@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 6 जून 2009

एक दम निजि पोस्ट : शादी में जाना है

साली के जेठूत की शादी है।  कोटा में मेरे घर से पचपन किलोमीटर दूर नेशनल हाई-वे पर है, कस्बा अन्ता।  आज वहाँ बारात रवाना होने के पहले होने वाली आखरी पारंपरिक रस्में होंगी।  कल बारात रवाना होनी है जो कोई पाँच सौ किलोमीटर का सड़क मार्ग तय कर मध्यप्रदेश के नगर सागर जाएगी। निमंत्रण तो बारात में जाने का भी है, पर अभी तो घर से निकलने के पहले ही पसीने छूट रहे हैं।  अखबार में कल पर्यावरण दिवस का टेम्परेचर चिपका है, अधिकतम 44 डिग्री और न्यूनतम 32.8 डिग्री सैल्सियस।  हवाएँ चल रही हैं, वरना यह शायद दो-दो डिग्री ऊपर होता।  साली साहिबा का बहुत आग्रह है, जाना होगा। बच सकने का कोई मार्ग नहीं है।  शोभा (पत्नी) पहले ही मेरी डायरी देख चुकी है कि उस में आज कोई मुकदमा दर्ज नहीं है।

कल एक संबंधी को फोन किया तो कहने लगे कि वे तो बाजार में व्यस्त रहेंगे। मैं उन की पत्नी और बेटे (4वर्ष) को साथ ले जाऊँ। इधर गर्मी के कारण अखबारों में रोज छपता है कि प्रदूषित पानी और भोजन से बचें। मुझे पता है कि अन्ता में इस का कोई ध्यान नहीं रखा जाएगा। वही कुएँ का पानी कपड़े से छाना हुआ और बर्फ डाल कर ठंडा किया हुआ ही मिलना है।  मैं उन को यही कहा कि कल सुबह बता दूंगा।  मुझे बच्चे का ध्यान आता है, वह कैसे गर्मी बर्दाश्त करेगा। कस्बे में चलती लू और उड़ते बरबूळों की धूल।  हलवाई का बना भोजन।  शोभा कहती है उन्हें बच्चे का बिलकुल ध्यान नहीं है।  बीमार हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे।  सुबह उन का फोन आता है। मैं तरकीब से मना कर देता हूँ कि अभी तो मेरा ही जाने का मन नहीं है।

लोग इतनी भीषण गर्मी में शादी क्यों कर रहे हैं? कोई अच्छा मौसम नहीं चुन सकते?  क्यों वे सैंकड़ा के लगभग लोगों की बारात ले कर 500-600 किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं? क्या लड़की वालों को यहाँ नहीं बुला सकते थे? इस सवाल का उत्तर तो वे दे चुके हैं कि वे लड़की वाले तैयार नहीं इतनी दूर आने को। 

अपना जाना तो कल ही तय हो चुका था।  जब हम साली जी के लिए एक अदद साड़ी खरीद लाए थे। अब जाना है तो जाना है।  घड़ी देखता हूँ, नौ बजने को है।  बस इस पोस्ट को प्रकाशित कर उठता हूँ। स्नान करना है, और कपड़े पहन निकल लेना है। आज सब काम की छुट्टी, न वकालत का दफ्तर और न ब्लागिरी। रात को जल्दी और बिना किसी लफड़े के लौट आए, और यहाँ कोई लफड़ा हाजिर न मिला तो टिपियाएँगे।  आज का दफ्तरी काम कल पर चढ़ जाएगा। बहुत से ब्लाग पढ़ने से छूट जाएंगे, और टिपियाने से  भी।  अब और आगे टिपियाना संभव नहीं है।  किचिन से आवाज नहीं लगाई जा रही है लेकिन मुझे पता है पारा चढ़ रहा है। कब थर्मामीटर बर्स्ट हो जाए भरोसा नहीं। अब चलता हूँ।  वापस लौट कर लिखता हूँ आज की दास्तान।।

गुरुवार, 4 जून 2009

डॉ. अरविन्द जी मिश्रा, तो सुनिए उस्ताद बिस्मिल्लाह खान से शहनाई पर राग मालकौंस

पिछली चिट्ठी "सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें"  पर डॉक्टर अरविंद जी मिश्रा ने टिप्पणी करते हुए फरमाइश की थी ........
ये तो सुन लिया ! किसी और का गाया हुआ है दिनेश जी ? या फिर केवल वाद्ययंत्र से निकला मालकौंस सुनने को मिल सकता है ?
तो फिर देर किस बात की है? सुनिए आप के ही नगर बनारस के हीरक शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई पर राग मालकौंस में यह बंदिश...................
 
यह कैसा भी तनाव मिटा सकती है...
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सुनें,राग मालकौंस ! तनाव शैथिल्य से मुक्ति पाने का प्रयास करें।

आज डॉ0 अरविंद मिश्रा ने अपने ब्लाग क्वचिदन्यतोअपि..........! पर लिखा है कि बर्लिन और अमेरिका में विगत २५ वर्षों से शोधरत भारतीय मूल की अमेरिकन नागरिक वैज्ञानिक डॉ जैस्लीन ए मिश्रा ने  कल  बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अकैडमी स्टाफ कालेज में संपन्न हुए एक रोचक व्याख्यान में शास्त्रीय संगीत के मानव शरीर पर प्रभावों के बारे में चर्चा की जिसे  टाईम्स आफ इंडिया के आज केअंक में भी कवर किया गया है।  डॉ जैस्लीन ए मिश्रा डॉ. अरविंद मिश्रा जी की चाची हैं। 

इस व्याख्यान में डॉ जैस्लीन ए मिश्रा कहा कि उन्हों ने अपने शोध के दौरान यह पाया  है की राग मालकौंस की तनाव शैथिल्य में अद्भुत भूमिका है !

यहाँ मैं उस्ताद आमिर खान द्वारा गाया गया राग मालकौंस सुनिए, इसे कुछ दिन दोहराएँ और देखें वास्तव में यह आप के तनाव को शिथिल करता है या नहीं।  प्रतिक्रिया से अवश्य अवगत कराएँ।


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बुधवार, 3 जून 2009

अमिताभ ने उपाधि ठुकरा कर एक तीर से तीन निशाने साधे

आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों के प्रति जो अपमान जनक व्यवहार हो रहा है उस से प्रत्येक भारतीय आहत है। ऐसे में अमिताभ बच्चन  ने ऑस्ट्रेलिया की क्वीन्सलैंड यूनिवर्सिटी से मिलने वाली डॉक्टरेट की मानद उपाधि लेने से इनकार कर दिया। उन्हें यह उपाधि थी। अमिताभ ऑस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर लगातार हो रहे हमलों से नाराज हैं।
ऑस्ट्रेलिया के शहरों में भारतीय छात्रों के खिलाफ नस्लवादी हमले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं ऑस्ट्रेलियाई सरकार इन्हें रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाने के स्थान पर सिर्फ यह साबित करने की कोशिश कर रही है कि ये हमले नस्लवादी नहीं है।
अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग पर लिखा कि वह उस संस्थान के खिलाफ कोई असम्मान नहीं दिखाना चाहते, लेकिन ऑस्ट्रेलिया में अपने देशवासियों पर हो रहे हमलों से दुखी हैं, ऐसे में उनकी अंतरात्मा यह स्वीकार नहीं करती कि उस देश के संस्थान से कोई उपाधि प्राप्त करें जहां उनके देशवासियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा हो।

क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी ने बॉलिवुड सुपरस्टार अमिताभ बच्चन से कहा है कि वह आस्ट्रेलिया में भारतीय छात्रों पर हो रहे हमलों के विरोध में उसकी ओर से दी जाने वाली डॉक्ट्रेट की उपाधि को नहीं लेने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करें।
अमिताभ बच्चन  ने उपाधि स्वीकार नहीं कर पाने संबंधी अपनी विवशता के बारे में यूनिवर्सिटी को शनिवार को सूचित कर दिया था। यूनिवर्सिटी के कुलपति पीटर कोलड्रेक ने अमिताभ के उसी पत्र के जवाब में अपने फैसले पर 'हम आपकी मजबूरी समझ सकते हैं। हम आपके भावनाओं का सम्मान करते हैं लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि आप अपने फैसले पर एक बार फिर विचार करें। इससे दोनों देशों के रिश्ते सुधर सकते हैं। आपके हाथ में एक बड़ी जिम्मेदारी है और मेरा आग्रह है कि आप इसी को ध्यान में रखकर कोई फैसला करें।'
अमिताभ बच्चन ने उपाधि ठुकरा कर ठीक ही किया। ऐसे माहौल में यदि वे आस्ट्रेलिया जाते हैं तो वह किसी भी प्रकार से ठीक न होता। इस से उन की छवि पर भी विपरीत असर आता। लेकिन क्या यह इतनी सी बात है? नहीं। बात कुछ पीछे से आरंभ होती है। यह एक तीर से तीन शिकार है। इस से संपूर्ण भारत में उन की छवि और निखरती है, ऐसे माहौल में वे आस्ट्रेलिया जाने से बच गए और तीसरा यह भी कि यह राज ठाकरे को भी एक करारा जवाब है। जो खुद महाराष्ट्र में इस से भी खराब व्यवहार उत्तरभारतियों के साथ कर चुके हैं।

मंगलवार, 2 जून 2009

रेल बोर्ड के गलत निर्णयों से रेल संपत्ति का नुकसान और यात्रियों को परेशानी

"खुसरूपुर में रेल ठहराव बंद होने से गुस्साई भीड़ ने 3 ट्रेनों में लगाई आग"    
यह नवभारत टाइम्स में प्रकाशित समाचार का शीर्षक है।  समाचार यह है कि इन घटनाओं में कोई हताहत नहीं हुआ है।  लेकिन तीन ट्रेनों को रोक कर उन्हें आग के हवाले कर देना कोई मामूली घटनाएं नहीं है।  इस से न केवल राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुँची है अपितु रेल यातायात बाधित हुआ है।  सैंकड़ो लोग गन्तव्य तक पहुँचने के पहले ही किसी अनजान स्थान पर उतार दिए गए।  यातायात बाधित होने से सैंकड़ो लोग स्टेशनों पर अटके पड़े होंगे।

यह सब हुआ रेलवे के एक निर्णय अथवा अनिर्णय से।  दानापुर रेलमंडल के जनसंपर्क अधिकारी आर.के. सिंह का कहना था कि बिहार के 33 विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर विभिन्न ट्रेनों का अस्थायी तौर पर स्टॉपेज था। रेलवे बोर्ड ने गत 26 मई को एक आदेश जारी कर इस स्टॉपेज पर रोक लगा दी, जिसका नागरिकों ने विरोध किया। अंतत: सोमवार को बोर्ड ने अपने उस आदेश को तात्कालिक तौर पर वापस ले लिया है।  बाद में इन स्टेशनों पर होने वाली टिकटों की बिक्री की समीक्षा करने के बाद इस बारे में निर्णय लिया जाएगा कि यहां ट्रेनों के स्टॉपेज आगे भी जारी रखे जाएं या नहीं।
जब रेलवे किसी भी रूप में एक सुविधा को जारी करती है तो उसे बिना बिक्री की समीक्षा किए और जनता को पहले से सूचना दिए बिना बंद क्यों कर दिया जाता है।  एक सुविधा लोगों को बहुत कठिनाई से प्राप्त होती है।  यदि उसे अनायास ही छीन लिया जाए तो नागरिकों का गुस्साना स्वाभाविक लगता है।  लेकिन रेल प्रशासन को कतई यह गुमान न था कि इन सुविधाओं को छीन लेने मात्र से ऐसी प्रतिक्रिया देखने को मिलेगी।  यह रेलवे प्रशासन की सोच का दिवालियापन ही कहा जा सकता है।  रेलवे कोई निजि उद्योग नहीं है वह एक सार्वजनिक उद्योग है और उस में उसी जनता का धन निवेशित है जिस के एक हिस्से ने उस में आग लगा दी और अपना रोष जाहिर किया।

सार्वजनिक क्षेत्र के उन उद्योगों को जो नागरिक सेवाएं प्रदान करते हैं यह ध्यान तो रखना ही होगा कि उन के किसी प्रशासनिक निर्णय या अनिर्णय से जनता के किसी हिस्से को ऐसा धक्का न लगे कि वह हिंसा पर उतारू हो जाए।  इन प्रायोगिक ठहरावों को बंद करने के पहले समीक्षा की जा सकती थी और जनता को पर्याप्त नोटिस दिया जा सकता था कि इन स्टेशनों से एक निश्चित अवधि में यात्री मिलना निश्चित मात्रा से कम रहा तो इन टहरावों को बंद कर दिया जाएगा।  इस तरह से जनता को विश्वास में ले कर यह कदम उठाया जाता तो इस तरह की हिंसा से बचा जा सकता था और रेलवे का यह व्यवहार जनतांत्रिक भी होता। सार्वजनिक उद्यम होने के कारण उस से ऐसे व्यवहार की अपेक्षा जनता रखती है।  आशा है नई रेल मंत्री रेलवे बोर्ड में जनता को प्रभावित करने वाले निर्णयों को जनतांत्रिक तरीके से लिए जाने की पद्यति विकसित करने का प्रयास करेंगी।

पुनश्चः
यह आलेख कल शाम 5.30 पर लिखा गया था, किन्तु इस के प्रकाशन के ठीक पूर्व चौड़ा पट्टा धोखा दे गया। बीएसएनएल के अधिकारी दफ्तर छोड़ चुके थे। आज उन्हों ने जाँच कर मेरा पोर्ट बदला, उस के बाद पास वर्ड की समस्या आ गई। अभी 5.12 पर चौड़ा पट्टा बहाल हो सका है। गति भी पहले से तेज मिल रही है। इस कारण से इसे देरी से प्रकाशित किया जा सका है।

रविवार, 31 मई 2009

जनतन्तर कथा की अन्तरकथा और फैज-अहमद-फैज का गीत, "हम मैहनतकश जग वालों से......"

26 मार्च, 2009 से इस चिट्ठे पर जनतन्तर कथा चल रही थी। पाठकों ने इसे पसंद किया इस  बीच इस चिट्ठे के पाठकों की संख्या में भी वृद्धि हुई।  इस कथा की जन्म-कथा बहुत मामूली है।   अचानक विचार आया कि देश में आम चुनाव हैं और देश की सरकार चुनी जा रही है।  इस बीच जनतंत्र और चुनाव को संदर्भ बना कर कुछ लिखा जाए।  बस यूँ ही मौज में आरंभ हुई इस जनतन्तर कथा की दो कड़ियों के बाद ही अनायास गणतंत्र बनने से ले कर इन चुनावों तक का इतिहास इस में प्रवेश कर गया।   इतिहास के इस प्रवेश से मुझे भी पुस्तकों में जाना पड़ा।  फिर अनायास पौराणिक पात्र सूत जी इस कथा में चले आए।  मैं ने जब इस कथा को टिपियाना आरंभ किया था तो मैं अपनी उंगलियों को नियंत्रित कर रहा था। लेकिन जब सूत जी का पदार्पण हुआ और पीछे पीछे सनत चला आया तो नियंत्रण मेरी उंगलियों से निकल गया।  सूत जी का व्यक्तित्व कुछ इस प्रकार का था कि वे  मेरी उंगलियों को नियंत्रित करने लगे और कथा मेरे नियंत्रण से स्वतंत्र हो कर स्वयमेव अपना मार्ग निर्धारित करने लगी।
अंत में जब राजधानी में मंत्रीमंडल की पहली खेप ने शपथ ग्रहण कर ली तो राजधानी में सूत जी के रुकने का कोई अर्थ नहीं रह गया था।  वे अगले दिन ही राजधानी से नैमिषारण्य के लिए प्रस्थान कर गए।  जनतंतर कथा वहीं अवसान हो गई थी। लेकिन अंतिम आलेख में कुछ ऐसा गुजरा कि एक टिप्पणी पर प्रति टिप्पणी और एक अन्य चिट्ठे पर प्रत्युत्तर में लिखे गए आलेख ने इस कथा को और आगे बढ़ाया।  सनत ने सूत जी से संपर्क किया और वीडियो चैट के माध्यम से कथा आगे बढी़।  मेरे कम्यूटर पर यह सुविधा अब तक नहीं थी लेकिन इसी बीच वह भी स्थापित हो ली।  इसे सूत जी की कृपा ही कही जानी चाहिए।
इस कथा के अंत में एक बात स्थापित हुई कि दुनिया वर्तमान में उस दौर में है कि परिवर्तन चाहती है। परिवर्तन कैसा होगा और कैसे होगा?  इसे परिस्थितियाँ निर्धारित करेंगी।  लेकिन मनुष्य एक सजग प्राणी है।  और परिस्थतियों के निर्माण में अपनी एक भूमिका भी अदा करता है।  इसलिए दुनिया का भविष्य बहुत कुछ मनुष्य की वर्तमान गतिविधियों पर भी निर्भर करता है।  इस कारण से हमें वर्तमान और भविष्य के लिए विमर्श में रहना चाहिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के रहना चाहिए।  विमर्श का मुख्य तत्व विचार हैं जो प्रत्येक मनुष्य की अपनी परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं।  यही परिस्थितियाँ आग्रह भी उत्पन्न करती हैं।  लेकिन जब हम सब का उद्देश्य एक अच्छी,  सुंदर, आपस में प्रेम करने वाले मनुष्यों की दुनिया की स्थापना हो तो।  आग्रहों के बावजूद भी एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना आवश्यक है, विमर्श तभी जारी रह सकता है।  यदि कभी आवेश में कोई एक गलती कर बैठे तो इस का अर्थ यह नहीं कि दूसरे उस से भी बड़ी, वैसी ही गलती करें।
बात खिंचती जा रही है।  वैसे तो जनतन्तर कथा के अंतिम आलेख पर भी दो टिप्पणियाँ ऐसी हैं कि सूत जी को को फिर से कष्ट दिया जाना चाहिए था।  पर एक तो वे सनत से कह चुके हैं कि वे वीडियो चैट कम पसंद करते हैं और प्रश्नों के समाधान के लिए सनत स्वयं नैमिषारण्य आए।  लेकिन बेचारा सनत वह एक समाचार पत्र का साधारण संवाददाता है, इतने शीघ्र उसे अवकाश नहीं मिल सकता है कि वह नैमिषारण्य जाए।  सूत जी भी दो माह में थक चुके हैं और कुछ विश्राम करना चाहते हैं।  यह दिनेशराय द्विवेदी भी कुछ इधर उधऱ की बातें करना चाहता है जो इस जनतन्तर कथा के दो माह के प्रसवकाल में उस से छूट गई हैं और इस के लिए  इस  चिट्ठे पर स्थान चाहता है।  सूत जी नैमिषारण्य में हैं और सनत भी पास में ही लखनऊ में है।  दोनों अमर पात्र हैं, वे कभी  कभी इस चिट्ठे पर अवश्य ही लौटेंगे।  पाठक उन की प्रतीक्षा कर सकते हैं।
अभी मैं दो टिप्पणियों के बारे में बात करना चाहता हूँ।  पहले तो अभिषेक ओझा की टिप्पणी कि मरकस बाबा सैद्धान्तिक अधिक और व्यावहारिक कम क्यों लगते हैं?।  मेरी राय में मरकस बाबा के दर्शन के बारे में अधिक धारणाएँ उन के सच्चे अनुयायी होने का दम भरने वाले लोगों, समूहों और दलों के व्यवहार पर आधारित है।  मुझे लगता है कि किसी के भी व्यक्तित्व, कृतित्व और दर्शन के बारे में हमारी धारणा स्वयं उन के साहित्य और दर्शन का अध्ययन कर बनानी चाहिए।  जिस से हम स्वयं किसी निर्णय पर पहुंच सकें।  स्वयं अनुभव की गई और दूसरे से सुनी हुई बात में बहुत अंतर होता है।  यही कारण है कि पूरी दुनिया में सुनी हुई को साक्ष्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जाता, अपितु देखी हुई और अनुभव की हुई को ही स्वीकार किया जाता है।  अंत में यह कि विवाद के भय से कभी भी जिज्ञासा को दबाना नहीं चाहिए।  चाहें तो व्यक्तिगत रूप से भी इन जिज्ञासाओं को शांत कर सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से ही ऐसा किया जाए तो उस का लाभ बहुत लोगों को एक साथ मिलता है।
जहाँ तक  शहीद भगत सिंह विचार मंच, संतनगर की जिज्ञासाओं का प्रश्न है वे स्वयं समझदार हैं।  राज्य की भूमिका का प्रश्न बहुत बड़ा है।  उस का उत्तर देने के लिए एक स्वतंत्र श्रंखला की आवश्यकता हो सकती है।  इस का उत्तर सूत्र रूप में देना उचित नहीं है।  जहाँ तक श्रमजीवी जनता के भाग के  आशीर्वाद का प्रश्न है तो इस का उत्तर तो फैज़-अहमद "फैज़" ने बहुत ही सुंदर रीति से अपने इस गीत में दिया है। यह उन की जिज्ञासा को अवश्य शांत करेगा।  आप सब इस गीत को सुनें ........


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हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

यहां पर्वत पर्वत हीरे हैं, यहां सागर सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........

जो खून बहे, जो बाग उजड़े, जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का, हर गूंचे का, हर ईंट का बदला मांगेगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जाएंगे,
हम मेहनत से उपजाएंगे, हम बांट बराबर खाएंगे।
हम
मेहनतकश जग वालों से जब.........

हम
मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,एक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।

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गुरुवार, 28 मई 2009

महालक्ष्मी ताऊपने के बिना एकत्र क्यों नहीं होती? : जनतन्तर कथा (36)

 हे, पाठक!
अगली रात्रि का भी जब दूसरा प्रहर समाप्त होने को था, तब सनत ने संपर्क किया। दृश्यवार्ता में संपर्क बन जाने पर सूत जी बोले- सनत! मैं कल तुम्हें लक्ष्मी के भेद बताने वाला था। अब उसे ध्यान से श्रवण करो! लक्ष्मी सदैव श्रम से ही उत्पन्न होती है।  जल, वायु आदि पदार्थ प्रकृति में बिना मूल्य प्राप्त होते हैं।  लेकिन किसी गांव में जल का कोई स्रोत न हो,  और जल पर्वत की तलहटी के सोते से भर कर लाना हो तो ग्राम में लाया गया जल मूल्यवान हो जाता है।  उस में यह मूल्य उत्पन्न होता है जल को सोते से गांव तक लाने में किए गए श्रम से। केवल मनुष्य ही है जो प्राकृतिक वस्तुओं के स्थान व रूप बदल कर उन का उपयोग करता है।  इस तरह प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाने के लिए श्रम आवश्यक है।  इसी श्रम के योग से वस्तुओं में मूल्य उत्पन्न होता है।  एक हीरा भूमि के गह्यर में दबा होता है।  मनुष्य अपने श्रम से उसे पृथ्वी की गहराई से बाहर निकालता है और उसे तराश कर सुंदर व बहुमूल्य बना देता है। उस हीरे में जो भी मूल्य उत्पन्न होता है वह उसे गहराई से निकालने और तराशने में किए गए श्रम से उत्पन्न होता है।  प्राकृतिक वस्तुओं में श्रम के योग से उत्पन्न हुआ यही मूल्य लक्ष्मी है।  इसे हम प्रारंभिक लक्ष्मी कह सकते हैं।  यह आवश्यक नहीं कि श्रम सदैव ही मूल्य उत्पन्न करे।  यदि किया गया श्रम मानवोपयोगी नहीं तो वह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं करेगा।  जैसे कोई कुएँ से बाल्टी भर पानी खींच कर बाहर निकाले और उस बाल्टी भर पानी को  फिर से कुएँ में डाल दे तो वह श्रम तो करेगा किन्तु उस से कोई मूल्य उत्पन्न नहीं होगा. लेकिन जब भी मूल्य उत्पन्न होता है तो वह श्रम से ही होता है। बिना श्रम के लक्ष्मी कभी उत्पन्न नहीं होती।
एक हीरा खान
हे, पाठक! 
सूत जी के इतना कहने पर सनत ने प्रश्न किया -लेकिन ताऊ कहते थे  "भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्ष्मी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नहीं आ सकती, यह गारंटी है।  भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे।"
 सूत जी बोले -ताऊ ने बिलकुल सही कहा।  मनुष्य यदि अकेला श्रम करे तो कितना मूल्य उत्पन्न कर सकता है? बहुत थोड़ा न? जो उस के स्वयं के लिए पर्याप्त हो, या उस से कुछ अधिक।  मनुष्य के आरंभिक जीवन में ऐसा ही था।  उस का सारा दिन फल संग्रहण और शिकार में ही व्यतीत हो जाता था। दिन भर पूरा परिवार श्रम कर के भी केवल अपने जीवनयापन जितना ही जुटा पाता था।  लेकिन औजारों के आविष्कार और पशुपालन से यह संभव हुआ कि वह कुछ अधिक मूल्य उत्पन्न कर सके और कुछ खाद्य व अन्य जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र कर सके।  जब उस ने औजार परिष्कृत कर लिए खेती का आविष्कार हुआ तो वह और अधिक मूल्य उत्पन्न उत्पन्न करने लगा।  वह इतना उत्पादन करने लगा कि उपयोग के उपरांत संग्रह योग्य उपयोगी पदार्थ बचने लगे।   यही वह लक्ष्मी थी जिसे मनुष्य ने सहेजा।
औद्योगिक क्रांति
वर्तमान युग की बात करें तो आज मनुष्य स्वयं अपने परिवार के उपयोग के लिए वस्तु उत्पादन के लिए ही श्रम करता ही नहीं है।  वस्तु उत्पादन आज इतना विकसित और जटिल हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने लिए एक विशिष्ठ दक्षता का कार्य तलाशता है और उसी पर श्रम करता है।  मुद्रा के आविष्कार ने इस तरह के श्रम को आसान किया है।  अब मनुष्य को किसी भी किए गए विशिष्ठ और दक्ष कार्य के बदले मुद्रा प्राप्त हो जाती है और वह उस से अपने लिए जीवनो पयोगी वस्तुएँ क्रय कर के प्राप्त कर सकता है।   इस तरह का विनिमय बहुत पहले आरंभ हो गया था।  लेकिन आज वह चरम पर है।  इसी विनिमय ने बाजार को उत्पन्न किया है।  इसी तरह धीरे धीरे श्रम सामुहिक होता गया।  भाप, तेल और विद्युत शक्ति का उपयोग उत्पादन में आरंभ होने ने ही यूरोप की औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया।  जिस ने स्वाधीनता और जनतंत्र के मूल्य दुनिया में स्थापित किए।
सामुहिक-श्रम
 हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -अब काम समूहों में होते हैं।  हर कोई दूसरे के लिए श्रम करता है और श्रम का मूल्य मुद्रा में प्राप्त करता है।  श्रम  कर के वह जितना मूल्य उत्पन्न करता है।  वह उसे पूरा नहीं मिलता।  अपितु उसे मिलने वाला मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि बाजार में विशिष्ठ प्रकार का श्रम करने वाले कितने लोग हैं? और उस तरह का श्रम करा कर मूल्य उत्पादित कराने वाले कितने?  दुनिया में एक श्रम बाजार बन गया है। दुनिया में उत्पादित उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का भी बाजार है।  बाजार में श्रंम  और उत्पादित वस्तुएं मुद्रा में मूल्य दे कर क्रय-विक्रय की जा सकती हैं।  किसी भी श्रम बाजार में सदैव श्रम विक्रय करने वालों की अधिकता बनी रहती है।  प्रारंभ में किसी नए प्रकार की विशिष्ठता के श्रम करने वालों की कमी रहती है तो श्रम का मूल्य बहुत अधिक प्राप्त होता है और वास्तव में उन के द्वारा उत्पादित किए जाने वाले मूल्य से भी अधिक हो सकता है।  किन्तु यह अत्यन्त अस्थाई होता है।   कुछ ही काल  में उस विशिष्ठ  श्रम को करने वाले अनेक लोग हो जाते हैं और बाजार में श्रम का मूल्य उत्पादित मूल्य से बहुत कम हो जाता है।  इस श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य से उस श्रम के बदले चुकाया गया मूल्य बहुत कम होता है।  इन दोनों के अंतर का अतिरिक्त मूल्य सदैव ही उत्पादन के साधनों के स्वामियों के पास रहता है।  यही अतिरिक्त मूल्य एकत्र हो कर जब पुनः उत्पादन के उद्यम में लगाया जाता है तो वह पूंजी हो जाता है।  संग्रहीत अतिरिक्त मूल्य को ही टिप्पणीकार ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने महालक्ष्मी कहा है और ताऊ का कथन भी उचित और यथार्थ कि ताऊपने के बिना यह महालक्ष्मी पैदा नहीं  हो सकती।  धनसंचय कर उत्पादन के उद्यम का स्वामी बनना और एक ऐसा तंत्र खड़ा करना जो लगातार अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता रहे ताऊपना नहीं तो क्या है?  ऐसे ताऊओं को ही आज पूँजीपति कहा जाता है।  ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं,  वहीं श्रमजीवी जनता  इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।  ताऊ लोग अपनी महालक्ष्मी के बल पर एक-केन-प्रकरेण अपने प्रतिनिधियों को महा पंचायत में पहुँचाते हैं।  श्रमजीवियों के पास महालक्ष्मी की शक्ति नहीं,  लेकिन लक्ष्मी को उत्पन्न करने की शक्ति है।  वे अपनी शक्ति को सामूहिक रूप से संगठित करें तो ताऊ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं।  श्रमजीवी जनता के पास संगठन ही एक मात्र मार्ग है जिस के बल पर वे अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधि महापंचायत में पहुँचा सकते हैं।  नया तथ्य यह है कि हाल के चुनावों के बाद महापंचायत के 543 में से 300 चुने हुए सदस्य करोड़पति हैं।
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा? 
महाताऊ (पूंजीपति)
हे, पाठक!
इस पर सनत बोला - गुरूवर? प्रश्न का उत्तर तो मिल गया।  लेकिन आप की बात से मन में बहुत से नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं।  लगता है मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस तरह के व्यवसाय में हूँ उस में तो यह बहुत आवश्यक भी है।  सोचता हूँ एक बार मरकस बाबा की "पूँजी" को आद्योपांत पढ़ डालूँ और उस के बाद ही आप से कुछ बात करूँ।
सूत जी बोले -अवश्य पढ़ो।  वह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होने पर भी बहुत से संशयों का निवारण करती है।  उस का अध्ययन कर तुम भविष्य के लिए नए मार्ग के बारे में कुछ विचार कर सकोगे। रात्रि बहुत हो चुकी है।  मैं अब विश्राम करूंगा, और हाँ ये लम्पी दृश्यवार्ता से मुझे अधिक देर नहीं सुहाती कष्ट होने लगता है।  तुम कभी सप्ताह भर का अवकाश ले कर नैमिषारण्य आ जाओ।  यहाँ खूब बतियाएँगे, वाद-विवाद-संवाद करेंगे और एक दूसरे से सीखेंगे।  मुझे भी तुम जैसे प्रश्न करने वाले नौजवानों से ही तो ऊर्जा मिलती है।  लगातार पढ़ने-सीखने की आवश्यकता बनी रहती है।  सत्य कहता हूँ जिस दिन पढ़ना-सीखना बंद हो जाएगा उस दिन मेरा सूत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।

बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....