकर जी कोटा रह चुके हैं, और कोटा की कचौड़ियों के स्वाद से भली तरह परिचित हैं।  मैं ने जब उन से भिलाई जाने का उल्लेख किया तो उन्हें तुरंत ही कचौड़ियाँ याद आ गईं। हमारी योजना सुबह बस से चल कर शाम को भोपाल से छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने की थी।  लेकिन अजित जी ने कहा कि बस के भोपाल पहुँचने और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस पकड़ने में दो ही घंटों का अंतराल है जो बहुत कम है।  हमने योजना बदली और 27 जनवरी को सुबह निकलने के बजाय 26 की रात को ट्रेन से निकलने का मन बनाया और आरक्षण करवा लिया।  अब हमारे पास भोपाल में आठ घंटे थे।  अजित जी को बताया गया कि कचौड़ियाँ भोपाल पहुंचने की व्यवस्था हो गयी है,  पर वहाँ आप तक कैसे पहुंचेगी? बोले,  ट्रेन से उतर कर मेरे घर आ जाइए।

भोपाल में इतने कम अंतराल में अजित जी के घर जाने का अर्थ था किसी अन्य से न मिल पाना।  वैसे भी हमारे पास चार बैग होने से कहीं आना जाना दूभर था।  पर पल्लवी त्रिवेदी से मिलने की इच्छा थी, भोपाल जंक्शन के आस पास ही उन का ऑफिस होने से उन से मिल पाना संभव प्रतीत हो रहा था।  पर पता लगा कि वे राजस्थान यात्रा पर हैं और उसी दिन भोपाल पहुंचेंगी।  रवि रतलामी जी से मिल सकता था।  पर वे भी दूर थे।  अन्य के बारे में तो इस अल्प अंतराल में मिल पाने की सोचना भी संभव नहीं था।  मैं ने किसी को बताया भी नहीं।  मेरे साढ़ू भाई हॉकी रिकार्डों के संग्रहण के लिए विश्व प्रसिद्ध हॉकी स्क्राइब बी.जी. जोशी इस अंतराल में सीहोर उन के घर आने का निमंत्रण दे रहे थे।  पर उन से माफी मांग ली गई, अजित जी के यहाँ जाना तय हो गया।

26 को यात्रा से निकलने के पहले अजित जी की कचौड़ियों के साथ साथ भिलाई तक ले जाने के लिए दौ पैकेट लोंग के सेव भी लाए गए।  पता किया तो ट्रेन 22.30 के बजाय 23.30 पर आने वाली थी।  हम 23.10 पर ही स्टेशन पहुँच गए।  ट्रेन लेट होती गई और 27 जनवरी को 00.30 बजे उस ने प्लेटफार्म प्रवेश किया और एक बजे ही रवाना हो सकी।  ट्रेन चलते ही हम सो लिए।  आँख खुली तो सुबह हो चुकी थी और ट्रेन अशोक नगर स्टेशन पर खड़ी थी।  कॉफी की याद आई, लेकिन पैसेन्जर ट्रेन में कहाँ कॉफी?  बीना पहुँची तो सामने ही स्टाल पर कॉफी थी।  उतर कर स्टॉल वाले से कॉफी देने को कहा तो बोला 10 मिनट बाद बिजली आने पर।  मैं ने पूछा यहाँ पावर कट है?  बताया गया कि बिजली 10 बजे आएगी।  यानी भोपाल पहुंचने का समय हो चुका था।  ट्रेन भोपाल पहुंचने तक वडनेरकर जी का दो बार फोन आ गया।  स्टेशन पर गाड़ी रुकते ही पल्लवी जी का खयाल आया।  लेकिन घड़ी ने सब खयाल निकाल दिए।  ऑटोरिक्षा की मदद से वडनेरकर जी के घर पहुंचे तो दो बज चुके थे।  वापसी में मात्र चार घंटों का समय था।

सैकण्ड फ्लोर पर दो छोटे फ्लेट्स को मिला कर बनाया हुआ घर।  एक दम साफ सुथरा और सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया हुआ।  बरबस ही  आत्मीयता प्रदर्शित करते छोटे-छोटे कमरे।  कमरों में फर्श से केवल छह इंच ऊंचा फर्नीचर।  मैं ने फोन पर ही उन्हें बता दिया था कि हम दोनों बाप-बेटे मंगलवारिया हैं सो नाश्ते वगैरह की औपचारिकता न हो।  जवाब मिला था, कैसा नाश्ता? भोजन तैयार है।  जाते ही अजित और मैं बातों में मशगूल। भाभी हमारे लिए कॉफी ले आईं।  हमें प्रातःकालीन कर्मों से भी निवृत्त होना था।  कॉफी सुड़क कर जैसे ही मैं स्नानघर में घुसने लगा अजित जी को कचौड़ियाँ याद आ गई। बोले, मेरी कचौड़ियाँ? भाई एक तो निकाल कर दे ही दो। वैभव कचौड़ियों के पैकेट के लिए बैग संभालने लगा।  मैं ने पूछा- आप को तो पांच बजे नौकरी पर जाना होगा? तो बताया कि उन्हों ने सिर्फ मेरी खातिर आज अवकाश ले लिया है।

दोनों पिता पुत्र प्रातःकालीय कर्मों से निवृत्त हुए तो भोजन तैयार था।  हम दोनों और अजित बैठ गए।  दाल, सब्जियाँ, चपाती और देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ बासमती चावल, साथ में नमकीन और अचार। भूख चरम पर पहुंच गई।  हम भोजन के साथ बातें करते रहे।  अजित बता रहे थे कुछ दिनों पहले यात्रा के बीच ही अफलातून जी उन के मेहमान रह चुके हैं। उन के साथ बिताए समय के बारे में बताते रहे।  ब्लागरी और ब्लागरों के बारे में, कुछ भोपाल, कोटा और राजगढ़ जहाँ अजित का बचपन गुजरा के बारे में बातें हुई।  इस बीच हम जरूरत से अधिक ही भोजन कर गए।  तभी भाभी जी ने ध्यान दिलाया कि उन का पुत्र किस तरह पढ़ते पढ़ते सो गया है।  अजित देखने गए तो उसका चित्र कैमरे में कैद कर लाए।  भोजन के उपरांत भी हम बातें ही करते रहे। पता लगा भाभीजी अध्यापिका हैं और रोज 40 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापन के लिए जाती हैं।  पूरी तरह एक श्रमजीवी परिवार।  इस बीच अजित जी ने हमारे अनेक चित्र ले डाले। बातों में कब पाँच बज गए पता न चला। भाभी जी ने फिर गरम गरम कॉफी परोस दी।

अब चलने का समय हो चला था।  अजित के माता पिता सैकण्ड फ्लोर पर चढ़ने उतरने की परेशानी के चलते निकट ही ग्राउंड फ्लोर पर अपने घर पर निवास करते हैं। हम अपने सामानों की पैकिंग करने लगे, कोई जरूरी वस्तु छूट न जाए।  अजित वैभव को साथ ले कर पिता जी के घर खड़ी कार निकालने चल दिए। वे कार ले कर लौटे तो मैं ने अपने बैग उठाए। शेष सामान अजित का पुत्र उठाने लगा तो लगा वह घायल है। भाभी ने बताया कि वह दो दिन पहले ही वह बाइक पर टक्कर खा चुका है।  उस के पूरे शरीर पर चोटें थीं।  चोटें टीस रही थीं, जिस तरह वह चल रहा था लगा बहुत तकलीफ में है।  फिर भी वह सामान उठाने को तत्पर था।  मेरे पूछने पर भाभी ने बताया कि क्या क्या चिकित्सा कराई गई है।

जब भी मैं किसी को बीमार या चोटग्रस्त देखता हूँ और चिकित्सा के बारे में पता करता हूँ तो खुद बहुत तकलीफ में आ जाता हूँ।  मैं ने अपने घर आयुर्वेदिक चिकित्सा देखी और सीखी, बाद में होमियोपैथी सीखी, और उसे अपनाया तो घर में ही दवाखाना बन गया।  धीरे धीरे यह काम कब पत्नी शोभा ने हथिया लिया पता ही नहीं लगा। होमियोपैथी की बदौलत दोनों बच्चे बड़े हो गए कभी बिरले ही किसी डाक्टर या अस्पताल जाने का काम पड़ा। 

मैं ने भाभी को होमियोपैथिक दवा लिख कर दे दी।   कार आ चुकी थी, हम सामान सहित कार में लद लिए अजित, भाभी और उन का पुत्र साथ थे।  हम स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आने में मात्र दस मिनट थे।  अजित के पुत्र को चलने में तकलीफ थी।  मैं ने अजित जी को प्लेटफार्म  तक पहुँचाने की औपचारिकता करने से मना किया।  वे राजी हो गए। जाते जाते उन्हें यह जरूर कहा कि वे होमियोपैथी दवा आज ले कर बेटे को जरूर दें। उन्हों ने आश्वस्त किया कि वे जरूर देंगे।  अजित जी को विदा कर हम अपना सामान उठाए अपने प्लेटफार्म की ओर चले।  ऐसा लग रहा था जैसे हम अभी अभी अपना घर और परिजन छोड़ कर आ रहे हैं।

रविवार, 25 जनवरी 2009

वह, पति कब था

  • दिनेशराय द्विवेदी
वह,
पति कब था?

उस ने सिर्फ
हथिया लिया था
कब्जा/स्वामित्व
मेरे शरीर पर

मैं समझी थी
कम से कम
मकान और जमीन की
तरह ही शायद करे
मेरी देखभाल

लेकिन, औरत?
होती है
जीती जागती,
वह तो वस्तु भी नहीं

क्यों करे?
कोई और
उस की चिंता  

और मैं
नहीं समझ पायी
यही एक बात,

मुझे ही करना है
सब कुछ
मेरे लिए

जीने के लिए भी, और
मुक्ति के लिए भी। 


* * *  * * *  * * *  * * *  * * *  * * * 

शुक्रवार, 23 जनवरी 2009

जरूरी सरकारी कर्तव्यों में बाधा के चक्कर

कल जब मैं जिला न्यायालय से सड़क पार कलेक्ट्री परिसर में उपभोक्ता मंच की ओर जा रहा था तो रास्ते में टैगोर हॉल के बाहर पुराने स्कूल के जमाने के मित्र मिल गए, उन के साथ ही मेरा एक भतीजा भी था।  दोनों ही अलग अलग पंचायत समितियों में शिक्षा अधिकारी हैं।  दोस्त से दोस्त की तरह और भतीजे से भतीजे की तरह मिलने के बाद दोस्त से पूछा -यहाँ कैसे? जवाब मिला -मीटिंग थी।

अब? दूसरी मीटिंग है।  वे आपस में जो चर्चा कर रहे थे वे शायद मिड-डे-मील से संबंधित थीं।  मैं ने कहा तुम्हें भी अध्ययन के साथ मील में फंसा दिया।  हाँ अभी मील की मीटिंग से आ रहे हैं।  इस के बाद चुनाव की मीटिंग है, लोकसभा चुनाव की तैयारियाँ जोरों पर हैं।  मैं ने पूछा -और शिक्षा? तो उन का कहना था कि उस की मीटिंग परीक्षा परिणामों के उपरांत जून जुलाई में होगी।  वह यहाँ नहीं होगी।  प्रशासन को शिक्षा से क्या लेना देना?

वे और मैं दोनों ही जल्दी में थे, सो चल दिए अपने अपने कामों पर।

दोपहर बाद जब काम लगभग सिमट गया सा था, केवल एक अदालत से एक दस्तावेज हासिल करना भर रह गया था और आधे घंटे की फुरसत थी।  हम  हफ्ते भर बाद निकली साफ धूप का आनंद लेने एक तख्ते पर बैठे बतिया रहे थे।  पास वाले वरिष्ठ वकील बाहर गए हुए थे, उन के दो कनिष्ठ साथ थे।  एक कनिष्ठ जिस की पत्नी शिक्षिका हैं, सुनाने लगा....

"भाई साहब! मेरी पत्नी जिस स्कूल में अध्य़ापिका है वहाँ कुल तीन अध्यापिकाएँ हैं और पहली से ले कर पाँचवीं कक्षा तक कुल डेढ़ सौ विद्यार्थी।  तीन में से एक छह माह के लिए प्रसूती अवकाश पर चली गई है।  एक की ड्यूटी चुनाव के लिए जिला चुनाव अधिकारी के यहाँ लगा दी गई है।  अब एक अध्यापिका कैसे स्कूल को संभाले।  बीमार हो जाए तब भी स्कूल तो जैसे तैसे जाना ही होगा।  उसे बंद तो नहीं किया जा सकता।  इस बात को बताने के लिए वह शिक्षा अधिकारी के कार्यालय स्वयं आ भी नहीं सकती।  आए तो स्कूल कौन देखे?चिट्ठी पत्री को कोई महत्व नहीं है।

पास के गांव के स्कूल में चार अध्यापिकाएँ हैं और छात्र केवल नौ।  उस विद्यालय से एक अध्यापिका को अस्थाई तौर पर मेरी पत्नी वाले स्कूल में लगवा देने से काम चल सकता है।  मेरी पत्नी ने उस स्कूल की एक अध्यापिका को इस के लिए मना कर उस से लिखवा भी लिया है।  उस स्कूल के प्रधानाध्यापक ने भी उस पर अनापत्ति लिख दी है।  उस पत्र को  देने के लिए दो हफ्ते पहले शिक्षा अधिकारी के दफ्तर में मुझे जाना पड़ा शिक्षा अधिकारी ने हाँ भी कह दी। कहा एक दो दिन में आदेश आ जाएगा।  चार दिन में आदेश न आने पर मैं फिर उन से मिला।  तो कहने लगे, - मैं जरा कुछ अर्जेंट कामों में उलझ गया था।  आप कुछ देर रुको।  मैं वहाँ पौन घंटा रुका।  लेकिन शिक्षा अधिकारी फिर अपने कामों में भूल गए।  याद दिला ने पर बोले, -अभी आदेश निकलवाता हूँ।   बाबू को बुलवाया तो पता लगा कि वह जरूरी रिपोर्टें ले कर कलेक्ट्री गया हुआ है।  मुझे दो दिन बाद आदेश के बारे में पता करने को कहा गया है।  फिर चार दिन बाद कोई व्यवस्था न होने पर उन से मिला तो कहा,  बाबूजी अवकाश पर हैं आप को आने की जरूरत नहीं है आदेश दूसरे दिन अवश्य ही निकल जाएगा।  तीन दिन गुजरने पर भी जब आदेश नहीं आया तो मैं फिर वहाँ पहुँचा।  इस बार मुझे देखते ही शिक्षा अधिकारी बोले।  अरे! आप का आदेश अभी नहीं पहुँचा। ऐसा कीजिए आप बाबू जी से मिल लीजिए और खुद ही आदेश लेते जाइए।  मैं बाबू के पास पहुँचा तो वह मुझे वहीं बैठा कर फाइल ले कर शिक्षा अधिकारी के यहाँ गया। बीस मिनट में वापस लौटा।  फिर आदेश टाइप किया,  उस पर हस्ताक्षर करवाकर लाया और डिस्पैच रजिस्टर में चढ़ा कर मुझ से पूछा कि आप कौन हैं?  बताने पर उस ने आदेश देने से मना कर दिया कि आप विभागीय कर्मचारी नहीं है। आदेश डाक से भिजवा देंगे, कल आप को मिल जाएगा।

इस तरह मेरे चार-पांच चक्कर लगाने के बाद भी आदेश नहीं मिला, अब देखते हैं कि कल मिलता है या नहीं।" 

मैं ने उस से पूछा -शिक्षा अधिकारी कौन है? तो उस ने मेरे मित्र का नाम बताया।  मैं भौंचक्का रह गया।

मैं ने  शाम को अपने मित्र से बात की तो कहने लगा।  यार! भैया, बहुत चक्कर हैं, इस नौकरी में।  पहले देखना पड़ता है कि  इस तरह के आदेश से किसी को कोई एतराज तो नहीं है।  वरना यहाँ जिला मुख्यालय पर टिकना मुश्किल हो जाए।  पहले तुमने बताया होता तो उसे यहाँ तक आने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

आज मैं ने उस कनिष्ठ वकील से पूछा कि क्या वह आदेश पहुँच गया? तो उस ने बताया कि आदेश रात को ही चपरासी घर पहुँचा गया था।

मुझे अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि यह सामान्य प्रशासन का आदेश देना और इस तरह की व्यवस्थाएँ करना तो उस का खुद का कर्तव्य था।  इस के लिए उस की माहतत शिक्षिका के पति को चार-पाँच चक्कर क्यों लगाने पड़े? और पहली ही बार में वह आदेश जारी क्यों नहीं कर दिया गया।  वे कौन से चक्कर हैं जो जरूरी विभागीय कर्तव्यों में इस तरह बाधा बन जाते हैं।

भारत के भावी कर्णधारों की परवाह कौन कर रहा है?

रविवार, 30 नवंबर 2008

कहाँ तक गिरेगी राजनीति?

राजस्थान में 4 दिसम्बर को विधानसभा के लिए मतदान होगा। मेरे शहर कोटा में दो पूरे तथा एक आधा विधानसभा क्षेत्र है जो कुछ ग्रामीण क्षेत्र को जोड़ कर पूरा होता है। वैसे तो इस इलाके को बीजेपी का गढ. कहा जाता है। लेकिन इस बार कुछ अलग ही नजारा है।

मेरे स्वयं के विधानसभा क्षेत्र से और एक अन्य विधानसभा क्षेत्र से राजस्थान के दो वर्तमान संसदीय सचिव बीजेपी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं। दोनों को संघर्ष करना पड़ रहा  है। संघर्ष का मूल कारण उन दोनों का जनता और कार्यकर्ताओँ के साथ अलगाव और एक अहंकारी छवि का निर्माण कर लेना है।

कुछ दिन पहले मुझे दो अलग अलग लोगों के टेलीफोन मिले। दोनों ही बीजेपी के सुदृढ़ समर्थक हैं। दोनों ने ही बीजेपी उम्मीदवारों को हराने के लिए काम करने की अपील मुझे की। कारण पूछने पर उन्हों ने बताया कि भाई साहब इन दोनों ने राजनीति को अपनी घरेलू दुकानें बना लिया है, ये दुकानें बन्द होनी ही चाहिए। इस का अर्थ यह है कि बीजेपी की घरेलू लडाई को जनता तक पहुँचा दिया गया है।

चुनाव ने नैतिकता को इतना गिरा दिया है कि एक घोषित संत मेरे विधानसभा क्षेत्र में निर्दलीय चुनाव में खड़े हैं। ब्राह्मणों से उन्हें वोट देने की अपील की जा रही है। कल तो हद हो गई कि बीजेपी के अनेक पदाधिकारी पार्टी से त्यागपत्र दे कर संत जी के पक्ष में खड़े हो गए। अपनी लुटिया को डूबते देख कल ही एक तथाकथिक संत ने बीजेपी उम्मीदवार का अपने ठिकाने पर स्वागत करते हुए घोषणा कर दी कि संसदीय सचिव भले ही बनिए हैं लेकिन इन की पत्नी तो ब्राह्मण है इस लिए सभी ब्राह्मणों को इन्हें ही वोट देना चाहिए। मैं ने चुनावी राजनीति के इतना गिर जाने की उम्मीद तक नहीं की थी।

मंगलवार, 18 नवंबर 2008

शाम की दावत और भांवरें

सगाई समारोह से निकले तो दोपहर का पौने एक बज चुका था। कुछ देर में ही लंच शुरू होने वाला था। मैं होटल के कमरे में पहुँचा तो  वहाँ नजारा कुछ और था। पूरा कमरा हमारी ससुराल से कमरा खचाखच भरा था।मैं जैसे घुसा था वैसे ही उलटे पांव बाहर निकला। मैं ने सोचा शहर में किसी से मिल लिया जाए। होटल से बाहर निकलता उस से पहले ही पकड़ा गया। मेहमान आते जा रहे थे। अधिकांश परिचित और संबंधी। उन से बात करना भी तो उपलब्धि थी। हर एक से नयी नयी सूचनाएँ मिलती थीं। उन के साथ होटल के रिसेप्शन पर ही बैठ गया। बातें करता रहा और साथ साथ सुडोकू भी। उस दिन के दोनों अखबारों के सुड़ोकू हल करते करते लंच का बुलावा आ लिया। 

लंच के लिए जमीन पर पट्टियाँ लगी थीं। पत्तलें पत्तों स्थान पर कागज की थीं और दोने भी वैसे ही। भोजन मे कत्त थे, बाफले थे, चावल थे, दाल थी, गट्टे की सब्जी थी और थी हरे धनिये की चटनी। (इन सब की खसूसियत के लिए एक अलग पोस्ट की जरूरी है, वह फिर कभी।) मैं ने अपने लिए बिना घी का बाफला मंगा लिया। सब कुछ बहुत स्वादिष्ट था। अपनी खुराक से कुछ कम ही खा कर उठ लिए। फिर भी खाते ही रात की अधूरी नींद हावी होने लगी। हम खाने आखिरी पंगत (पंक्ति) में थे। होटल के अपने तल पर पहुँचे तो हॉल में मण्डप की कार्यवाही शुरू हो चुकी थी। देवी-देवताओं, पूर्वजों का विवाह में सम्मिलित होने के लिए आव्हान किया जा रहा था। यहाँ हवन होना था, और उस के बाद दुल्हिन के माता-पिता, भाई-भाभी जो पूजा में बैठे थे उन्हें और दुल्हिन और उस के भाई बहनों को कपड़े आदि की पहरावनी होनी थी। हमारा वहाँ कोई काम न था। महिलाओं को वहाँ होना था। हम ने महिलाओं को वहाँ भेजा और खुद बिस्तर के हवाले हो लिए। शाम को  पांच बजे तक मण्डप का काम चलता रहा। तब तक हमने सोने की कोशिश की। लेकिन शादी और निद्रा दोनों एक दूसरे के शत्रु हैं। कोई न कोई आता रहा, जगाता रहा। शाम को उठ कर कॉफी पी और फ्रेश हो कर नीचे आए तो जहाँ शादी की मुख्य दावत होनी थी वहाँ तैयारियाँ चल रही थीं। हम शहर घूमने निकल गए। बाजार देखा। रविवार होने के बावजूद रौनक थी। अभी साप्ताहिक अवकाश की आदत झालावाड़ के बाजार को आम नहीं हुई थी। पान खाया, बींदणी और सालियों के लिए बंधवाया। वापस आए तो सभी महिलाएँ सांझ की दावत के लिए सजने लगी थीं।  कमरे पर पहुँचे तो सलहज अपनी ननदों को विदाई उपहार दे रही थी। उसे पता था कि सब भांवर के वक्त ही निकलना शुरू कर देंगे।

आठ बजे करीब दावत शुरू हो गयी। वहाँ आधे लॉन में बूफे की व्यवस्था थी, आधे में दूल्हा-दुल्हिन के लिए मंच सजा था। हम घूमते हुए देखते रहे क्या क्या है दावत में। नौ बजे करीब जब आधे से अधिक लोग भोजन कर चुके थे तब बारात आई, तोरण मारा गया। दूल्हे को मंच पर लाया गया। वहीं उस के कलश बंधाया गया। फिर वरमाल हुई। हमने इस बीच भोजन पर हाथ साफ करना शुरू किया। वहीं हमारे एक मुवक्किल मिल गए हमें अपनी बाइक पर बिठा कर घर ले गए। हमें  मोबाइल चार्ज करना था यह भी लोभ था कि एक बार नेट देख लेंगे। उन के यहाँ जा कर नेट पर मेल देखी भर, एक दो जरूरी मेल का जवाब दिया अंग्रेजी में, हिन्दी टाइपिंग उपलब्ध नहीं थी। वापस आ गए। दावत का अंत चल रहा था। आते जाते रास्ते में सर्दी लगी थी।खुद भी कॉफी पी और छोड़ने आने वाले को भी पिलाई। कमरे पर पहुँचे तो ससुराल का कुनबा दूल्हे-दुल्हिन की पगपूजा में देने वाले उपहार बींदणी के हवाले कर अकलेरा जा चुके थे। हमारे साथ आई सालियाँ भी उन के साथ हमारे ससुर जी से मिलने के लिए उन के साथ चली गई थीं। कमरा खाली था। रात के एक बज रहे थे। हम वहीं सो गए। सुबह तीन बजे नींद खुली तो पीछे से पंडित जी की आवाज सुनाई दी। नव वर-वधू को गृहस्थी के गुर ऊंची आवाज में सिखाए जा रहे थे। यानी पगपूजा का वक्त हो चला था। बींदणी को उठा कर वहाँ भेजा। साढ़े चार बजे वर-वधू के साथ ऊपर आई तो आगे आगे ढोल बज रहा था। नींद खुल गई। वधू एक कमरे में चली गई, वस्त्र परिवर्तन के लिए। दुल्हे को हॉल में बिठा दिया। करीब एक घंटा लगा। वर-वधू की विदाई का समय हुआ तो वर की जूतियाँ गायब। यही एक अंतिम रस्म रह गई थी। खैर,  कुछ दे दिला कर सालियों से जूतियाँ वापस मिलीं। इस बीच हम फ्रेश हो लिए। इधर वर-वधू की विदाई हुई उधर हम ने अपना सामान अपनी कार में रखा और रात वाले मुवक्किल के घर आए। रात को मोबाइल वहीं छूट गया था। वहाँ चाय पीनी पड़ी। रवाना होते होते सात बज रहे थे।

पूरी शादी में जो खास बात थी कि लेन-देन, दान दहेज का प्रदर्शन न हुआ। वह कुछ खास हुआ भी न था। यह एक अच्छी बात थी। इन के दिखावे से समाज में प्रतियोगिता होती है और इन्हें बढ़ावा मिलता है। बहुत सी परंपराओँ का निर्वाह किया गया था। लेकिन फिर भी वह आनंद नहीं था जो तेंतीस बरस पहले हमारी शादी के वक्त में था। सादगी बहुत कम थी लेकिन आनंद बहुत था। कभी मौज आई तो उस शादी की दास्तान भी आम होगी।

गुरुवार, 13 नवंबर 2008

शादी के पहले टूटी सगाई

भगवान् विष्णु सदा की भांति अपनी ससुराल क्षीर सागर में अवकाश बिता कर लौटे। इस दिन को इतना शुभ मान लिया गया है कि चार माह से इन्तजार कर रहे जोड़े बिना ज्योतिषी की राय के ही इस दिन परिणय संस्कार के लिए चुन लेते हैं। इस कारण शादियाँ बहुत थीं। नगरों में कोई वैवाहिक स्थल ऐसा नहीं था जहाँ बैंड नहीं बज रहा हो। मुझे भी शादी में जाना पड़ा। शादी थी मेरी बींदणी शोभा के चचेरे भाई की पुत्री की। पुरानी प्रथा जो लगभग पूरे विश्व में सर्वमान्य रही है कि शादी कबीले के भीतर हो लेकिन गोत्र में नहीं, उस का पालन हम आज भी 90 से 95 प्रतिशत तक कर रहे हैं। कन्या के विवाह योग्य होते ही गोत्र के बाहर और कबीले में छानबीन शुरू हो जाती है और ज्यादातर मामले वहीं सुलझ लेते हैं।

इस कन्या का मामला भी इसी तरह से सुलझा लिया गया था। कन्या के माता-पिता दोनों अध्यापक हैं और कन्या भी स्नाकतोत्तर उपाधि हासिल करने के उपरांत बी.एड. कर चुकी थी। कबीले (बिरादरी) में ही लड़का भी मिल गया। दोनों के माता पिता ने बात चलाई लड़की देखी-दिखाई गई और तदुपरांत सगाई भी हो गई तकरीबन एक-डेढ़ लाख रुपया खर्च हो गया। शादी की तारीख पक्की हो गई। निमंत्रण कार्ड छपे। टेलीफून मोबाइल की मेहरबानी कि होने वाले दुल्हा-दुलहिन रोज बात करने लगे।

एक दिन शाम को अचानक पिता के मोबाइल फून की घंटी बजी। पता लगा होने वाले दूल्हा होने वाली दुलहिन से बात करना चाहता है।पिता ने फून बेटी को दे दिया, बेटी फून ले कर छत पर चली गई। करीब पन्द्रह मिनट बाद वापस लौटी तो उस की आँखें लाल थीं और गले का दुपट्टा आँसुओं से भीगा हुआ। माँ ने पूछना शुरू किया तो, वह कुछ न बोले। माँ उसे एक तरफ ले गई। तरह तरह की बातें की। आखिर बेटी ने रोते रोते बताया कि मम्मी ये शादी तोड़ दो वरना हो सकता है अगले साल मैं जिन्दा न रहूँ। बात क्या है? पूछने पर कहने लगी -उन का पेट बहुत बड़ा है। वह कभी नहीं भरेगा। माँ-बाप ने तुरंत निर्णय किया और सम्बन्ध तोड़ दिया। शादी के निमंत्रण जो छप चुके थे नष्ट कर दिए गए। लड़के वालों को संदेशा भेजा कि जो सामान सगाई में उन्हें दिया था भलमनसाहत से वापस लौटा दें। सामान कुछ वापस आया कुछ नहीं आया। पर फिर से लड़के की तलाश शुरू हो गई।

आखिर कबीले के बाहर मगर ब्राह्मण समुदाय में ही एक संभ्रान्त परिवार में लड़का मिला। परिवार पूर्व परिचित था। सारी खरी-खोटी देख ने के उपरांत शादी तय हो गई। साले साहब सपत्नीक आ कर निमन्त्रण दे गए थे, तो हमें जाना ही था। बींन्दणी की दो बहनें भी शनिवार को दोपहर तक आ गईं। अदालत में दो दिनों का अवकाश था ही। करीब तीन बजे दोपहर अपनी कार से चल दिए झालावाड़ के लिए। हमें वहाँ के होटल द्वारिका पहुंचना था। जहाँ शादी होनी थी।

कोटा से 20 किलोमीटर दूर नदी पड़ती है, आलनिया। इस पर बांध बना है पूरे साल बांध से रिसता हुआ पानी धीरे धीरे बहता रहता है। इस नदी के पुल से नदी किनारे दो किलोमीटर दूरी पर प्रस्तर युग की गुफाएं हैं जिन में प्रस्तरयुग की चित्रकारी देखने को मिलती है। पुल पार करते ही सड़क किनारे ही नाहरसिंही माता का मंदिर बना है। प्राचीन मातृ देवियों के नाम कुछ भी क्यों न हों आज वे सभी दुर्गा का रूप मानी जाती हैं उसी तरह उन की पूजा होती है। मंदिर के सामने ही जीतू के पिता का ढाबा है। जीतू जो मेरा क्लर्क है, उसे हम घर पर सुरक्षा के लिए छोड़ आए थे। उस के ढाबे पर गाड़ी रोक कर उन्हें बताया कि वह अब सोमवार शाम ही लौटेगा। मेरे साथ जा रही तीनों देवियाँ सीधे माता जी के दर्शन  करने चली गईं। पीछे पीछे मैं भी गया। वापस लौटे तो चाय तैयार थी। कुल मिला कर आधे घंटे का विश्राम पहले 20 वें किलो मीटर पर ही हो गया। शेष बचे 60 किलोमीटर वे हम ने अगले एक घंटे में तय कर लिए और पाँच बजे हम होटल द्वारिका में थे। (जारी)

बुधवार, 12 नवंबर 2008

युद्ध विराम में दाल-मैथी की रेसिपी

मैं ने अपनी थकान का उल्लेख किया था। लेकिन चर्चा हुआ खाने का। खाने के मामले में जीभ और पेट दोनों में तालमेल का होना जरूरी है वर्ना इन दोनों की घरेलू लड़ाई गज़ब ढाती है। इस युद्ध में थकान और अनिद्रा सम्मिलित हो जाए तो फिर मैदान का क्या कहना? उस में राजस्थान की प्रसिद्ध हल्दीघाटी की तस्वीर दिखाई देने लगती है। फिर लड़ाई अंतिम निर्णय तक जारी रहना जरूरी है। या तो ये जीते या वो, राणा जीते या भीलों के साथ जंगल चले जाएँ और गुरिल्ला युद्ध जारी रखें। हमारा हाल कुछ हल्दीघाटी ही हो रहा है। यह गुरू नानक की दुहाई जो एक युद्ध विराम मिल गया है घावों की दुरूस्ती के लिए। देखते हैं कल के इस युद्ध-विराम का कितना लाभ हमारी ये हल्दी-घाटी उठा पाती है।

मैं सोचता था, दाल-मेथी की रसेदार सब्जी जैसी सादा और स्वादिष्ट सब्जी तो सभी को पता होगी। मगर यहाँ तो उस की भी रेसिपी पूछने वालों की कमी नहीं। दीदी लावण्या ( लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्`), रंजना जी [रंजू भाटिया] और pritima vats ने तो अनभिज्ञता प्रकट की और रेसिपी की मांग कर डाली और ताऊ रामपुरियाविष्णु बैरागी जी ने उस की तारीफ की। ज्ञान जी Gyan Dutt Pandey बोले -हम होते तो खिचड़ी खाते! पर ऐसे में मैं इस मौसम की मैथी-दाल ही पसंद करता। खिचड़ी जरा थोड़ी सर्दी कड़क होने पर अच्छी लगती।

अब हमें कोई चारा नहीं सूझ रहा था कि करें तो क्या करें? कि देवर्षि नारद ने मार्ग सुझाया कि मैं हर मामले में नारायण! नारायण! करते भगवान् विष्णु की शरण लेता हूँ,  तुम भी किसी को तलाशो।  सो हम पहुँचे देवी (शोभा) की शरण। उन से अपनी विपत्ति का हल पूछा? वे किसी तरह बताने को तैयार नहीं। आखिर तीन किस्तों में सुबह-दोपहर-शाम में हम ने उन से दाल-मैथी का राज जाना। आप को बताएँ इस शर्त पर कि अगर बनाएँ तो खाएँ और परिवार को खिलाएँ जरूर और फिर बताएँ कि कैसी लगी?

तो बस आप ले लीजिए 150 ग्राम मूंग की छिलके वाली दाल और सब्जी वाले से खरीदिए एक पाव यानी 250 ग्राम जितनी हो सके उतनी ताजा मैथी की हरी पत्तियाँ तथा एक टुकड़ा अदरक। मैथी में यदि डंठल अधिक हों तो कठोर-कठोर डंठल तोड़ कर निकाल दें और मैथी को चलनी में डाल कर नल चला दें पानी से धुल जाएगी। उस में हाथ न चलाएँ नहीं तो उस का स्वाद कम हो सकता है। अब मैथी को चाकू से काट कर बारीक कर लें।  मसालों में नमक, लाल मिर्च, जीरा और हींग आप की रसोई में जरूर होंगे। इन में से कुछ न हो तो पहले से व्यवस्था कर लें।  प्रेशर-कुकर में दाल के साथ स्वाद के अनुरूप नमक डाल कर अपनी रुचि और कुकर की जरूरत के माफिक न्यूनतम पानी डाल कर पकाएँ। एक सीटी आने पर कुकर को उतार लें, भाप निकाल कर उस का ढक्कन खोल दें। उस में मैथी की पत्तियाँ और एक अदरक के टुकड़े का कद्दकस पर कसा हुआ बुरादा डालें और एक बार उबल जाने दें। बस थोड़ी देर में सब्जी तैयार होने वाली है। इस से आगे दो रास्ते हैं।

यदि आप तेल-घी का तड़का पसंद नहीं करते तो आँच पर से उतार कर उस में स्वाद के अनुसार मिर्च डाल दें और एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग को एक चाय चम्मच भर पानी में घोल कर सब्जी में डाल कर चम्मच चला दें। बस सब्जी तैयार है। सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

दूसरा अगर तड़का लगाना हो तो खाली भगोनी में एक चम्मच देसी-घी डालें और गरम होने पर जरूरत माफिक जीरा डालें उस के सिकने पर पहले से पीस कर चूर्ण की गई एक चने की दाल के टुकड़ा बराबर सबसे अच्छी वाली हींग डाल दें और दो सैंकड में उस भगोनी में कुकर से दाल-मेथी डाल दें। चम्मच से चला कर उतार लें और वैसे ही सर्दी में गरम-गरम परोसें और सादा चपाती या पराठों के साथ खाएँ।

यह तो हुई दाल-मैथी की रेसिपी। है न बहुत सादा। शोभा ने इसे भी तीन किस्तों में बताया तो मुझे भी लगा कि ये भी कोई रेसिपी है। पर स्वादिष्ट इतनी कि बस पेट की खैर नहीं। फिर हमारे बचपन की तरह ऊँची कोर की थाली के एक ओर किसी चीज की ओट लगा कर नीचे रह गए हिस्से की और रसीली दाल-मैथी परोसी जाए और उसी थाली में रोटी या पराठा रख कर खाया जाए तो मजा कुछ और ही है। साथ में एक नए देसी गुड़ का टुकड़ा हो और मिर्च स्वाद में कम रह जाने में ऊपर से सूखी पूरी लाल मिर्च को हाथ से चूरा कर सब्जी में डाल कर खाएँ तो लगे कि वैकुण्ठ की डिश जीम रहे हैं।

और PD को कह रहा हूँ कि यह भी उन्हें यम्मी पोस्ट ही लगेगी। आप को कैसी लगी? जरूर बताएँ। आगे बताएँगे रहा हुआ मुख्यमंत्री के चुनाव क्षेत्र में हुई शादी का हाल।

मंगलवार, 11 नवंबर 2008

शादी की थकान का दिन

आखिर एक छोटा सा सफर कर के, एक विवाह में शामिल हो, वापस घर पहुँच गए। एक तो पेशा ऐसा कि उस में बाहर जाना नुकसानदेह होता है। अवकाश का दिन भी अपने ऑफिस के काम का होता है। पूरे सप्ताह और पूरे माह कितना ही काम इकट्ठा होता रहता है जो अवकाश के पल्ले बांध दिया जाता है। अब अगर दो अवकाश एक साथ बाहर चले जाएँ तो उस का दबाव तो बन ही जाता है। नतीजा यह कि सोमवार सुबह नौ बजे जब घर पहुँचे तो हालत खराब थी। रात को मुश्किल से दो घंटे भी सोना नसीब नहीं हुआ था ऊपर से ठंड और खा गए, सर चकरा रहा था। घर पहुँचते ही अदालत की डायरी संभाली तो कुछ मुकदमे ऐसे थे जिन में हाजिर रहना आवश्यक था। इस लिए स्नान किया और कुछ नाश्ता कर के अदालत को चल दिए। श्रीमती जी (शोभा) की हालत शायद मुझ से भी बुरी थी। एक तो जब से कार्तिक लगा है वह मुहँ अन्धेरे ही स्नान कर रही है। अब तक मैं उसे टोकता रहता था और वह इस से दूर रहती थी। इस बार मैं ने उसे कुछ नहीं कहा तो वह यह सब कर रही है।  दूसरे वह रात को बिलकुल ही नहीं सोई थी तो उस ने आते ही बिस्तर पकड़ लिया था। अदालत के लिए निकलने के पहले उसे जगा कर कहना पड़ा कि वह गेट और दरवाजे लगा ले।

इस बीच जीजाजी का फोन आ गया था कि उन की माता जी की बरसी है तो हमें दोपहर का भोजन वहीं करना है। यूँ कुछ तला खाने की इच्छा नहीं थी, फिर भी सोचा कि अदालत से जल्दी आ कर तीन बजे करीब भोजन कर लिया जाएगा। फिर खा कर नींद निकाल ली जाएगी। लेकिन सोचा कभी हुआ है? अदालत में ढाई बजे लगा कि अभी एक घंटा और लग ही जाएगा। तो जीजाजी को फोन कर के मना किया कि मैं अभी न आ सकूँगा। वहाँ से छुट्टी मिली कि मैं कभी भी आ सकता हूँ। दिन भर अदालत में नींद से अलसाया काम करता रहा। बेचारी नींद उसे जगह नहीं मिल रही थी तो तीन बजते-बजते वह भी गायब हो गई। एक मुकदमे में एक गवाह से शाम चार बजे जिरह शुरु हई तो अदालत समझ रही थी कि पन्द्रह मिनट का काम है। पर गवाह बिलकुल फर्जी निकला और उस से अपना पक्ष जितना साबित कर सकते थे करवा लिया। पोने पाँच बजे अदालत पूछने लगी कि यदि और समय लगना हो तो अगली पेशी तक के लिए जिरह डेफर कर दी जाए। पर हम पूरी करने पर तुल गए और पाँच बजे छूटे।

घर पहुँचे तो पता लगा अभी तक श्रीमती शोभा जी बिस्तर में हैं। हमें अहसास हुआ कि कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी बीमारी ने घऱ किया हो। पर पता लगा कि दिन में उन्हें भी कुछ आगतों का स्वागत करना पड़ा। उन का भी जीजाजी के यहाँ जाने का मन नहीं था। खैर मुझे तो जाना ही था। मैं कह कर गया कि मैं वहाँ से कुछ भी खा कर नहीं आऊंगा, वह खाने की तैयारी रखे। मुझे वापस लौटने में घंटे भर से अधिक लगा। वहाँ से कुछ खाद्य सामग्री साथ आयी। फिर शोभा ने चपाती और मैथी-दाल की रसेदार सब्जी बनाई। दो दिन में विवाह की दावतों के सब पकवान फीके पड़ गए। फिर हमारा दफ्तर चालू हो गया। रात को बारह बजे ही सो पाए।

यह था,  शुद्ध ब्लागरी वाला आलेख। आप को विवाह और मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के चुनाव क्षेत्र की एक वैवाहिक मेहमान की रिपोर्ट पेश करेंगे अगली कड़ी में। आज यहीं से रुखसत होते हैं। सब को राम! राम!

मंगलवार, 21 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप क्या पसंद का मामला नहीं है?

मैं ने लिव-इन के बारे में कानूनी पहलू रखे। लेकिन इस संबंध के लिए एक गंभीर और महत्वपूर्ण सोच की तलाश में था। मैं पढ़ता रहा और पढ़ता रहा। मुझे जो पहला आलेख इस विषय पर गंभीरता के साथ विमर्श करता हुआ लगा, वह भोपाल के एक पत्रकार ब्लॉगर अजय का था। अजय ने यह आलेख अपने मित्रों और सहकर्मियों के साथ लम्बी बहस और इस विषय पर बहुत कुछ पढ़ने के बाद लिखा है। मैं उन के इस आलेख से बहुत प्रभावित हुआ और उन के तर्कों से सहमत भी।
मैं अजय से परिचित नहीं हूँ, लेकिन उन के अंग्रेजी ब्लॉग कैफे चॉट (cafechat) पर जो कुछ उन्हों ने इस संबंध में लिखा है वह बहुत महत्वपूर्ण है।
वे प्रश्न करते हैं कि क्या हम ने वास्तव में इस लिव-इन संबंध को समझते हैं? इस के बाद करीब पन्द्रह प्रश्नों को सामने रखते हुए अंत में कहते हैं कि क्या इस संबंध अर्थ यह है कि यह आवश्यक रूप से शारीरिक संबंधों के साथ आरंभ होता है? और यही वह बात है जो इस शोरगुल के पीछे खड़ी है या कथित विचारकों के जेहन में है। वे कहते हैं कि इस तरह आप विवाहपूर्व और विवाहेतर संबंधों को कानूनी शक्ल दे देंगे। पर क्या इस तरह के संबंध कानूनी शक्ल   दिए बिना भी कानून के अस्तित्व में नहीं है? और क्या इसे कानून की शक्ल दे देने के बाद भी बने नहीं रहेंगे? यदि हम भारत में किए गए सर्वेक्षणों को देखें तो आप के जबड़े घुटनों पर आ जाएंगे।
उन्होंने तथ्य प्रस्तुत करते हुए अनेक प्रश्न सामने रखे हैं।
जैसे ....
क्या गारंटी है कि पुरुष विवाह होने के बाद अपनी संगिनी को धोखा नहीं देगा?
क्या विवाह दो ऐसे व्यक्तियों को जो एक दूसरे के पसीने की गंध से वाकिफ नहीं उन्हें साथ सोने को कह देता है। क्या इसे पसंद का मामला नहीं होना चाहिए।
इस तरह के अनेक प्रश्नों पर वे विचार करते हैं। यदि आप को इस विषय में रुचि है और अंग्रेजी पढ़ने में आप को कोई परेशानी नहीं है तो आप को यह आलेख अवश्य ही पढ़ना चाहिए।  
आप चाहें तो यहाँ Is It Not A Matter Of Choice? पर जा कर उसे स्वयं पढ़ सकते हैं। हालांकि वे जो लिख रहे हैं यह उस का पहला भाग है। मैं समझता हूँ सभी भाग रोचक, महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक होंगे।

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

लिव-इन-रिलेशनशिप 65% से अधिक भारतीय समाज की वास्तविकता है

समाज और लोग कितना ही नाक भौंह सिकोडें, कितने ही कुढ़ लें और कितनी ही आलोचना कर लें। लिव-इन-रिलेशन (सहावासी) रिश्ता अब एक ठोस वास्तविकता है, इस नकारा जाना नामुमकिन है। विवाह जहाँ एक सामाजिक बन्धन है वहीं इस रिश्ते में सामाजिक मुक्ति है। न कोई सामाजिक दायित्व है और न ही कोई कर्तव्य। कोई एक दूसरे के लिए कुछ दायित्व समझता भी है, तो बिना किसी दबाव के। एक पुरुष और एक स्त्री साथ रहने लगते हैं। वे किसी सामाजिक और कानूनी बंधन में नहीं बंधते। फिर भी उन के बीच एक बंधन है। क्या चीज  है? जो उन्हें बांधती है। यह अब एक शोध का विषय हो सकता है। इस विषय पर सामाजिक विज्ञानी काम कर सकते हैं। "भारतीय समाज में स्त्री-पुरुष के बीच सहावासी संबंध" समाज विज्ञान के किसी विद्यार्थी के लिए पीएचडी का विषय हो सकता है। हो सकता है कि किसी विश्वविद्यालय ने इस विषय का पंजीयन कर लिया ह,  न भी किया हो तो शीघ्र ही भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए सहावासी संबंध शोध के लिए लोकप्रिय होने वाला है और अनेक लोग इसे पंजीकृत करवाने वाले हैं।

समाज सदैव से एक जैसा नहीं रहा है। आदिम युग से ले कर आज तक उसने अनेक रूप बदले हैं। समाज की इकाई परिवार भी अनेक रूप धारण कर आज के विकसित परिवार तक पहुँचा है। पुरुष और स्त्री के मध्य संबंधों ने भी अनेक रूप बदले हैं और अभी भी रूप बदला जा रहा है। सहावास का रिश्ता जब इक्का दुक्का था, समाज को इस से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, केवल निन्दा और बहिष्कार से काम चल जाता था।। लेकिन जब उस ने विस्तार पाना प्रारंभ कर दिया तो समाज के माथे पर लकीरें खिंचनी शुरू हो गई। भारत की सर्वोच्च अदालत ने कहा -कि जो पुरुष पहली पत्नी के साथ संबंध विच्छेद किए बिना, किसी भी एक पक्ष के रीति-रिवाजों के अनुसार विवाह कर दूसरी पत्नी के साथ रहने लगते हैं। ऐसे विवाह को पर्सनल कानून के अनुसार साबित करना असंभव हो जाता है। इस कथन पर अपराधिक न्याय व्यवस्था पर मालीमथ कमेटी की रिपोर्ट ने महिलाओं के विरुद्ध अपराधों के सम्बन्ध में अपनी बात रखते हुए कहा -कि जब एक पुरुष और स्त्री एक लम्बे समय तक पति-पत्नी की तरह साथ रहने की साक्ष्य आ  जाए तो यह मान लेने के लिए पर्याप्त होना चाहिए कि वे अपने रीति रिवाजों के अनुसार विवाह कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में किसी पुरुष के पास अपनी इस दूसरी पत्नी के भरण पोषण से बचने का यह मार्ग शेष नहीं रहना चाहिए कि वह महिला पुरुष की विधिवत विवाहित पत्नी नहीं है।

सर्वोच्च न्यायालय के इस प्रेक्षण और मालिमथ कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही महाराष्ट्र सरकार ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के पत्नी शब्द के स्पष्टीकरण में इस संशोधन का प्रस्ताव किया है कि उचित समय तक सहावासी रिश्ते के रूप में निवास करने वाली स्त्री को भी पत्नी माना जाएगा। ( इस संबंध में एक आलेख लिव-इन-रिलेशनशिप और पत्नी पर बेमानी बहस तीसरा खंबा पर पढ़ा जा सकता है।)

इस मसले पर समस्त माध्यमों में बहस प्रारंभ हो गई है, और बिना सोचे समझे दूर तक जा रही है। लेकिन न्यायालय ने तो केवल समाज की वर्तमान स्थिति में न्याय करने में हो रही कठिनाइयों का उल्लेख किया था। उस कठिनाई को हल करने के लिए विधायिका एक कदम उठा रही है। वास्तव में यह रिश्ता एक सामाजिक यथार्थ बन चुका है।

भारतीय समाज में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.2 % अनुसूचित जन जातियों की जनसंख्या 8.2 % तथा अन्य पिछड़ी जातियों की जनसंख्या 41.1% है। इन तीनों की कुल जनसंख्या देश की 65.5 % है और लगभग इन सभी जातियों में नाता प्रथा है। अर्थात दूसरा विवाह कर लेने का रीति रिवाज कायम है और ये समाज इस सहावासी रिश्ते को मान्यता देते हैं। तब यदि कानून इस रिश्ते को अनदेखा कर दे तो वहाँ पारिवारिक न्याय कर पाना और पारिवारिक अपराधों को रोक पाना कठिन हो जाएगा, और यह हो रहा है।

इस विषय पर जो लम्बी-चौड़ी नैतिक बहसें चल रही हैं, उन्हें कुलीन समाज का विलाप मात्र  ही कहा जा सकता है कि देश का कानून यदि 65% जनता को मान्य रिश्ते को कानूनी रुप प्रदान करता है तो इस से कुलीन समाज और विवाह संस्था की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

रविवार, 24 अगस्त 2008

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

अनवरत के पिछले आलेख "दया धरम का मूल है, दया कीजिए" जैसा कोई भी आलेख किसी भी ब्लाग पर कभी नहीं आना चाहिए था, और न ही आना चाहिए। लेकिन जिस तरह ब्लागिंग को व्यक्तिगत आक्षेपों का माध्यम बनाया जा रहा है, वह भी अपनी पहचान छिपा कर उसे निन्दनीय  के सिवा कुछ नहीं कहा जा सकता। वह केवल भर्त्सना के ही योग्य है।
किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा  आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
 
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।

जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।

लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।

इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है।  वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है। 

हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।

ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।

आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......

1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।
बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।

गुरुवार, 21 अगस्त 2008

दया धरम का मूल है, दया कीजिए!

मेरी बेटी पूर्वा का एक आलेख आजाद भारत की बेटियाँ अनवरत के पिछले दो अंकों में प्रकाशित हुआ। पहले अँक पर आठवीं टिप्पणी थी.....
सच ने कहा .... एक प्रश्न है दिमाग में कल जब पोस्ट करें तो उसका उत्तर भी अगर दे सके तो आभार होगा।
पूर्वा आप की पुत्री है, उसने स्त्री विमर्श पर लिखा हैं, और भी बहुत सी महिलाएँ स्त्री विमर्श पर लिख रही हैं। पर उनके ब्लॉग पर लोगो के जो कमेन्ट आते हैं, उस प्रकार के कमेन्ट यहाँ नहीं हैं. इस का कारण क्या ये तो नहीं है कि लोग केवल उन स्त्रियों के कार्यो को ही "मान्यता" देते हैं जो पुरूष के संरक्षण मे रह कर काम करती हैं।
आप के जवाब का इंतज़ार रहेगा

सवाल गंभीर था। मैं उस का उत्तर देना भी चाहता था। लेकिन आलेख पूरा होने और उस पर भरपूर टिप्पणियाँ आने के बाद ही। मैं ने अपना इरादा आलेख के उत्तरार्ध पर चिपका भी दिया।
दूसरे अंक पर ‘सच’ की दूसरी ही टिप्पणी थी और उस में कुछ तीखे और गंभीर सवाल भी....
सच ने कहा .... "आलेख के पूर्वार्ध पर "सच" की टिप्पणी व अन्य टिप्पणियों पर बात अगले आलेख में..........."
क्यों सब की संवेदनाये इतनी विक्षिप्त हैं?? क्यों नारी स्वतंत्रता को लोग आतंक समझते हैं? और नारी विमर्ष को अपशब्द कहते हैं? क्यों जरुरी हैं "संरक्षण" नारी का?

कुल पन्द्रह टिप्पणियों के बाद सोलहवीं पतिनुमा प्राणी जी की अवतरित हुई .....
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... मुझे एक बात पर आश्चर्य हो रहा है कि आलेख के दोनों भागों पर 'पहुँची हुयी भारतीय स्त्रियाँ' और 'आँख की किरकिरी' वालों की तरफ से कोई जानी-पहचानी प्रतिक्रिया क्यों नहीं आयी!
आलेख में मूल तौर पर दहेज को कारक माना गया है। लेकिन उन परिवारों में, जहाँ दहेज कोई मायने नहीं रखता, वहाँ भी तो यही हाल है।
इस पर ब्लाग नारी की संचालिका रचना जी की टिप्पणी थी........
रचना ने कहा .... नारी ब्लाग के आठ और चोखेरबाली के दो सदस्य इस और पिछले आलेख पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं।
मैं सोचती हूँ कि यह पढ़ने और जानने के पहले कि इन दोनों सामुहिक ब्लागों पर कितने सदस्य हैं? और उन का योगदान क्या है? आप को इन कथित “पतिनुमा प्राणी” को बता देना चाहिए कि वह इन दोनों सामुहिक ब्लागों की महिला ब्लागरों के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करना बंद करे।
मैं यह टिप्पणी पढ़ता उस के पहले ही जवाब में पतिनुमा प्राणी जी का यह संदेश आ चस्पा हुआ...
पतिनुमा प्राणी जी ने कहा .... अरे रचना जी! मैने शुरू ही कहाँ किया है, जो आप रूकने को कह रही हैं!!
भई, मेरे विचार हैं, यदि आपको पसंद नहीं आ रहे तो यह महिलायों का abuse (इसका बेहतर हिंदी अनुवाद आप ही बता सकतीं हैं) करना कैसे हो गया?
मेरी टिप्पणी में आपको यही शब्द दिखे? बाकी शब्द नहीं? हर बात को आप नारी प्रजाति पर आक्रमण क्यों समझ लेती हैं?
दूसरों को तो आप समझाती रहतीं हैं कि प्रतिक्रियावादी न बने। स्वयं क्या कर रहीं हैं।
बेहतर होता यदि मेरी टिप्पणी के बाकी हिस्से पर आपकी बुद्धिमता भरी बातों से हम पुरूषों को भी कुछ ज्ञान हासिल हो पाता।
वैसे यहाँ, द्विवेदी जी के ब्लॉग पर, इन औचित्यहीन बातों पर तो कोई तुक नहीं। उनसे क्षमा चाहता हूँ।
रचना जी से अनुरोध है कि वे अपने या मेरे ब्लॉग पर ही अपनी बात रखें। दूसरों के कंधों का सहारा न लें।
मैं व्यस्त भी था, और थका हुआ भी। मैं ने दोनों टिप्पणियाँ वहाँ से उड़ा दीं।
अज्ञातों की टिप्पणियों के लिए तो मेरे ब्लागों का प्रवेश-द्वार बंद है। रचना जी से मैं परिचित हूँ। वे न तो अपनी पहचान छुपाती हैं और न ही विचार। वे जो भी कहना चाहती हैं, डंके की चोट कहती हैं। कभी किसी के प्रति अपशब्दों का प्रयोग नहीं करतीं। हाँ उन्हें किसी भी महिला को कहा गया अपशब्द बुरा लगता है। जब भी ऐसा होता है वे सिर्फ कहती हैं ... अपना मुहँ बन्द करो, हिन्दी में बोले तो शट-अप। मैं पतिनुमा प्राणी जी से परिचय करना चाहता था। पहली फुरसत में मैं ने उन के नाम पर चटका लगाया, तो परिणाम जो आया वह आप के सामने है।
पतिनुमा प्राणी।
इसे पढ़ा, और विचार किया, तो क्रोध बिलकुल नहीं उपजा। उपजता भी कैसे? आखिर ये पतिनुमा प्राणी जी हैं क्या? मात्र एक पर्दानशीन ब्लागर। बेचारे! पैंतालीस वसंत गुजार चुके हैं। एक महिला ने उन्हें जन्म दिया। लगा, माता जी, से नाराज हैं, कि जन्म ही क्यों दिया? और भगवान जी से भी, कि अठारवीं शताब्दी में नम्बर लगाया था, पैदा किया बीसवीं के उत्तरार्ध में जा कर। भगवान जी से नाराजी में फिर एक पाप कर डाला, ब्याह कर लिया। जरूरत थी एक संतान की, पैदा हो गईं दो, वो भी एक साथ। यहाँ भगवान जी ने उन के साथ फिर अन्याय किया। ब्याह कर के चाहा था कि पत्नी घऱ रहेगी, पति की सेवा करेगी, आज्ञा पालन करेगी, बच्चों को पालेगी और कभी अपनी चाह, आकांक्षाएँ व्यक्त नहीं करेगी। पर पैदा करने में भगवान जी ने जो देरी की, उस के नतीजे में अँगूठाछाप की जगह पाला पड़ा ऐसी पत्नी से जो आकांक्षा रखती है। पति की मेहरबानी पर जीने के स्थान पर, खुद कुछ करना चाहती है, कुछ बनना चाहती है। कई बार राह रोकने पर भी नहीं मानती। अपनी ही राह चली जाती है। कुछ कहें तो बराबर की बजातीं है।
अब करें तो क्या करें? बेचारे पतिनुमा प्राणी जी। अलावा इस के कि भड़ास निकालें। वह भी निकालने की नहीं बनती। यहाँ कोई बराबर की बजाने वाले मिले तो क्या करेंगे? पहुँच गए काली कमली वाले की शरण में। एक कमली खुद के लिए भी ले आए। अब उसे ओढ़ते हैं, पहचान छुपाते हैं, और भड़ास निकालते हैं। जो खुद ही छुपा फिर रहा हो, उसे क्या कहा जाए? और कैसे कहा जाए? अब दीवार को तो कह नहीं सकते न? कहने के बाद उस के चेहरे की मुद्राएँ देखने का अवसर जो नहीं मिलता।
वैसे भी कभी सोचा है आप ने? कि भड़ास निकालने वाले को रोकने पर उसे कितनी परेशानी होती है? सोच भी नहीं सकते। सोचने की जरूरत भी नहीं। फिर याद आया “दया धरम का मूल है”, दया बहुत बड़ी चीज है, दया कीजिए धरम होगा। हमें क्रोध के स्थान पर आई दया, और दया के लिए सर्वोत्तम पात्र दिखाई दिए ...  पतिनुमा प्राणी जी ।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

एक रविवार वन आश्रम में (4) .... बाबा से मुलाकात... और.............. दो दिन में तीसमार खाँ

करीब तीन बजे नन्द जी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। वे कह रहे थे -बाबा से मिल आएँ।
बाबा? आजकल इस आश्रम के महन्त, नाम सत्यप्रकाश, आश्रम के आदि संस्थापक बंशीधर जी के पाँच पुत्रों में से एक। शेष पुत्र सरकारी नौकरियों में थे। इन्हों ने पिता की गद्दी को संभाला था।
नन्द जी यहाँ पहुँचते ही मुझे उन से मिलाना चाहते थे, लेकिन तब बाबा भोजन कर रहे थे और उस के बाद शायद आराम का समय था।  उन में मेरी रुचि उन्हें जानने भर को थी। लेकिन इस यात्रा में अनेक थे जो उन से इसलिए मिलना चाहते थे कि उन से कुछ अपने बारे में अच्छा या बुरा भविष्य जान सकें। नन्द जी को दो वर्ष पहले उन के गाँव का एक सीधा-सादा व्यक्ति जो उन के भाई साहब का मित्र था तब वहाँ ले कर आया था, जब उन के भाईसाहब जेल में बंद थे और मुकदमा चल रहा था। तब बाबा ने उन्हें कहा था कि भाईसाहब बरी हो जाएँगे। यह बात मैं ने भी नन्द जी को कही थी। उन्हें मेरे कौशल पर पूरा विश्वास भी था। इसीलिए उन्हों ने कोटा के नामी-गिरामी फौजदारी वकीलों का पल्ला नहीं पकड़ा, जब कि मेरे कारण उन्हें वे बिलकुल निःशुल्क उपलब्ध थे। पर किसी के कौशल पर विश्वास की तुलना पराशक्ति के बल पर भविष्य बताने का दावा करने वाले लोगों के विश्वास से कैसे की जा सकती है। हाँ, यह विश्वास मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों में आत्मविश्वास जाग्रत रखता है और संघर्ष के लिए मनोबल प्रदान करता है। लेकिन? यह विश्वास प्रदान करने वाले "पहुँचे हुए लोग" उस की जो कीमत वसूलते हैं, वह समाज को गर्त की ओर भी धकेलती है।
नन्द जी के बाबा के बारे में बताए विवरणों से शोभा बहुत प्रभावित थी, और उन्हें बड़ा ज्योतिषी समझती थी। यही कारण था कि उस ने मेरी और बेटे-बेटी की जन्मपत्रियाँ बनखंडी रवाना होने के पहले अपने झोले में डाल ली थीं। लेकिन बाद में नन्द जी ने मना कर दिया कि वे ज्योतिषी नहीं हैं। वैसे ही सब कुछ बता देते हैं। तो जन्मपत्रियाँ झोले में ही बन्द रह गईं।
मैं ने तंद्रा और गर्मी से बेहाल अपने हुलिए को नल पर जा कर चेहरे पर पानी डाल तनिक सुधारा, और नन्द जी के पीछे हो लिया।  पीछे बनी सीढ़ियों से होते हुए बाबा के मकान के प्रथम तल पर पहुँचे। आधी छत पर निर्माण था, आधी खुली थी। जीना जहाँ समाप्त हो रहा था, वहीं एक दरवाजा था जो बाबा की बैठक में खुलता था।
कोई दस गुणा पन्द्रह फुट का कमरा था। एक और दीवान पर बाबा बनियान-धोती में अधलेटे थे, तीन-चार कुर्सियाँ थीं। जिन पर पुरुष बैठे थे, बाकी जगह में फर्श बिछा था और महिलाओं, बच्चों और कुछ पुरुषों ने कब्जा रखा था। दीवान के बगल की खुली अलमारी में कोई बीसेक पुस्तकें थीं, कुछेक को छोड़ सब की सब गीता प्रेस प्रकाशन। दीवारों पर कैलेंडर लटके थे। एक तस्वीर उन के महन्त पिता की लगी थी।
हमारे वहाँ पहुँचते ही बाबा ने 'आइये वकील साहब!' कह कर स्वागत किया। हमारा उन से अभिवादन का आदान प्रदान हुआ। हमारे बैठने के लिए कुर्सियाँ तुरंत खाली कर दीं। उन पर बैठे लोग बाबा को प्रणाम कर बाहर आ गए। हम बैठे तो नन्द जी ने मेरा परिचय उन्हें दिया। बाबा की पहले से चल रही वार्ता फिर चल पड़ी।
कोई पेंतीस वर्ष की महिला बहुत ही कातर स्वरों में बाबा से कह रही थी। बाबा इन का कुछ तो करो, इन का धंधा नहीं चल रहा है, कुछ काम भी नहीं मिल रहा है। ऐसे कैसे चलेगा? सारा घऱ ही बिक जाएगा हम सड़क पर आ जाएंगे।
बाबा बोल पड़े। ये व्यवसाय में सफल नहीं हो सकते। इन्हें काम तो कोई टेक्नीकल या खेती से सम्बन्धित ही करना पड़ेगा। मैं ने तो इन्हें प्रस्ताव दिया था कि ये आश्रम आ जाएँ। मैं एक ट्रेक्टर खरीद कर इन्हें दे देता हूँ, उसे चलाएँ आस पास के किसानों के खेत जोतें। आश्रम की जमीन की खेती संभालें। जो भी मुनाफा होगा आधा इन का आधा आश्रम का। पर ये इस प्रस्ताव को गंभीरता से ले ही नहीं रहे। आज तो ये यात्री बन कर आए हैं। मेरा प्रस्ताव मानें तो फिर इसी काम से आएँ मुझ से बात करें। मैं सारी योजना इन के सामने रखूंगा। इतना कह कर बाबा ने करवट सुधारी तो धोती में से उन का एक पैर उघड़ गया। महिलाओं के सामने वह अच्छा नहीं लग रहा था। लेकिन बाबा का शायद उधर ध्यान नहीं था। कोई उन को कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। शायद कोई भी उन्हें लज्जा के भाव में देखना नहीं चाहता था। मैं लगातार उन की टांग को देखता रहा। शायद मैं ही वहाँ नया व्यक्ति था, इसलिए बाबा बीच बीच में मेरी और दृष्टि डाल ले रहे थे। दो-एक नजर के बाद उन्हों ने मुझे एकटक अपनी टांग की ओर देखता देख भाँप लिया कि टांग में कुछ गड़बड़ है। वाकई वहाँ गड़बड़ पा कर उसे ठीक भी कर लिया।
बाबा की सारी बातें किसी जमींदार द्वारा किसी कामगार को साझेदारी का प्रस्ताव रख, उस की आड़ में कम मजदूरी पर कामवाला रख लेने की तरकीब जैसी लग रही थीं। महिला होशियार थी। उसे यह तो पसंद था कि उसके पति के रोजगार का कुछ हल निकल आए, लेकिन यह मंजूर नहीं कि उस का पति नगर में बसे घर-बार को छोड़ यहाँ जंगल में काम करने आए और आश्रमवासी हो कर रह जाए। वह बोली -अब मैं क्या कर सकती हूँ? आप इन्हीं को समझाएँ। ये यहाँ आना ही नहीं चाहते। शहर में कोई व्यवस्था नहीं बैठ सकती इन के रोजगार की?
-शहर में भी बैठ सकती है, मगर समय लगेगा। किसी की मदद के बिना संभव नहीं हो सकेगा। यहाँ तो मैं मदद कर सकता हूँ। वहाँ तो मददगार इन को तलाशना पड़ेगा।
बाबा के उत्तर से कुछ देर शांति हुई थी कि नन्द जी की पत्नी बोल पड़ी -बाबा वे बून्दी वाले, उन के लड़के की शादी हमारी बेटी से करने को कह रहे हैं। यह होगा कि नहीं? मैं जानता था कि नन्द जी के पास एक बड़े व्यवसाय़ी परिवार से शादी का प्रस्ताव है। उस से नन्द जी का परिवार प्रसन्न भी है। उन की पत्नी बस भविष्य में बेटी-जमाँई के बीच के रिश्तों की सघनता का अनुमान बाबा से पूछना चाहती हैं।
बाबा कहने लगे -आप का परिवार और बच्ची सीधी है और वे तेज तर्रार। शादी तो हो जाएगी, निभ भी जाएगी। पर उस परिवार के व्यवसाय और सामाजिक व्यस्तता के बीच बच्ची बंधन बहुत महसूस करेगी और घुटन भी। यह रिश्ता सुखद तो रहेगा, लेकिन बहुत अधिक नहीं।
इस बीच शोभा भी आ कर महिलाओं के बीच बैठी मुझे इशारा कर रही थी कि मैं भी कुछ पूछूँ अपने व्यवसाय, आमदनी, बच्चों की पढ़ाई, नौकरी और विवाह के बारे में। नन्द जी ने भी कहा आप भी बात कर लो, भाई साहब। इतने में बाबा भी बोले पूछ ही लो वकील साहब, मैं भी आज भोजन करते ही यहाँ बैठ गया हूँ। फिर थोड़ा विश्राम करूँगा। मुझे समझ गया था कि कुछ पूछे बिना गुजर नहीं होगा। बाबा भी अधलेटी अवस्था को त्याग सतर्क हो कर बेठ गए थे। मैं भी इस अध्याय को शीघ्र समाप्त करना चाहता था। (जारी)


और अंत में ..... दो दिन में तीसमारखाँ!
अंतरजाल पथ पर फुरसतिया से हुई संक्षिप्त बातचीत का संक्षिप्त अंश.....

अनूप: नमस्ते
मैं: नमस्ते जी। कैसे हैं?
अनूप: आप देखिये आज ज्ञानजी ने अपने काम का खुलासा कर ही दिया
http://chitthacharcha.blogspot.com/
मैं: देखते हैं। वैसे वे मक्खियाँ मारने में सिद्धहस्त हैं।
अनूप: हां वही।
मैं: मैं वहीं कहना चाहता था। फिर सोचा, फिर आप क्या कहेंगे।
अनूप:उन्होंने बताया कि उन्होंने एक दिन में दफ़्तर में दस-पन्द्रह मक्खियां मारी, और उपलब्धि के एहसास से लबालब भर गये।
मैं:  दो दिन में तीसमार खाँ?
अनूप: हां, यह सही है, उनकी प्रगति बड़ी धीमी है। ऐसे कैसे चलेगा?
मैं:  कम से कम एक दिन के स्तर पर लानी पड़ेगी, प्रोडक्टिविटी का प्रश्न है।

बुधवार, 16 जुलाई 2008

कब्जेदारों की बेदखली और शर्करा व लिपिड प्रोफाइल जाँचेँ

पिछले आलेख में मैंने आप को बताया था.... किस तरह शरीर से बाहर निकलने वाले अपशिष्ट बेदखल होने के बजाए वहीं कब्जा जमा कर बैठ गए। उस से जो हमारा हाल हुआ उस ने हमें पहुँचा दिया अस्पताल। जाँच पर रक्तचाप सामान्य निकला यानी 80/130 और ईसीजी में कुछ भी असामान्य नहीं। डाक्टर ने शर्करा जाँच कराने को लिखा। .....

मैं उस दिन के आलेख में आप को बताना भूल गया कि इस के अलावा लिपिड प्रोफाइल जाँच कराने के लिए भी लिखा था, और इस के लिए तो हमें अल्ल सुबह बिना कुछ खाए-पिए (पानी के अलावा) अस्पताल जाना था, रक्त-नमूना देने के लिए। अस्पताल की प्रयोगशाला खुलना था सुबह आठ बजे। हम रात को पंचसकार खा कर सोए थे शायद यही कब्जाधारियों को बेदखल करने में कामयाब हो? अब पांच से आठ तीन घंटे कैसे बिताए जाएँ। सुबह की कॉफी पिए बगैर और सब काम तो रुके पड़े थे। तम्बाकू के लिए रात डाक्टर मना कर ही चुके थे। खाली मटके का पानी पी पी कर हम कब्जाए हुओं को धक्का मारते रहे, बीच बीच में अन्तरजाल टटोलते रहे, जानने को कि ये लिपिड प्रोफाइल क्या बला है?

अन्तरजाल बता रहा था – लिपिड प्रोफ़ाइल अनेक जाँचों का समूह है, जो कि अक्सर कोरोनरी हृदय रोग की जोखिम निर्धारित करने लिए एक साथ किए जाने के लिए कराए जाते हैं। इस में समूचे-कोलेस्ट्रोल, एचडीएल-कोलेस्ट्रोल (जो अच्छा कोलेस्ट्रोल कहा जाता है), एलडीएल-कोलेस्ट्रोल (जो बुरा-कोलेस्ट्रोल कहा जाता है), तथा ट्राइग्लिसराइड की जाँचें शामिल की जाती हैं।

ये वे जाँचें हैं जो इस बात का अच्छा संकेत देती हैं कि किसी व्यक्ति की रक्तवाहिनियों के कठोर हो जाने या उन में अवरोध उत्पन्न हो जाने के कारण उसे हृदयाघात की कितनी संभावना हो सकती है?

इस का उपयोग यह है कि हृदय रोग के अन्य जाने हुए कारकों के साथ लिपिड प्रोफाइल की जाँचों के परिणामों को मिला कर रोगी के हृदय रोग की चिकित्सा की योजना बनाई जाती है।

इधर एक मामूली कब्जाधारी भी सरकने को तैयार नहीं था। तम्बाकू चबाने की याद आई तो डाक्टर का स्मरण हो आता। यह सोच कर कि उस ने कौन सा आज ही छोड़ने को कहा था। आखिर हम ने चुटकी भर तम्बाकू चूने के साथ रगड़ा, सुपारी काट कर उस में मिलाई और मुहँ में फाँक गए। तम्बाकू का रखना था कि कब्जाधारियों में हलचल मचने लगी। हम ने टेबुल पर रखे डाक्टर के पर्चे, ईसीजी रिपोर्ट और उस के साथ शुल्क जमा करने वाली रसीदों को घूर कर देखा। पर तब तक हल्ला गुल्ला बढ़ गया था। जाना ही पड़ा। कोई बीस प्रतिशत कब्जाधारी बेदखल हो गए। पौने आठ बज गए थे हम स्कूटर उठा सीधे पहुँचे अस्पताल और फिर प्रयोगशाला। एक अस्पताल का भर्ती मरीज पहले से रक्त देने बैठा था। सो हम हो गए दो नंबरी।

वापस लौटे, आते ही शोभा को कॉफी बनाने को बोला। कॉफी पी कर गए तो आधे से अधिक कब्जाधारी भाग छूटे थे। दुबारा कॉफी बनवाई और पी, तो 90 प्रतिशत का सफाया हो गया। हम सुबह का भोजन करने लायक हो गए थे। अदालत भी जाना था। शाम को अदालत से लौटे तो बहुत कुछ सामान्य हो चुके थे। घर पर बताया कि छह बजे खाना खाना है आठ बजे फिर शर्करा के लिए नमूना देने जाना है। पर खाना शुरू हुआ पौने सात बजे, नमूने का समय निर्धारित हुआ पौने नौ बजे। देकर आए।

आज सुबह जाँच परिणाम लेने जाना था। शोभा (गृहस्वामिनी) ने सुबह से ही हल्ला कर दिया। जाना नहीं क्या? बिना नहाए धोए जाओगे क्या? आज कॉफी समय पर मिल गई थी। कब्जाधारी जाते ही बेदखल हो गए। हम ने नहा-धो, टीका लगाया और पहुँच गए प्रयोगशाला। रिपोर्ट बन गई थी। रजिस्टर में दर्ज थी। लेकिन छपी नहीं थी। छपने में समय लगा। तब तक डाक्टर बहिरंग में विराजमान हो चुके थे। हम ने जाच परिणाम सीधे उन के पास जा जंचाया।

डाक्टर ने परिणाम देखा। फिर मुझे देखा। बोले –क्या खाते हो कोलेस्टरोल नियंत्रण के लिए। मैने कहा –कुछ भी तो नहीं। हाँ, देसी घी नहीं खाता पचास के बाद से। सोच रक्खा है कि यह दीपक, हवन और 50 से कम वालों के लिए है। वे बोले –कोई दवा नहीं। मैने कहा –बिलकुल नहीं। हाँ दौड़ने का शौक है, तो दौड़ लेता हूँ गाहे-बगाहे, नियमित वह भी नहीं।

मै भौंचक्का था। आखिर बात क्या है? मैं ने पूछ ही लिया –क्या कुछ गड़बड़ है डाक्टर साहब। वे बोले –कुछ भी नहीं। तिरेपन के हो रहे हो। मैं ने इस उमर में इतनी अच्छी प्रोफाइल नहीं देखी। आप को किसी दवा की जरूरत नहीं।

हम उछल पड़े जैसे परीक्षा में योग्यता सूची में नाम आ गया हो., वह भी सब से ऊपर। Lipid profile

शर्करा जाँच और लिपिड प्रोफाइल जाँच की रिपोर्ट यहाँ पेश है। आप भी जाँचें। खास तौर पर डाक्टर पाठक जरूर जांचें। बताएँ योग्यता सूची में नाम कहाँ है?

 

पिछले आलेख पर छत्तीसगढिया संजीव तिवारी, वकील रश्मि सुराणा, बवाल भाई, सतीश पंचम, प्रभाकर पाण्डेय, अनूप शुक्ला, उडनतश्तरी वाले समीर लाल, अरविंद मिश्रा, लोकेश, राज भाटिय़ा, विजयशंकर चतुर्वेदी, डा० अमर कुमार, अभिषेक ओझा, सिद्धार्थ, और अनिता कुमार, जी की टिप्पणियाँ मिलीं। कुछ ने खुद स्वीकार किया कि वे भी तम्बाकू सेवन करते हैं, और कहीं कहीं गृहमंत्रालय की आपत्ति पर बहस जारी है। किसी ने आलेख की तारीफ में कसीदे पढ़े. किसी ने सलाह दी कि तम्बाकू से मुक्ति प्राप्त कर ही ली जाए। किसी किसी ने नए चित्र की भी तारीफ की। चित्र पर पहली ही टिप्पणी आलोक जी की थी। उस के तुरंत बाद हम ने शोभा (गृहस्वामिनी) से कह कर नजर उतरवा ली। सब लोग खूब तारीफ कर सकते हैं चित्र की। पर चित्र में खूबसूरती जिस कारण से है वह चित्र में नहीं है। यह बच्चे के एक जन्मदिन के चित्र में से काटा गया टुकड़ा है। बच्चा मेरी साली की बेटी का बेटा है और सारा सौंदर्य उसी के कारण इस चित्र में है। सब से सुंदर टिप्पणी डाक्टर अमर कुमार जी की थी उसे पुनः उदृत कर रहा हूँ ...........

कभी देखता अनवरत का बदला कलेवर।
कभी भटकाता आपके फोटो का फ़्लेवर ।।
डाक्टर को बोले नहीं कि क्यों दिखाते तेवर।
मरीज़ों को धूल फँकाते और खुद खाते घेवर।।
वैसे..पोस्ट अच्छी बन पड़ी है, बड़े दिनों बाद मुकालात हो रही आपसे।
इतनी अच्छी कास्मेटिक सर्ज़री कहाँ से करवायी, हमें भी जरा बताइये तो।।

हाँ एक संकल्प जरूर किया है कि एकदमै तो नहीं, पर शनैः शनैः तम्बाकू का साथ जरूर छोड़ दूंगा। 

रविवार, 13 जुलाई 2008

तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है।

ये बरसात का सुहाना मौसम, सब ओर हरियाली छाई है। इधर बरसात भी मेहरबान है। घर के सामने वाले सत्यम उद्यान में रौनक है। लोग नगर छोड़ कर बाहर भाग रहे हैं। नदी-नालों-तालाबो-झरनों के किनारे रौनक है, और इतनी है कि जगह की कमी पड़ गई है। नए-नए गड्ढे तलाशे जा रहें हैं, जिन के किनारे पड़ाव डाले जा सकें। गोबर के उपलों का जगरा लगा कर दाल-बाफले-कत्त बनाए जा सकें। पकौड़ियाँ तली जा सकें, विजया की घोटम-घोंट के लिए बढिया सी चट्टान नजदीक हो। बस मौज ही मौज है।

पर 50 से ऊपर वालों पर चेतावनियाँ लटकी हैं। उधर चार दिन पहले प्रयाग में गंगा किनारे ज्ञानदत्त जी को गर्दन खिंचवा कर सही करानी पड़ी, तो इधर हम अलग ही चक्कर में पड़ गए। इस मौज-मस्ती में कुछ खाने का हिसाब गड़बड़ा गया। खाए हुए का अपशिष्ट बाहर निकलने के बजाय शरीर में ही कब्जा जमाए बैठ गया। वेसै ही जैसे चुनाव के दिनों में बहुत से लोग खाली जमीनों पर कब्जा कर बैठते हैं और फिर जिन्दगी भर हटते नहीं। हट भी जाते हैं तो कब्जा किसी दूसरे को संभला जाते हैं।

कब्ज के इसी दौर में शादियाँ आ धमकीं। शुक्रवार रात शादी में गए और वहाँ पकवान्न देख रहा नहीं गया। नहीं-नहीं कर के भी इतना खा गए कि दो-तीन दिन की कब्ज का इंतजाम हो गया। वहाँ से लौट कर पंचसकार की खुराक भी ले ली। पर कब्जाए लोग कहाँ नगरपालिका और नगर न्यास की परवाह करते हैं जो हमारी आहार नाल पंचसकार की परवाह करती। शनिवार सुबह दो तीन बार कोशिश की, लेकिन कब्जा न हटना था तो नहीं हटा। दिन में हलका खाया। तीन घंटे नीन्द निकाली। रात को फिर मामूली ही खाया। काम भी मामूली किया।

रात को तारीख बदलने के बाद सोने गए तो निद्रा रानी रूठ गई। कब्जाए लोग हल्ला कर रहे थे। कभी पेट के इस कोने में, तो कभी उस कोने में। कभी ऊपर सरक कर दिल के नीचे से धक्का मारते, तो दिल और जिगर दोनों हिल जाते। पीठ की एक पुरानी पेशी कभी टूट कर जुड़ी थी, बस वहीं निगाह बनी रहती। लगता जोड़ अब खुला, तब खुला।

पिछले साल एक दिन अदालत में चक्कर खा गए थे। शाम को डाक्टर को दिखाया तो पता लगा। रक्त का दबाव कुछ बढा हुआ है। हम ने उछल-कूद कर, वजन घटा कर, (राउल्फिया सर्पैन्टाईना)  का होमेयोपैथी मातृद्रव ले कर यह दबाव तो सामान्य कर लिया। लेकिन उछल-कूद में कहीं साएटिका नामक तंत्रिका को परेशानी होने लगी तो उछलकूद बंद। वजन फिर बढ़ने लगा। हम ने घी दिया जलाने, और शक्कर वार-त्योहार को समर्पित कर, इसे कुछ नियंत्रित किया। लेकिन शक का कोई इलाज नहीं।

रात एक बजे तक नीन्द नहीं आई। दर्द शरीर में इधर-उधर भटक रहे थे। नीन्द नहीं आती, तब खयालात बहुत आते हैं और सब बुरे-बुरे। लोगों के किस्से याद आते रहे। जिन्हों ने दिल के दर्द को पेट की वात का दर्द समझा, ज्यादातर हकीम साहब तक पहुँचने के पहले ही अल्लाह को प्यारे हो गए, जो पहुँचे थे उनमें से कुछ ईसीजी मशीन पर शहीद हुए और कुछ आईसीयू में। इक्का-दुक्का जो बचे वे डाक्टर साहब की डाक्टरी चलाने के लिए जरूरी शोहरत के लिए नाकाफी नहीं थे।

हमने सोई हुई संगिनी को जगाया। पेट की वात बहुत तंग कर रही है। उस ने तुरंत ऐसाफिडिटा का तनुकरण आधा पानी प्याले में घोल कर पिलाया, ऊपर से बोली नाभि में हींग लगाई जाए। पर नौबत न आई। हमारी हालत देख कब्जा जमाए लोगों में से कुछ को ब्रह्महत्या के भय ने सताया होगा, तो भागने को दरवाजा भड़भड़ाने लगे। हमने भी शौचालय जाकर उन्हें अलविदा कहा। थोड़े बहुत जो जमे बैठे रह गए उन्हें सुबह के लिए छोड़ दिया। रात को ही संगिनी ने कसम दिलायी कि सुबह डाक्टर के यहाँ जरूर चलना है।

सुबह नहा-धोकर, चंदन-टीका किया ही था कि डाक्टर के यहाँ ठेल दिए गए। पचास रुपए में प्रवेश पत्र बना। चिकित्सक को दिखाया। उस ने विद्युतहृदमापक बोले तो ईसीजी और शुगर जाँच कराने को लिखा। तीन-सौ-सत्तर और जमा कराए। कुल हुए चार-सौ-बीस। ईसीजी हो गया। शुगर के लिए तो सुबह खाली पेट और खाने के दो घंटे बाद बुलाया गया, जो आज संभव ही नहीं था। उस के लिए कल की पेशी पड़ गई। फिर दिल का नक्शा जो कागज पर छाप कर दिया गया था, ले कर चिकित्सक के पास पहुँचे तो उस ने सब देख कर पूछा-धुम्रपान करते हो?

हमने कहा- तीस-पेंतीस साल पहले ट्राई किया था, पर स्वाद जमा नहीं।

तम्बाकू खाते हैं?

हम बोले- हाँ।

तो फिर पूछा- कितना खाते हो?

हमने कहा- कोई नाप थोड़े ही है।

चिकित्सक बोला- जाओ तम्बाकू छोड़ दो, बाकी सब दुरूस्त है। कुछ नहीं हुआ।

मैं मन ही मन भुन कर रह गया। वे चार-सौ-बीस जो मेरे टूटे, उन का क्या? डाक्टर को थोड़ा बहुत मनोविज्ञान भी आता था। एमबीबीएस या एमडी करते वक्त जरूर पढ़ाया गया होगा। हमारी मुखाकृति पढ़ कर भांप गया। उसने पर्ची वापस ली एक गोली सुबह-शाम भोजन के पहले, पाँच दिन तक। दवा वाले ने पूरे पैंतालीस रूपए झाड़े और बताया कि अम्लता की दवा है।

आज की सुबह पड़ी चार-सौ-पैंसठ की।

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

वसंत ऋतु में प्रिया और प्रियतम का संग मिले तो कोई भी साथ को पल भर के लिए भी नहीं छोड़ना चाहता है। राजस्थान में वसंत के बीतते ही भयंकर ग्रीष्म का आगमन होने वाला है। आग बरसाता हूआ सूरज, कलेजे को छलनी कर देने और तन का जल सोख लेने वाली तेज लू के तेज थपेड़े बस आने ही वाले हैं।

ऐसे निकट भविष्य के पहले मदमाते वसंत में प्रियतम भी नहीं चाहता कि प्रिया का संग क्षण भर को भी छूटे। लेकिन प्रिया को ऐसे में भी ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना स्मरण है। उस ने कुंवारे पन से ही उन से लगातार प्रार्थना की है कि उस की भी जोड़ वैसी ही बनाए जैसी उन की है। उस में भी उतना ही प्यार हो जैसा उन में है।

प्रियतम प्रिया को छोड़ना नहीं चाहता है। लेकिन प्रिया को ईशर-गौर (शंकर-पार्वती) का आभार करना है। वह अपने मधुर स्वरों में गाती है-

'भँवर म्हाने पूजण दो गणगौर'

यह उस लोक गीत का मुखड़ा है जो होली के दूसरे दिन से ही राजस्थान में गाया जा रहा था। कल राजस्थान में गणगौर का त्यौहार मनाया गया। इस गीत में पति को भँवर यानी भ्रमर की उपमा प्रदान की गई है। जो वसंत में किसी प्रकार से फूल को नहीं छोड़ना चाहता है।

जब प्रियतम को यह पता लगा कि उसे पाने का आभार करने के लिए प्रिया उससे कुछ समय अलग होना चाहती है तो वह भी उस के उस अनुष्ठान में सहायक बन जाता है। वह उसे सजने का अवसर और साधन प्रदान करता है।

हमारे यहाँ भी गणगौर मनाई गई परम्परागत रूप में। मेरी जीवन संगिनी शोभा ने तीन-चार दिन पहले ही चने और दाल के नमकीन और गेहूँ-गुड़ के मीठे गुणे बनाए। एक दिन पहले रात को मेहंदी लगाई। सुबह-सुबह जल्दी काम निपटा कर तैयार हो गई और पूजा की तैयारी की। गौरी माँ के लिए बेसन की लोई से गहने बनाए गए।

गणगौर की पूजा आम तौर पर घरों पर ही की जाती है। महिलाएं गण-गौर की मिट्टी की प्रतिमा बाजार से लाती हैं और होली के दूसरे दिन से ही उस की पूजा की जाती है। गीत गाए जाते हैं। कुँवारी लड़कियाँ इस पूजा में रुचि लेकर शामिल होती हैं। अनेक मुहल्लों में किसी एक घर में गणगौर ले आई जाती है और उसी घर में मुहल्ले की महिलाएं एकत्र हो कर पूजा करती हैं। मेरी पत्नी दो वर्षों से मुहल्ले के स्थान पर मंदिर में जा कर शिव-पार्वती की पूजा करती है। वहाँ उस दिन दर्शनार्थियों का अभाव होता है। पूजा मजे में आराम से की जा सकती है। वह कहती है कि वह पूजा करनी चाहिए जिस से मन को शांति मिले। सुबह साढ़े दस बजे हम उन्हें ले कर मंदिर गए। वे पूजा करती रहीं। हम वहाँ पुजारी जी से बतियाते रहे।

बेटी मुम्बई में है। वहाँ से खबर है कि उस ने भी उसी तरह से पूजा की जैसे यहाँ उस की माँ ने की। उस ने भी बेसन के गहने बनाए और पास के मंदिर में पार्वती की प्रतिमा को सजा कर पूजा की। दोनों ने ही मंदिरों में पूजा की और दोनों ही मंदिरों में पूजा करने वाली अकेली थीं।

मेरे जन्म स्थान में गणगौर धूमधाम से मनाई जाती थी। गणगौर वहाँ केवल महिलाओं का त्योहार नहीं था। अपितु उसने पूरी तरह से वंसंतोत्सव का रूप लिया हुआ था। उसके बारे में किसी अगली पोस्ट में...........

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

भाषा का संस्कार (पानी देना)

"पानी देना "
आज कहीं भी यह वाक्य सुन ने को मिल जाता है।
बचपन में एक बार भोजन करते समय तेज मिर्च लगने पर मैं एकाएक कह बैठा -अम्माँ, पानी देना।
दादी वहीं थी। पानी मिलना तो दूर वह डाँटने लगी- ऐसा नहीं बोलते।
मैं ने पूछा -क्यों।
तो, वे बोलीं - पानी मरने वाले को दिया जाता है।
उस के बाद इस शब्द का प्रयोग हमने नहीं किया।

आज इस बात की याद फिर आयी। शाम को शोभा (पत्नी) ने भोजन तैयार होने की सूचना दी। तो हम ऑफिस से उठे और कहा- हम हाथ मुंहँ धोकर ( शौच से निवृत्त हो कर) आते हैं। तब तक आप भोजन लगा दो। नहीं तो फिर कोई आ मरेगा।
पत्नी ने टोक दिया - ऐसा क्या बोलते हो? जरा शुभ-शुभ बोला करो।
मैं ने सफाई दी - इस में क्या गलत है? यह तो मुहावरा है।
-हो, मुहावरा। इस से भाषा तो खराब होती है।
मैं ने उसे सही बताते हुए अपनी गलती स्वीकार की। आइंदा सही बोलने का वायदा किया, और हाथ मुहँ धोने चल दिया।

वास्तव में परिवार में मिली इन छोटी-छोटी बातों से भाषा को संस्कार मिला। जीवन सहयात्री ने इसे बनाए रखने में सहयोग किया। अनेक ब्लॉगर साथियों को इस तरह के संस्कार नहीं मिले। वे इस अवसर से वंचित रह गए। सोचता हूँ, मैं ही उन्हें टोकना प्रारंभ कर दूँ। पर भय लगता है वे इसे अन्यथा ले कर कतराने लगे तो कहीं साथियाना व्यवहार ही न टूट जाऐ।