@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास

सोमवार, 10 मई 2010

मनुष्य के वाक् और मस्तिष्क का विकास

रन्तु हाथ अपने आप में ही अस्तित्वमान न था। वह तो एक पूरी अति जटिल शरीर-व्यवस्था का एक अंग मात्र था। और जिस चीज से हाथ लाभान्वित हुआ, उस से वह पूरा शरीर भी लाभान्वित हुआ जिस की हाथ खिदमत करता था। यह दो प्रकार से हुआ।
हली बात यह कि शरीर उस नियम के परिणामस्वरूप लाभान्वित हुआ जिसे डार्विन विकास के अंतःसंबंध का नियम कहते थे। इस नियम के अनुसार किसी जीव के अलग-अलग अंगों के विशेष रूप से उन से असंबद्ध अन्य अंगों के कतिपय रूपों के साथ आवश्यक तौर पर जुड़े हुए होते हैं। जैसे, उन सभी पशुओं में, जिन में कोशिका केंद्रकों के बिना लाल रक्त कोशिकाएँ होती हैं और जिन में सिर का पृष्ठ भाग दुहरी संधि (अस्थिकंद) के द्वारा प्रथम कशेरूक के साथ जुड़ा होता है, निरपवाद रूप में अपने बच्चों को स्तनपान कराने के लिए दुग्ध ग्रंथियाँ भी होती हैं। इसी तरह जिन स्तनधारी जीवों में अलग-अलग खुर पाया जाता है। कतिपय रूपों में परिवर्तन के साथ शरीर के अन्य भागों में भी परिवर्तन होते हैं, यद्यपि इस सह-संबंध की हम कोई व्याख्या नहीं कर सकते। नीली आँखों वाली बिल्कुल सफेद बिल्लियाँ सदा, प्रायः बहरी होती हैं। मानव हाथ के शनैः शनैः अधिकाधिक परिनिष्पन्न होने और उसी अनुपात में पैरों को सीधी चाल के लिए अनुकूलित होने की, इस अंतः सबंध के नियम की बदौलत, निस्संदिग्ध रुप से शरीर के अन्य भागों में प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई, पर इस क्रिया की अभी इतनी कम जाँच पड़ताल की गई है कि हम यहाँ तथ्य को सामान्य शब्दों में प्रस्तुत करने से अधिक कुछ नहीं कर सकते। 
स से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है शेष शरीर पर हाथ के विकास की प्रत्यक्ष दृश्यमान प्रतिक्रिया। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, हमारे पूर्वज, मानवाभ वानर, यूथचारी थे। प्रकट है कि सब से अधिक सामाजिक पशु-मनुष्य-का व्युत्पत्ति संबंध किन्हीं अयूथचारी निकटतम पूर्वजों से स्थापित करने की चेष्टा असम्भव है। हात के विकास के साथ, श्रम के साथ आरंभ होने वाली प्रकृति पर विजय ने प्रत्येक अग्रगति के साथ मानव के क्षितिज को व्यापक बनाया। मनुष्य को प्राकृतिक वस्तुओं के नए नए और अब तक अज्ञात गुणधर्मों का लगातार पता लगता जा रहा था। दूसरी ओर, श्रम के विकास ने पारस्परिक सहायता, सम्मिलित कार्यकलाप के उदाहरणों को बढ़ा कर और प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस सम्मिलित कार्य कलाप की लाभप्रदता स्पष्ट कर के समाज के सदस्यों को एक दूसरे के निकटतर लाने में आवश्यक रूप से मदद दी। संक्षेप में, विकसित होते मानव उस बिंदु पर पहुँचे जहाँ उन्हें एक दुसरे से कुछ कहने की जरूरत महसूस होने लगी। इस वाक्-प्रेरणा से धीरे-धीरे पर निश्चित रूप से काया पलट हुआ, जिस से कि लगातार और भी विकसित मूर्च्छना पैदा हो, और मुख के प्रत्यंग एक-एक कर नयी-नयी संहित ध्वनियों का उच्चारण करना धीरे-धीरे सीखते गए।  

शुओं के साथ तुलना करने से सिद्ध हो जाता है कि यह व्याख्या ही एकमात्र सही व्याख्या है कि श्रम से और श्रम  के साथ भाषा की उत्पत्ति हुई। अधिक से अधिक विकसित पशु भी एक दूसरे से बात करने की अपनी अतिस्वल्प आवश्य़कता संहित वाणी की सहायता के बिना ही पूरी कर सकते हैं। प्राकृतिक अवस्था में मानव वाणी न बोल सकने अथवा न समझ सकने के कारण कोई पशु दिक्क़त नहीं महसूस करता। किन्तु मनुष्य द्वारा पालतू बना लिए जाने पर बात बिल्कुल और ही होती है। मानव संगति के कारण कुत्तों और घोड़ों में संहित वाणी ग्रहण करने की ऐसी शक्ति विकसित हो जाती है कि वे, अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर किसी भी भाषा को समझ लेना आसानी से सीख लेते हैं। इस के अतिरिक्त उन्हों ने मानव के प्रति प्यार और कृतज्ञता जैसे आवेग-जो पहले उन के लिए एकदम अनजान थे-महसूस करने की क्षमता विकसित कर ली है। ऐसे जानवरों से अधिक लगाव रखनेवाला कोई भी व्यक्ति यह माने बिना शायद ही रह सकता है कि ऐसे कितने ही जानवरों की मिसालें मौजूद हैं जो अब यह महसूस करते हैं कि उन का बोल न सकना एक ख़ामी है, यद्यपि उन के स्वरांगों के ख़ास दिशा में अति विशेषीकृत होने के कारण यह ख़ामी दुर्भाग्यवश अब दूर नहीं की जा सकती। पर जहाँ ये अंग मौजूद हैं, वहाँ कुछ सीमाओं के भीतर यह असमर्थता भी मिट जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि पक्षियों के मुखांग मनु्ष्य के मुखांगों से अधिकतम भिन्न होते हैं, फिर भी पक्षी ही एक मात्र जीव हैं जो बोलना सीख लेते हैं। और सब से कर्कश स्वर वाला पक्षी-तोता सब से अच्छा बोल सकता है। यह आपत्ति नहीं की जानी चाहिए कि तोता जो बोलता है, उसे समझता नहीं है। यह सही है कि मानवों के साथ रहने और बोलने के सुख मात्र के लिए तोता लगातार घंटों टाँय टाँय करता जाएगा और अपना संपूर्ण शब्द भंडार लगातार दुहराता रहेगा। पर अपने विचार-वृत्त की सीमा के अंदर वह जो बोलता है उसे समझना भी सीख सकता है। किसी तोते को इस तरह से गालियाँ बोलना सिखा दीजिए कि उसे इन के अर्थ का थोड़ा आभास हो जाए (उष्ण देशों की यात्रा करने वाले जहाजियों का यह एक प्रिय मनोरंजन का साधन है), इस के बाद उसे छेड़िए। आप देखेंगे कि वह इन गालियों का बर्लिन के कुंजड़ों के समान ही सटीक उपयोग करेगा। ऐसा ही छोटी-मोटी चीजें मांगना सिखा देने पर भी होता है। 

हले श्रम, उस के बाद और उस के साथ वाणी-ये ही दो सब से सारभूत उद्दीपनाएँ थीं जिन के प्रभाव से वानर का मस्तिष्क धीरे-धीरे मनुष्य के मस्तिष्क में बदल गया, जो सारी समानता के बावजूद वानर के मस्तिष्क से कहीं बड़ा और अधिक परिनिष्पन्न है। मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ ही उस के सब से निकटस्थ करणों, ज्ञानेन्द्रियों का विकास हुआ। जिस तरह वाणी के क्रमिक विकास के साथ अनिवार्य रूप से श्रवणेंद्रियों का तदनुरूप परिष्कार होता है, ठीक उसी तरह से समग्र रूप में मस्तिष्क के विकास के साथ-साथ सभी ज्ञानेन्द्रियों का परिष्कार होता है। उक़ाब मनुष्य से कहीं अधिक दूर तक देख सकता है, परन्तु मनुष्य की आँखें चीजों में बहुत कुछ ऐसा देख सकती हैं कि जो उक़ाब की आँखें नहीं देख सकतीं। कुत्ते में मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र घ्राणशक्ति होती है, परन्तु वह उन गंधों के सौवें भाग की भी अनुभूति नहीं कर सकता जो मनुष्य के लिए भिन्न-भिन्न वस्तुओं की द्योतक होती हैं।  और स्पर्श शक्ति, जो कच्चे से कच्चे आरंभिक रूप में भी वानर के पास भी मुश्किल से ही होती है, केवल श्रम के माध्यम से स्वयं मानव हाथ के विकास के संग ही विकसित हुई है। 
स्तिष्क और उस के सहवर्ती ज्ञानेन्द्रियों के विकास, चेतना की बढ़ती स्पष्टता, विविक्त विचारणा तथा विवेक की शक्ति की प्रतिक्रिया ने श्रम और वाणी दोनों को ही और विकास करते जाने की नित नवीन उद्दीपना प्रदान की। मनुष्य के अंतिम रूप से वानर से भिन्न हो जाने के साथ इस विकास का समाप्त होना तो दूर रहा, वह प्रबल प्रगति ही करता गया। हाँ, विभिन्न जनगण और विभिन्न कालों में इस विकास की मात्रा और दिशा भिन्न-भिन्न रही है। जहाँ-तहाँ स्थानीय अथवा अस्थाई पश्चगमन के कारण उस में व्यवधान भी पड़ा। पूर्ण विकसित मानव के उदय होने के साथ एक नए तत्व, अर्थात समाज के मैदान में आ जाने से इस विकास को एक और अग्रगति की प्रबल प्रेरणा मिली और दूसरी ओर अधिक निश्चित दिशाओं में पथनिर्देशन प्राप्त हुआ।

फ्रेडरिक एंगेल्स की पुस्तक 'वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका' का द्वितियांश

11 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

इस पुस्तिका को बार-बार पढ़ना...हर बार कुछ नई दृष्टि देता जाता है...

Udan Tashtari ने कहा…

पढ़ना पड़ेगा इसे,,,आभार जानकारी का.

Satish Saxena ने कहा…

कमाल है ...यह मुश्किल और नीरस काम भी आपका है ? यह विषय कुछ अधिक ही नीरस नहीं लगता ? समझ ही नहीं आया, फिर कभी फुर्सत में पढता हूँ !

अजित वडनेरकर ने कहा…

उत्तम प्रस्तुति।

ZEAL ने कहा…

very informative !...Thanks

उम्मतें ने कहा…

@आदरणीय सक्सेना जी
अपने ही विकास को समझने का एक नज़रिया है यह ...आपको विषय नीरस और मुश्किल लगा ,जानकार दुखी हो ही रहा था कि फिर से फुर्सत में पढने का आपका वादा उम्मीदें जगा गया !

@ द्विवेदी जी
आपके श्रम को नमन !

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

बहुत बेहतरीन और जानकारूपरक आलेख.

रामाराम.

KK Yadav ने कहा…

ज्ञान में वृद्धि हुई..आभार.
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'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

इतनी मेहनत से यह शरीर बना है और हम व्यर्थ किये दे रहे हैं ।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

एन्जेल्स ने वास्तव में बहुत सुलझा लिखा है।

राज भाटिय़ा ने कहा…

बहुत अच्छी जानकारी दी आप ने , पुरी तरह समझने के लिये इस लेख को फ़िर से पढना पडेगा, लेकिन मजेदार