अनाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक
चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद
लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि
आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन
पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा
ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व
उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में
मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का
आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ
बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों
में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही
हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों
के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने
के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही
दीवाली पर्व है।
दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है,
यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और
अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस
समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक
व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के
प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से
अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न
हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।
जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक
रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते
चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस
के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी
आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से
भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति
में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को
समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न
भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट
अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त
किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना
था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा।
ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।
यह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था।
रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की
रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की
विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के
साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की
रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ
जुड़ते चले गए।
हम यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश,
सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा
कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे
गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की
अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए।
मनुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक
समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ
जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में
समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर
किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के
अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान,
ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि
उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार
जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है
जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में
नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर
को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं
रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं।
समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की
अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और
मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना
सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।