मेरे राजस्थान के जोधपुर नगर से एक खबर है कि वहाँ पिता के देहान्त पर उन की लड़कियों ने उन की पार्थिव देह का अंतिम संस्कार वैसे ही किया जिस तरह वे पुत्र हों। कल एक प्रान्तीय चैनल ने इस खबर को बहुत बार दिखाया। एक बहस भी चलाने का प्रयत्न किया जिस में एक पण्डित जी से बात चल रही थी कि क्या यह शास्त्र संगत है। पण्डित जी ने पहले कहा कि यह तो सही है और शास्त्रोक्त है। लेकिन जब उन से आगे सवाल पूछे गए तो उन्हों ने इस में शर्तें लादना शुरू कर दिया कि यदि भाई, पुत्र, पौत्र आदि न हों और कोई अन्य पुरुष विश्वसनीय न हो तो शास्त्रों को इस में कोई आपत्ति नहीं है। पण्डित जी ने अपने समर्थन में विपत्ति काल में कोई मर्यादा नहीं होती कह डाला। कुल मिला कर पण्डित जी बेटियों को यह अधिकार देने को राजी तो हैं लेकिन पुत्र और पौत्र की अनुपस्थिति में ही। शायद उन को अपने व्यवसाय पर खतरा नजर आने लगा हो।
लेकिन इस के बावजूद उन चारों बेटियों पर कोई असर नजर नहीं आया। उन में से एक का कहना था कि हमारे पिता ने हमें बेटे जैसा ही समझा, बेटों जैसा ही पढ़ाया लिखाया और पैरों पर खड़ा किया। हमने अपना कर्तव्य निभाया है। मुझे आशा है लोग इस से सीख ले कर अनुकरण करेंगे। बेटियों को बेटो से भिन्न नहीं समझेंगे। और बेटियाँ भी खुद को पिता के परिवार में पराया समझना बंद करने की प्रेरणा लेंगी। यह तो एक ऐसा परिवार था जहाँ पुत्र नहीं था। लेकिन पुत्र के होते हुए भी बेटियों को यह अधिकार समान रूप से मिलने में क्या बाधा है?
हालाँ कि इस तरह की घटना पहली बार नहीं हुई है इस से पहले भी राजस्थान में यह हुआ है। लोग इस घटना से सीख ले कर अनुकरण करेंगे तो यह परंपरा बन लेगी। यह सही रूप में महिला सशक्तिकरण है।
यहीं राजस्थान के हाड़ौती के मालवा से लगे हुए क्षेत्र से एक खबर है कि हजारी लाल नाम के एक व्यक्ति ने 20 बरस पहले किसी स्त्री से नाता किया था। जिस के कारण उसे गाँव से बहिष्कृत कर दिया गया था। बीस साल से वह निकट ही कोई दस किलोमीटर दूर अकलेरा कस्बे में रह रहा था, लेकिन गाँव नहीं जा पा रहा था। बीस साल बाद हजारी लाल ने यह सोचा कि अब तो गाँव बदल गया होगा। गाँव के लोग उससे मिलते रहते थे, शायद उस के व्यवहार से उस ने यह अनुमान लगाया हो। वह बीस साल बाद गाँव में पहुँचा तो भी गाँव निकाले के फरमान ने उस की आफत कर दी। गाँव के लोगों ने उसे पीटा और एक कमरे में बंद कर दिया। कुछ लोगों की शिकायत पर पुलिस गाँव पहुँची तो उस पर पथराव हुआ और देशी कट्टे से फायर भी। पुलिस ने अपने एक सहायक इंस्पेक्टर को घायल हो ने की कीमत पर हजारी लाल को गाँव के लोगों से छुड़ाया।
हम गाहे बगाहे अपने व्यक्तिगत कानूनों के खिलाफ लिखते हैं। लेकिन हमारा समाज अभी भी व्यक्तिगत कानून की सत्ता को ही स्वीकार कर ता है और उस के लिए पुलिस से सामना करने को तैयार हो जाता है। क्या कभी कहीं देश के इन गाँवों के जंग लगे समाज का मोरचा हटा कर उन्हें चमकाने के लिए प्रयास करते लोग नजर आते है?
16 टिप्पणियां:
अयन्त ही अनुकरणीय और साहसिक घटना है यह | इसे प्रचारित किया जाना चाहिये |
वैसे मेरे कस्बे में भी एक वणिक दूसरी औरत ले आया है - और उसकी पत्नी उस औरत को स्वीकार कर उसके साथ एक अलग दुकान चलाने में मशगूल है | कस्बे वाले बाइस्कोप समझ उसकी दुकान पर उनकी संगति देखने चले जाते हैं, और दुकान चल निकली है |
मेरी टिप्पणी में ऊपर की दो पंक्तियां आपकी पहली घटना के परिप्रेक्ष्य में और बाद की चार पांच पंक्तियां दूसरी खबर के परिप्रेक्ष्य में हैं ।
गांव की हालत खराब ही होती गई है आज़ादी के बाद से।बुराई वे छोड़ नही रहे और उल्टे नई नई बुराईयां पकड़ लेते हैं।यहां तो आज भी ज़रा ज़रा सी बात पर बवाल हो जाते हैं।
नई सामाजिक पहल करने वालों को अत्यन्त साहस का काम करना पड़ता है इसलिए वे सार्वजनिक सम्मान के पात्र हैं ।
इस तरह की नयी पहल की बहुत जरुरत है ..प्रेरणा देने वाला प्रसंग है यह .
दूसरी खबर से मन दुखी है -अभी भी समाज में कैसे जाहिल पडे हैं !
दूसरी खबर से मन दुखी है -अभी भी समाज में कैसे जाहिल पडे हैं !
पहली ख़बर तो निश्चय ही प्रेरणा दायक है ।
दिनेश जी वाकई लड़कियों ने समाज के सामने बहुत अच्छा संदेश दिया है । लड़के कर सकते है तो लड़कियां क्यों नहीं ? दूसरी घटना बहुत ही दुखद है ।
जहाँ एक ओर पहला प्रसंग प्रेरणा देता है वहीं दूसरी ओर, दूसरा प्रसंग दुखी कर जाता है. आभार इस आलेख का.
बेचारे पण्डितजी! एक नया एडीशन निकालने की जरूरत है मनुस्मृति की! :)
समाज के एक दम्पति की दुखद स्थिति से आपने रुबरु करवाया -
काश उन्हेँ भी ठिकाना मिलता -
समाज मेँ किसी मुश्किल मेँ पडे इन्सान को और दुखी करने मेँ
क्योँ सुख मानती है ये बिगडी मनोवृति दर्शाता प्रसँग साफ कह रहा है
- लावण्या
दिनेश जी पहली खबर पढ कर इन लड्कियो को सलाम करता हुं, अब लडकियो ओर लडको को ऎसे कई मामलो मे समान रुप मे देखना चाहिये,ओर दुसरी खबर पढ कर हेरानगी भी हुयी, ओर गुस्सा भी आया, लेकिन इतने सारे गांव के लोगो के सामने अगर कोई इन का साथ भी देना चाहे तो नही दे पायेगा,मुझे तरस आता है ऎसी सोच वालो पर.
धन्यवाद
यह सभी व्यक्तिगत विषय हैं और लोग ओं को इन्हें अपनी इच्छानुसार करने का हक होना चाहिए. हमारे बरेली में ऐसा कई बार हुआ है जब मुखाग्नि बेटियों ने दी है. इसके अलावा अंतिम संस्कार कराने वाली बनारस की बुआ के बारे में पत्रिकाओं में पढा था.
वैसे आपकी यह बात समझ नहीं आयी की पुत्री द्वारा अंतिम संस्कार करने में पण्डित जी को अपने व्यवसाय पर ख़तरा क्यों नज़र आयेगा?
बेटियाँ मुखाग्नि दे रही हैं। बेटियाँ माता पिता का वृद्धावस्था में ध्यान रख रही हैं। यदि यह और अधिक होने लगे तो शायद पुत्र के लालच में स्त्री भ्रूणहत्या समाप्त हो जाए।
घुघूती बासूती
बढि़या....वैसे गांवों की स्थिति केवल राजनीति के कारण ही इतनी खराब हो गई है...ईमानदारी से ग्रामीण समुदाय के बीच काम करने वाले सामने आएं तो शायद कुछ भला हो...फिलहाल तो घोर निराशा का माहौल है
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