भारत की जनता को जब जब भी चुनाव से निजात मिलती है, वह अपनी हालत के बारे में सोचने लगती है। जब जनता सोचने लगे तो सरकार के दफ्तर में खतरे का अलार्म बजने लगता है। तभी जरूरी हो जाता है कि उसे फिर से औंधे मुहँ पटका जाए। इस के लिए कुछ अधिक करने की जरूरत नहीं। सरकार पेट्रोल, डीजल या फिर रसोई गैस के दाम बढ़ा देती है। सेट फारमूला
है। कहा ये जाता है कि मजबूरी है। दुनिया भर में खनिज तेल के दाम बढ़ रहे
हैं कि कीमतें बढ़ानी पड़ीं। न बढ़ाएँ तो तेल कंपनियाँ औंधे मुहँ गिर जाएँ।
फिर कौन तेल खरीदेगा, कौन शोधेगा, कौन उसे गोदामों में पहुँचाएगा और कौन
पेट्रोल को पंपों तक, गैस को गैस एजेंसियो तक पहुँचाएगा। सारे वाहन रुक
जाएंगे, गति थम जाएगी, गांवों में कैरोसीन नहीं होगा, अंधेरा होगा। लालू की
लालटेन नहीं जलेगी, रसोइयों में गैस और केरोसीन नहीं होंगे तो रसोइयाँ रुक
जाएंगी। जनता में त्राहि-त्राहि कर उठेगी। कुछ कुछ वैसा ही सीन होगा जैसा
पिछले दिनों सीरियल ‘देवों के देव महादेव’ में देखने को मिला। पिता दक्ष ने
सती के पति को यज्ञ का न्यौता नहीं दिया, सती बिना न्यौते गई, तो पति का
घोर अपमान देखा, सती आत्मदाह पर उतारू हो गई, उसे किसी ने नहीं रोका,
आत्मदाह करना पड़ा। शिव क्रोधित हो कर तांडव नृत्य करने लगे। सम्पूर्ण जगत
में हाहाकार मच उठा।
बहुत दिनों से पेट्रोल के दाम बढ़ने की
खबर थी। पर कच्चे तेल के दाम गिर गए। सरकार में घबराहट में आ गई। न आई
होती तो कब के बढ़ा चुकी होती। पर रुपए ने रिकार्ड स्तर पर गिर कर सरकार की
घबराहट को थाम लिया, दाम बढ़ा दिए। दाम बढ़ने की खबर जंगल में आग की तरह
फैली, वाहनों ने पंपों पर कतारें लगा दीं। पेट में जितना समा सकता हो आधी
रात तक समा लो, उस के बाद तो बढ़ा हुआ दाम देना ही है। पंपों पर लगी कतारों
से सरकार की साँस में साँस आ गई। वह समझ गई, अभी वाहन वालों में बहुत दम
है, न होता तो वे पंप के बजाए सरकार की तरफ दौड़ते। नेतागणों ने नवीन
वस्त्र पहने और मेकप करवा कर तैयार हो गए, चालकों को वाहन हमेशा तैयार रहने
की हिदायत दे दी गई। टेलीफोन की घंटी बजने का इंतजार होने लगा। कब मीडिया
का बुलावा आए और वे कैमरे के सामने जा कर खड़े हों।
स्टूडियो में बहस चल रही है। विपक्ष कह
रहा है -सरकार जनता का तेल निकाल रही है। सरकारी नेता बोला –दाम बढ़ाने में
हमारा कोई रोल नहीं। कच्चे तेल के दाम बढ़े, कंपनियों ने पेट्रोल के दाम
बढ़ा दिए। इस में हम क्या कर सकते थे। नीति को विपक्षी जब सरकार में थे तो
उन्हों ने तय किया था, हम तो उन का अनुसरण कर रहे हैं। इधर छोटे परदे के
दर्शकों को समझ नहीं आ रहा है कि आखिर गलती सरकार की है या विपक्ष की? बहस
के बीच ही तेल के दाम और टैक्सों के गणित की क्लास शुरु हो जाती है। सवाल
पूछा जा रहा है -35 का तेल जनता को 75 में, 40 कहाँ गए? लोग सवाल का उत्तर
तलाश रहे हैं। जवाब नहीं आ रहा है। दर्शकों को पता है, चालीस कहाँ गए? पर
उन से कोई नहीं पूछता। उन्हें 75 देने हैं तो देने हैं। जनतंत्र है भाई,
जनता से पूछने लगे तो कैसे चलेगा?
जनतंत्र धन से चलता है, जनता से नहीं।
सरकार के पास धन नहीं होगा तो वह कैसे चलेगी? अस्पताल कैसे चलेंगे? मनरेगा
कैसे चलेगा? पोषाहार ... वगैरा वगैरा कैसे चलेंगे? घोटाले कैसे चलेंगे?
नेतागण कैसे चलेंगे? नेता न चले तो सरकार कैसे चलेगी? जनतंत्र कैसे चलेगा?
पेट्रोल, डीजल, गैस और केरोसीन के बिना जनता कैसे चलेगी? जनता को चलना है
तो उसे ये सब खरीदना पड़ेगा, किसी कीमत पर। वह जरूर कोई परम विद्वान रहा
होगा जिस ने तेल के साथ सरकार का टैक्स चिपकाया और जनतंत्र चलाने का स्थाई
समाधान कर दिया। 35 का तेल, 5 की ढुलाई और डीलर कमीशन, बाकी बचे 35 तो उस
से सरकार चलती है, जनतंत्र चलता है। ये 35 सीधे जनता की जेब से आता है,
किसी धनपति की जेब से नहीं। कोई हिम्मतवाला नहीं, जो कहे कि भारत का
जनतंत्र धनपति चलाते हैं, कोई हो भी तो कैसे? भारत का जनतंत्र जनता की जेब
से चलता है।
एक चैनल बता रहा है चीन की मुद्रा 0.6
प्रतिशत कमजोर हूई और वहाँ 9 मई को पेट्रोल की कीमतें घटाई गईं। पाकिस्तानी
रुपया एक साल में 4.5 प्रतिशत कमजोर हुआ, दाम 8.5 प्रतिशत बढ़े, लेकिन अब
घटाने की चर्चा है। इस घड़ी में भारत की तुलना उस के शत्रु मुल्कों से करने
वाले चैनल को तुरंत देशद्रोही घोषित कर देना चाहिए था। दक्ष ने तो शिव की
चर्चा तक पर प्रतिबंध लगा रखा था और उसे चाहने वाली अपनी सब से प्रिय
पुत्री तक को त्याग दिया था। इस चैनल ने इतना भी ध्यान न रखा कि भारत
दुनिया का सब से बड़ा जनतंत्र है जब कि इन शत्रु देशों में जनतंत्र का
नामलेवा तक नहीं। इन से भारत की तुलना करना अब तक अपराध क्यों नहीं। लेकिन
भारत सरकार रहम दिल है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से तुलना पर भी इस
चैनल पर प्रतिबंध नहीं लगा कर उस ने फिर से साबित कर दिया कि भारत में
जनतंत्र की जड़ें बहुत मजबूत हैं।
दक्ष को अनुमान नहीं था कि शिव तांडव
करेंगे, दुनिया पर कहर ढा देंगे। उसे कुछ-कुछ अनुमान रहा भी हो तो उसे
दुनिया से कोई लेना देना नहीं था। वैसे ही जैसे नेताओं को जनता से। उस ने
दुनिया की नहीं, खुद की सुरक्षा देखी, पालनहार विष्णु का भरोसा किया। दक्ष
का अहंकारी मस्तक धड़ से अलग हो यज्ञकुंड में गिरा और फटाफट भस्म हो गया।
पालनहार कुछ नहीं कर पाए, शिव से गुहार लगाई, महादेव¡ कुछ करो, वरना दुनिया
कैसे चलेगी? दक्ष को बकरे का सिर मिला, वह फिर से मिमियाने लगा।
जनतंत्र में किसी का सिर तो नहीं काटा जा
सकता न? सरे आम आग्नेयास्त्रों से कत्लेआम करने वाले कसाब तक का नहीं। उसे
भी सुनवाई का, अपील का और दयायाचिका का अवसर देना पड़ता है, जनतंत्र जो है।
फिर सरकार तो सरकार है, पाँच बरस के लिए चुन कर आती है, उस से पहले उस का
कोई क्या बिगाड़ सकता है? दिल्ली की सड़कों को तिरंगों से पाट कर भी अन्ना
ने क्या बिगाड़ लिया? हो तो वही रहा है न, जो सरकार चाह रही है। इसलिए जो
होना है वह पाँच बरस पूरे होने पर ही, उस के पहले कुछ भी नहीं।
चैनलों और अखबारों ने दो दिन सरकार को खूब आड़े हाथों लिया। फिर कहने लगे -सब से बड़े जनतंत्र की सरकार ऐसी वैसी
नहीं हो सकती। उसे रहमदिल होना चाहिए, वह है भी। शनि की तरह बेरहम नहीं कि
एक बार साढ़े साती चढ़ जाए तो साढ़े सात से पहले उतरें ही नहीं। उस का रहम
से भरपूर दिल सोच रहा है, क्यों न औंधे मुहँ पड़ी जनता को सीधा कर दिया
जाए, कुछ फर्स्ट एड दी जाए। साढ़े साती को ढैया से नहीं बदला जाए तो कम से
कम एक ढैया तो कम कर ही दी जाए। हो सकता है सरकार को दो साल बाद का मंजर
सताने लगे, जैसे कभी कभी शनि को लंका का कैदखाना याद हो आता है। लेकिन अखबारों, चैनलों का यह प्रयास भी व्यर्थ हो गया। सरकार का बयान आया कि वह बढ़ाई गई कीमतें कम नहीं कर सकती। शायद दो बरस का समय बहुत लंबा होता है और जनता को इतने समय तक कहाँ कुछ याद रहता है?