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गुरुवार, 25 दिसंबर 2025

उम्मीद

'लघुकथा'
दिनेशराय द्विवेदी

मॉल रोशनियों से नहाया हुआ था. लाल-सुनहरी गेंदें और टिमटिमाते सितारे हर किसी को अपनी ओर खींच रहे थे. बाहर लॉन में हजारों बल्बों से सजा क्रिसमस ट्री किसी सजीली दुल्हन की तरह मुस्करा रहा था. सड़क पार फुटपाथ पर राघव सुबह से अपने ठेले पर बच्चों के लिए सांताक्लॉज की लाल ड्रेसें बेच रहा था. उसकी अधिकांश ड्रेसें बिक चुकी थीं. बस चार-पाँच बची थीं. वह सोच रहा था कि ये भी बिक जाएँ तो सुकून से घर जाए; दो ड्रेसें तो वह अपने बच्चों, श्याम और सरिता के लिए ले ही जाएगा.

तभी एक स्कूटर वाला आकर रुका और ड्रेसें देखने लगा. राघव उम्मीद से बोला, “देख क्या रहे हैं बाबूजी, ले लीजिए. बस यही पाँच-छह बची हैं, आधी दर पर दे दूंगा.”

राघव आगे कुछ बोल पाता, तभी एक आटो रिक्शा उसके सामने आकर धीमा हुआ और ड्राइवर चिल्लाया— “सामान समेटो और भागो राघव! गुंडों की फौज आ रही है!”

राघव ने मुड़कर देखा, पंद्रह-बीस लोगों का हुजूम लाठी-डंडे लिए चीखता-चिल्लाता चला आ रहा था. ये वही लोग थे जो अक्सर त्यौहारों का उल्लास बिगाड़ने को ही अपना धर्म समझते थे. राघव ने फुर्ती से सांताक्लॉज की ड्रेसें चादर में लपेटकर गठरी बाँधी और ठेले को गली में धकेल दिया. स्तब्ध खड़ा स्कूटर वाला भी अपनी गाड़ी स्टार्ट कर राघव के पीछे उसी गली में घुस गया.

गली के सुरक्षित कोने से उन्होंने देखा—भीड़ मॉल में घुस चुकी थी. उन्होंने सजावटी ट्री को पीट-पीटकर गिरा दिया और उसमें आग लगा दी. गार्ड्स, जो सांता की ड्रेस में थे, उनके कपड़े फाड़ दिए गए. दस मिनट के तांडव में मॉल के शीशे चकनाचूर हो गए. कुछ लोग हाथों में कीमती सामान दबाए बाहर निकले और शोर मचाते हुए आगे बढ़ गए.
सन्नाटा छाने पर ग्राहक ने पूछा, “ये ड्रेसें कितने में दे रहे हो?” राघव की आवाज काँप रही थी, “सौ की एक है बाबूजी, आप जो दे दें. अब बस घर जाना चाहता हूँ.” “सौ में दो दोगे? मेरे पास पैसे कम हैं, बाकी से बच्चों के लिए कुछ मीठा लेना है,” ग्राहक ने मोल भाव किया. राघव ने फीकी मुस्कान के साथ कहा, “ले जाइए बाबूजी, कम से कम आपके बच्चे तो खुश होंगे.”

राघव ने नोट जेब में रखा और खाली सड़क को देखा. ग्राहक बोला, “मॉल में बहुत नुकसान कर गए ये लोग.” राघव ने लंबी सांस ली, “ये हर त्यौहार पर यही करते हैं. पुलिस भी सब बरबाद होने के बाद जमीन पर लाठियाँ बजाने आती है.”

राघव ठेला लुढ़काते हुए अपनी बस्ती की ओर चला, जो चर्च के पीछे नाले के किनारे थी. चर्च के पास पहुँचते ही उसके पैर ठिठक गए. तीन दिन से जगमगाती रोशनियाँ बुझ चुकी थीं. चर्च के एक कोने से धुआँ उठ रहा था. पता चला कि भीड़ ने पादरी जॉन साहब पर हमला किया, उनका सिर फट गया है और उन्हें अस्पताल ले जाया गया है. राघव की रूह काँप उठी— "क्या ईश्वर इतना कमजोर है कि उसे बचाने के लिए खुशियों का कत्ल करना जरूरी है?"

बस्ती पहुँचा तो देखा, अनीता की झुग्गी राख के ढेर में बदल चुकी थी. अनीता एक पुराने बक्से पर बैठी शून्य में ताक रही थी. उसका पति और बेटा पहले ही एक हादसे में गुजर चुके थे. पादरी की मदद से उसने ईसाई धर्म अपनाया था, और आज शायद इसी की कीमत उसने अपना आशियाना खोकर चुकाई थी. सलीम उसके पास खड़ा उसे ढाढ़स बँधा रहा था.

सलीम ने राघव को देखते ही बुझी हुई आवाज में कहा, "वाह! धर्म बच गया! किसी का सिर झुकाकर, किसी की छत छीनकर और किसी के दिल में नफरत भरकर... उन्होंने अपने भगवानों को खुश कर दिया." सलीम की आँखों में आक्रोश से ज्यादा शर्मिंदगी थी.

राघव ने आगे बढ़कर अनीता के सिर पर हाथ रखा और पूरी दृढ़ता से बोला, “अनीता बहन! घर लकड़ी और ईंटों का था, जो टूट गया. पर हम जो साथ खड़े हैं, वह 'विश्वास' है, जिसे कोई नहीं तोड़ सकता. हम सिर्फ ईंटें नहीं जोड़ेंगे, हम टूटे हुए भरोसे को भी जोड़ेंगे. अदालत से लेकर सड़क तक, तुम अकेली नहीं हो. यह देश नफरत की आग में जलने के लिए नहीं बना है.”

अनीता ने सिर उठाकर दोनों भाइयों को देखा और खड़ी होकर बोली, “उन्होंने नफरत को धर्म मान लिया है, पर तुम दोनों ने प्यार का धर्म नहीं छोड़ा. वे कितना भी तोड़ें, मैं अपना विश्वास नहीं खोऊँगी.”

सलीम और राघव ने अनीता को सहारा दिया. जलते हुए चर्च की लपटें अब शांत हो रही थीं, लेकिन उस ढहे हुए घर के पास तीन दिलों की धड़कनें एक सुर में थीं. वहां न कोई हिंदू था, न मुसलमान, न ईसाई—वहां सिर्फ तीन 'इंसान' थे, जो एक नए सवेरे की नींव रख रहे थे.