ब्लागरों का सम्मान समाप्त होने को था तभी शाहनवाज हॉल में आए। कहने लगे कि खुशदीप भाई तो चले गए। मुझे यह अजीब लगा। उन्हों ने बताया कि दूसरे सत्र में दूसरे सत्र में "न्यू मीडिया की भूमिका" विषय पर होने वाली संगोष्ठी के मुख्य अतिथि पुण्य प्रसून वाजपेयी आए, लेकिन आयोजकों में से कोई भी बाहर उन्हें रिसीव करने वाला न था। उन्हें बाहर ही पता लग गया कि अभी पहला कार्यक्रम समाप्त होने में ही एक-डेढ़ घटा लगेगा। वे बहुत देर तक बाहर लड़कों से बातें करते रहे और फिर वापस चले गए। रविन्द्र प्रभात के आग्रह पर खुशदीप ने ही पुण्य प्रसून से दूसरे सत्र के मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता के रूप में समारोह में आने के लिए स्वीकृति प्राप्त की थी। मुझे लगा कि पुण्य प्रसून वाजपेयी का मन उपेक्षा से खट्टा हो गया और वे चले गए। यह स्वाभाविक भी था। यदि किसी व्यक्ति या संस्था के आग्रह पर मैं अपने किसी वरिष्ठ वकील को मुख्य अतिथि बनने को तैयार करूँ और वहाँ पहुँचने पर उसे कोई रिसीव करने वाला ही न मिले तो मैं तो अपने वरिष्ठ को मुहँ दिखाने के लायक भी नहीं रहूंगा। यही स्थिति खुशदीप के साथ थी। एक मुख्य अतिथि के लिए पौने दो घंटे प्रतीक्षा की जाए, इंतजार में असूचीबद्ध भाषण के कार्यक्रम चलते रहें। उसी कार्यक्रम के दूसरे मुख्य अतिथि को रिसीव करने वाला भी कोई न हो तो यह अव्यवस्था की चरम सीमा है।
मैं सोचता था कैमरा मुझे नहीं पकड़ पाएगा, पर पकड़ ही लिया राजीव तनेजा जी ने |
आयोजनकर्ताओं से पहली गलती कार्यक्रम के निर्माण में हो चुकी थी। उन्हों ने समय का बिलकुल ध्यान नहीं रखा था। किसी भी कार्यक्रम के निर्माण में इस बात का ध्यान रखना सब से महत्वपूर्ण है कि तय की गई कार्य सूची को निपटाने में कितना समय लगेगा। उसी के अनुरूप कार्यक्रम को समय आवंटित करना चाहिए। यदि समय कम हो तो कार्यसूची संक्षिप्त कर देनी चाहिए। यदि कार्यसूची कह रही है कि कार्यक्रम दो घंटे का समय लेगा तो उस कार्यक्रम के लिए ढाई घंटे का समय आवंटित करना चाहिए। जिस से समय पर कार्यक्रम आरंभ होने पर भी वक्तागण कुछ अधिक समय ले लें तो आगे का कार्यक्रम अव्यवस्थित न हो। दो सत्रों के बीच कम से कम एक घंटे का अंतराल अवश्य रखना चाहिए। यदि कार्यक्रम कोई सेमीनार आदि हो और अगले सत्रों में मंचासीन लोग वही हों, जो पहले सत्र में भी उपस्थित थे तो बीच में आधे घंटे के अंतराल से काम चलाया जा सकता है। यदि किसी सत्र में कोई वीआईपी आने वाला हो तो अगले सत्र के पहले दो घंटे का अंतराल भी कम पड़ जाता है। क्यों कि अधिकांश वीआईपी समय से कभी नहीं पहुँचते। वे देरी कर के आते हैं। शायद इस में यह मानसिकता भी काम करती है कि लोग किसी भी कार्यक्रम में आधा-एक घंटा देरी से पहुँचते हैं और वीआईपी पहले पहुँच जाए तो खाली हॉल देख कर उसे निराशा न हो। यहाँ कार्यक्रम ही पौने दो घंटे बाद तब आरंभ हुआ था जब अगला सत्र आरंभ होने में केवल पौन घंटा शेष रह गया था। ऐसे में अगले सत्र में आने वाले अतिथियों को रिसीव करने के लिए आयोजकों में से एक व्यक्ति को बाहर रहना चाहिए था। देरी होने पर अगले सत्र के अतिथियों को यह सूचना भी देनी चाहिए थी कि अगले सत्र का आरंभ अब देरी से होगा अथवा उसे स्थगित कर दिया गया है।
अपनी ही पुस्तक का विमोचन करते मुख्यमंत्री निशंक |
दूसरा सत्र न्यू-मिडिया पर आधारित था जिस में शायद आयोजनकर्ता संस्थान की कोई रुचि नहीं थी। उस में रविन्द्र प्रभात की रुचि अवश्य थी, लेकिन वे खुद तो इतनी सारी जिम्मेदारियों के तले दबे हुए थे कि इन सब बातों का ध्यान स्वाभाविक रूप से उन्हें नहीं रहता। रविन्द्र प्रभात जी की एक गलती ये भी थी कि उन्हों ने अपने सामर्थ्य से अधिक दायित्व ले लिए थे, जिन्हें निभाना संभव ही नहीं था। अविनाश जी के पास तो इतने सारे काम थे कि सोचने तक की फुरसत नहीं थी। दोनों सज्जनों की स्थिति बेटी के ब्याह में बेटी के पिता से भी बुरी थी। आजकल तो बेटी का ब्याह करने वाला पिता भी सारे कार्यक्रम को पहले ही सूचीबद्ध कर उन की जिम्मेदारी विश्वसनीय व्यक्तियों को दे देता है, उस के बाद भी कुछ कुशल और विश्वसनीय लोगों को बिना कोई काम बताए इस बात के लिए नियुक्त करता है कि कहीं कोई काम आ पड़े तो वे उसे संभाल लें। बेटी का पिता बारात आने के पहले सज सँवर कर सूट पहन कर खाली हाथ रहता है। मेरी अविनाश जी से बात नहीं हुई। लेकिन मुझे लगता है कि दूसरे सत्र की कोई जिम्मेदारी उन के पास नहीं थी। दूसरा सत्र रविन्द्र प्रभात की मानसिक उपज थी और वे सोच बैठे थे कि उस के लिए क्या करना है? सब कुछ जमा-जमाया तो रहेगा ही बस आरंभ कर के एक व्याख्यान और अध्यक्षीय भाषण ही तो कराना है। यहीं वे चूक गए।
मोहिन्द्र कुमार खुशदीप के साथ |
दूसरे सत्र के मुख्य अतिथि का वापस लौट जाना आयोजकों के लिए अच्छा ही साबित हुआ। मुख्य अतिथि आ भी जाते तो उन्हें वैसे ही वापस लौटना पड़ता, क्यों कि उस के लिए समय शेष ही नहीं था। यदि दूसरा सत्र किसी तरह चला भी लिया जाता तो उसे औपचारिक तौर पर निपटाना पड़ता। उस का एक असर यह भी होता कि तीसरे सत्र में गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी पर आधारित जो नाटक होना था उस से लोग वंचित हो जाते। आयोजकों को जब खबर लगी कि पुण्यप्रसून वापस लौट गए हैं तो उन्हों ने मंच से घोषणा कर दी कि समय अधिक हो जाने के कारण दूसरा सत्र भी इसी सत्र में समाहित किया जाता है। दूसरे सत्र में जो कुछ होना था वह सारा कार्यसूची से गायब हो गया। सत्र इतना लंबा चल चुका था कि लोग खुद ही बाहर जाने लगे थे, बाहर आरंभ हो चुका जलपान उन्हें हॉल से बाहर आने के लिए प्रेरित करने को पर्याप्त से कुछ अधिक ही था। पहले सत्र के समापन के साथ ही घोषणा हो गई कि केवल पंद्रह मिनट में ही नाटक आरंभ हो जाएगा।
नाटक अत्यन्त धीमी गति से आरंभ हुआ तो कुछ अजीब सा लगा। आजकल नाटक की विधा में आरंभ धूमधड़ाके से करने की परंपरा है। नाटक की विषय वस्तु वैसी न हो तब भी सूत्रधार या किसी गीत का इस के लिए उपयोग कर लिया जाता है। लेकिन जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता गया, दर्शकों की रुचि बढ़ती गई। नाटक समापन तक प्रत्येक दर्शक को प्रभावित कर चुका था। इसे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने प्रस्तुत किया था। नाटक गुरूदेव की कहानी 'लावणी' का नाट्य रूपान्तरण था। कहानी तो मजबूत थी ही, उस का स्क्रिप्ट भी बहुत श्रम से तैयार किया गया था। विशेष रूप से वर्तमान का अभिनय करते करते पात्रों से अचानक अतीत के दृश्यों को प्रस्तुत करवाने की तकनीक ने मुझे बहुत प्रभावित किया। यह तकनीक पहली बार देखने को मिली। सभी पात्रों ने अपनी भूमिका को संजीदगी के साथ निभाया। जिस तरह कार्यक्रम के आरंभ में पावर पाइंट प्रस्तुति ने प्रभावित किया था, अंत में इस नाटक ने सब को उस से भी अधिक प्रभावित किया। कार्यक्रम के उपसंहार के रूप मे केवल भोजन शेष रह गया था। इस बीच शाहनवाज को अपना स्वास्थ्य कुछ खराब प्रतीत हुआ तो वे निकल लिए। भोजन का समय ही वह समय था जब मैं कुछ और लोगों से मिल लेना चाहता था। लेकिन मुझे मोहिद्र कुमार जी के साथ निकलना था। लेकिन मुझे लगा कि वे भी कोई जल्दी में नहीं हैं। मुझे विमोचित पुस्तकें खरीदने का स्मरण हुआ मैं तेजी से लॉबी की और भागा जहाँ उन का विक्रय हो रहा था। लेकिन वहाँ कुछ नहीं था। विक्रय में लगे लोग अपना तामझाम समेट चुके थे।
21 टिप्पणियां:
समारोह का अच्छा विश्लेषण किया है आपने.नाटक से पहले ही खुशदीप भाई के साथ जाना पड़ गया था.नाटक के बारे में जानकर अच्छा लगा.आभार.
वाकई मूड़ उखड़ना ही था...
नाटक के बारे में अच्छा लगा...
सफल प्रबन्धन में डेलीगेशन अर्थात ज़िम्मेदारियाँ अन्य ज़िम्मेदार लोगों को सौंपने का काम भी बडा महत्वपूर्ण है। इतने सारे नितांत अपने ब्लॉगर मेहमानों के वहाँ उपस्थित होते हुए डेलीगेशन ऑफ पॉवर्स के बारे में सोचा जाना चाहिये था। यहाँ इस टिप्पणी का एकमात्र उद्देश्य यही है कि शायद भविष्य के कार्यक्रमों में योजनाबद्ध तरीके से डेलीगेशन का प्रयोग किया जा सके।
चलिये अगली बार ध्यान रखा जायेगा। बड़े आयोजनों में यह भूलें हो जाती हैं।
खुशदीप भाई बहुत संवेदनशील व्यक्ति हैं और उनकी नाराजी जायज़ है ! हार्दिक शुभकामनायें आपको !
नाटक ने प्रभावित किया, जानकर अच्छा लगा.
गुरुवर जी, मुझे प्राप्त हुई जानकारी के अनुसार:- गुरूदेव रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी 'लावणी' पर आधारित जो नाटक का नाट्य रूपान्तरण राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के विक्रम, बोलेराम, हेमंत और किरण नामक छात्रों ने प्रस्तुत किया था और आपकी इस पोस्ट ने काफी कुछ जानकारी देने के साथ-साथ लोगों नैतिकता का पाठ भी अच्छे से याद करवा दिया है. मुझे उम्मीद है कि-भविष्य में होने वाले ऐसे कार्यक्रमों में आयोजक गलतियों को दोहराने से बचेंगे. कार्यक्रम की संपूर्ण रुपरेखा की जानकारी न होने से जिन घटनाओं को कैमरे में कैद करने से वंचित हो गया था. उसके बारे में आपकी पोस्टों को पढ़कर प्राप्त हो गई है.
क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ. आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें
प्रसून वाजपेयी की आगवानी के लिए उन्हें पहचानने वाले किसी वरिष्ट ब्लोगर को जिम्मेदारी देनी चाहिए थी | शायद आयोजकों से यही एक बड़ी गलती हुई | पर मैं उन लोगों की सबसे बड़ी गलती मानता हूँ जिन्हें उनके आगमन का पता चलने के बाद तुरंत आयोजको को सूचित नहीं किया |
इस घटना क्रम पर छपी कुछ रिपोर्ट्स पढने के बाद मैं तो इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि यदि आयोजक समय पर प्रसून वाजपेयी की आगवानी के लिए चले भी जाते तो वे शायद ही आकर भाजपा मुख्यमंत्री के साथ मंच पर बैठते | आखिर उनकी सेकुलर (?) छवि पर आंच जो आ सकती थी |
संतुलित सम्यक विश्लेषण और बेबाक दृष्टि
कार्यक्रम के संयोजन -विजन की कुछ खामी दिख रही है !
दरअसल यह पूरा कार्यक्रम ही एक मुख्यमंत्री की भेंट चढ़ गया और यह तो होना ही था ..
जब तक आयोजने के छुपे अजेंदें और अल्टेरियर मोटिव्स होंगे तो ऐसी स्थितियां सामने आती रहेंगी
...पावर पाइंटों की मज़बूरियां, दो-दो व्यवसायिक उपक्रमों के खेल, नेता लोगों की अगवानियां, कई-कई साहित्यकारों की मंच-चढ़ाई, फालतुओ की बकवास, रंग-बिरंगे विमोचन ही विमोचन, ईनाम-बंटाई का हल्लमहल्ला, एक भरा-पूरा फुल नाटक, तीन-तीन सत्र, बड़े लोगों के नखरे, ढेरों आयोजक, एकला चालो रे की-सी नीतियों में अडिग विश्वास और इन सबके बीच मुफ़्त के भीड़नुमा ब्लागर (लिखना भूल गया कि हाल एअरकंडीशंड था) ...
...मेरा ख्याल है कि निवाला उतना ही काटना चाहिये जितना निगला जा सके. अविनाश जी व रवीन्द्र जी के साथ निश्चय ही ज़्यादती हुई लगती है.
छोड़ो कल की बातें,
कल की बात पुरानी,
नए दौर में लिखेंगे,
हम मिल कर नई कहानी,
हम ब्लॉगिस्तानी, हम ब्लॉगिस्तानी...
जय हिंद...
अच्छी साफ सुथरी रिपोर्ट।
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Nice post.
आपकी पोस्ट तथ्यात्मक है और शिक्षाप्रद भी.
लखनऊ से अनवर जमाल .
लखनऊ में आज सम्मानित किए गए सलीम ख़ान और अनवर जमाल Best Blogger
.रफ़्ता रफ़्ता देखो बात यूँ खुली है
बात यूँ खुली है कि आयोजन की त्रुटियाँ खली है
हमे तो ये सब बाद मे पता चला जब कई ब्लाग्ज़ पर पढा। खुशदीप का गुस्सा ज़ायज़ था। और क्या कह सकते हैं?
पत्रकारों की समीक्षा-पत्रिका हो और ब्लॉगरों का सम्मेलन, फिर तो बाल की खाल ...
आपसे ऐसे ही विश्लेषण की उम्मीद रखते हैं हम.
बाकी ऐसी अव्यवस्था से तो किसी का भी मूड उखड़ेगा ही.
समारोह का अच्छा विश्लेषण किया है आपने.
आप का शीर्षक बिलकुल सही है वास्तव में यही हुआ दिखता है किन्तु बीच में इसके लिए कई और कारण बताये जाने लगे और बात किसी और और चली गई थी |
nice
जो हुआ अच्छा हुआ और जो होगा वो भी अच्छा ही होगा।
जितने लोग वहाँ थे, सब बडे खुश थे।
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