खबरों में सब से ऊपर आज बाबा रामदेव हैं। वे भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरे बैठे हैं। जिस तामझाम के साथ उन्हों ने तैयारी की है, उस से सरकार घबराई हुई भी है और किसी तरह उन्हें अपना सत्याग्रह टालने को मनाने पर तुली है। बाबा रामदेव हैं कि मान ही नहीं रहे हैं। उन की आवाज हर बार और तेज होती जाती है। हालांकि वे कह रहे हैं कि सरकार से उन की कोई लड़ाई नहीं है। सरकार किसी की भी हो उस से उन को कोई मतलब नहीं है, वे तो व्यवस्था बदलना चाहते हैं। अब उन्हें यह कौन समझाए कि सरकार व्यवस्था का मुखौटा होती है। सब से पहले उसी को नोंचना पड़ता है, तभी व्यवस्था के दर्शन होते हैं। वैसे हम तो राजनीति में पढ़ते आए कि पहले समाज में दास व्यवस्था थी, फिर सामंती व्यवस्था आयी और फिर पूंजीवादी व्यवस्था का पदार्पण हुआ। भारत में पूंजीवादी व्यवस्था आई तो, पर तब तक श्रमजीवी जनता के अहम् हिस्से किसानों और श्रमिकों के आंदोलन जोर पकड़ चुके थे। भारत का सुकुमार पूंजीवाद भयभीत भी था। उस ने सामंतवाद से हाथ मिला लिया। कहा- देखो यदि आपस में लड़े तो दोनों मारे जाएंगे। इसलिए समझौते के साथ दोनों जीते हैं। अब पिछले 64 बरस से दोनों दोस्ती निभा रहे हैं। हालांकि जहाँ मौका मिलता है वहाँ एक दूसरे की टांग खींचने का मौका नहीं चूकते। जहाँ श्रमजीवी जनता से मुकाबला करना होता है या उन्हें बेवकूफ बनाना होता है तो दोनों ही एक पायदान पर खड़े दिखाई देते हैं।
हम ने मजदूरों और किसानों की समाजवादी व्यवस्था के बारे में भी सुना था। पर समाजवाद शब्द का इस्तेमाल इतनी डिजाइन के लोगों ने किया है कि उस का असली मतलब ही गुम हो चुका है। फिर सातवें दशक में जनता के जनतंत्र का नारा बुलंद हुआ। पर उस नारे को लगाने वाले अगले ही दशक में भूल कर तीन राज्यों की सरकारों में उलझ गए। उन के नेता और कॉडर दोनों ही जनता के जनतंत्र के स्थान पर समाजवाद की दुहाई देते रहे। सरकारों से अंदर बाहर होते-होते इस बार आखिरी सरकार भी खो बैठे। वे अभी भी आस लगाए बैठे हैं कि सरकार में वापस लौट आएंगे। पर हमें लगता है कि जनता अब उन्हें शायद ही फिर से उतनी तरजीह दे। सही कहा है कि काठ की हाँडी दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ती।
बाबा रामदेव सामंतों, देशी पूंजीपतियों और उन के परदेसी खैरख्वाहों की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ऐसा लगता नहीं है। वह ट्रस्ट जिस के वे सर्वेसर्वा हैं, खुद पूंजीवाद का एक बढ़िया नमूना है। यदि वे इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो सब से पहले उन्हें अपने ट्रस्ट के हितों को त्यागना होगा। जो वे नहीं कर सकते। वैसे व्यवस्था परिवर्तन के इस पहले दौर में सत्याग्रह के लिए उन की मांगे इस प्रकार हैं -
1- सरकार करप्शन के खिलाफ अगस्त 2011 तक एक प्रभावी जन लोकपाल बिल पास करे।
2- विदेशों में जमा ब्लैक मनी को वापस लाने के लिए कानून बने।
3- विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा ब्लैक मनी को तुरंत राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए।
4- बाहर पैसा जमा कराने वालों पर देशद्रोह का केस दर्ज हो। सरकार इसमें पूरी पारदर्शिता बरते। भ्रष्टाचारियों के नाम इंटरनेट पर अपलोड हों, ताकि देश की जनता उसे देख सके।
5- भ्रष्टाचारियों के खिलाफ मृत्युदंड का प्रावधान हो।
6- देश के हर हिस्से से ब्रिटेन पर आधारित सिस्टम को खत्म किया जाए।
7- सरकार यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन( UNCAC) पर तुरंत साइन करे।
8- करप्शन को रोकने के लिए बड़े नोट बंद किए जाएं। सरकार 1000, 500, 100 के नोट वापस मंगाए।
कुल मिला कर इन मांगों में पहले दर्जे की मांगें तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद और बचा-खुचा सामंतवाद शुचिता का व्यवहार करे, लेकिन बना रहे। इन दोनों चाहतों में जबर्दस्त टकराहट है। यह वैसे ही है जैसे किसी इंसान का दिल निकाल लिया जाए और फिर यह इच्छा व्यक्त की जाए कि वह जीवित रहेगा। उन की दूसरे दर्जे की मांगें काम की कम और प्रचारात्मक अधिक हैं, जैसे देश के हर हिस्से ब्रिटिश सिस्टम को समाप्त किया जाए, उच्च स्तर तक की शिक्षा और परीक्षा मातृभाषा में होने लगे आदि आदि। इस से ऐसा लगता है कि जिस कदर पिछले सालों में बहुराष्ट्रीय पूंजी ने भारत में आ कर कोहराम मचाया है और राष्ट्रीय पूंजी को अपना ऐजेंट भर बनाने पर तुली है उस से राष्ट्रीय पूंजीपति की साँसे रुक रही हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति अब देश की व्यवस्था में अधिक बड़ा हिस्सा चाहता है। बाबा रामदेव के मुहँ से वही बोल रहा है। तो यह लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की नहीं, अपितु व्यवस्था में छोटे भाई द्वारा बड़े भाई से बराबर का हिस्सा चाहने की लड़ाई है। पूंजीवाद के अंदर का अंतर्विरोध हल होना चाहता है। भ्रष्टाचार पर कहर तो इसलिए टूट रहा है कि छोटे भाई पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए वह सब से बड़े हथियार के रूप में काम करता है। अब छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है। अभी तो हथियार जमीन पर रखवाने की लड़ाई आरंभ हुई है।
हम ने मजदूरों और किसानों की समाजवादी व्यवस्था के बारे में भी सुना था। पर समाजवाद शब्द का इस्तेमाल इतनी डिजाइन के लोगों ने किया है कि उस का असली मतलब ही गुम हो चुका है। फिर सातवें दशक में जनता के जनतंत्र का नारा बुलंद हुआ। पर उस नारे को लगाने वाले अगले ही दशक में भूल कर तीन राज्यों की सरकारों में उलझ गए। उन के नेता और कॉडर दोनों ही जनता के जनतंत्र के स्थान पर समाजवाद की दुहाई देते रहे। सरकारों से अंदर बाहर होते-होते इस बार आखिरी सरकार भी खो बैठे। वे अभी भी आस लगाए बैठे हैं कि सरकार में वापस लौट आएंगे। पर हमें लगता है कि जनता अब उन्हें शायद ही फिर से उतनी तरजीह दे। सही कहा है कि काठ की हाँडी दुबारा चूल्हे पर नहीं चढ़ती।
बाबा रामदेव सामंतों, देशी पूंजीपतियों और उन के परदेसी खैरख्वाहों की इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं ऐसा लगता नहीं है। वह ट्रस्ट जिस के वे सर्वेसर्वा हैं, खुद पूंजीवाद का एक बढ़िया नमूना है। यदि वे इस व्यवस्था को बदलना चाहते हैं तो सब से पहले उन्हें अपने ट्रस्ट के हितों को त्यागना होगा। जो वे नहीं कर सकते। वैसे व्यवस्था परिवर्तन के इस पहले दौर में सत्याग्रह के लिए उन की मांगे इस प्रकार हैं -
1- सरकार करप्शन के खिलाफ अगस्त 2011 तक एक प्रभावी जन लोकपाल बिल पास करे।
2- विदेशों में जमा ब्लैक मनी को वापस लाने के लिए कानून बने।
3- विदेशों में भारतीयों द्वारा जमा ब्लैक मनी को तुरंत राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जाए।
4- बाहर पैसा जमा कराने वालों पर देशद्रोह का केस दर्ज हो। सरकार इसमें पूरी पारदर्शिता बरते। भ्रष्टाचारियों के नाम इंटरनेट पर अपलोड हों, ताकि देश की जनता उसे देख सके।
5- भ्रष्टाचारियों के खिलाफ मृत्युदंड का प्रावधान हो।
6- देश के हर हिस्से से ब्रिटेन पर आधारित सिस्टम को खत्म किया जाए।
7- सरकार यूनाइटेड नेशन्स कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन( UNCAC) पर तुरंत साइन करे।
8- करप्शन को रोकने के लिए बड़े नोट बंद किए जाएं। सरकार 1000, 500, 100 के नोट वापस मंगाए।
कुल मिला कर इन मांगों में पहले दर्जे की मांगें तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध हैं। वे चाहते हैं कि राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय पूंजीवाद और बचा-खुचा सामंतवाद शुचिता का व्यवहार करे, लेकिन बना रहे। इन दोनों चाहतों में जबर्दस्त टकराहट है। यह वैसे ही है जैसे किसी इंसान का दिल निकाल लिया जाए और फिर यह इच्छा व्यक्त की जाए कि वह जीवित रहेगा। उन की दूसरे दर्जे की मांगें काम की कम और प्रचारात्मक अधिक हैं, जैसे देश के हर हिस्से ब्रिटिश सिस्टम को समाप्त किया जाए, उच्च स्तर तक की शिक्षा और परीक्षा मातृभाषा में होने लगे आदि आदि। इस से ऐसा लगता है कि जिस कदर पिछले सालों में बहुराष्ट्रीय पूंजी ने भारत में आ कर कोहराम मचाया है और राष्ट्रीय पूंजी को अपना ऐजेंट भर बनाने पर तुली है उस से राष्ट्रीय पूंजीपति की साँसे रुक रही हैं। राष्ट्रीय पूंजीपति अब देश की व्यवस्था में अधिक बड़ा हिस्सा चाहता है। बाबा रामदेव के मुहँ से वही बोल रहा है। तो यह लड़ाई व्यवस्था परिवर्तन की नहीं, अपितु व्यवस्था में छोटे भाई द्वारा बड़े भाई से बराबर का हिस्सा चाहने की लड़ाई है। पूंजीवाद के अंदर का अंतर्विरोध हल होना चाहता है। भ्रष्टाचार पर कहर तो इसलिए टूट रहा है कि छोटे भाई पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए वह सब से बड़े हथियार के रूप में काम करता है। अब छोटा भाई बड़े भाई से बड़ा हथियार जमीन पर रखवा कर कुश्ती लड़ना चाहता है। अभी तो हथियार जमीन पर रखवाने की लड़ाई आरंभ हुई है।
13 टिप्पणियां:
बहरहाल सिल्वर लाइनिंग जैसा कुछ है तो यहीं है.
देश के हर हिस्से से ब्रिटेन पर आधारित सिस्टम को खत्म किया जाए। जब की यह सिस्टम अब ब्रिटेन मे भी बदल गया हे ओर हमारे यहां सदियो से चला आ रहा हे, इसे बदलना ही चाहिये, लेकिन यह सब बाते बाद की हे, पहले असली मुद्दो पर बात होनी चाहिये...ब्रिटेन मे बडे नोट चलन मे नही हे
पूंजी, श्रम और रचनात्मकता का महत्व सदा रहा है और सदा रहेगा। कोई भी प्रशासनिक/राजनैतिक व्यवस्था इनके महत्व को नकारकर लम्बे समय तक टिक नहीं सकती है। इसी प्रकार एकाधिकारी व्यवस्थाओं के मुकाबले जनतांत्रिक व्यवस्थायें सदा ही जनप्रिय रहेंगी, असफल रहेंगी तो और अधिक सुधरकर फिर-फिर प्रचलन में आयेंगी।
आदर्श या बेहतर स्थितियां के लिए कल्पना हो, विचार या प्रयास, स्वागतेय होना चाहिए.
khuda kare is ldayi me desh or deshvasisyon ko kaamyabi mile ...akhtar khan akela kota rajsthan
कोई भी हो यदि उसका इरादा राष्ट्रहित में हो तो उसका स्वागत है | व्यवस्था कोई भी हो उसमे जनकल्याण व राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए | पूंजीवाद की खिलाफत व मजदुर हकों की लड़ाई का दम भरने वाले वामपंथियाँ के नाटक भी यह देश देख चूका है,उन्होंने भी अपने काडर को प्राथमिकता दी देश व मजदुर को नहीं |
धन बहे, कहीं पर जाकर ठहरे नहीं। धन धान्य से भारत तृप्त रहे।
.बाबा अपनी बाज़ीगरियों के दम पर स्थापित तो हो लिये... अब अपने को परिभाषित किये जाने की जल्दबाज़ी में दिन प्रति दिन नये पैंतरें आज़मा रहे हैं । गौर से देखें तो इसमें अपने को युगपुरुष सिद्ध करने की महत्वाकाँक्षा निहित है । नेतृत्व या अध्यात्मिक स्तर पर मैं उन्हें कभी स्वीकार नहीं पाया ।
शुरुआत में सरकार ने अन्ना को गँभीरता से नहीं लिया, पर उनको मिले व्यापक जनसमर्थन और मीडिया की रूझान से वह चकित रह गयी । बाबा के सँदर्भ में सरकार उन्हें कुछ अधिक ही महत्व दे बैठी । बाबा इतनी तैयारी से, इतने जोशो खरोश से आये हैं कि उन्हें एक या दो दिनों का अनसन तो करना ही पड़ेगा... उन्हें अपने प्रायोजकों को मुँह भी तो दिखाना है । वह सरकार से किस स्तर की और क्या बातचीत कर रहे हैं, यह उनकी जयकारा लगाने वाले भी नहीं जानते ।
भारतीय भीड़तँत्र का चरित्र लोकतँत्र से अधिक व्यक्तितँत्र के प्रतिबद्ध रहा है ।
अनुराग शर्मा और राज भाटिया जी की टिप्पणी की तथ्यात्मकता को मेरा भी समर्थन है, इसे हल्के में न लिया जाना चाहिये ।
कुछ भी हो कोई भी हो जो राष्ट्रहित में कदम उठाएगा हम उसका साथ जरूर देंगे !राष्ट्र हित सर्वोपरि बंदे मातरम !
अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी वर्ग दुनिया को साम्यवाद और पूँजीवाद के चश्मे से ही देखने की आदत बदल ले। आधुनिक लोकतंत्र में अब केवल नारे लगाने से काम नहीं चलने वाला है।
भ्रष्टाचार को मिटाने या घटाने करने के लिए यदि बाबा रामदेव ने इसके विरुद्ध जनमत तैयार किया है, पूरे देश में घूम-घूमकर यदि यह आशा संचारित की है कि जनता की जागरूकता और दबाव से इस बुराई पर विजय पायी जा सकती है, यदि वे एक निर्णायक लड़ाई लड़ने का हौसला दिखा रहे हैं तो उनकी टांग खींचने के बजाय उस उद्देश्य के समर्थन में खड़ा होना चाहिए। यदि उनका प्रयास दूषित है तो इससे बेहतर विकल्प सामने रखना चाहिए।
यह दुखद है कि विनोद मेहता जैसे प्रतिष्ठित संपादक उनके अभियान की खिल्ली उड़ा रहे हैं और दिल्ली में बैठकर इस भ्रष्ट व्यवस्था का सुख भोग रहे हैं।
पूँजीवाद के नाम से जुड़ी हर चीज की आलोचना ही करते रहना हमें कहीं नहीं ले जाएगा। एक लोकतांत्रिक समाज की रचना इसी व्यवस्था के अंतर्गत हो पायी है जो लगातार आगे बढ़ रहा है। इसमें सबको अपने तरीके से आगे बढ़ने की छूट है।
कुछ भी हो जी, इन दो लोगों (अन्ना एवं बाबा) ने बहरी सरकार को सुनने पर मजबूर कर दिया।
एक महत्त्वपूर्ण प्रस्तुति...
और डॉ. अमर कुमार की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी...
गोलमाल सामने आ ही जाएगा...
जो समझना चाहेंगे...समझ लेंगे...
आपके इशारे सही हैं !
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