मुझे बहुत कम ही बैंक जाना पड़ता है। बैंक नोट भी मेरे पास अधिक नहीं रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा नोट संभाल सकता हूँ तो चार पाँच हजार रुपयों के नोट भी बहुत कम अवसरों पर मेरे पास होते हैं। पर्स में अक्सर हजार पन्द्रह सौ से अधिक रुपया नहीं रहता। कभी पर्स घर भूल भी जाता हूँ तो मुझे कभी परेशानी नहीं होती। दिन निकल जाता है। अभी भी मेरे पर्स में दो पाँच सौ के नोट हैं पुराने वाले। उस के अलावा कुछ सौ पचास के नोट हैं।
अधिकतर बिल्स में ऑनलाइन चुकाता हूँ। कुछ स्थाई क्लाइंट मेरा भुगतान मेरे खाते में करते हैं। उस से वे बिल चुकते रहते हैं। शेष क्लाइंट नकद भुगतान करते हैं तो पर्स में रख लेता हूँ, अक्सर उन्हे मैं घर पर उत्तमार्ध को सौंप देता हूँ। अगली सुबह पर्स में फिर वही उतने नोट होते हैं कि जरूरत पड़ जाए तो कार में पेट्रोल डलवा लूँ और छोटा मोटा खर्च कर सकूँ। उत्तमार्ध मेरी बैंक है। इस बैंक में कित्ते रुपए मेरे खाते में हैं? जब भी पूछता हूँ तो वह खाली बताया जाता है। फिर भी मुझे अपनी जरूरत के मुताबिक रुपया हमेशा वहाँ से मिल जाता है। मेरी ये जरूरत हजार के आसपास से कभी कभार ही अधिक होती है।
जब से नोट बंदी हुई है मेरे पास फीस जमा कराने कोई नहीं आ रहा है। नतीजा ये है कि एक बार दस हजार रुपये निकलवा कर लाया था जो अब खत्म होने को हैं। एक दो दिन में ही बैंक से रुपया निकलवाना पड़ेगा। लाइन में खड़ा होना मेरे लिए संभव नहीं है। पिछली बार बैंक मैनेजर ने मुझे खड़ा न होने दिया था। लेकिन इस बार मुझे चिन्ता लगी है। कि कहीं वह मेरी मदद ही न कर पाए तो।
मेरे पास जो दो नोट पाँच सौ वाले पुराने हैं उन्हें तो कभी भी पेट्रोल भराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए बदलने की कोई जल्दी नहीं है। उत्तमार्ध जी अभी नोट बदलवाने को कह नहीं रही हैं। पर कभी तो कहेंगी। मैं ने उन्हें कह दिया है कि जितने भी होंगे उन्हें मैं अपने खाते में जमा करवा कर उतने ही वापस निकलवा कर उन के हवाले कर दूंगा। बस उन्हें मुझ से मुगल काल के धनिकों की तरह यह भय हो सकता है कि मुझे उन के बैंक की माली हालत पता नं लग जाए। उस वक्त शहंशाह मृत्यु के बाद सब कुछ जब्त कर लेता था वारिसों को उन की जरूरत के मुताबिक ही देता था। नतीजे में वे अपने मकान तक अच्छे न बनवाते थे और धन को जमीन में गाड़ कर रखते थे। लगता है जमीन में धन धातु वगैरा के रूप में गाड़ने का प्रचलन वापस आने वाला है।
बुरा यह लग रहा है कि आजकल बैंक साहुकार से भी बुरी स्थिति में हैं। बेचारे तभी तो देंगे जब उन के पास रुपया आएगा। रुपया तो रिजर्व बैंक देगा। खबर ये है कि जितना रुपया छापा गया था वह तो खत्म हो चुका है। बाकी तब आएगा जब वह छपेगा। खबर ये भी है कि कागज और स्याही खत्म होने को है और नए टेंडर नहीं किए गए हैंं। वह भी शायद इसलिए कि गोपनीयता भंग न हो। यह गोपनीयता ही जान की मुसीबत हो गयी है। मैं जिन्हें काले धन वालों के रूप में जानता हूँ उन में से कोई भी चिन्तित नहीं नजर आ रहा है। लगता है मुझे ही गलतफहमी थी कि वे कालाधन वाले हैं। वे तो पूरे सफेद दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो यही समझ नहीं आ रहा है कि काला धन इस देश में था भी कि नहीं? या वह केवल अफवाह थी। भ्रष्टाचार में कोई कमी भी नहीं दिख रही है। अंडरग्राउंड सौदोें की खबरें वैसी ही हैं जैसी पहले थीं। बस भक्तगण जरूर नशे में हैं और ईमानदारी का पर्व मना रहे हैं।
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