@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: बटुए में, सपनों की रानी

गुरुवार, 30 जून 2011

बटुए में, सपनों की रानी

हाय!
क्या जमाना था वह भी? चवन्नी चवन्नी नहीं महारानी विक्टोरिया और मधुबाला की तरह हुआ करती थी। जिसे दूर से देखा जा सकता था। तब तक चूड़ी बाजे में वह गाना भी नहीं बजा था ... मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू ... चली आ .... तू चली आ ... वरना हम मन ही मन अक्सर उसे ही गा रहे होते।


दादाजी, हमें दो पैसे देते थे। कभी दो बड़े बड़े तांबे के पैसे, कभी एक बड़ा पैसा और एक छेद वाला पहिए जैसा। एक पैसे के मोटे सेव और एक पैसे का कलाकंद उस छोटे से पेट के लिए पर्याप्त से अधिक ही होता था। तब तक स्कूल के दर्शन भी नहीं किए थे। लेकिन बालपोथी के चित्र देख-देख अक्षर पढ़ना सीख लिए थे, फिर मात्राएँ भी आने लगी थीं। बारह खड़ी बोलने में मजा आता था। कक्का किक्की कुक्कू केकै कोकौ कंकः .... कन्दोई की दुकान से अखबार के टुकड़ों में सेव-कलाकंद ले कर आते और घर के किसी एकांत कोने में बैठ कर नाश्ते का आनंद लेते हुए अखबार पढने की कोशिश करते।

सुनते थे कि पैसे की भी पाइयाँ होती थीं, तब बंद हो चुकी थीं। बिलकुल अभी आज से बंद होने वाली चवन्नी जैसी। पर कभी कभी दादा जी के पास देखने को मिल जाती थीं। एक किस्सा सुनाया जाता था कि अंग्रेज अफसर को गाँव में रुकना पड़ गया सोने के लिए उस ने किसी किसान से चारपाई का इंतजाम करने को कहा। बेचारा पूरे गाँव में मारा मारा फिरा और घंटे भर बाद आकर कहा म्हारा! तीन ही मिली। अंग्रेज को समझाने में पसीने छूट गए कि उसे चारपाई चाहिए चार पाई नहीं। किसान समझा तो बोला। तो म्हारा फैली ख्हता नै कै खाट छाईजे। वा तो म्हारा घरणे ई चार-चार छै।
शहर में सिनेमा घर तो था नहीं। दिन भर मैदान खेलने के काम आता था और रात में चारों और परदों की दीवार बना दी जाती थी, उसी में सिनेमा दिखाया जाता था। उसे फट्टा टाकिज कहा करते थे। उस में हमें पहली बार जब सिनेमा देखने का मौका मिला तो टिकट चवन्नी का था। 
फिर बड़ा पैसा, छेद वाला पैसा बंद हुआ। एक नया पैसा आ गया। अम्माँ के माथे की बिंदी जितना बड़ा और वैसा ही गोल तांबे का। इकन्नी चार पुराने पैसों के बजाए नए छह पैसों की हो गई चवन्नी पच्चीस की और रूपया 100 पैसे का। ये फायदा होने  लगा कि चवन्नी के खुट्टे लो तो चार आने के अलावा एक पैसा बच जाता। सारा हिसाब गड़बड़ा गया। फिर इकन्नी भी बंद हो गई। पच्चीस पैसे वाली चवन्नी चलती रही। वह चवन्नी नहीं थी चौथाई रुपया था, या फिर पच्चीस पैसे का सिक्का, पर उस ने चवन्नी का नाम चुरा लिया था। उस नाम को आज तक धरे रही। आज उस का भी आखिरी समय आ ही गया। 
धर हाडौ़ती में तो चवन्नी क्या अठन्नी भी सालों से बंद है। बेटी मुम्बई पढ़ने लगी तो वहाँ चवन्नी चलती दिखाई दी थी। जब भी मुम्बई जाता एक-दो चवन्नियाँ जेब में चली आतीं। पिछले पाँच बरस से मुम्बई नहीं गया हूँ, लेकिन वहाँ से आई एक चवन्नी मेरे बटुए में अभी तक पड़ी है। उसे देखता हूँ, उसे कहता हूँ। आज से तेरी भी बाजार से छुट्टी। मैं उसे बटुए से निकाल कर श्रीमती जी को पकड़ा रहा हूँ। कुछ पुराने चाँदी के सिक्के हैं जो एक कपड़े के खूबसूरत बटुए में रखे हैं, जिन्हें वे दीवाली के दिन निकाल कर धो-पोंछ कर रख देती हैं पूजा में। कहता हूँ -इस चवन्नी को भी वहीं रख दो। देखा करेंगे दीवाली के दीवाली।

20 टिप्‍पणियां:

Khushdeep Sehgal ने कहा…

चवन्नी की बेहतरीन यादें...

वैसे अठन्नी का औपचारिक रूप से चलन बंद होना भी कुछ ही वक्त की बात रह गई है...व्यावहारिक रूप से अठन्नी का चलन भी बहुत सीमित रह गया है...

जय हिंद...

चंदन कुमार मिश्र ने कहा…

हम तो पाँच पैसे से अपनी यात्रा शुरु किए। हाँ छोटी वाली दस पैसाही(हमारी भाषा में) या बड़ी वाली चलाई है। पँचपैसाही चकलेट मिलता था(हमारे यहाँ तो चकलेट ही कहते थे)यानि एक रुपये में बीस। लेकिन अब तो इतने दुष्ट किस्म के दुकानदार हैं कि पचास पैसा न देकर पचास पैसे की कोई चीज देना चाहते हैं जिसकी कीमत उनके लिए पंद्रए-बीस आ तीस पैसे ही हो।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बढ़िया चवन्नी संस्मरण ... ताम्बे का एक पैसा तो हमने भी उपयोग किया है ..पाई नहीं .. चारपाई का किस्सा भी बढ़िया रहा :) धेले और अधन्ने की बात माँ से सुनी थी ... दिल्ली में तो चवन्नी अठन्नी कोई दो साल से ही नहीं लेता ..कह देते हैं की जी मंदिर में चढा दो :) भगवान सब ले लेते हैं ..

निर्मला कपिला ने कहा…

मुझे तो चिन्ता है जो लोग सवा रुपये या सवा पाँच का परशाद चढाते थी उनका क्या होगा? क्या चवन्नी के बिना भगवान परशाद मंजूर करेंगे। अब तो कम से कम ग्यारह रुपये से कम काम नही चलेगा। आखिर भगवान के लिये भी तो मंहगायी बढ गयी है। वाह रे गरीब्! तुझे तो परशाद मे ही चू0ना लग गया।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

bahut kuch yaad aa gaya aur aai hothon pe ek muskaan

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

जब मैं तीसरी क्‍लास में था, तो मुझे जेबखर्च के लिए चवन्‍नी मिला करती थी। पर वह समय और था और यह और। आज चवन्‍नी क्‍या अठन्‍नी की भी कोई कीमत नहीं बची। दुकानदार उसे भी लेने से इनकार करते हैं। सरकार को उसे भी बंद कर देना चाहिए।

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ओझा उवाच: यानी जिंदगी की बात...।
नाइट शिफ्ट की कीमत..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

आज आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....


बटुए में , सपनों की रानी ...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .
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प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पैसे की कहानी, हाथ में चवन्नी होती थी और स्वयं को राजा मान बैठते थे हम।

Arvind Mishra ने कहा…

कोई एक फ़िल्मी गाना भी तो था न -राजा दिल मांगें चवन्नी उछाल के ...
तब चवन्नी की भी कितनी कीमत होती थी .....

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

हमारे एक परमादरणीय बुज़ुर्गवार थे, उन्होंने अपने जीवन-काल में अनेक प्रतिमानों को गढ़ा, अनेक ऊँचाइयां स्पर्श कीं, कहा करते थे कि 'जेब में चवन्नी और ख़्वाब दिल्ली फ़तह करने की' यह उनका जुमला भावी पीढ़ी क्या समझेगी उसे तो चिवन्नी का भी पता नहीं
है

रविकर ने कहा…

पूजा खातिर चाहिए सवा रुपैया फ़क्त |
हुई चवन्नी बंद तो खफा हो गए भक्त ||

कम से कम अब पांच ठौ, रूपया पावैं पण्डे |
पड़ा चवन्नी छाप का, नया नाम बरबंडे ||

बहुतै खुश होते भये, सभी नए भगवान् |
चार गुना तुरतै हुआ, आम जनों का दान ||

मठ-मजार के नगर में, भर-भर बोरा-खोर |
भ'टक साल में भेजते, सिक्के सभी बटोर || |

भ'टक-साल सिक्का गलत, मिटता वो इतिहास |
जो काका के स्नेह सा, रहा कलेजे पास ||

अन्ना के विस्तार को, रोकी ये सरकार |
चार-अन्ने को लुप्त कर, जड़ी भितरिहा मार ||

बड़े नोट सब बंद हों, कालेधन के मूल |
मठाधीश होते खफा, तुरत गयो दम-फूल ||

महाप्रभु के कोष में, बस हजार के नोट |
सोना चांदी-सिल्लियाँ, रखें नोट कस छोट ||

बिधि-बिधाता जान लो, होइहै कष्ट अपार |
ट्रक- ट्रैक्टर से ही बचे, गर झूली सरकार ||

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

sunder ehsaso se avgat karaya.
aaj mujhe bhi samachar sun kar yaad aa raha tha ki 2-4 chavanniya mere paas bhi padi thi ....mano sambhal ke rakhi thi aur lagta tha ki inka chalan bhi ab khatam ho chala hai...to sambhal k rakh dete hain...aur aaj vahi ho gaya...ek sansmaran ban kar rah gayi aaj chavanni.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

क्या कुछ देख डाला जीवन के इस लम्बे सफ़र में... इकन्नी, दुअन्नी से लेकर नये पैसे का बदला ज़माना और वह भी गोल से चौकोर होकर गुल हो गया, फिर दस पैसे और बीस पैसे के सिक्के भी इतिहास बन गए अब चव्वनी तो गई और अठन्नी की बारी करीब लगती है:(

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

मौलिक चिंतन से ओतप्रोत बढ़िया पोस्ट.चवन्नी और दुअन्नी तो केवल किताबी बातें रह गयी.

bhuvnesh sharma ने कहा…

Aapka blog aajkal mobile par padh raha hu, hindi type na hone se comment nahi de pa rahandi type na hone se comment nahi de pa raha

राज भाटिय़ा ने कहा…

धेला, एक पैसा; टकी,छेद वाला पैसा सब देखे खर्चे, आज भी यह सिक्के दिमाग मे कही बेठे हे, बहुत सुंदर लगा चव्वनी के बारे यहं पढ कर

Udan Tashtari ने कहा…

अब बस यादों मे रह जायेगी...

वाणी गीत ने कहा…

ऑफ़ द रिकोर्ड तो चवन्नी और अठन्नी कब से ही बंद है ...एक -पांच- दस के पुराने सिक्कों के बीच इस को भी जमा कर देते हैं , दिवाली पूजन पर काम आ जायेंगे !

Rahul Singh ने कहा…

देख ही नहीं पाए हैं इसलिए हमारे लिए तो चवन्‍नी-अठन्‍नी काफी दिनों से बंद है. (कोई बीसेक साल पहले बाटा की दुकानों के सौदे में अन्‍यत्र दुर्लभ हो गया एक पैसा दिखता था.)

रविकर ने कहा…

बहुत-बहुत बधाई |
चवन्नी के जाने का दर्द वो क्या जाने बाबू--
जिन्हें हजार के नोटों से ही मतलब ||