पिछली पोस्ट मेरा सिर शर्म से झुका हुआ है पर पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आशा के अनुरूप सकारात्मक रहीं। एक तथ्य बहुमत से सामने आया कि इस तरह की यह अकेली नहीं है और समाज में ऐसा बहुत देखने में आ रहा है। जिस से हम इस परिणाम पर पहुँच सकते हैं कि यह गड़बड़ केवल किसी व्यक्ति-विशेष के चरित्र की नहीं, अपितु सामाजिक है। समाज में कोई कमी पैदा हुई है, कोई रोग लगा है, सामाजिक तंत्र का कोई भाग ठीक से काम नहीं कर रहा है या फिर बेकार हो गया है। यह भी हो सकता है कि समाज को कोई असाध्य रोग हुआ हो। निश्चित रूप से इस बात की सामाजिक रूप से पड़ताल होनी चाहिए। ग़ालिब का ये शैर मौजूँ है ...
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
... तो दर्द की दवा तो खोजनी ही होगी। पर दवा मिलेगी तब जब पहले यह पता लगे कि बीमारी क्या है? उस की जड़ कहाँ है? और जड़ को दुरुस्त किया जा सकता है, या नहीं? यदि नहीं किया जा सकता है तो ट्रांसप्लांट कैसे किया जा सकता है?
चलिए वापस उसी खबर पर चलते हैं, जहाँ से पिछला आलेख आरंभ हुआ था। श्रीमती प्रेमलता, जी हाँ, यही नाम था उस बदनसीब महिला का जिसे उस की ही संतान ने कैद की सज़ा बख़्शी थी। तो प्रेमलता की बेटी सीमा और दामाद जो ब्यावर में निवास करते हैं खबर सुन कर मंगलवार कोटा पहुँचे और प्रेमलता को संभाला। बेटी सीमा ने घर व मां के हालात देखे तो उसकी रुलाई फूट पड़ी। वह देर तक मां से लिपटकर रोती रही। कुछ देर तक तो प्रेमलता को भी कुछ समझ नहीं आया लेकिन, इसके बाद वह भी रो पड़ी। उसने बेटी को सारे हालात बताए। मां-बेटी के इस हाल पर पड़ौसी भी खुद के आंसू नहीं रोक सके। बाद में पड़ोसियों ने उनको ढांढस बंधाया और चाय-नाश्ता कराया। चित्र इस बात का गवाह है, (यह हो सकता है कि खबरी छायाकार ने इस पोज को बनाने का सुझाव दिया हो, जिस से वह इमोशनल लगे) ख़ैर, प्रेमलता को किसी रिश्तेदार ने संभाला तो। बुधवार को बेटी और दामाद प्रेमलता को ले कर अदालत पहुँचे, एक वकील के मार्फत उन्हों ने घरेलू हिंसा की सुनवाई करने वाली अदालत में बेटे-बहू के विरुद्ध प्रेमलता की अर्जी पेश करवाई। इस अर्जी में कहा गया है ...
1. सम्भवत: बेटे-बहू ने मकान की फर्जी वसीयत बना ली है तो उसे उसका हिस्सा दिलाया जाए;
2. लॉकर में जेवर रखे हैं, लॉकर की चाबी दिलाई जाए;3. खाली चेकों पर हस्ताक्षर करवा रखें हो तो उन्हें निरस्त समझा जाए; और
4. पेंशन लेने में बेटा किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न नहीं करे।
अदालत ने अगले सोमवार तक के लिए प्रेमलता को बेटी-दामाद के सुपूर्द कर दिया। बेटे के नाम नोटिस जारी किया गया कि वह भी सोमवार को अदालत में आ कर अपना पक्ष प्रस्तुत करे। मकान को बंद कर पुलिस ने चाबी बेटे के एक रिश्तेदार के सुपुर्द कर दी। शाम को प्रेमलता अपनी बेटी-दामाद के साथ ब्यावर चली गईं। बेटे-बहू का पता लगा है कि वे शिरड़ी में साईं के दर्शन कर रहे थे और अब खबर मिलने पर घर के लिए रवाना हो चुके हैं। अखबारों के लिए प्रेमलता सुर्ख ख़बर थी। तीन दिनों तक अखबार उन्हें फोटो समेत छापते रहे। आज के अखबार में उन का कोई उल्लेख नहीं है। अब जब जब मुकदमे की पेशी होगी और कोई ख़बर निकल कर आएगी तो वे फिर छपेंगी। अखबारों को नई सुर्खियाँ मिल गई हैं। मुद्दआ तक अख़बार से गायब है। ऐसी ही कोई घटना फिर किसी प्रेमलता के साथ होगी तो वह भी सुर्ख खबर हो कर अखबारों के ज़रीए सामने आ जाएगी।
प्रेमलता के पति बैंक मैनेजर थे, उन का देहान्त हो चुका है, लेकिन प्रेमलता को पेंशन मिलती है जो शायद बैंक में उन के खाते में जमा होती हो और जिसे उन का पुत्र उन के चैक हस्ताक्षर करवा कर बैंक से ले कर आता हो। इसलिए खाली चैकों का विवाद सामने आ गया है। पति मकान छोड़ गये हैं, हो सकता है उन्हों ने बेटे के नाम सिर्फ इसलिए वसीयत कर दी हो कि बेटी अपना हक न मांगने लगे। अब बेटी-दामाद के आने पर वह वसीयत संदेह के घेरे में आ गई है और माँ ने तो अपना हक मांग ही लिया है, जो बँटवारे के मुकदमे के बिना संभव नहीं है, वह हुआ तो बेटी भी उस में पक्षकार होगी। प्रेमलता जी के जेवर लॉकर में हैं, जिस की चाबी बेटे के पास है उसे मांगा गया है। पेंशन प्राप्त करने में बेटा बाधा है यह बात भी पता लग रही है। कुल मिला कर प्रेमलता के पास संपत्ति की कमी नहीं है। उस के बावजूद भी उन की हालत यह है। मेरा तो अभिमत यह है कि इस संपत्ति के कारण ही बेटा-बहू प्रेमलता जी पर काबिज हैं और शायद यही वह वज़ह भी जिस के कारण वे उन्हें किसी के साथ छोड़ कर जाने के ताला बंद मकान में छोड़ गए। लेकिन इस एक घटना ने उनके सारे मंसूबों पर पानी फेर दिया है।
कहते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?
चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है
कहते हैं कि संपत्ति है तो सारे सुख हैं और वह नहीं तो सारे दुख। लेकिन यहाँ तो संपत्ति ही प्रेमलता जी के सारे दुखों का कारण बनी है। दुनिया में जितने दुख व्यक्तिगत संपत्ति के कारण देखने को मिले हैं उतने दुख अन्य किसी कारण से नहीं देखने को मिलते। मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है। लेकिन एक बडा़ सच यह भी है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अर्जन, उस के लगातार चंद हाथों में केन्द्रित होने से उत्पन्न अंतर्विरोध और उन के हल के लिए किए गए जनसंघर्ष आदिम जीवन से आज तक की विकसित मानव सभ्यता तक के विकास का मूल कारण रहे हैं। यहाँ जितनी संपत्ति है उसे किसी न किसी तरह बेटा-बहू अपने अधिकार में बनाए रखना चाहते हैं। इतना ही नहीं वे उस के हिस्सेदारों को उन का हिस्सा तक नहीं देना चाहते। यही संघर्ष संपूर्ण समाज में व्याप्त है। 20 रुपए प्रतिदिन की कमाई को गरीबी की रेखा मानने वाले देश में जितने घोटाले सामने आ रहे हैं उन में से अधिकतर करोड़ों-अरबों के हैं। संपत्ति का यह संकेंद्रण और दूसरी और देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के बीच बिखरी गरीबी भारत का सब से महत्वपूर्ण अंतर्विरोध बन गई है। यह अंतर्विरोध हल होना चाहता है। जितने भी संपत्ति संकेंद्रण के केन्द्र हैं और जो भी राजनीति में उन के प्रतिनिधि हैं वे इस अंतर्विरोध को हल होने से रोकने के लिए समाज में इधर-उधर के मुद्दए उठाते रहते हैं। ताकि जनता का ध्यान भटका रहे। लेकिन अंतर्विरोध हल होना चाहता है तो वह तो हो कर रहेगा। उसे जनता सदा सर्वदा के लिए नहीं ढोती रह सकती। आज भ्रष्टाचार समाप्त करने के नारे की जो गूंज जनता के बीच सुनाई दे रही है उस से यह अंतर्विरोध हल नहीं होगा, इस का अहसास इस मुद्दए को उठाने वालों को है। इसीलिए वे नई आजादी हासिल करने की बात साथ-साथ करते चलते हैं। पर यह भी तो स्पष्ट होना चाहिए कि यह नई आजादी कैसी होगी?
चलो फिर से ग़ालिब को याद करते हैं -
हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है
14 टिप्पणियां:
पूरी खबर पढ़ने के बाद मेरे विचार में तो यह पैसा ही फसाद की जड़ है लेकिन हमारी सोंच ऐसी हो जाएगी यह तो कभी सपने में भी नहीं सोंचा था | भगवान से प्रार्थना है की उन्हें सदवुद्धि दे|
बेटी द्वारा सम्पत्ति में हिस्सा मांगना ही बेटे बहु के लिए सबक है ,लालची लोगों के साथ एसा ही होना चाहिए था | इनकी करनी का फल इन्हें जरुर मिलेगा |
यह बेटी पहले कहाँ थीं?
माँ की सेवा का जायदाद और पैसे से क्या संबंध?
बेटी भी तो दोषी है?
.सो, द व्होल थिंग इज़ दैट.. सबसे बड़ा रुपइया ?
हद है... भाई !
निर्धनता से बड़ा अभिशाप नहीं है, धन से बड़ा नशा नहीं है।
पहले तो याद आ रही है बिहारी की वह पंक्ति-
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाइ।
बाद में धन का विकेन्द्रीकरण तो करना ही होगा नहीं तो वही होते रहेगा जो हो रहा है।
रुपया जो न करा दे....
बाबू जी ने गर इतनी जायदाद को छोड़ा नहीं होता
मेरे अपने भाई ने कभी,मुझसे मूँह मोड़ा नहीं होता..
बदलती सामाजिक परित्स्थितियों में बुजुर्गों की दुर्दशा दोनों ही प्रकार नजर आती है , पैसा हो तो भी , ना हो तो भी ...
शर्म आती है की हम इस समाज का हिस्सा हैं !
ये बात तो सही हे की अब तक बेटी कहाँ थी | चाहे जो भी झगडा रहा हो उसको अपनी माँ ली खबर तो रखनी ही चाहेये थी | अब जब इतना बवाल उठने पर आना उसकी भी नीयत पर सवाल खड़े कर सकता है | उसके आने की वजह अपनी इज्ज़त या फिर पैसा का लालच कुछ भी हो सकता है | हालांकि ये भी हो सकता है की वाकई मई उसको पता ना हो की उसकी माँ की साथ क्या हो रहा है पर फिर भी इसमें उसकी लापरवाही भी तो है |
दुनिया ही धन की पुजारी है। आज जब साधू संतों का भी एक ही मंतव है अकूत दौलत तो आम आदमी एक कदम आगे ही जायेगा। बहुत शोचनीय स्थिती है। पता नही समाज से संवेदनायें कहाँ खो गयी खून क्यों सफेद हो गया। विशाद से मन भर गया। शुभकामनायें।
प्रेमलता जी की बेटी की सदाशयता भी संदेह से परे नहीं हो सकती ! माँ के साथ कैसा व्यवहार हो रहा है अगर वह इससे सर्वथा अनभिज्ञ
हैं तो भी उन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता ! भाई भाभी की बदनामी का फ़ायदा इस समय आदर्श बेटी बन कर वह उठाना चाहती हैं ऐसा प्रतीत होता है ! वरना माँ का दशा कंकाल जैसी हो रही हो और बेटी देखने भी ना आये उसे अखबारों की खबरों से पता चले माँ के बारे में यह बात विश्वसनीय नहीं लगती ! असंवेदनशीलता की पराकाष्ठा है यह !
धनलोलुपता व्यक्ति को असंवेदनशीलता की पराकास्ठा को पहुंचा देता है...नाता रिश्ता निति नियम करणीय अकरणीय का भान ही कहाँ बचता है फिर...
घोर दुर्भाग्यपूर्ण !!!!
बड़ी हैरानी और दुख हो रहा है ये देख कर कि बेटी की नियत पर शक करने वाली सभी टिप्पणियां महिलाओं से आयी हैं।
मैं ऐसे किस्से भी जानती हूँ जहां भाई भाभी इस डर से कहीं बहन संपत्ति में हिस्सा न मांग ले बहन से सब नाते तोड़ लेते हैं और मां को भी ले जाने नहीं देते या मां खुद बेटी के घर रहना मंजूर नहीं करती। ऐसे में बेटी को कैसे पता होता कि मां के साथ क्या हो रहा है जब तक वो अखबार की खबर न बनी।
अगर मान भी लिया जाए कि बेटी की भी नजर संपत्ति पर ही है तो भी जब तक वो मां की अच्छी देख भाल कर रही है मां का तो बुढ़ापा सुधर ही जायेगा।
अगर जरूरत है तो बदलते समाज के साथ खुद अपनी सोच को बदलने की। मेरी एक सहकर्मी आजकल बहुत परेशान है। उसकी मां अस्सी साल की हो गयी हैं और अकेले रहना उनके लिए मुनासिब नहीं और संभव भी नहीं। मेरी सहकर्मी का कोई भाई नहीं एक छोटी बहन है जो अमेरिका में है। मेरी सहेली (और उसका पति भी) पिछले दो साल से अपनी मां की मनुहार कर रही है कि मेरे पास रहने बंबई आ जाओ लेकिन वो टस से मस नहीं हो रहीं, सिर्फ़ इस लिए कि बेटी के घर रहना समाजिक नियमों के खिलाफ़ है। मेरी सहेली उनको जबरदस्ती ले भी आती है तो वो एक महीने में ही वापस जाने की जिद्द पकड़ लेती हैं।
मानव सभ्यता के इतिहास में जब से व्यक्तिगत संपत्ति आई है तभी से इन दुखों का अस्तित्व भी आरंभ हो गया है।'
घोटालों की जड़, पारिवारिक विषमताओं की जड़ यही सम्पत्ति मोह ही तो है
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