'यक़ीन' वैयक्तिक जीवन में पुरुषोत्तम स्वर्णकार नाम से जाने जाते हैं पिता श्री शंकरलाल स्वर्णकार और श्रीमती कलावती देवी के घर 21 जून, 1957 ईस्वी को ग्राम गढ़ीबाँदवा जिला क़रौली (राज.), में जन्मे और बी. एससी. करने के बाद आयुर्वेद ‘रत्न’, साहित्य ‘रत्न’, बी. जे. एम. सी. (जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक). की उपाधियाँ हासिल कीं। कोटा के एक उद्योग में करीब तीन वर्ष तक ऑपरेटर की नौकरी की और छंटनी के शिकार हुए। इस के बाद चंबल स्टूडियो के नाम से अपना फोटो स्टूडियो स्थापित किया। इसी स्टूडियो में पहली बार उर्दू सीखना आरंभ हुआ तो उस में सिद्धहस्तता प्राप्त की।
उन के अंदर के कलाकार ने उर्दू के माध्यम से आकार प्राप्त करना आरंभ किया तो ऐसा कि पाँच ग़ज़ल संग्रह “हम चले, कुछ और चलने” ( 1994 ई.). “झूठ बोलूँगा नहीं” (1997 ई.), “रात अभी बाक़ी है” ( 2000 ई.), “सूरज से ठनी है मेरी” ( 2001 ई.), “चहरे सब तमतमाये हुए हैं” ( 2004 ई.), और एक राजस्थानी काव्य संग्रह “पीर परायी नें कुण जाणैं” (2004 ई.) देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं। एक काव्य संग्रह “सोज़े-पिन्हाँ” उन के उर्दू ख़ुदख़त में प्रकाशित हुआ है। उर्दू, हिन्दी, राजस्थानी, ब्रज व अंग्रेज़ी भाषा की सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं एवं भाषा अकादमियों द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, ग़ज़ल-विशेषांकों, कहानी-संकलनों आदि में उन की लघुकथाऐं, गीत, ग़ज़लें, नज़्में, दोहे, तज़्मीनें, माहिया, आलेख, पुस्तक-समीक्षाऐं, रिपोर्ताज आदि गद्य व पद्य रचनाऐं प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
उन्हों ने ‘अभिव्यक्ति’, ‘विकल्प’, ‘कदम्बगंध’, कोटा के प्रकाशनों के अलावा कुछ अन्य लेखकों की पुस्तकों का मित्रवत सम्पादन किया है। ग़ज़ल, अभिनय, संगीत(वाद्य), चित्रकारिता, फोटोग्राफी उन की रुचियाँ हैं। वे कोटा नगर की विभिन्न क्रियाशील सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के एक सक्रिय व्यक्ति हैं।
उन की एक ग़ज़ल का आनंद लीजिए...
'ग़ज़ल'
रोशनी जो चराग़ रखता है
- पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’
दिल में वो दुख का राग़ रखता है
आत्मा पर न दाग़ रखता है
ये न समझो कि वो न समझेगा
वो भी कुछ तो दिमाग़ रखता है
देता है रोशनी भी तेज़ उतनी
आग जितनी चराग़ रखता है
यूँ तो काँटों से भर गया है मगर
गुंचा-ओ-गुल भी बाग़ रखता है
उस से कुछ तो धुआँ भी उट्ठेगा
रोशनी जो चराग़ रखता है
उस को समझा के कौन आफ़त ले
वो ज़ियादा दिमाग़ रखता है
बेख़बर ख़ुद से हो मगर वो ‘यक़ीन’
दुनिया भर का सुराग़ रखता है
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15 टिप्पणियां:
'देता है रोशनी भी तेज़ उतनी
आग जितनी चराग़ रखता है'
बहुत ही उम्दा शेर!
श्री पुरुषोत्तम स्वर्णकार जी की इस उम्दा ग़ज़ल को पढ़वाने के लिए आप का आभार.
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ जी से मिलवाने के लिए आपका धन्यवाद.
यकीनन यकीन जी की ग़ज़ल सुन्दर है. सुराग तो निश्चित ही रखते हैं. आभार.
पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’ जी से मिलवाने के लिए आपका धन्यवाद
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल
एक आला और बड़ी शख्शियत से परिच्चय करवाने का आभार..आपके मित्रों में ऐसे रत्न हैं ये किसी सौभाग्य से कम नहीं है..और गजल के बारे में क्या कहूँ नोट कर के रख ली हैं..
kamaal kar diya ji........
atyant sundar !
बेख़बर ख़ुद से हो मगर वो ‘यक़ीन’
दुनिया भर का सुराग़ रखता है
वाह वाह जबाब नही यकीन साहब का, बहुत ही बेहतरीन ओर उम्दा शेर है, ओर सभी एक से बढ कर एक, इन से मिलवाने के लिये आप का धन्यवाद
पुरुषोत्तम ' यकीन' जी से परिचय करने का शुक्रिया
वाकई यकीन जी बहु आयामी प्रतिभावान व्यक्तित्व हैं
ग़ज़ल 'रोशनी जो चराग़ रखता है' बहुत अच्छी लगी.
- विजय
आँखें मून्दकर यकीन किया जा सकता है यकीन जी की साहित्य साधना पर
"यकीन " साहब की बहुविध प्रतिभा का एक अँश ये गज़ल मेँ झलक रहा है -
आपका शुक्रिया व उन्हेँ शुभकामनाएँ
- लावण्या
वाह...
यक़ीन जी को हमारा नमस्ते कहिएगा...
यकीन का यकीनन कोई जवाब नहीं -बहुत धन्यवाद !
बहुत बढियां आदमी से मिलवाया आपने ,गज़ल अच्छी है .
यक़ीन जी से मिल कर यक़ीनन प्रसन्नता हुई वैसे लघुपत्रिकाऒं के माध्यम से पूर्व परिचय भी था
पुरूषोत्तम जी की ग़ज़लों के तो हम पुअराने मुरीद हैं
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