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शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ईमानदारी का पर्व

मुझे बहुत कम ही बैंक जाना पड़ता है। बैंक नोट भी मेरे पास अधिक नहीं रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा नोट संभाल सकता हूँ तो चार पाँच हजार रुपयों के नोट भी बहुत कम अवसरों पर मेरे पास होते हैं। पर्स में अक्सर हजार पन्द्रह सौ से अधिक रुपया नहीं रहता। कभी पर्स घर भूल भी जाता हूँ तो मुझे कभी परेशानी नहीं होती। दिन निकल जाता है। अभी भी मेरे पर्स में दो पाँच सौ के नोट हैं पुराने वाले। उस के अलावा कुछ सौ पचास के नोट हैं।

अधिकतर बिल्स में ऑनलाइन चुकाता हूँ। कुछ स्थाई क्लाइंट मेरा भुगतान मेरे खाते में करते हैं। उस से वे बिल चुकते रहते हैं। शेष क्लाइंट नकद भुगतान करते हैं तो पर्स में रख लेता हूँ, अक्सर उन्हे मैं घर पर उत्तमार्ध को सौंप देता हूँ। अगली सुबह पर्स में फिर वही उतने नोट होते हैं कि जरूरत पड़ जाए तो कार में पेट्रोल डलवा लूँ और छोटा मोटा खर्च कर सकूँ। उत्तमार्ध मेरी बैंक है। इस बैंक में कित्ते रुपए मेरे खाते में हैं? जब भी पूछता हूँ तो वह खाली बताया जाता है। फिर भी मुझे अपनी जरूरत के मुताबिक रुपया हमेशा वहाँ से मिल जाता है। मेरी ये जरूरत हजार के आसपास से कभी कभार ही अधिक होती है।

ब से नोट बंदी हुई है मेरे पास फीस जमा कराने कोई नहीं आ रहा है। नतीजा ये है कि एक बार दस हजार रुपये निकलवा कर लाया था जो अब खत्म होने को हैं। एक दो दिन में ही बैंक से रुपया निकलवाना पड़ेगा। लाइन में खड़ा होना मेरे लिए संभव नहीं है। पिछली बार बैंक मैनेजर ने मुझे खड़ा न होने दिया था। लेकिन इस बार मुझे चिन्ता लगी है। कि कहीं वह मेरी मदद ही न कर पाए तो।

मेरे पास जो दो नोट पाँच सौ वाले पुराने हैं उन्हें तो कभी भी पेट्रोल भराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए बदलने की कोई जल्दी नहीं है। उत्तमार्ध जी अभी नोट बदलवाने को कह नहीं रही हैं। पर कभी तो कहेंगी। मैं ने उन्हें कह दिया है कि जितने भी होंगे उन्हें मैं अपने खाते में जमा करवा कर उतने ही वापस निकलवा कर उन के हवाले कर दूंगा। बस उन्हें मुझ से मुगल काल के धनिकों की तरह यह भय हो सकता है कि मुझे उन के बैंक की माली हालत पता नं लग जाए। उस वक्त शहंशाह मृत्यु के बाद सब कुछ जब्त कर लेता था वारिसों को उन की जरूरत के मुताबिक ही देता था। नतीजे में वे अपने मकान तक अच्छे न बनवाते थे और धन को जमीन में गाड़ कर रखते थे। लगता है जमीन में धन धातु वगैरा के रूप में गाड़ने का प्रचलन वापस आने वाला है।

बुरा यह लग रहा है कि आजकल बैंक साहुकार से भी बुरी स्थिति में हैं। बेचारे तभी तो देंगे जब उन के पास रुपया आएगा। रुपया तो रिजर्व बैंक देगा। खबर ये है कि जितना रुपया छापा गया था वह तो खत्म हो चुका है। बाकी तब आएगा जब वह छपेगा। खबर ये भी है कि कागज और स्याही खत्म होने को है और नए टेंडर नहीं किए गए हैंं। वह भी शायद इसलिए कि गोपनीयता भंग न हो। यह गोपनीयता ही जान की मुसीबत हो गयी है। मैं जिन्हें काले धन वालों के रूप में जानता हूँ उन में से कोई भी चिन्तित नहीं नजर आ रहा है। लगता है मुझे ही गलतफहमी थी कि वे कालाधन वाले हैं। वे तो पूरे सफेद दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो यही समझ नहीं आ रहा है कि काला धन इस देश में था भी कि नहीं? या वह केवल अफवाह थी। भ्रष्टाचार में कोई कमी भी नहीं दिख रही है। अंडरग्राउंड सौदोें की खबरें वैसी ही हैं जैसी पहले थीं। बस भक्तगण जरूर नशे में हैं और ईमानदारी का पर्व मना रहे हैं।

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

अनन्त चौदस पर क्यों डुबोए जाते हैं गणपति?


गणपति उत्सव को सर्वप्रथम शुरू करने वाले बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणपति बिठाया। दस दिन तक सभा और सम्मेलनों को संबोधित किया। बिठाये गये गणपति की दसवें दिन फेरी निकाली। गणपतिका दर्शन सभी के लिए खुला रखा था। मौके का भरपूर फायदा उठाते हुये एक चमार ने मूर्ति के दर्शन करने के क्रम में उसे छू ही डाला।


गणपति को अपवित्र कर डाला! गणपति अपवित्र हो गया! कहते हुये सभी प्रकार के ब्राह्मणों में भयानक खलबल मच गयी। सभी तिलक को गरियाते हुये कहने लगे कि देखा! गणपति को सार्वजनिक किया तो इस प्रकार धर्म डूब गया। कौन ब्राह्मण इस मूर्ति को अपने घर में रखेगा? तब तक फेरी पुणे के बाहर और मुला-मुठा नदी तक आ चुकी थी। तभी आराम से तिलक ने कहा चिल्लाते क्यों हो.? शांत रहो ....मैं धर्म को डूबने कैसे दूंगा! धर्म को डुबाने की अपेक्षा हम इस अपवित्र मूर्ति को ही डूबा देते हैं।

... और इस प्रकार गणपति को डूबा दिया गया। तभी से प्रत्येक वर्ष 10 दिन तक तमाम अछूतों द्वारा अपवित्र हुये गणपति को डुबा दिया जाता है। जिसे कलम कसाई विसर्जन कहते हैं।

रविवार, 24 अप्रैल 2016

ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?


मारे गाँवों में बस्ती के नजदीक खलिहान होते थे। फसल काट कर लाने और तैयार करने के वक्त सिवा यही खलिहान दूसरे दूसरे कामों में आते थे। मसलन, बच्चों के खेलने की जगह और शादी-मुंडन वगैरा समारोहों के लिए। हर गाँव में चरागाह हुआ करती थी मवेशियों को चरने के लिए। इस के अलावा पगडंडियाँ और बैलगाड़ियों के चलने के लिए गडारें हुआ करती थीं। हर गाँव के पास कम से कम अपना एक तालाब, कुछ तलैयाँ और पोखर हुआ करते थे।


इन में से अधिकांश अब सिरे से गायब हैं। खलिहानों तक गाँव पसर चुके हैं, वहाँ बढ़ती आबादी के लिए घर बन गए हैं। चरागाह पर खेतीहरों ने कब्जे कर लिए हैं। तालाब हाँक दिए गए हैं, तैलायाएँ पाट दी गयी हैं, वे या तो खेतों में शामिल हैं या फिर उन पर निर्माण हो चुके हैं। अधिकांश पगडंडियाँ गायब हैं और गडारें भी ज्यादातर खेतों में शामिल हो गयी हैं। अब खाली जगह कहीं नहीं।


तालाब, तलैयाएँ और पोखर बरसात के पानी को जमा करते थे। जो साल में कभी दस माह तो कभी बारह माह तक काम आता था। इस के अलावा इन से भूगर्भ भी चार्ज होता रहता था और वातावरण में नमी रहती थी। भूगर्भीय जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए अथवा तब होता था जब तालाब, तलैयाएँ और पोखर पूरी तरह सूख जाते थे। इन सब के साथ साथ पेड़ भी गायब हुए हैं। कोई अब अपने खेत की मेढ़ पर पेड़ को रहने नहीं देता, जहाँ छाया पड़ती है वहाँ फसल कम होती है या नहीं होती।


अब हमारे पास ट्यूबवेल हैं। घरों में भी और खेतों में भी। हम साल भर उन से पानी खींचते हैं, बरबाद करते हैं। धरती के पेट में पानी असीमित नहीं है। वह नीचे जाता जाता है और अंततः हमें सूखा पेट मिलता है। गर्मियाँ बाद में शुरू होती हैं हैण्डपंप पहले बजने लगते हैं।


पानी कहीं जाता नहीं है। वह जमीन में रहता है, हवा में उड़ जाता है या नदियों से बह कर समंदर तक पहुँच जाता है। एक बरसात की प्रक्रिया है जो इस सारे पानी का आसवन करती है। समंदर के पता नहीं क्या क्या मिले पानी को सूरज की गर्मी के सहारे हवा सोखती है और नम हो कर धरती पर घूम घूम कर बरसात कराती है।


हवा की बरसात कराने की क्षमता भी सीमित है, पर इतनी सीमित भी नहीं कि वह धरती के बच्चों की जरूरत पूरी नहीं कर सके। बच्चे ही नालायक हों बरसात के पानी को साल भर सहेजने का उद्यम करने से बचते रहें, जो कुछ शैतान बच्चे हैं वे पहले तो सहेजने के साधन नष्ट करें, फिर धरती के पेट में जमा पानी पर कब्जा कर उस का बाजार लगा कर मुनाफा कमाएँ तो ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?

... दिनेशराय द्विवेदी

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

ब्राह्मणवादी अहंकार

 लेखक आनंद तेलतुंबड़े
अनुवाद: रेयाज उल हक
 
इंडिया टुडे के वेब संस्करण डेलियो.इन पर 27 नवंबर को बेल्जियम के घेंट यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर एस.एन. बालगंगाधर का एक लेख प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक था “व्हिच इनटॉलरेंस इज ग्रोइंग इन इंडिया?”. यह उस गुस्से के जवाब में लिखा गया था, जो हैदराबाद में इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेजेज यूनिवर्सिटी (एफ्लु) में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर के प्रति अपमानजनक बातें कहने पर उनके खिलाफ पैदा हुआ था. अपनी बातों पर माफी मांगने के बजाए उन्होंने आंबेडकर के प्रति अपनी अवमानना को जायज ठहराया और यह कहते हुए उसको दोहराया कि ‘उनकी समझदारी आलिया भट्ट से भी बदतर है.’ ऐसा घटिया अपमान और बदसलूकी आंबेडकर के लिए नई नहीं है, लेकिन इसके पहले कभी भी किसी सार्वजनिक बौद्धिक मंच पर किसी ने उनके लिए ऐसी गंदी भाषा का इस्तेमाल नहीं किया था. आज जबकि दक्षिणपंथी शासक परिवार में आंबेडकर के लिए बेपनाह प्यार उमड़ रहा है और वह अथाह भक्ति दिखा रहा है, ऐसे में आंबेडकर के प्रति बेधड़क अपमानों की बौछार करते हुए किसी ऐसे इंसान को सुनना दिलचस्प है, जिसको हिंदू संस्कृति और परंपरा की महानता के सिद्धांत बघारने के लिए जाना जाता रहा है.

बालगंगाधर शायद कभी भी संघ परिवार से अपने जुड़ाव को स्वीकार नहीं करें जैसा कि उनके जैसे अनेक लोग करते हैं, लेकिन वे बार बार अपने ब्राह्मण होने की बात को कबूल करते हैं और एक बेकार के घमंड के साथ इसे दोहराते हैं. इसके पहले अरुण शौरी ने – और यह बात कहनी पड़ेगी कि बेवकूफी में वे गंगाधर से कमतर ही हैं – अपनी किताब वर्शिपिंग फाल्स गॉड में अपने घटिया तथ्यों को नई खोज के आभामंडल के साथ पेश किया था, कि आंबेडकर भारत के संविधान के निर्माता नहीं. उन्हें और दलितों के बीच उनके अनेक आलोचकों को यह बात समझ में नहीं आई कि इस नुक्ते पर इतनी मेहनत करके वे हवा में तलवार भांज रहे थे, क्योंकि खुद आंबेडकर ने ही इस संविधान को नकार दिया था और खुद को एक किराए के लेखक (हैक) के रूप में इस्तेमाल करने की ब्राह्मणवादी साजिश को उजागर किया था. शौरी ने यह भी कहा कि उनका संघ परिवार से कोई रिश्ता नहीं था लेकिन यह तथ्य अपनी जगह कायम रहा कि उन्हें अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के नेतृत्व में भाजपा की पहली कैबिनेट में सबसे ज्यादा सक्रिय मंत्रालयों में से एक का मुखिया चुना गया था. बालगंगाधर भी संघ परिवार से अपना कोई जुड़ाव नहीं होने का दावा करेंगे, लेकिन वे जिस जुबान में बोल रहे हैं और जो दलीलें वे पेश कर रहे हैं, वे अनजाने में ही इस सच्चाई को उजागर कर रही हैं कि वे भी उसी गिरोह से ताल्लुक रखते हैं, जो अपने हिंदुत्व को धर्मनिरपेक्ष मुल्लम्मे में छिपा कर रखता है. भाजपाई कुनबा आंबेडकर का गुणगान करने के उल्लास में जो ज्यादतियां कर रहा है, उस दौर में यह घटना ब्राह्मणवादी खेमे में आंबेडकर के प्रति गहराई तक जड़ें जमा कर बैठी नफरत पर से परदा उठाती है. 

बालगंगाधर की करतूतें

बालगंगाधर जिस तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में बोल रहे थे, वह ‘देरिदा के धर्म अध्ययन में कानून की ताकत और ताकत के कानून’ पर था और इस तरह आंबेडकर या आंबेडकरी लोग इस सम्मेलन का विषय नहीं थे, सिवाय इसके कि शायद उन्हें देरिदा के नकारात्मक धर्मविज्ञान की मिसाल बताया जाता. दूसरे वक्ताओं ने उनका कोई जिक्र नहीं किया. लेकिन बालगंगाधर पर तो उन्माद सवार हो गया, उन्होंने आंबेडकर को बेवकूफ कहा और इस पर हैरानी जताई कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने कैसे उन्हें डॉक्टरेट की डिग्री दे दी. संयोग से उन्हें उतने ही प्रतिष्ठित एक दूसरे संस्थान लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के बारे में याद दिलाने की जरूरत है, जिसने आंबेडकर को डॉक्टर ऑफ साइंस की डिग्री दी थी, जो इत्तेफाक से किसी भारतीय को दी गई पहली डिग्री थी. उन्होंने एक और इंसान को बेवकूफ कहा (उन्होंने नाम नहीं लिया, लेकिन लोगों ने अंदाजा लगा लिया कि ये नरेंद्र जाधव के बारे में था, जिन्होंने आंबेडकर की प्रमुख रचनाओं को तीन खंडों में संपादित किया है). खैर, ऐसा हो सकता है कि आंबेडकर की किताबों को संपादन के नाम पर बहुतायत में गैरपेशेवर रूप से फिर से पेश करना एक दोषमुक्त बौद्धिक काम न हो. फिर उन्होंने इस्लाम और ईसाइयत पर अपमानजनक टिप्पणियां कीं. उनके भाषण में गाली-गलौज वाली टिप्पणियों की भरमार थी, वह उस विद्वत्ता से खाली था, जो सम्मेलन के विषय और रुतबे के लिए जरूरी थी. मिसाल के लिए वे हर उस चीज के लिए ‘बुलशिट’ (बकवास) शब्द का इस्तेमाल करते रहे, जिसे आम तौर पर लोगों द्वारा पवित्र माना जाता है, शायद ऐसा वे देरिदा के नकारवाद (अपोफेटिशिज्म) को समझाने के लिए ऐसा कर रहे हों. उन्होंने मेजबान एफ्लू तक को नहीं बख्शा और उसे पागलखाना कह दिया, जाहिर है कि उनके हमले का निशाना यह था कि एफ्लू के फैकल्टी और छात्रों में गैर-ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व तुलनात्मक रूप से बेहतर है. अगले दिन, जब कुछ वरिष्ठ प्रोफेसरों ने जाति और छुआछूत के उनके हवालों पर टोका, तो उन्होंने सीधे सीधे उन पर तीखा हमला बोल दिया और टिप्पणी की कि छात्रों को ऐसे में अपने भविष्य की चिंता करनी चाहिए, जब ‘जाति प्रमाणपत्र वाले’ नाकाबिल, बेवकूफ ‘गधे’ उन्हें पढ़ा रहे हों. जाहिर है कि उनका इशारा दलित, आदिवासी और ओबीसी की तरफ था. इसी तरह, उन्होंने मुस्लिम फैकल्टी द्वारा किए गए एक सवाल का जवाब देते वक्त यह कहते हुए अपनी नफरत उगली कि वे (मुस्लिम फैकल्टी) आतंक फैला रहे थे.

सुनने वाले छात्र और फैकल्टी दोनों ही उनके इस खुलेआम जातिवादी और सांप्रदायिक बयानों से बेचैन थे. बालगंगाधर बेशर्मी से यह दोहराते रहे कि वे एक ब्राह्मण हैं. खास तौर से हैदराबाद जैसी जगह में ऐसी बात कहना बड़ा दुस्साहस भरा था, जो अपने ऐसे कैंपसों के लिए जाना जाता है जहां दलित प्रतिरोधों का एक इतिहास रहा है. उनका पूरा व्याख्यान आरक्षित श्रेणी के छात्रों और फैकल्टी के खिलाफ न सिर्फ हतोत्साहित कर देने वाली टिप्पणियों से भरा हुआ था, बल्कि वह आईपीसी की 295 (ए), 154 (ए) और 298 धाराओं और उत्पीड़न (निवारण) अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत सजा के काबिल भी है. हालांकि एफ्लु प्रशासन की तरफ से कोई सवाल नहीं किया गया, जिसने उनके अपराधों पर उन्हें रोका नहीं और न ही उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई की. दूसरों की प्रतिक्रियाएं भी खासी देरी से, आयोजन के एक हफ्ते से भी ज्यादा देरी से आईं, जिसमें 11 नवंबर को एफ्लु के फैकल्टी सदस्यों द्वारा उप कुलपति के नाम एक याचिका दी गई. हालांकि डेक्कन हेराल्ड ने 6 नवंबर को ही एक छोटी सी खबर छापी थी कि उस्मानिया के छात्र बालगंगाधर के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करने पर विचार कर रहे थे. गुस्सा बढ़ रहा था और इसी के जवाब में बालगंगाधर ने वह लेख लिखा, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है, जिसमें उन्होंने अपने उद्दंडता भरे बयानों के लिए आंबेडकरियों द्वारा नाराजगी जताए जाने पर शिकायत की थी. इसको असहिष्णुता कहते हुए उन्हें यह बात समझ में नहीं आई कि अगर दलित असहिष्णु रहे होते तो उन्होंने उन पर मौके पर ही हमला कर दिया होता. 
 

असहिष्णुता नहीं, आतंकवाद

सबसे पहले तो डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविंद पानसरे और डॉ. कलबुर्गी की हत्याओं को या फिर आम नागरिकों के खिलाफ हिंसा और जानलेवा हमलों को (जैसे कि उत्तर प्रदेश के दादरी और जम्मू-कश्मीर के उधमपुर वगैरह जगहों पर हुए हैं) असहिष्णुता कहना गलत है और उनकी गंभीरता को घटा कर देखना है. इसके लिए सही शब्द आतंकवाद है. क्योंकि संगठित गिरोहों द्वारा की गई इस सामाजिक हिंसा में, जिसमें राज्य की मिलीभगत है, कुछेक व्यक्तियों या समूहों के व्यवहार की विशेषता नहीं है, जिसमें वे अपने से भिन्न विचारों के खिलाफ असहिष्णुता दिखा रहे हैं, बल्कि यह उनका विरोध करने का साहस दिखाने वालों के खिलाफ एक आतंकी कार्रवाई है. बालगंगाधर ने अपनी अति-समझदारी की झलक देते हुए दादरी में पीट पीट कर की गई हत्याओं को जायज ठहराया, जिसमें इन मनगढ़ंत तथ्यों का उपयोग किया गया था एक दूसरे आदमी की गोशाला से एक गाय चुराने के लिए मोहम्मद अखलाक को पीट पीट कर मार डाला गया और उनके बेटे दानिश को क्रूरता से पीटा गया था. वे इसी के लायक थे, क्योंकि प्राचीन यूरोप और अमेरिका में मवेशी चुराने के लिए लोगों को पीट पीट कर मार दिया जाता था. बालगंगाधर ने ऐसी ही बेवकूफी भरी टिप्पणी कलबुर्गी के बारे में की, कि वे खुद ही एक असहिष्णु आदमी थे. बालगंगाधर ने उनकी ‘नैतिक और बौद्धिक ईमानदारी’ पर सवाल उठाए, उनके मुताबिक जिनके आचरण से ‘मिथकीय छोटा राजन भी शर्मिंदा’ हो जाएगा. उन्होंने यह तोहमत भी लगाई कि कलबुर्गी की हत्या के पीछे उनके ये कथित दुराचार भी हो सकते हैं. हम पाते हैं कि यहां उनकी समझदारी की बानगियों में दिख रही उनकी उपमाओं की गुणवत्ता और कुल मिला कर उनकी दलीलें पुख्ता तरीके से उन्हें एक बेवकूफ के रूप में स्थापित कर रही हैं. अगर नहीं तो फिर जिन सैकड़ों बुद्धिजीवियों, कलाकारों, साहित्यकारों ने प्रतीकात्मक विरोध करते हुए इन करतूतों में मिलीभगत के खिलाफ सरकार को अवार्ड लौटाए, वे बेवकूफ थे, वे ऐसे अनाड़ी थे जो ‘इंसानी इतिहास की भारी अज्ञानता’ को जाहिर कर रहे थे. कहा जाए तो 135 से अधिक वैज्ञानिक भी बेवकूफ हैं, जिन्होंने भारी तबाही की तस्वीर खींची है और कहा है कि देश में शांति और मेल-जोल को ‘हाल में बढ़ गई संकीर्णतावादी और धर्मांध कार्रवाइयों के एक सिलसिले ने खतरे में डाल दिया है’! ज्ञान की गठरी तो सिर्फ बालगंगाधर के ब्राह्मण के पास ही है!

‘क्या भारत में कोई जाति व्यवस्था है?’ जैसे बेवकूफी भरे सवाल उठाने और ‘वर्ल्ड्स विदाउट व्यूज एंड व्यूज विदाउट वर्ल्ड्स’ (यह उनकी पीएच.डी. थीसिस का शीर्षक है) की लफ्फाजी करने से आगे उनमें ऐसी कौन सी समझदारी पाई जाती है, जिसमें परंपरागत रूप से ब्राह्मण माहिर बताए जाते हैं. जाति के सवाल पर, उनका जवाब नकारात्मक था और उन्होंने ब्रिटिश मिशनरियों पर इल्जाम लगाया कि वे अपने साथ भ्रष्ट पुरोहितों और कैथोलिक धर्म की दूसरी बुराइयों में सराबोर ईसाई धर्मशास्त्र और खास कर प्रोटेस्टेंट धर्मशास्त्र ले आए, जिसने भारत के समाज की व्याख्या एक जातीय समाज के रूप में की. यानी पूरी श्रमण परंपरा ने जिस जाति के खिलाफ विद्रोह किया और हिंदू धर्मशास्त्रों की बहुसंख्या ने जिसको जोरदार तरीके से बचाव किया, वह ईसाई पुरोहितों की मनगढ़ंत और कपोल कल्पना थी, जिसको पता नहीं क्यों हम सबने सच मान लिया! उन्होंने ऐसी बकवास शिमोगा के कुवेंपु यूनिवर्सिटी स्थित सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ लोकल कल्चर्स के जरिए फैलाई, जहां के वे निदेशक थे. उनके ‘शोध’ के छुपे हुए ब्राह्मणवादी मंसूबे को अनेक लोगों ने उजागर किया है. उनके द्वारा और उन पर लिखे गए अनेक लेखों पर महज एक सरसरी निगाह भी इस बात को उजागर कर देगी कि उनका ताल्लुक ‘सनातन धर्म अमर रहे गिरोह’ से है. वे इस बात के लिए पर्याप्त शातिर हैं कि अपनी बातों का मकड़जाल बुनकर पश्चिम को बेवकूफ बना सकें जो बैठ कर उनकी बातें सुने और उनको एक प्रकांड विद्वान समझकर उन पर गौर करे. लेकिन गलती मत कीजिए; वे परिवार के नकली विद्वानों में से हैं, जो अपनी पतनशील परियोजना को बौद्धिकता का जामा पहना रहे हैं.

आंबेडकर की बात इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे एक आदमी के लिए आंबेडकर तो एक अभिशाप ही होंगे, जिन्होंने ब्राह्मणवाद को चुनौती दी थी. आंबेडकर बेकार की लफ्फाजियों को विद्वत्ता के रूप में पेश करने के फेर में कभी नहीं पड़े. उन्होंने इस दुनिया के बालगंगाधरों की बैठे-ठाले की पुरोहिती के उलट, आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित एक समाज की स्थापना के मकसद की दिशा में सिद्धांत और व्यवहार को एक साथ मिलाते हुए मानवता के बुनियादी मुद्दों पर गौर किया. एक इंसान के रूप में आंबेडकर गलत हो सकते हैं, वे बहुत गलत भी हो सकते हैं. लेकिन उन्हें बेवकूफ कहना खुद सिर्फ और सिर्फ अपनी बेवकूफी को ही जाहिर करना है. आंबेडकर पर टिप्पणी करने के लिए किसी के पास ऊंची बौद्धिक ईमानदारी और सच्चाई होना जरूरी है, जो जाहिर है कि बालगंगाधर में नहीं है. वे ‘जाति प्रमाणपत्र वाले गधे’ कह कर अपनी नफरत दिखा सकते हैं, लेकिन उनमें यह समझने की साधारण बुद्धि भी नहीं है कि प्रतिभा (मेरिट) की यह घिसी-पिटी दलील अपने पैरवीकारों पर ही पलट कर भारी पड़ती रही है. जबकि आरक्षण का समर्थन नहीं है, जिसको हमेशा मैंने ठोस अर्थ में दलितों के लिए नुकसानदेह माना है, लेकिन गुलामी का इतिहास प्रतिभा की इस दलील के पुर्जे पुर्जे बिखेर देता है, जो प्राकृतिक संपदा से भरपूर इस उपमहाद्वीप में कथित (ऊंची जाति के) प्रतिभावान लोगों की देन था. उन्हें अपने इस अतीत पर शर्मिंदा होना चाहिए, न कि अपनी हिंदुत्व परियोजना के जरिए उसको फिर से रचने की कोशिश करनी चाहिए.

यह सिर्फ एक बदजुबान बालगंगाधर से निबटने का मामला नहीं है, जिससे एक आम दलित भी आसानी से निबट सकता है. यह इस बात को जानने का मामला है कि पूरा हिंदुत्व गिरोह सचमुच में किस बात का प्रतिनिधित्व करता है. एक तरफ तो यह उन सभी जगहों पर स्मारक बना-बना कर आंबेडकर की पूजा शुरू करना चाहता है, जहां जहां उन्होंने पांव रखे थे, लेकिन वहीं दूसरी तरफ यह उनकी बौद्धिकता को नकार कर, उन्हें बौद्धिक रूप से मामूली इंसान बना देना चाहता है. असल में यह हिंदुत्व का यह बुनियादी चरित्र है जिसे बालगंगाधर ने अनजाने में ही उजागर कर दिया है, जिसकी आम तौर पर जनता के लिए और खास तौर से दलितों के लिए अहमियत है. हजार सिरों वाला यह गिरोह ऐसे अनेक बालगंगाधरों को बेलगाम छोड़ देगा ताकि वे अपने भड़काऊ बयानों से हमारे सब्र का इम्तहान लें और फिर इसके नतीजों से खुद को दूर कर लेगा. यह भारत में अवर्णों को मिथ्या और औपनिवेशिक साजिश बता कर पूरी आंबेडकरी परियोजना को ही नाकाम कर देना चाहता है. यह विद्वत्ता नहीं है, यह गोएबल्स की वह बदनाम तरकीब है कि बड़े बड़े झूठों को बार बार दोहराते रहो जब तक वे सच न लगने लगें और आखिर में जनता द्वारा सच्चाई के रूप में कबूल कर लिए जाएं.

(जरूरी सामग्री मुहैया कराने के लिए मैं एफ्लु के शोधार्थी कार्थिक नवयान का शुक्रिया कहना चाहूंगा. -रेयाज उल हक)
 

रविवार, 27 दिसंबर 2015

सोए रहो निरन्तर

सोए रहो निरन्तर 




अब ये बात कोई छिपी तो नहीं
न छिप सकती थी और न हम ने छिपाया
हमें किसी ने नहीं, उद्योगपतियों ने बनाया
उन्हों ने पूंजी निवेश किया, जैसा अक्सर वे करते हैं
मुनाफा बटोरने के लिए, अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए
उन्हों ने भरपूर पूंजी लगायी और हम बन गए
कहाँ से कहाँ पहुँच गए। 


अब हम दुनिया घूम रहे हैं
लोगों को लगता है, हम मौज कर रहे हैं
पर हम कहाँ मौज कर रहे हैं?
हम ड्यूटी कर रहे हैं
जो पूंजी लगाई थी उन्होंने वह लौटनी चाहिए उन के पास
इस उद्योग में पूंजी लगाना
कतई नहीं होना चाहिए घाटे का सौदा।


अपनी पूंजी को बहुगुणित करने को
वे ही दौड़ाते है मुझे और मैं दौड़ता हूँ
सुदूर पूरब के उस छोर से सुदूर पश्चिम के उस छोर तक
वे साधन जुटाते हैं, जहाँ जाता हूँ
मेरी जय-जयकार के लिए लोग जुटाते हैं
जब लोग मेंरी जय-जयकार कर रहे होते हैं
तब पूंजी के सवार कर रहे होते हैं सौदेबाजी।


ऐसा नहीं है सिर्फ पूंजी का खयाल है मुझे
तुम्हारा भी रखता हूँ
जब जब मैं होता हूँ देश में जाता हूँ गंगाघाट
उतारता हूँ आरतियाँ, यही नहीं
दूर देश के प्रधानों से भी उतरवा देता हूँ
क्या ये कम है तुम्हारे लिए
तुम्हारी संस्कृति का झण्डा
फहराता है गंगा किनारे
सारी दुनिया देखती है उसे।


अब की बार वे ले गए मुझे सूदूर उत्तर तक
मैं ने देखा वहाँ, आप ने भी देखा ही होगा टीवी पर
एक भूरी रूसी बाला बजाती थी तानपूरा
दूसरी गाती थी वैदिकगान, औउम् गं गणपतये नमः
क्या यह कम है तुम्हारे लिए?
तुम्हारी संस्कृति को ओढ़ रही है,
बिछा रही है सारी दुनिया।


वापस लौटते हुए रुका कैकय में कुछ देर
मुझे पता है वहीँ से आए थे मंथरा और शकुनि
देख कर आया हूँ वहाँ के आज के हाल
फिर रुका कुछ देर इरावती के किनारे
गले मिला बिछड़े हुए भाई से, माँ के पैर छू लिए
माँ, भाई और सभी बन्धु हो लिए गद-गद
इतना समय बहुत था, लोहे वाला अपना सौदा पटा ले
लगता है न देखो सपने सा!

तुम तो सपने में भी नहीं सोच सकते थे।

मैं न कहता था सब सपने पूरे करूंगा
तो दिखा रहा हूँ सपनों पर सपने
सपने कभी पूरे नहीं होते जागते में
अच्छा सपना देखते हुए बीच में टूट जाए निद्रा
तो जबरन सोना पड़ता है फिर से
ये जो जगाने वाले हैं सब शत्रु हैं तुम्हारे
इन्हें दूर करो खुद से, ये तोड़ देते हें तुम्हारे सपने।


देखो उधर, वहाँ माधव कुछ कह रहा है
सपना चलेगा अखंड भारत होने तक
यह सुखद सपना लंबा है,
यह पूरा हो, इस के लिए जरूरी है
एक लंबे समय की गहरी निद्रा
इस के लिए सोए रहो निरन्तर
कसम उठाओ गंगा की कि नहीं जागोगे बीच में
दरवाजे पर कुण्डी घालो और सो जाओ
प्रवेश न कर सके कोई घर के भीतर जगाने वाला।


-दिनेशराय द्विवेदी

शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

यह महज असहिष्णुता नहीं है.. अरुन्धति रॉय


सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए मिले राष्ट्रीय सम्मान को (नेशनल अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले) लौटाते हुए अरुंधति रॉय यहां उन सब बातों को याद कर रही हैं जिन पर हमें नाज करना चाहिए और उन सब पर भी, जिन पर हमें शर्म आनी चाहिए और जिन के खिलाफ उठ खड़े होना चाहिए.

हालांकि मैं इसमें यकीन नहीं करती कि सम्मान हमारे किए गए कामों का पैमाना हैं, लेकिन मैं लौटाए जा रहे सम्मानों की बढ़ती हुई तादाद में सर्वश्रेष्ठ पटकथा के लिए मिले राष्ट्रीय सम्मान (नेशनल अवार्ड फॉर बेस्ट स्क्रीनप्ले) को शामिल करना चाहूंगी, जो मुझे 1989 में मिला था।  मैं यह साफ भी करना चाहूंगी कि मैं इसे इसलिए नहीं लौटा रही हूं कि उस सबसे मैं ‘हिल’ गई हूं जिसे मौजूदा सरकार द्वारा फैलाई जा रही ‘बढ़ती हुई असहिष्णुता’ कहा जा रहा है।  सबसे पहले, अपने जैसे इंसानों को पीट-पीट कर मारने, गोली मारने, जलाने और सामूहिक कत्लेआम के लिए ‘असहिष्णुता’ एक गलत शब्द है। दूसरे कि हमारे सामने जो आने वाला था, उसके काफी आसार हमारे पास पहले से थे – इसलिए भारी बहुमत से डाले गए उत्साही वोटों के साथ सत्ता में भेजी गई इस सरकार के आने के बाद से जो कुछ हुआ है, उससे मैं हिल जाने का दावा नहीं कर सकती। तीसरे, ये खौफनाक हत्याएं एक कहीं गहरी बीमारी के ऊपर से दिखने वाले आसार भर हैं।  जो लोग जिंदा हैं, जिंदगी उनके लिए भी जहन्नुम है। पूरी की पूरी आबादी, दसियों लाख दलित, आदिवासी, मुसलमान और ईसाई खौफ की एक जिंदगी में जीने के लिए मजबूर कर दिए गए हैं और कुछ पता नहीं कि कब और कहां से उन पर हमला हो जाए।
ज हम एक ऐसे मुल्क में रह रहे हैं, जहां नए निजाम के ठग और कारकुन ‘गैरकानूनी हत्याओं’ की बात करते हैं, तो उनका मतलब एक काल्पनिक गाय से होता है जिसको मारा गया है – उनका मतलब एक सचमुच के इंसान की हत्या से नहीं होता। जब वे अपराध की जगह से ‘फोरेंसिक जांच के लिए सबूतों’ की बात करते हैं तो उसका मतलब फ्रिज में रखे गए खाने से होता है, न कि पीट पीट कर मार दिए गए इंसान की लाश से। हम कहते हैं कि हमने ‘तरक्की’ की है, लेकिन जब दलितों का कत्ल होता है और उनके बच्चों को जिंदा जलाया जाता है, तो आज कौन ऐसा लेखक है जो हमले, पीट-पीट कर मारे जाने, गोली या जेल से डरे बिना आजादी से यह कह सकता है कि ‘अछूतों के लिए हिंदू धर्म सचमुच में खौफ की एक भट्टी है’ जैसा बाबासाहेब आंबेडकर ने कभी कहा थाॽ कौन सा लेखक वह सब लिख सकता है, जिसे सआदत हसन मंटो ने ‘चचा साम के नाम’ में लिखा थाॽ यह बात मायने नहीं रखती कि जो कहा जा रहा है उससे हम सहमत हैं कि नहीं। अगर हमें आजादी से बोलने का हक नहीं है, तो हम एक ऐसा समाज बन जाएंगे, जो बौद्धिक कुपोषण का शिकार, बेवकूफों का राष्ट्र होगा। इस पूरे उपमहाद्वीप में नीचे गिरने की होड़ मची हुई है – और यह नया भारत बड़े जोशोखरोश के साथ इसमें शामिल हुआ है। यहां भी अब भीड़ को सेंसरिशप का जिम्मा दे दिया गया है.
मु
झे इससे खुशी हो रही है कि मुझे (अपने अतीत में किसी वक्त का) एक राष्ट्रीय सम्मान मिल गया है, जिसे मैं लौटा सकती हूं, क्योंकि यह मुझे इस मुल्क के लेखकों, फिल्मकारों और अकादमिक दुनिया द्वारा शुरू की गई सियासी मुहिम का हिस्सा बनने की इजाजत देता है, जो एक तरह की विचारधारात्मक क्रूरता और सामूहिक समझदारी पर हमले के खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। अगर हम अभी उठ खड़े नहीं हुए तो यह हमें टुकड़े-टुकड़े कर देगा और बेहद गहराई में दफ्न कर देगा। मैं यकीन करती हूं कि कलाकार और बुद्धिजीवी जो अभी कर रहे हैं, वैसा पहले कभी नहीं हुआ, और उसकी तारीख में कोई मिसाल नहीं मिलती। यह भी सियासत का एक दूसरा तरीका है. इसका हिस्सा बनते हुए मुझे बहुत फख्र हो रहा है और इतनी शर्म आ रही है उस सब पर जो आज इस मुल्क में हो रहा है।
खिर में: 

ताकि सनद रहे कि मैंने 2005 में साहित्य अकादेमी सम्मान को ठुकरा दिया था जब कांग्रेस सत्ता में थी इसलिए कृपया मुझे कांग्रेस-बनाम-भाजपा की पुरानी घिसी-पिटी बहस से बख्श दीजिए। बात इससे काफी आगे निकल चुकी है शुक्रिया।
...अनुवाद: रेयाज उल हक.