@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 27 अगस्त 2011

सच के ठाठ निराले होंगे

धर अन्ना हजारे बारह दिनों से अनशन पर हैं। दिन में अनेक बार चिकित्सक उन की देह परीक्षा करते हैं। छठे सातवें दिन से ही सरकार इस प्रतीक्षा में थी कि चिकित्सक रिपोर्ट करें तो कुछ अन्ना के साथ लगे लोगों का मनोबल टूटे और सरकार अन्ना जी को अस्पताल पहुँचा दे। लेकिन जब जब भी चिकित्सकों ने उन की परीक्षा की तब तब सरकार को निराश होना पड़ा। वजन जरूर कम हो रहा था। लेकिन शरीर सामान्य था। रक्तचाप सामान्य, गुर्दे सामान्य, उन्हें काम करने में कोई परेशानी नहीं आ रही थी। ऊपर से वे बीच बीच में मंच पर आ कर जिस जोश से नारे लगाते थे। अन्ना इस्पात पुरुष साबित हुए। आज भी उन्हें यह कहते सुना गया कि अभी तीन-चार दिन उन्हें कुछ नहीं होगा। लालू यादव उन के 12 दिनों के अनशन पर रिसर्च कराना चाहते हैं कि उन में ऐसा क्या है जो भोजन का एक अंश भी ग्रहण किए बिना भी 12 दिनों तक सामान्य रह सकते हैं? संसद का प्रस्ताव पारित हो जाने के बाद जब अन्ना ने घोषणा की कि यह आधी जीत है तो उस के साथ ही उन्हों ने लालू जी की शंका का समाधान भी कर दिया कि यह ब्रह्मचर्य का प्रताप है, इसे वे समझ सकते हैं जिन्हों ने हमेशा स्त्री को माँ, बहिन व बेटी समझा हो। वे तो कदापि नहीं समझ सकते जो अपनी शक्ति बारह संतानों को जन्म देने में व्यय कर देते हैं। 

धी जीत का जश्न देश भर में आरंभ हो चुका है। नगर में पटाखों की आवाजें गूंज रही हैं। 28 अगस्तजश्न का रविवार होगा। सोमवार को जब सब संस्थान खुलेंगे तो वह दिन एक नया दिन होगा। जिन लोगों ने इस आंदोलन को पूरी ईमानदारी और सच्चाई के साथ जिया है उन के लिए आने वाले दिन आत्मविश्वास के होंगे। वे कोशिश करेंगे तो इस आत्मविश्वास का उपयोग वे अपने आसपास फैली भ्रष्टाचार की गंदगी को साफ करने में कर सकते हैं। जिन लोगों ने सदाचार को अपने जीवन में आरंभ से अपनाया और जमाने की लय में न चल कर अपने आप को अलग रखते हुए छुटका कद जीते रहे, उन का कद लोगों को बढ़ा हुआ दिखाई देने लगेगा। जो लोग गंदगी में सने हुए धन बल के मोटे तले के जूते पहन कर अपना कद बड़ा कर जीते रहे। कल से अपने जूते कहीं छुपाएंगे। धीमे स्वर में यह भी कहेंगे कि यह सब कुछ दिन की बात है राजनीति उन के रास्ते के बिना चल नहीं सकती, नई बिसात पर काले घोड़े फिर से ढाई घर कूदने लगेंगे। ऐसे लोगों से सावधान रहने और उन्हें किनारे लगाने के काम में लोगों को जुटना होगा। 

हाँ कोटा में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की कमान एक नौजवान के हाथों में थी जो कभी गणित का स्कॉलर रहा। एक धनिक परिवार से होते हुए भी अपने मूल्यों से समझौता करना स्वीकार नहीं कर के अपना पारिवारिक कारोबार त्याग कर नौकरी करने चल पड़ा था।  परिवार को उस के मूल्य अपनाने पड़े। अप्रेल से आज तक वही नौजवान अपने साथियों के साथ राजनीति की चालों को दरकिनार करते हुए दृढ़ता से आंदोलन का संचालन करता रहा। हमारे जनकवि-गीतकार महेन्द्र 'नेह' ने भी इस आंदोलन में प्रमुख भूमिका अदा की उन के संघर्षों के लंबे अनुभवों का लाभ आंदोलन ने उठाया। एक चिकित्सक 16 अगस्त से ही अनशन पर थे। दो दिन पहले पुलिस मजिस्ट्रेट का आदेश ले कर उन्हें उठाने आई लेकिन उन्हें उन के निश्चय से नहीं डिगा सकी। लेकिन चिकित्सक समुदाय ने उन्हे अगले दिन समुदाय के हितों को ध्यान में रखते हुए अत्यावश्यक चिकित्सा लेने को बाध्य किया। लेकिन आज फिर वे क्रमिक अनशन पर पाण्डाल में उपस्थित थे। महेन्द्र भी आज अनशन पर थे। इस बीच उन के कुछ पुराने गीतों को कार्यकर्ता ले उड़े और उन की हजारों प्रतियाँ बना कर लोगों के बीच वितरित कीं। मैं आज महेन्द्र से मिलने अनशन स्थल पर पहुँचा तो मुझे भी वे गीत छपे पर्चे मिले। उन्हीं में से एक गीत से आप को रूबरू करवा रहा हूँ। यह गीत कोई बारह वर्ष पूर्व लिखा गया था। आज इसे पढ़ कर लगता है कि कवि केवल भूतकाल और वर्तमान की ही पुनर्रचना नहीं करता, वह भविष्यवाणियाँ भी करता है। 
सच के ठाठ निराले होंगे
  • महेन्द्र 'नेह'
सच के ठाठ निराले होंगे
झूठों के मुहँ काले होंगे!

जाने कब धनिया के घर में
सुचमुच ही उजियाले होंगे!

बूढ़ी अम्मा - दादाजी के 
खत्म आँख के जाले होंगे!

आग लगेगी काले धन में
तार-तार घोटाले होंगे!

आने वाले दिन बस्ती में
आफ़त के परकाले होंगे!

सत्ता की संगीनें होंगी
करतब देखे भाले होंगे!

दुबके होंगे कायर घर में
सड़कों पर दिलवाले होंगे!



गुरुवार, 25 अगस्त 2011

डाक्टर अमर को जीवन भर विस्मृत नहीं किया जा सकता

सुबह सुबह ही इंटरनेट पर जाते ही समाचार मिला कि डाक्टर अमर नहीं रहे। मेरे लिए यह अत्यन्त संघातिक समाचार था। उन के ब्लाग पर एक आलेख मुझे बहुत पसंद आया था और मैं ने उस आलेख और उन के ब्लाग का अनवरत पर उल्लेख किया था। उस के बाद उन से नेट संपर्क बना रहा। उन से रूबरू मिलने की तमन्ना पनपी। पर वह तभी संभव था जब वे मेरे घर आते या मैं उन के घर जाता या फिर किसी तीसरे स्थान पर हम मिलते। उन का इधर आना नहीं हो सका। मेरा जैसा व्यक्ति जो अपने काम के कारण भी और स्वभाव से भी गृहअनुरागी है, उन से मिलने नहीं जा सका। किसी तीसरे स्थान पर भी उन से भेंट नहीं हो सकी। उन से जीवन में नहीं मिल सकना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं ने उन्हें सदैव अपना बड़ा भाई समझा। उन्हों ने मुझे एक बराबर के मित्र जैसा व्यवहार और स्नेह प्रदान किया। वे  अभिव्यक्ति में बहुत खरे थे, शायद अपने जीवन में भी वैसे ही रहे होंगे। दुनिया में बहुत कम इस प्रकार के खरे व्यक्ति होते हैं। विशेष रूप से चिकित्सक और वकील का इतना खरा होना संभव नहीं होता। लेकिन वे थे। मैं चाहते हुए भी शायद उतना नहीं हूँ। 

न का नहीं रहना मेरे लिए बहुत बड़ी क्षति है। मैं नहीं बता सकता कि मैं कैसा महसूस कर रहा हूँ। लेकिन जीवन कभी नहीं रुकता है। इस विश्व के छोटे से छोटे कण और बड़े से बड़े पिण्ड की भाँति वह सतत गतिमय होता है। आज तीन दिनों के बाद अदालत खुली थी। मेरे पास आज काम भी बहुत अधिक था। मैं सुबह 11 बजे अदालत जाने के बाद शाम 5 बजे तक लगातार काम करता रहा। भागदौड़ भी बहुत अधिक हुई। शाम को भी अनायास ही मुझे अपने एक स्नेही की समस्या में शामिल होना पड़ा। वहाँ से अभी आधी रात को अपने घर पहुँचा हूँ। आज देश बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम से गुजरा है। कल का दिन कैसा होगा? कोई अनुमान नहीं कर सकता। कल मेरा शहर कोटा बंद है। वकील भी कल काम बंद कर अन्ना के आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन करेंगे। कल के बाद क्या होगा। यह अनुमान नहीं किया जा सकता। आज बहुत कुछ कहना चाहता था। लेकिन डाक्टर अमर की क्षति के कारण कुछ लिखने का मन नहीं है।  

डाक्टर अमर को मेरी आत्मिक श्रद्धांजलि!!!

ह हिन्दी ब्लाग जगत की तो भारी क्षति है ही। निश्चित रूप से उन के परिवार के लिए यह क्षति बहुत अधिक है। विशेष रूप से भाभी के लिए तो यह भारी आघात है। मैं समझ सकता हूँ कि उन के नगर के लोगों और उन के निकट के लोगों के लिए भी यह बहुत आघातकारी है। मैं सब के दुःख में अपने दुःख के साथ सब के साथ हूँ। हम जीवन भर उन्हें विस्मृत नहीं कर सकेंगे।

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए लंबा और सतत संघर्ष जरूरी

ब ये सवाल उठाया जा रहा है कि क्या जन-लोकपाल विधेयक के ज्यों का त्यों पारित हो कर कानून बन जाने से भ्रष्टाचार समाप्त हो जाएगा? यह सवाल सामान्य लोग भी उठा रहे हैं और राजनैतिक लोग भी। जो लोग वोट की राजनीति को नजदीक से देखते हैं, उस से प्रभावित हैं  और हमारी सरकारों तथा उन के काम करने के तरीकों से भी नजदीकी से परिचित हैं उन के द्वारा यह प्रश्न उठाया जाना स्वाभाविक है। लेकिन आज यही प्रश्न कोटा में राजस्थान के गृहमंत्री शान्ति धारीवाल ने कुछ पत्रकारों द्वारा किए गए सवालों के जवाब में उठाया। मुझे इस बात का अत्यन्त क्षोभ है कि एक जिम्मेदार मंत्री इस तरह की बात कर सकता है। जनता ने जिसे चुन कर विधान सभा में जिस कर्तव्य के लिए भेजा है और जिस ने सरकार में महत्वपूर्ण मंत्री पद की शपथ ले कर कर्तव्यों का निर्वहन करने की शपथ ली है वही यह कहने लगे कि इस कर्तव्य का निर्वहन असंभव है तो उस से किस तरह की आशा की जा सकती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि आज देश की बागडोर ऐसे ही लोगों के हाथों में है। मौजूदा जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था में यह जनता की विवशता है कि उस के पास अन्य किसी को चुन कर भेजे जाने का विकल्प तक नहीं है। ऐसी अवस्था में जब रामलीला मैदान पर यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आप पार्टी क्यों नहीं बनाते, खुद सरकार में क्यों नहीं आते अरविंद केजरीवाल पूरी दृढ़ता के साथ कहते हैं कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे तो उन की बात तार्किक लगती है। 

स्थिति यह है कि विधान सभाओं और संसद के लिए नुमाइंदे चुने जाने की जो मौजूदा व्यवस्था है वह जनता के सही नुमाइंदे भेजने में पूरी तरह अक्षम सिद्ध हो चुकी है। उसे बदलने की आवश्यकता है। जब तक वह व्यवस्था बदली नहीं जाती तब तक चुनावों के माध्यम से जनता के सच्चे नुमाइंदे विधायिका और कार्यपालिका में भेजा जाना संभव ही नहीं है। वहाँ वे ही लोग पहुँच सकते हैं जिन्हें इस देश के बीस प्रतिशत संपन्न लोगों का वरदहस्त और मदद प्राप्त है। वे इस चुनावी व्यवस्था के माध्यम से चुने जा कर जनप्रतिनिधि कहलाते हैं। लेकिन वे वास्तव में उन्हीं 10-20 प्रतिशत लोगों के प्रतिनिधि हैं जो इस देश को दोनों हाथों से लूट रहे हैं। देश में फैला भ्रष्टाचार उन की जीवनी शक्ति है। इसी के माध्यम से वे इन कथित जनप्रतिनिधियों को अपने इशारों पर नचाते हैं और जन प्रतिनिधि नाचते हैं। 

भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आंदोलन इस देश में अब खड़ा हो रहा है वह अभी नगरीय जनता में सिमटा है बावजूद इस के कि कल हुए प्रदर्शनों में लाखों लोगों ने हिस्सा लिया। ये लोग जो घरों, दफ्तरों व काम की जगहों से निकल कर सड़क पर तिरंगा लिए आ गए हैं और वंदे मातरम्, भारत माता की जय तथा इंकलाब जिन्दाबाद के नारों से वातावरण को गुंजा रहे हैं। भारतीय जनता के बहुत थोड़ा हिस्सा हैं। लेकिन यह ज्वाला जो जली है उस की आँच निश्चय ही देश के कोने कोने तक पहुँच रही है। पूरे देश में विस्तार पा रही इस अग्नि को रोक पाने की शक्ति किसी में नहीं है। यह आग ही वह विश्वास पैदा कर रही है जो दिलासा देती है कि भ्रष्टाचार से मुक्ति पाई जा सकती है। लेकिन जन-लोकपाल विधेयक के कानून बन जाने मात्र से यह सब हो सकना मुमकिन नहीं है। यह बात तो इस आंदोलन का नेतृत्व करने रहे स्वयं अन्ना हजारे भी स्वीकार करते हैं कि जन-लोकपाल कानून 65 प्रतिशत तक भ्रष्टाचार को कम कर सकता है, अर्थात एक तिहाई से अधिक भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगी उसे कैसे समाप्त किया जा सकेगा? 

लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि  जो जनता इस आंदोलन का हिस्सा बन रही है जो इस में तपने जा रही है उस में शामिल लोग अभी से यह तय करना शुरू कर दें कि वे भ्रष्टाचार का हिस्सा नहीं बनेंगे तो भ्रष्टाचार को इस देश से लगभग समाप्त किया जा सकता है। भ्रष्टाचारी सदैव जिस चीज से डरता है वह है उस का सार्वजनिक रूप से भ्रष्ट होने का उद्घोष। जहाँ भी हमें भ्रष्टाचार दिखे वहीं हम उस का मुकाबला करें, उसे तुरंत सार्वजनिक करें। एक बार भ्रष्ट होने का मूल्य समाज में सब से बड़ी बुराई के रूप में स्थापित होने लगेगा तो भ्रष्टाचार दुम दबा कर भागने लगेगा। अभी उस के लिए अच्छा वातावरण है, लोगों में उत्साह है। यदि इसी वातावरण में यह काम आरंभ हो जाए तो अच्छे परिणाम आ सकते हैं। जो लोग चाहते हैं कि वास्तव में भ्रष्टाचार समाप्त हो तो उन्हें एक लंबे और सतत संघर्ष के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

रविवार, 21 अगस्त 2011

भट्टी में जाने के पहले, ईंट ये गल-बह जाए

त्ताधीश का कारोबार बहुत जंजाली होता है। उसे सदैव भय लगा रहता है कि कहीं सत्ता उस के हाथ से छिन न जाए। इस लिए वह अपने जंजाल को लगातार विस्तार देता रहता है। ठीक मकड़ी की तरह, जो यह सोचती है कि उस ने जो जाल बनाया है वह उसे भोजन भी देगा और रक्षा भी। ऐसा होता भी है। उस के भोज्य जाल में फँस जाते हैं, निकल नहीं पाते और प्राण त्याग देते हैं। तब मकड़ी उन्हें आराम से चट करती रहती है। लेकिन मकड़ी के जाल की अपनी सीमा है। जिस दिन बारिश से सामना होता है, जाल भी बह जाता है और साथ ही मकड़ी भी। बारिश न भी हो तो भी एक दिन मकड़ी का बनाया जाल इतना विस्तृत हो जाता है कि वह खुद ही उस से बाहर नहीं निकल पाती, उस का बनाया जाल ही उस के प्राण ले लेता है। 


ब देश में सत्ता किस की है? यह बहुत ही विकट प्रश्न है। किताबों में बताती हैं कि सत्ता देश की जनता की है। आखिर इकसठ साल पहले लिखे गए संविधान के पहले पन्ने पर यही लिखा था "हम भारत के लोग ...." लेकिन जब जनता अपनी ओर देखती है तो खुद को निरीह पाती है। कोई है जो केरोसीन, पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ा देता है, फिर सारी चीजों के दाम बढ़ जाते हैं। जनता है कि टुकर-टुकुर देखती रहती है। समझ आने लगता है कि सत्ता की डोरी उन के आसपास भी नहीं है। सत्ता को सरकार चलाती है। हम समझते हैं कि सरकार की सत्ता है। जनता सरकार को कहती है कानून बनाने के लिए तो सरकार संसद का रास्ता दिखाती है। हम समझते हैं कि संसद की सत्ता है। सरकार कहती है संसद सर्वोच्च है तो संविधान का हवाला दे कोई कह देता है कि संसद नहीं जनता सर्वोच्च है। संसद को, सरकार को जनता चुनती है। जनता मालिक है और संसद और सरकार उस के नौकर हैं। 

जरीए संविधान, यह सच लगता है कि जनता देश की मालिक है। यह भी समझ आता है कि संसद और सरकार उस के नौकर हैं। लेकिन ये कैसे नौकर हैं। तनख्वाह तो जनता से लेते हैं और गाते-बजाते हैं पैसे रुपए (पैसा तो अब रहा ही कहाँ)  वालों के लिए, जमीन वालों के लिए। तब पता लगता है कि सत्ता तो रुपयों की है, जमीन की है। जिस का उस पर कब्जा है उस की है। बड़ा भ्रष्टाचार है जी, तनखा हम से और गीत रुपए-जमीन वालों के। इन गाने वालों को सजा मिलनी चाहिए। पर सजा तो कानून से ही दी जा सकती है, वह है ही नहीं। जनता कहती है -कानून बनाओ, वे कहते हैं -बनाएंगे। जनता कहती है -अभी बनाओ। तो वे हँसते है, हा! हा! हा! कानून कोई ऐसे बनता है? कानून  बनता है संसद में। पहले कच्चा बनता है, फिर संसद में दिखाया जाता है, फिर खड़ी पंचायत उसे जाँचती परखती है, लोगों को दिखाती है, राय लेती है। जब कच्चा, अच्छे से बन जाता तब  जा कर संसद के भट्टे में पकाती है। गोया कानून न हुआ, मिट्टी की ईंट हुई।  जनता कहती है अच्छे वाली कच्ची ईंट हमारे पास है, तुम इसे संसद की भट्टी में पका कर दे दो। वे कहते हैं -ऐसे कैसे पका दें? हम तो अपने कायदे से पकाएंगे। फिर आप की ईंट कैसे पका दें? हमें लोगों ने चुना है हम हमारी पकाएंगे और जब मरजी आएगी पकाएंगे। देखते नहीं भट्टे में ऐसी वैसी ईँट नहीं पक सकती। कायदे से बनी हुई पकती है। 42 साल हो गए हमें अच्छी-कच्ची बनाते। भट्टे में पक जाए ऐसी अब तक नहीं बनी। अब तुरत से कैसे बनेगी? कैसे पकेगी?


 सत्ता कैसी भी हो, किसी की भी हो। मुखौटा मनमोहक होता है, ऐसा कि जनता समझती रहे कि सत्ता उसी की है। उसे मनमोहन मिल भी जाते हैं। वे पाँच-सात बरस तक जनता का मन भी मोहते रहते हैं। जब सत्ता संकट में फँसती है तो संकट-हरन की भूमिका भी निभाते हैं। वे कहते हैं -हम ईंट पकाने के मामले पर बातचीत को तैयार हैं, उस के लिए दरवाजे हमेशा खुले हैं।  लेकिन हम सर्वसम्मति से बनाएंगे। सर्व में राजा भी शामिल हैं और कलमाड़ी भी। उन की बदकिस्मती कि वे तो जेल में बंद हैं। बहुत से वे भी हैं, जो खुशकिस्मत हैं और जेल से बाहर हैं। उन सब की सम्मति कैसे होगी? मनमोहन मन मोहना चाहते हैं। तब तक जब तक कि बारिश न आ जाए।  ये जनता जिस ईंट को पकवाना चाहती है वह बारिश के पानी में गल कर बह न जाए।  वे गा रहे हैं रेन डांस का गाना ....

इन्दर राजा पानी दो
इत्ता इत्ता पानी दो 

मोटी मोटी बूंदो वाली
तगड़ी सी बारिश आए
भट्टी में जाने के पहले 
ईंट ये गल-बह जाए



शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

सर्वोच्च संसद, आंदोलन और संकल्प

संसद सर्वोच्च है। पर कौन सी संसद? जिसे जनता को चुन कर भेजे। मौजूदा संसद को क्या जनता ने चुना है? क्या जनता के पास अपनी पसंद का सांसद चुनने का अधिकार था? अब सांसद चुने जाने के लिए कम से कम दस करोड़ रूपया चाहिए। ये दस करोड़ कहाँ से आता है?  दस करोड़ की रस्सी का एक सिरा सांसद के गले में बंधा है ओर दूसरा दस करोड़ के स्रोत पर। चुने जाने के पहले सांसद की प्रतिबद्धता निश्चित हो जाती है। जिस संसद के सांसदों की प्रतिबद्धताएँ दस करोड़ की रस्सी से बंधी हों वह सर्वोच्च कैसे हो सकती है? सर्वोच्च तो वे हैं जिन के हाथों में ये रस्सियाँ बंधी हैं। चुने जाने के बाद कोई इस रस्सी को तुड़ाना चाहे तो करोड़ों वाली एक-दो रस्सियाँ और बांध दी जाती हैं। संसद का चुनाव होता है, तो लगता है जैसे 'पेट मंकी शो' हो रहा हो। बंदरों की सजावट और करतब देख कर चुनना हो कि किस के बंदर को चुनना है? अब बंदर संसद में बैठ कर तो यही बोलेगा कि संसद सर्वोच्च है। जोकर के लिए सर्कस सर्वोच्च है। वही उस का जीवन है। सर्वोच्च संसद का तर्क बहुत जोरों से दिया जा रहा है। कुछ लोगों को वह प्रभावित भी करता है। बंदरों को सिखाया-पढ़ाया याद रहता है। संसद का अस्तित्व संविधान से है। बंदरों ने संविधान की पहली पंक्ति को या तो कभी पढ़ा ही नहीं, पढ़ा होगा तो वे भूल गए  कि वहाँ लिखा है "हम भारत के लोग ....... आत्मार्पित करते हैं।"
खैर, आने वाले दिन तय करेंगे कि संसद सर्वोच्च है या संविधान के निर्माता। अन्ना के अनशन को तीन दिन हो चुके हैं। दिल्ली के बीच हो कर गुजर रही यमुना में कितना ही पानी बह कर जा चुका है। 16 अगस्त को कोटा की कलेक्ट्रेट पर धरना था। बहुत वकील भी वहाँ पहुँचे थे। उन्हों ने जोर शोर से नारे लगाए। उन्हें देख मुझे हँसी छूट रही थी। उन में अधिकांश ऐसे थे जिन्हें अपना काम कराने के लिए अदालतों के बाबुओँ और चपरासियों को धन देते देखा था। उन में से एक मुखर वकील से मैंने एक तरफ बुला कर कहा -आज संकल्प यहाँ आए वकीलों को संकल्प लेना चाहिए कि वे किसी को रिश्वत नहीं देंगे। उस का कहना था कि ये संभव नहीं है। हम तो काम ही न कर पाएंगे। मैं ने कहा -फिर तुम्हारा यहाँ आना बेकार है। कल कलेक्ट्री पर कोई धरना नहीं था। हाँ प्रदर्शन दिन भर होते रहे। वकीलों के बीच प्रस्ताव आया था कि जन लोकपाल के बिल व अन्ना के समर्थन में हड़ताल रखी जानी चाहिए। लेकिन कार्यकारिणी ने उसे ठुकरा दिया। तीन दिन का अवकाश आरंभ होने के एक दिन पहले किसी कारण से काम बंद रहा था। 16 अगस्त को उच्च न्यायालय  की भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश के देहांत के कारण काम बन्द रहा था।  पाँच दिनों से अदालतों में काम नहीं हो सका था। बहुत से आवश्यक काम रुके पड़े थे। कम से कम एक दिन में आवश्यक काम तो निपटा लिए जाएँ। लेकिन दोपहर भोजनावकाश के समय अचानक ढोल बजा, वकीलों को जलूस के लिए एकत्र किया जाने लगा। मुझे भी बुलाया गया। मैंने जाने से इन्कार कर दिया। आप लोग संकल्प लेने को तैयार हों तो ही साथ चल सकता हूँ।
अन्ना -आंदोलन के समर्थन में कोटा के वकीलों की रैली
धे घंटे में जलूस निपट लिया। मैं ने एकत्र वकीलों के बीच कहा कि कम से कम पाँच वकील तो संकल्प में मेरा साथ दे सकते हैं? कम से कम वे तो साथ दे ही सकते हैं जिन्हों ने कभी रिश्वत नहीं दी। मुझे पता था कि कोटा में कभी रिश्वत न देने वाले लोगों की संख्या इस से अधिक ही है। मैं ने उन्हें कोटा के ही श्रम न्यायालय का उदाहरण दे कर प्रश्न किया कि जब हम उस अदालत को 32 वर्षों तक रिश्वत विहीन बनाए रख सकते हैं तो बाकी अदालतों को क्यों नहीं ऐसा बना सकते? अभिभाषक परिषद कोटा के अध्यक्ष राजेश शर्मा और बार कौंसिल के सदस्य महेश गुप्ता ने मेरा साथ दिया। कम से कम हम तीन वहाँ थे जिन का अनुभव था कि बिना किसी तरह की रिश्वत दिए भी सफलता पूर्वक आजीवन वकालत का पेशा किया जा सकता है। आखिर तय हुआ कि कल काम बंद भी रखेंगे और संकल्प भी लेंगे। आज अदालत के चौक में सभा हुई और उपस्थित वकीलों, वकीलों के लिपिकों और टंकणकर्ताओं ने शपथ ली कि वे जीवन में कभी रिश्वत न देंगे, न किसी को रिश्वत देने के लिए प्रोत्साहित करेंग और अन्य लोगों को प्रोत्साहित करेंगे कि वे भी रिश्वत न दें।

हो सकता है संकल्प लेने वाले लोगों में से बहुत से इस संकल्प का पालन न करें। लेकिन कम से कम इतना तो हुआ कि लोग उन से पूछेंगे कि आप ने सार्वजनिक रूप से संकल्प लिया था, उस का क्या हुआ? मुझे तो बहुत दिनों से पक्का यक़ीन है कि हम तीन व्यक्ति भी मुखर हो जाएँ तो लोग हमारा अनुसरण करेंगे। कम से कम कोटा की अदालतों को भ्रष्टाचार मुक्त बना सकते हैं। बस इस आरंभ का अवसर नहीं मिल रहा था। धन्यवाद! अन्ना आप ने यह अवसर प्रदान किया।

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

आने वाले दिन बताएंगे, बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं?

खिर सूर्योदय से आरंभ होने वाला दिन ने अपने रंग दिखाने आरंभ किया। जिन की मति मारी गई थी उन के इशारों पर आंदोलन के नेताओं को हिरासत में लेना आरंभ कर दिया। सत्ता की यह वही प्रवृत्ति है जिस के चलते 1975 में आपातकाल लगा था। तब पूरे देश को एक जेल में तब्दील कर दिया गया था। तब भी जनता में विश्वास करने वालों को पूरा विश्वास था कि भारत में जनतंत्र की जड़ें इतनी मजबूत हैं कि तानाशाही अधिक दिन नहीं चल सकती। इस बार तो अन्ना को हिरासत में लिए जाने के बाद ही जनता ने अपना रंग दिखाना आरंभ कर दिया। यह रंग ऐसा चढा़ कि शाम होते होते उन्हें नेताओं को छोड़ने का निर्णय करना पड़ा। 


न्ना ने कोई अपराध तो किया नहीं था। जब वे अपने फ्लेट से निकले तो इमारत से बाहर निकलने के पहले ही उन्हें उठा लिया गया था। पुलिस के पास इस के अलावा कोई चारा नहीं था कि यह कहा जाए कि उन्हें शान्ति भंग की आशंका से गिरफ्तार किया जा रहा है। फिर से अंग्रेजी राज से चले आ रहे एक जन विरोधी कानून का सहारा पुलिस और सरकार ने लिया। जिस का सीधा सीधा अर्थ था कि यदि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाता तो वे कोई ऐसा संज्ञेय अपराध करते जिसे उन की गिरफ्तारी के बिना नहीं रोका जा सकता था। उन्हें फिर मजिस्ट्रेट के सामने लाया गया। ऐसा मजिस्ट्रेट जो सीधे सरकार का नौकर था, उस ने मान लिया कि यदि अन्ना को छोड़ दिया गया तो वे वे शांति भंग करेंगे या लोक प्रशान्ति को विक्षुब्ध करेंगे और अन्ना से शांति भंग न करने के लिए व्यक्तिगत बंध पत्र भरने पर रिहा किए जाने का हुक्म दिया। इस हुक्म को स्वीकार करने का कोई कारण नहीं था। लोक प्रशान्ति को तो सरकार खुद कब से पलीता लगा चुकी थी। कार्यपालक मजिस्ट्रेट यदि अपने विवेक और न्यायदृष्टि से काम लेता तो उसे पुलिस को आदेश देना चाहिए था कि अन्ना को गलत हिरासत में लिया गया है उन्हें तत्काल स्वतंत्र किया जाए। लेकिन कार्यपालक मजिस्ट्रेटों में इस दृष्टि का होना एक अवगुण माना जाने लगा है। अब तो यह स्थिति यह हो चली है कि न्यायिक मजिस्ट्रेट तक इस स्तर पर अपनी न्यायदृष्टि का प्रयोग नहीं करते। 


लेकिन तब तक लोग सड़कों पर उमड़ने लगे थे। जिस डर से सरकार ने अन्ना और उन के साथियों को गिरफ्तार किया था। वही डर अब कई गुना हो कर सामने आ गया था। शाम तक सरकार को अहसास हो चला था कि वह गलतियों की अपनी श्रंखला में कुछ गलतियाँ और पिरो चुकी है। निवारक कार्रवाई (Preventive action) के जिस खोखले कानूनी तर्क को आधार बना कर ये गिरफ्तारियाँ दिल्ली पुलिस ने की थीं वह खोखला सिद्ध हुआ था। वह आग को रोकने के लिए जिस द्रव का उपयोग  उस ने पानी समझ कर किया था वह पेट्रोल निकला था। शाम को उन्हों ने अन्ना को बिना शर्त छोड़ने की घोषणा की। लेकिन तब तक बंदर की पूँछ अन्ना के हाथ आ चुकी थी और वे उसे छोड़ने को तैयार नहीं थे। अन्ना तो अनशन के लिए निकल चुके थे। सरकार ने इस के लिए उन्हें जेल में स्थान दिया। उन्हें स्थान मिले तो वे बाहर निकलें। उन्हें बाहर निकाला जाए तो कैसे बाहर मार्ग कहाँ था। वहाँ तो पहले ही कितने ही अन्ना ही जुट चुके थे। 


रात निकली, एक नया सूर्योदय हुआ, एक नया दिन आरंभ हो गया। जैसे जैसे सूरज चढ़ता गया लोग घरों से निकल कर सड़कों पर आते रहे। ऐसा लगने लगा जैसे सारी दिल्ली सड़कों पर उतर आई है। यह आलम केवल दिल्ली का नहीं था। सारा देश जाग उठा था। सरकार और संसद के व्यवसनी संसद के अधिकारों और गरिमा की दुहाई देते फिर रहे हैं। लेकिन अधिकार तो हमेशा कर्तव्यों के साथ जुड़े हैं। संसद के पास लोकपाल के लिए संसद अपना कर्तव्य निभाने से रोकने के लिए कोई सफाई नहीं है। सवाल खड़ा किया जा रहा है कि सिविल सोसायटी का नाम लेकर कुछ हजार लोगों को साथ लिए कोई आएगा और ससंद को कहेगा कि हम जैसा कहते हैं वैसा कानून बनाओ तो क्या संसद बना देगी? संसद को इस काम के लिए चार दशक जनता ने दिए। संसद स्लेट पर अक्षर तक नहीं बना सकी, वह सिर्फ आड़ी तिरछी लकीरें खींच कर मिटाती रही। अब बिगड़ैल बच्चे का हाथ पकड़ कर उस की माँ उसे सिखा रही है कि अनार वाला 'अ' ऐसे लिखा जाता है तो बिगड़ैल बच्चा कह रहा है। मैं 'अ' नहीं बनाता, मुझे तो लकीरें ही खींचनी हैं। आने वाले दिन बताएंगे कि बिगड़ैल बच्चा 'अ' अनार वाला लिखता है या नहीं?