यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के सत्रह सर्ग आप अनवरत के पिछले अंकों में पढ़ चुके हैं। प्रत्येक सर्ग एक युग विशेष को अभिव्यक्त करता है। उस युग के चरित्र की तरह ही यादवचंद्र के काव्य का शिल्प भी बदलता है। इस काव्य के अंतिम तीन सर्ग वर्तमान से संबंधित हैं और रोचक बन पड़े हैं, लेकिन आकार में बड़े हैं। इस कारण उन्हें यहाँ एक साथ प्रस्तुत किया जाना संभव नहीं है। अठारहवाँ सर्ग "ऊर्जा और विस्फोट" इस काव्य का अंतिम पड़ाव है। इस का तीसरा भाग यहाँ प्रस्तुत है................
भाग तृतीय
मगर यह
चार अरबों की धरा
किस भाँति निर्भय हो ?
.......................................
अमर बलिदान की
प्रतिमूर्तियों !
खुशियाँ मनाओ
शपथ खाओ--
अफ्रिकी
लातिन अमरिकी
कैदखानों
दुर्ग पर
मोर्टार से
गोले गिराओ,
अनगिनत बलिदान की
तुम मूर्तियाँ
गढ़ते चलो
गढ़ते चलो--
बढ़ते चलो--
एरावदी
ब्रह्मपुत्र-गंगा
सिंधु-दजला
नीलघाटी
की धरा की
मुक्ति बाकी
सुगबुगाते
हैं किनारे
रात की
खामोशियों में,
घुटन-कुंठा
त्रास में हैं
बुदबुदाते
जा रहे कुछ लोग
दाबे पाँव चुपके
इधर से
उस ओर,
जेलर चौंकता है
नींद से-
पहरा घरों में
कोट में
सिर को छुपाए
चीखता है पहरुआ-
हो S ओ S S S S
जागते रहो S S S S
फिर खामोश
सन्नाटा ... ...
... ... ... ...
चमक कर
जेल की
दीवार पर
फिर सो गई रोशनी-ई-S S S
गड़ S ड़ S ड़ S-धड़ाम !
... ... ... ...
निकलो कैदियों
दीवार टूटी
पूर्व से
भागो--
स्वचलित
कातिलों की गनें
बेबस चीखती हैं
आग की
सौ सौ लकीरें
वक्र-वृत्ताकार-सीधी
काटती-कटती-परस्पर
भागती हैं
सीटियाँ
शैतान की
टर्रा रही हैं.........
... ... ... ...
सुबह के
पहले पहर में
शोर-गुल
सब शान्त हो कर
बैरकों में
सिमट जाता है
कफन को
ओढ़ कर
लॉ एण्ड ऑर्डर
दुबक जाता है
मगर,
कुछ कैदी
तुम्हारी मौत के सामान,
तो भग ही गए
जो बुन रहे हैं
नये ताने
नये बाने
घेर कर भूगोल
(न्यूजीलेंड से
अलास्का तक)
उभरी शिराएँ
बाहु मांसल
आबनूसी रंग
ज्यों कोई पिरामिड
नापता हो
डगों से
जलता सहारा
इधर से
उस छोर तक,
उठता धुआँ
आकाश छूता
राह को
रोके अड़ा है
ग्वाटमाला
औ पनामा
हंडुरस
ब्राजील वगैरह
आज-कल में
फैसला
इस नीच जैलर का
करेंगे औ सुनेंगे
ग्लोब के
इस पूर्व-उत्तर
भाग का
यह लाल परचम
जो अभी
दो अरब जन का
झूमता
सौभाग्य बन
द्रुत उड़ेगा
शेष भू पर ।
मुक्त श्रम
जो रच रहा है
अर्ध जन गण
का शुभोदय,
द्रुत भरेगा
शेष भू का
रिक्त हृदय
मगर यह
चार अरबों की धरा
किस भाँति निर्भय हो ?
.......................................
अमर बलिदान की
प्रतिमूर्तियों !
खुशियाँ मनाओ
शपथ खाओ--
अफ्रिकी
लातिन अमरिकी
कैदखानों
दुर्ग पर
मोर्टार से
गोले गिराओ,
अनगिनत बलिदान की
तुम मूर्तियाँ
गढ़ते चलो
गढ़ते चलो--
बढ़ते चलो--
एरावदी
ब्रह्मपुत्र-गंगा
सिंधु-दजला
नीलघाटी
की धरा की
मुक्ति बाकी
सुगबुगाते
हैं किनारे
रात की
खामोशियों में,
घुटन-कुंठा
त्रास में हैं
बुदबुदाते
जा रहे कुछ लोग
दाबे पाँव चुपके
इधर से
उस ओर,
जेलर चौंकता है
नींद से-
पहरा घरों में
कोट में
सिर को छुपाए
चीखता है पहरुआ-
हो S ओ S S S S
जागते रहो S S S S
फिर खामोश
सन्नाटा ... ...
... ... ... ...
चमक कर
जेल की
दीवार पर
फिर सो गई रोशनी-ई-S S S
गड़ S ड़ S ड़ S-धड़ाम !
... ... ... ...
निकलो कैदियों
दीवार टूटी
पूर्व से
भागो--
स्वचलित
कातिलों की गनें
बेबस चीखती हैं
आग की
सौ सौ लकीरें
वक्र-वृत्ताकार-सीधी
काटती-कटती-परस्पर
भागती हैं
सीटियाँ
शैतान की
टर्रा रही हैं.........
... ... ... ...
सुबह के
पहले पहर में
शोर-गुल
सब शान्त हो कर
बैरकों में
सिमट जाता है
कफन को
ओढ़ कर
लॉ एण्ड ऑर्डर
दुबक जाता है
मगर,
कुछ कैदी
तुम्हारी मौत के सामान,
तो भग ही गए
जो बुन रहे हैं
नये ताने
नये बाने
घेर कर भूगोल
(न्यूजीलेंड से
अलास्का तक)
उभरी शिराएँ
बाहु मांसल
आबनूसी रंग
ज्यों कोई पिरामिड
नापता हो
डगों से
जलता सहारा
इधर से
उस छोर तक,
उठता धुआँ
आकाश छूता
राह को
रोके अड़ा है
ग्वाटमाला
औ पनामा
हंडुरस
ब्राजील वगैरह
आज-कल में
फैसला
इस नीच जैलर का
करेंगे औ सुनेंगे
ग्लोब के
इस पूर्व-उत्तर
भाग का
यह लाल परचम
जो अभी
दो अरब जन का
झूमता
सौभाग्य बन
द्रुत उड़ेगा
शेष भू पर ।
मुक्त श्रम
जो रच रहा है
अर्ध जन गण
का शुभोदय,
द्रुत भरेगा
शेष भू का
रिक्त हृदय
........ अठारहवें सर्ग 'ऊर्जा और विस्फोट' के अठारहवें सर्ग का तृतीय भाग समाप्त...
2 टिप्पणियां:
श्रम और विचार धरा का पेट भरते हैं।
बहुत सुंदर जी, धन्यवाद
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