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बुधवार, 16 दिसंबर 2009

चार कदम सूरज की ओर

आज कल व्यस्तता के कारण स्वयं कुछ लिख पाने में असमर्थ रहा हूँ। लेकिन इस असमर्थता का लाभ यह हुआ है कि  मैं शिवराम जी की कविताएँ आप के सामने प्रस्तुत कर पा रहा हूँ। उन के सद्य प्रकाशित तीन काव्य संग्रहों में से एक कुछ तो हाथ गहों से एक गीत आप के पठन के लिए बिना किसी भूमिका के प्रस्तुत है .....

चार कदम सूरज की ओर
  • शिवराम
चोरी लूट ठगी अपराध
आपाधापी भीतरघात
भ्रष्टाचार और बेकारी
चारों ओर है मारामारी

महंगाई का ओर न छोर
चार कदम सूरज की ओर

ऐसे उदार रघुराई
कुतिया चौके में घुस आई
इतने खोले चौपट द्वार
हुए पराए निज घर-बार

बर्बादी में उन्नति शोर 
चार कदम सूरज की ओर

कर्ज के पैसे जेब में चार 
कैसे इतराते सरकार
उछले जाति धर्म के नारे
नेता बन गए गुण्डे सारे

धुआँ धुआँ सांझ और भोर
चार कदम सूरज की ओर

भावी पीढ़ी को उपहार
सेक्स, नशा और व्यभिचार
आजादी को रख कर गिरवी
भाषण देते तन कर प्रभुजी

जैसे चोर मचाए शोर
चार कदम सूरज की ओर।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

समूह का जिम्मेदार हिस्सा

खिर आज बार  (अभिभाषक परिषद) के चुनाव संपन्न हो गए। मेरा वकालत में इकत्तीसवाँ वर्ष भी इसी माह पूरा हुआ है। दिसंबर 1978 में मुझे बार कौंसिल ने पंजीकरण की सूचना दे दी थी। हालांकि मैं ने इस के भी करीब छह माह पहले से ही अदालत जाना आरंभ कर दिया था। मैं कभी भी अभिभाषक परिषद की गतिविधियों के केंद्र से अधिक दूर नहीं रहा। कुछ कारणों से पिछले पाँच वर्षों से स्वयं को दूर रखना पड़ा।  लेकिन तीसरा खंबा आरंभ करने के बाद इस सब से दूर रहना संभव नहीं था। यदि वकीलों तक अपनी बात को सही ढंग से पहुँचाना है तो वही एक मात्र मंच ऐसा है जिस से यह काम किया जा सकता है। इस बार अपने एक कनिष्ठ अभिभाषक  रमेशचंद्र नायक को कार्यकारिणी की सदस्यता के लिए चुनाव लड़ाया। सामान्य रूप से वह एक बहुत अच्छा उम्मीदवार था। लेकिन चुनाव में जिस तरह की प्रतियोगिता थी उस से मुझे भी उस में व्यस्त होना पड़ा। पिछले चार पांच दिन तो इसी में निकल गए। उस श्रम का ही नतीजा रहा कि नायक चुनाव में सफलता हासिल कर  नए वर्ष में  अभिभाषक परिषद कोटा का काम संभालने वाली नई कार्यकारिणी की सदस्यता हासिल कर सका। रमेशचंद्र नायक का यह पहला अवसर है जब उस ने वकीलों के समूह की जिम्मेदारी को हाथ में लिया है। वह इसे मन से पूरी करेगा और साल के अंत में उस से बड़ी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्षम होगा और तन-मन से तैयार भी।

 रमेशचंद्र नायक
र समूह के लोगों की अपनी समस्याएँ होती हैं, चाहे वह समूह घर पर परिवार के रूप में हो, नजदीकी रिश्तेदारों का समूह हो, मोहल्ले की सोसायटी का समूह हो या साथ काम करने वाले लोगों का समूह हो। हर जगह यह समूह किसी न किसी तरह की समस्याओं का सामना कर रहा होता है। हम सभी स्थानों पर वैयक्तिक समस्याओं के हल के लिए जूझते हैं लेकिन समूह की समस्याओं से कतरा जाते हैं। नतीजा यह होता है कि सामुहिक समस्याएँ बढ़ती रहती हैं और हम वैयक्तिक मार्ग तलाशते रहते हैं और आगे बढ़ते रहते हैं। इन वैयक्तिक मार्गों पर वही व्यक्ति सर्वाधिक सफल रहता है जो सब से चालाक होता है, सब से सीधे व्यक्ति का मार्ग सब से पहले बंद होता है और उसे एक बंद सुरंग में छोड़ देता है।

प इस वैयक्तिक मार्ग पर चल कर किसी सुरंग में अकेले फँसे रह जाएँ, उस से अच्छा है कि आप सामुहिक समस्याओं के हल के लिए आगे आएँ। इस के लिए कहीं न कहीं समूह की कोई न कोई सामुहिक जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। जब आप समूह में रहेंगे तो हमेशा किसी अंधेरी सुरंग से दूर रहेंगे और किसी सुरंग में फँस भी गए तो अकेले नहीं होंगे। रमेशचंद्र नायक की इस सफलता के साथ-साथ हमारे वकालत के दफ्तर के सभी  साथी महसूस कर रहे हैं कि वे अब समूह का अधिक जिम्मेदार हिस्सा हैं।

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

रात इतनी भी नहीं है सियाह

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता ...

 'कविता'
रात इतनी भी नहीं है सियाह 
                                     शिवराम




चंद्रमा की अनुपस्थिति के बावजूद
और बावजूद आसमान साफ नहीं होने के
रात इतनी भी नहीं है सियाह
कि राह ही नहीं सूझे

यहाँ-वहाँ आकाश में अभी भी
टिमटिमाते हैं तारे
और ध्रुव कभी डूबता नहीं है
पुकार-पुकार कर कहता है 
बार बार
उत्तर इधर है, राहगीर! 
उत्तर इधर है


न राह मंजिल है
न पड़ाव ठिकाने

जब सुबह हो
और सूरज प्रविष्ठ हो 
हमारे गोलार्ध में
हमारे हाथों में हों 
लहराती मशालें


हमारे कदम हों 
मंजिलों को नापते हुए

हमारे तेजोदीप्त चेहरे करें
सूर्य का अभिनन्दन।

 

 

रविवार, 13 दिसंबर 2009

और क्या कर रहे हो आजकल/कविता के अलावा

"माटी मुळकेगी एक दिन" से शिवराम की एक और कविता

कविता के अलावा
  • शिवराम
जब जल रहा था रोम
नीरो बजा रहा था बंशी
जब जल रही है पृथ्वी
हम लिख रहे हैं कविता

नीरो को संगीत पर कितना भरोसा था
क्या पता
हमें जरूर यकीन है 
हमारी कविता पी जाएगी
सारा ताप
बचा लेगी
आदमी और आदमियत को
स्त्रियों और बच्चों को
फूलों और तितलियों को 
नदी और झरनों को


बचा लेगी प्रेम
सभ्यता और संस्कृति
पर्यावरण और अंतःकरण


पृथ्वी को बचा लेगी 
हमारी कविता


इसी उम्मीद में
हम प्रक्षेपास्त्र की तरह 
दाग रहे हैं कविता
अंधेरे में अंधेरे के विरुद्ध
क्या हमारे तमाम कर्तव्यों का 
विकल्प है कविता
हमारे समस्त दायित्वों की 
इति श्री 


नहीं, बताओ
और क्या कर रहे हो आजकल
कविता के अलावा ।

एक पूरा छुट्टी का दिन : बहुत दिनों के बाद


ड़ताल 105 दिन पूरे कर चुकी है। इधर अभिभाषक परिषद के चुनाव जोरों पर है। उम्मीदवार सभी मतदाताओं से मिलने के प्रयत्न कर रहे हैं। अध्यक्ष और सचिव पद के उम्मीदवारों का घर-घर जाना पुरानी परंपरा बन चुका है। इस बार उपाध्यक्ष, पुस्तकालय सचिव और कार्यकारिणी सदस्य के उम्मीदवार भी घरों पर आए। अब पंद्रह दिसंबर तक, जब तक मतदान होगा, हड़ताल को शायद ही कोई स्मरण करे। हाँ, उस का इतना उल्लेख जरूर होगा कि कम से कम आने वाली कार्यकारिणी ऐसी अवश्य आए जो हड़ताल से जुड़े हाईकोर्ट की बैंच कोटा में खोले जाने के मामले को इस तरह से आगे बढ़ाए कि जल्द से जल्द हड़ताल से छुटकारा मिल सके। सब के अवचेतन में यह बात कहीं न कहीं अवश्य है और मतदान का बिंदु भी यही होगा। परिणाम बताएँगे कि लोग किसे योग्य पाते हैं। इस बार कोई भी, और बात चुनाव को प्रभावित नहीं कर सकेगी। न ग्रुप, न राजनैतिक संबद्धता, न रिश्तेदारी और न गुरूचेले का संबंध। यही होता है, जब पूरी बिरादरी एक संक्रमण में हो तो फैसले गुणावगुण पर होने लगते हैं।
ह अंदेशा तो है ही कि अब हड़ताल का अंत कुछ ही दिनों में होगा। हमें नए सिरे से अदालतों में काम के लिए तैयार होना  होगा, उस के लिए आवश्यक है कि हमारे दफ्तर तैयार रहें। उन में जो काम पिछड़ गया है वह लाइन पर ले आया जाए। सब पत्रावलियाँ यथास्थान हों। डायरी पूरी तरह से तैयार हो, उस में जो भी कमियाँ हैं पूरी कर ली जाएँ। जिन पत्रावलियों में मुतफर्रिक काम करने हैं, उन्हें कर लिया जाए। कल रात को जब तीसरा खंबा की पोस्ट शिड्यूल कर के उठा तो निश्चय यही था कि  ये सब काम  शनिवार को निपटा लिए जाएँ, जिस से रविवार पूरी तरह से आजाद रहे। लेकिन शुक्रवार का सोचा सब गड़बड़ हो जाता है, यदि उस के बाद  का दिन महीने का दूसरा शनिवार हो। सुबह की चाय पीते-पीते हुए अखबार देखने और उस के बाद नैट पर ब्लाग पढ़ने,कुछ टिप्पणियाँ करने में घड़ी ने नौ बजा दिए। स्नानादि से निपटा तब तक साढ़े दस बज रहे थे। दफ्तर में आ कर डायरी को कुछ ठीक किया ही था कि भोजन तैयार होने की आवाज आ गई। इस आवाज के बाद कुछ भी बर्दाश्त के बाहर होता है।
बैंगन के भर्ते और बथुई की कढ़ी के साथ गरम गरम चपातियाँ थीं। बस गुड़ की डली की कसर शेष थी। पता लगा वह रात ही समाप्त हुआ है। हमने चैन की सांस ली। पिछली बार जो गुड़ लाए थे। वह देसी तो था, पर दाने में कस र थी। वो मजा नहीं आ रहा था। उस से पीछा छूटा। सोचा चाहे दस दुकानें क्यों न छाननी पड़ें। आज दानेदार देसी गुड़ ढूंढ कर लाया ही जाएगा। भोजन कर के फिर से दफ्तर में आ कर बैठा तो पेट ने बदन के सारे लहू को भोजन पचाने में लगा दिया था। दिमाग को लहू की सप्लाई कम मिली तो वह ऊंधने लगा। आज धूप कुनकनी थी और हवा में ठंडक। चटाई-तकिया,अखबार और किताब ले कर छत पर गया। धूप में लेटे-लेटे सुडोकू हल करने लगा। आज की पहेली बहुत खूबसूरत थी। उसने अन्तिम दो अंकों तक छकाया। उसे पूरी करते-करते कुछ भी पढ़ने की हालत नहीं रही। आँखे बंद कीं तो नीन्द ने आ दबोचा। बीच में आ कर शोभा छत पर सुखाई गई मंगोड़ी संभाल गई। बदन गर्म होते ही धूप चुभने लगी। मैं ने डोर पर सूख रहा चादर अपने ऊपर डाल लिया। धूप की चुभन से बचाव हो गया। लेकिन कुछ ही देर में चादर के अंदर की हवा गरम हो गई। इस बार नींद टूटी तो बदन से भरपूर पसीना निकल रहा था। मैं ने चटाई समेटी और नीचे कमरे में आ लेटा। फिर नींद लग गई। आखिर दो बजे मोबाइल की घंटी ने उठाया।
प्रेमकुमार सिंह का फोन था। वे अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे हैं। जब भी कभी मुझे किसी फौजदारी मुकदमे में जरूरत होती है तो वे मेरे वकील होते हैं। सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन से तय था कि मेरे मुहल्ले के वकीलों से वे मेरे साथ मिलेंगे। तीन बजे का समय तय हुआ। मैं ने शोभा को बताया कि तीन बजे वे आ रहे हैं, कॉफी  उन के सात पियूँगा। उस ने तुरंत ही बना दी, क्या पता चुनावी जल्दी में हों और मुझे भी न पीने दें। खैर हुआ भी यही। उन के आते ही हम चल दिए। इलाके के कोई पच्चीस-तीस वकीलों के यहाँ घूम-मिल वापस अपने घर पहुँचते पहुँचते  साढ़े पाँच हो गए। उसी समय मेरी साली की बेटी श्रद्धा रविवार का अवकाश हमारे साथ बिताने आ गई। वह यहीं आईआईटी की कोचिंग कर रही है। उस का आना अच्छा लगा। मैं ने दीवान पर अधलेटे हो कर टीवी खोला, तो ट्वंटी-ट्वंटी आरंभ हो चुका था। मैं और श्रद्धा मैच देखने लगे। शोभा ने आ कर पूछा -खाने में क्या बनेगा? इस प्रश्न का उत्तर हमेशा प्रश्न होता है। ..... तुम्हारे पास क्या है? .... जवाब आया -मैथी।. ... तो पराठे बना लो, श्रद्धा ने भी मेरे मत का समर्थन किया। मैच के इंटरवल में अमिताभ कमेंट्री करने आते तब तक पराठे तैयार हो कर टेबल पर हाजिर थे।
राठों से निपटने के बाद मैच पूरा देखा। आखिर भारत ने मैच जीत  लिया। कंमेंटेटर बल्लेबाजों  की तारीफों के पुल बांधने लगे। हार जाता तो उन का पुलंदा बांधते। तभी कुछ और उम्मीदवार मिलने आए। इस बीच बेटे वैभव और बेटी पूर्वा से फोन पर बात हुई।  इस के बाद मैं दफ्तर में नहीं बैठ सका। फिर से जा कर सारेगामा का 1000वीं प्रस्तुति देखी।  अभी उठ कर वापस आया तो सोचा आज मैं ने क्या किया? जो कल सोचा था वह  काम तो आज बिलकुल नहीं कर पाया। बहुत दिनों बात एक पूरा दिन छुट्टी मनाई।  अब सोच रहा हूँ। शनिवार का काम कल जरूर निपटा दूंगा। शनिवार का सोचा रविवार को तो करना ही पड़ता है, वरना उस के पीछे एक नया सोमवार खड़ा होता है।


तेरी  मुक्ति   के  लिए,   कर  तू  ही   संघर्ष
ना सहाय कोई देवता, न कोई ईश विमर्श
  • शिवराम

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

व्यथा की थाह

शिवराम के तीन काव्य संग्रहों में एक है 'माटी मुळकेगी एक दिन'। बकौल 'शैलेन्द्र चौहान' इस संग्रह की कविताएँ प्रेरक और जन कविताएँ हैं। अनवरत पर इन कविताओं को यदा कदा प्रस्तुत करने का विचार है। प्रस्तुत है एक कविता......


व्यथा की थाह
  • शिवराम

किसी तरह 
अवसर तलाशो
उस की आँखों में झाँको


चुपचाप


गहरे और गहरे


वहाँ शायद 
थाह मिले कुछ


उस की व्यथा का 
पूछने से 
कुछ पता नहीं चलेगा।







बुधवार, 9 दिसंबर 2009

दुल्हन ले आए, ताऊ-ताई को छोड़ आए




भारतीय विवाह एक बहुत जटिल और संष्लिष्ट समारोह है। इस में बहुत से सूत्र इस तरह एक दूसरे से गुंथे होते हैं कि अनेक गुत्थियों को समझना बहुत कठिन होता है। एक मित्र के पुत्र का विवाह था। मित्र के पिता तो बहुत वर्ष पहले गुजर गए। मित्र के काका अभी मौजूद हैं। हालांकि वृद्ध हो चुके हैं। मित्र जब भी गांव जाता हमेशा उन से कहता कि बेटे की शादी है, काकाजी आप को उस की बारात में चलना है।  शादी में काका जी दो दिन पहले ही आ गए। परिवार में सब से बड़ी उम्र के पुरुष। परिवार और मित्र जो भी जिस जिस समारोह में पहुँचा उन से मिल कर प्रसन्न होता। वे अधिक चल फिर नहीं रहे थे, लेकिन वे एक स्थान पर बैठे सब का अभिवादन स्वीकार करते और आशीर्वाद देते। 

बारात 350 किलोमीटर बसों से जानी थी। कुछ कारें भी साथ थीं। दस घंटे जाने का सफर और इतना ही आने का भी। और करीब बारह से चौदह घंटे का ठहराव. काका जी की अवस्था देख मित्र के मन में आया कि उन्हें बारात में बहुत कष्ट होगा। उन्हें आराम न मिलेगा, कहीं सर्दी में उन का स्वास्थ्य खराब न हो जाए। मित्र ने उन से अपने मन की बात कह दी। वे नाराज हो गए। कहने लगे मेरे पहले पोते का ब्याह है औऱ मैं ही न जाऊँ बारात में यह कैसे हो सकता है। कुछ देर बाद मैं पहुँचा तो मित्र ने बताया कि काकाजी मान नहीं रहे हैं। उन से बारात के कष्ट बता कर न जाने को कहा तो नाराज हो गए, बोल ही नहीं रहे हैं। मैं ने कहा सही बात है, उन्हें नहीं ले जाओगे तो बारात का क्या आनंद होगा। उन की तीन बेटियाँ, दामाद, एक बेटा-बहू साथ जा रहे हैं सब संभाल लेंगे। तुम उन से जा कर कहो कि मैं तो मजाक कर रहा थाष आप के बिना कोई बारात कैसे जा सकती है। यह बात मित्र ने कही तो काका जी खुश हो गए और बारात में गए और सकुशल वापस भी लौट आए। एक जरा सी बात ने काकाजी को नाराज किया और शादी में कुछ घंटों के लिए ही सही प्रसन्नता के स्थान पर अवसाद आ गया था वह दूर हो गया।

बारात जिस दिन जाना था उस से पहली रात मेरा हाजमा खराब हो गया। रात को अम्लता ने बहुत कष्ट दिया। मैं किसी तरह बारात में जाने से बच गया था। आज जब दुल्हन के लिए आशीर्वाद समारोह में पहुँचा तो वहाँ एक और विचित्र घटना पता लगी। बारात की एक बस रात को 12 बजे ही रवाना हो गई और करीब आधे बाराती उस से वापस रवाना हो गए। चार घंटे बाद जब दुल्हन की विदाई हुई तो बारात की फाइनल खेप वहाँ से रवाना हुई। दुल्हे के ताऊ भाँवर के बाद आ कर होटल के कमरे में कुछ आराम करने के लिए लेटे और उन्हें नींद लग गई। उसी कमरे में कुछ देर बाद ताई वहाँ आई तो बिस्तर खाली देख वह भी कुछ देर आराम के लिए लेट गई। होटल में और कोई बाराती था नहीं, तो उन्हों ने कमरे को अंदर से बंद कर दिया। बारात की दूसरी बस रवाना हो गई और ताऊ-ताई सोते रह गए। जब बस आधी दूर आ गई होटल वालों ने कमरे संभालना आरंभ किया तो एक कमरा बंद पाया। ताऊ-ताई को जगा कर कमरा खुलवाया गया। बारात को मोबाइल से खबर भेजी गई। ताऊ-ताई को दुल्हन के पिता ने बस में बिठा कर विदा किया। वे सकुशल वापस पहुँच भी गए। पर नाराज तो वे हो ही गए थे कि आखिर बारात उन्हें छोड़ कर कैसे आ गई। वे गुस्से के मारे या लज्जा के कारण आशीर्वाद समारोह में नहीं आए। अब उन्हें मनाने में मित्र को कई महिने लगेंगे, हो सकता है साल भी लगें। मुझे ही जा कर मनाना होगा। वैसे ताऊ-ताई थोड़ा साहस जुटाते और आशीर्वाद समारोह में इस विचित्र दुर्घटना का आंनंद ले कर शामिल होते तो समारोह का आनंद कुछ और ही होता।

स दूल्हे के पिता और बारात व्यवस्थापक यदि बारात की फाइनल खेप रवाना होते समय होटल के कमरे ठीक से चैक कर लेते तो यह घटना नहीं होती। उन की इस एक गलती ने समारोह का मजा खराब कर दिया। हालांकि पुराने जमाने की शादियाँ इसी तरह की विचित्र घटनाओं के लिए अविस्मरणीय बन जाती थीं और बार बार स्मरण की जाती हैं।