राजस्थान में गर्मी के मौसम में अप्रेल के तीसरे सप्ताह से जून के आखिरी सप्ताह तक उच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालयों का समय सुबह 7 बजे से 12 बजे तक का हो जाता है और जून के प्रथम से चौथे सप्ताह तक दीवानी न्यायालय में अवकाश हो जाता है। इस से यह सोचना कि कुछ न्यायालयों में ताला पड़ा रहता होगा गलत है। हमारे यहाँ ऐसा कोई न्यायालय है ही नहीं जो केवल दीवानी न्यायालय का काम देखता हो। सभी न्यायालयों को दीवानी और अपराधिक दोनों प्रकार का काम करना होता है। जैसे कनिष्ठ खंड सिविल न्यायाधीश के न्यायालय को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ भी होती हैं। इस तरह अपराधिक मुकदमों की सुनवाई इन अवकाशों में होती रहती है। इस के अतिरिक्त सभी दीवानी काम करने वाले विशेष न्यायालय जैसे मोटरवाहन दुर्घटना दावा अधिकरण, श्रम न्यायालय, परिवार न्यायालय और सभी राजस्व न्यायालय चलते रहते हैं। वकीलों को नित्य ही अदालत जाना पड़ता है।
लेकिन मेरे जैसे वकीलों को जिन के पास प्रमुखतः दीवानी मुकदमों का काम होता है, एक विश्राम मिल जाता है। हम चाहें तो इन दिनों बेफिक्र हो कर यात्रा पर जा सकते हैं। क्यों कि अवकाश होने से बाहर जाने वाले वकीलों को न्यायालय सहयोग करता है। अधीनस्थ भारतीय न्यायालयों के लिए इस तरह का सहयोग करना आसान है। उन की दैनिक सूची में 80 से सौ सवा सौ तक मुकदमे प्रतिदिन रहते हैं। वास्तविक काम सिर्फ 20-30 मुकदमों में हो पाता है। शेष मुकदमों में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। सुबह सुबह ही पेशकार को पता लग जाता है कि कौन कौन वकील आज नहीं है, वह उन के मुकदमों की पत्रावलियाँ अलग निकाल लेता है और न्यायाधीश की सहमति ले कर उन में अगली पेशी दे देता है।
अब सुबह की अदालतें और दीवानी अदालतों के अवकाश समाप्त होने को हैं। अगले बुध से न्यायालय सुबह 10 से 5 बजे तक के हो जाएंगे और दीवानी अदालतें भी आरंभ हो जाएंगी। मैं ने आज ही अपने कार्यालय को संभाला। अवकाश के दिनों में जिस तरह मैं काम करता रहा उस तरह से बहुत सी पत्रावलियाँ सही स्थान पर नहीं थीं। उन्हें सही किया और कामों की सूची बना ली। आम तौर पर वकीलों को इस काम के लिए बदनाम किया जाता है कि वे मुकदमों में पेशियों पर पेशियाँ ले कर मुकदमों को लंबा करते रहते हैं और यह मुकदमों में देरी का सब से बड़ा कारण है। लेकिन ऐसा नहीं है। मुकदमे तो इसलिए लंबे होते हैं कि अदालतें कम हैं, वे क्षमता से तीन-चार गुना काम प्रतिदिन रखती हैं, जिन में से तीन चौथाई से दो तिहाई में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। इस का नतीजा यह है कि वकील की डायरी में भी प्रतिदिन उस की क्षमता से तीन-चार गुना काम होता है। यदि वह अपनी क्षमता के अनुसार ही काम रखे तो उस में से तीन चौथाई में केवल पेशी बदल दी जाए तो उस के पास दिन का चौथाई काम ही रह जाए।
इस मामले में एक उदाहरण मेरे पास है। पिछले दो वर्ष से मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में किसी मुकदमे में पेशी एक माह से अधिक की नहीं दी जाती थी। अदालत लगभग तीस मुकदमे ही अपने पास रखती थी और चाहती थी कि हर मुकदमे में काम हो। यह अदालत अक्सर दो से तीन वर्ष में मुकदमों का निर्णय कर भी रही थी। लेकिन फास्ट ट्रेक अदालतों के समाप्त होने से मोटरयान अधिनियम की एक सहायक अदालत समाप्त हो गई। उस में लंबित सारे मुकदमे इसी अदालत के पास आ गए। अब वहाँ प्रतिदिन 60-70 मुकदमों की सूची बनने लगी है। वही दो तिहाई मामलों में पेशी ही बदलती है। पेशी भी अब दो-तीन माह से कम की नहीं लगाई जा रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में तुरंत वृद्धि की जाए। फिलहाल अमरीका की तुलना में भारत में केवल 15 प्रतिशत न्यायालय हैं और ब्रिटेन की तुलना में 25 प्रतिशत। न्याय नहीं के बराबर हो तो एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करना फिजूल है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मेरा प्रयत्न रहता है कि मेरे कारण किसी मुकदमे में पेशी न बदले। मेरी यह कोशिश जारी रहेगी।
भारत सरकार के मंत्रीमंडल ने इसी माह 'न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन' (“National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms) का कार्यक्रम हाथ में लेना तय किया है जिस में पाँच वर्षों में 5510 करोड़ रुपयों का खर्च आएगा। इसमें से 75 प्रतिशत का वहन केन्द्र करेगा और शेष का संबंधित राज्य। पूर्वोत्तर राज्यों के मामलों में केन्द्र 90 प्रतिशत खर्च उठाएगा। इस योजना के अंतर्गत नीतिगत और विधि संबंधी परिवर्तन, प्रक्रिया में परिवर्तन, मानव संसाधन विकास, सूचना तकनीक का उपयोग और अधीनस्थ न्यायालयों के भौतिक मूलढांचे का विकास सम्मिलित होंगे। कहा यह गया है कि वर्तमान में मुकदमों के निस्तारण में औसतन 15 वर्ष का समय लगता है इसे 3 वर्ष तक ले आया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो न्याय व्यवस्था में तेजी से सुधार देखने को मिलेंगे। लेकिन बिना अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह असंभव है जिस के लिए कुछ भी स्पष्ट रूप से इस कार्यक्रम में नहीं कहा गया है।
8 टिप्पणियां:
न्यायालय जब से बने हैं या पुलिस जब से है तब से अपराध और मुकद्दमे बढ़ रहे हैं। भारत में 1860 के बाद अपराध हजार गुना से ज्यादा बढ़े हैं।
मैं जानना चाहता हूँ कि इसकी वजह क्या है?
वैसे देश में मुकद्दमे इतने हो गए हैं कि न्यायालयों की जरूरत तो हर प्रखंड में हो गई है। सुना है कि किंग करोड़ से ज्यादा मुकद्दमें लम्बित हैं। यानि कम कम से कम 1000-1500 प्रखंड तो देश में होने चाहिए। और इस तरह 50 मुकद्दमे हर न्यायालय में हर दिन चलें तो सभी का निपटारा हो सकता है। लेकिन इतने न्यायालय सरकार नहीं खोलेगी, यह तय है क्योंकि वह नहीं चाहती कि लोग अदालतों के चक्कर से मुक्त हों।
साफ्टवेयर से लिखने का नतीजा हुआ 'तीन' की जगह 'किंग' हो गया।
शायद हमारे देश में न्यायिक प्रणाली का आमूलचूल परिवर्तन दरकार ह। पांच वर्ष की लम्बी न्यायिक लडाई के बाद एक किराएदार परिसर खाली करता है और मकान मालिक को फिर आदेश मिलता है कि उसे वापिस किराएदार को वह परिसर इसलिए दे दिया जाय कि उसने अपना कोई कार्य तीन माह की अवधि में प्रारम्भ नहीं किया। यह कौन सा कानून है कि पांच वर्ष खाली कराने में लगे और तीन माह बाद यह आदेश आए :( क्या यह हास्यस्पद स्थिति नहीं है?
न्याय की आस तुरन्त बँधे तो समाज पर लगाम लगती है।
bhaaijaan kota me 13 adalten khali hain or fir condolense or hdtaal bhi to hoti hai adhikari kese kaam karte hain hm jaante hain aap janate hain aese me sethi aayog ki riport laagu ho to bat ban jaye .akhtr khan akela kota rajsthan
देरी से मिला न्याय नहीं, अन्याय होता है.जल्दी न्याय मिले इसके लिए फाइलों में योजनाएं बनती हैं और किसी अलमारी में पड़ी धुल फांक रहती हैं.बस योजना के नाम आवंटन धन राजनीतिकों के स्विस बैंकों के खातों में जमा हो जाता है. फिर कुछ समय बाद फिर योजना बनाकर फिर पूरानी कहानी दोहराई जाती है.जनता को मूर्ख बनाकर अपना उल्लू सीधा किया जाता है.
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हम्म!! उम्दा आलेख...न्याय प्रक्रिया में सुधार की महति आवश्यक्ता है...
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