कविता
__________ दिनेशराय द्विवेदी
एक शाम उस ने कहा
कि उसे वे रंग पसंद नहीं है
आधी रात से ये रंग कानून से खारिज
अगले दिन अवकाश रहा
कि शहंशाह के रंग के चंद
कागज के टुकड़े मिल जाएँ
कुछ चहेतों को मिले
बाकी अभी भी लाइन में खड़े हैं
देश में अमीर भले ही हों
पर देश तो अमीर नहीं है, इसलिए
लाइन में केवल गरीब खड़े हैं
लाइन में खड़े खड़े मरने वालों
का अर्धशतक कभी का बन चुका है
शतक की तैयारी है
सारे अमीर कहाँ हैं?
किसी को पता नहीं
सरकार झूठ बोल रही है कि
चेस्ट भरे पड़े हैं
पासबुक और चैक बेकार हो गए हैं
बैंकों के पास देने को नोट नहीं हैं
बैंक हैं ये कोई इन्सान होता तो
अब तक दिवालिया घोषित हो जाता
चाहत पर नोट उगलने वाली मशीनें खामोश हैं
पता नहीं उन्हें कब्ज हुआ है या आनाह
वैद्य लोग इलाज में मशरूफ हैं
शहंशाह की पसंद के रंग कागज
लोगों के हाथ में पहुँचने के पहले ही
बस एक रंग वे ही चमक रहे हैं
जिन पर शहंशाह की नजर
अभी पड़ी नहीं है
लेकिन कौन बता सकता है
शहंशाह की नजर कब उन पर पड़ जाए?
शायद शहंशाह भी नहीं
नए रंगों के अभाव में
कारखाने बंद हो गए हैं
लेकिन खेत और बगीचे
तो बंद नहीं हो सकते
उन में उग रही हैं सब्जियाँ
फल और फसलें
उन का कोई खरीददार नहीं है
उन के लिए बीज, खाद
और कीटनाशक खरीदने को
नए रंग के कागज नहीं हैं
फल और सब्जियाँ
पेड़ और पौधों पर सूख रहे हैं
या फिर मंडियों गोदामों में सड़ने लगे हैं
मासूम लोग अचानक
अपराधी नजर आने लगे हैं
नए रंगों के कागज
काला बाजार घूम रहे हैं
शहंशाह के धमकी भरे फरमान
कुछ घरों पर पहुँचे हैं
वहाँ मातम है
गाँव के गाँव
शहर के शहर
सहमे पड़े हैं
पता नहीं कब, किस के घर
आ जाए फरमान
दरबारी नाच रहे हैं
अथक अनवरत
पूरी तरह होश खो देने तक
या फिर होश में आने तक
शंहशाह ईमान का उत्सव
मना रहा है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें