@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: Truth
Truth लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
Truth लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

सच बोले मनमोहन

खिर बुलावा आया, मंत्री जी से भेंट हुई। आखिर आठवें दिन मंत्री जी ने उन को समझने की कोशिश की। वे कितना समझे, कितना न समझे? मंत्री जी ने किसी को न बताया। थोड़ी देर बाद प्रधान मंत्री जी की अनशन तोड़ने की अपील आई। सब से प्रमुख मंत्री की बातचीत के लिए नियुक्ति हुई। आंदोलनकारियों के तीन प्रतिनिधि बातचीत के लिए निकल पड़े। इधर अन्ना का स्वास्थ्य खराब होने लगा डाक्टरों ने अस्पताल जाने की सलाह दी। अन्ना ने उसे ठुकरा दिया। स्वास्थ्य को स्थिर रखने की बात हुई तो अन्ना बोले मैं जनता के बीच रहूंगा। अब यहीँ उन की चिकित्सा की कोशिश हो रही है। उन्होंने ड्रिप लेने से मना कर दिया है। सरकार कहती है कि वह जनलोकपाल बिल को स्थायी समिति को भेज सकती है यदि लोकसभा अध्यक्ष अनुमति प्रदान कर दें। स्थाई समिति को शीघ्र कार्यवाही के लिए भी निर्देश दे सकती है। लेकिन संसदीय परम्पराओं की पालना आवश्यक है।

रकार संसदीय परंपराओं की बहुत परवाह करती है। उसे करना भी चाहिए क्यों कि संसद से ही तो उस पहचान है। संसदीय परंपराओं की उस से अधिक किसे जानकारी हो सकती है? पर लगता है इस जानकारी का पुनर्विलोकन सरकार ने अभी हाल में ही किया है। चार माह पहले तक सरकार को इन परंपराओं को स्मरण नहीं हो रहा था। तब सरकार ने स्वीकार किया था कि वह 15 अगस्त तक लोकपाल बिल को पारित करा लेगी। स्पष्ट है कि सरकार की नीयत आरंभ से ही साफ नहीं थी। उस की निगाह में भ्रष्टाचार कोई अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। उस की निगाह में तो जनता को किसी भी प्रकार का न्याय प्रदान करना अहम् मुद्दा कभी नहीं रहा। सरकार के एजेंडे में सब से प्रमुख मुद्दा आर्थिक सुधार और केवल आर्थिक सुधार ही एक मात्र मुद्दा हैं। जीडीपी सरकार के लिए सब से बड़ा लक्ष्य है। आंदोलन के आठ दिनों में भ्रष्टाचार से त्रस्त देश की जनता जिस तरह से सड़कों पर निकल कर आ रही है उस से सरकार की नींद उड़ जानी चाहिए थी। पर दुर्भाग्य की बात यह है कि उन्हें अभी भी नींद आ रही है और वह सपने भी देख रही है तो आर्थिक सुधारों और जीडीपी के ही। सोमवार को प्रधान मंत्री ने जब आंदोलन के बारे में कुछ बोला तो उस में भी यही कहा कि “दो दशक पहले शुरू किए गए आर्थिक सुधारों ने भारत के बदलाव में अहम भूमिका निभाई है। इसकी वजह से भारत सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में से एक हो गया है। उन्होंने कहा कि अगर हम रफ्तार की यही गति बनाए रखते हैं तो हम देश को 2025 तक दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा जीडीपी वाला देश बना सकते हैं”। यह जीडीपी देश का आंकड़ा दिखाती है देश की जनता का नहीं। देश की जनता उन से यही पूछ रही है कि यह जीड़ीपी किस के घर गिरवी है? जनता तो गरीबी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार से त्रस्त है।

निश्चय ही प्रधानमंत्री को एक राजनैतिक व्यक्तित्व होना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री राजनैतिक व्यक्तित्व बाद में हैं पहले वे मनमोहक अर्थशास्त्री हैं। उन का मुहँ जब खुलता है तो केवल अर्थशास्त्रीय आँकड़े उगलता है। वे शायद मिडास हो जाना चाहते हैं। जिस चीज पर हाथ रखें वह सोना हो जाए। वे देश की जनता को उसी तरह विस्मृत कर चुके हैं जिस तरह राजा मिडास भोजन और बेटी को विस्मृत कर चुका था। जब वह भोजन करने बैठा तो भोजन स्पर्श से सोना हो गया। जिसे वह खा नहीं सकता था। दुःख से उसने बेटी को छुआ तो वह भी सोने की मूरत में तब्दील हो गई। प्रधानमंत्री का मुख भी अब कुछ सचाई उगलता दिखाई देता है जब वे देख रहे हैं कि लोग तिरंगा लिए सड़कों पर आ चुके हैं। सोमवार के बयान में उन्हों ने कहा कि “इसके लिए न्यायिक व्यवस्था में सुधार करना होगा। तेजी से मामलों के निपटान और समय से न्याय मिलने की प्रक्रिया से भ्रष्टाचार दूर करने में खासी मदद मिलेगी। इससे संदेश जाएगा कि जो लोग कानून तोड़ेंगे, वे खुले नहीं घूम सकते”।

तो अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को यह सच पता लग चुका है? हो सकता है यह सच उन्हें पहले से पता हो। लेकिन वे विस्मृत कर रहे हों। यह हो सकता है कि उन्हें यह सच अब जा कर पता लगा हो। मेरा अपना ब्लाग तीसरा खंबा की पहली पोस्ट में ही यह बात उठाई गई थी कि देश में न्यायालयों की संख्या कम है और इस का असर देश की पूरी व्यवस्था पर पड़ रहा है। यह बात देश के मुख्य न्यायाधीश ने बार बार सरकार से कही। पर सरकार ने हमेशा की तरह इस बात को एक कान से सुना और दूसरे से निकाल दिया। शायद वे सोचते थे क्या आवश्यकता है न्याय करने की? क्या आवश्यकता है नियमों को तोड़ने और मनमानी करने वाले लोगों को दंडित करने की? जब जीडीपी बढ़ जाएगी तो सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा। इस जीडीपी के घोड़े पर बैठ कर उन्हें सच नजर ही नहीं आता था। अब जनता जब सड़कों पर निकल आई है औऱ प्रधानमंत्री का जीडीपी का घोड़ा ठिठक कर खड़ा हो गया है तो उन्हें न्याय व्यवस्था का स्मरण हो आया है। काश यह स्मरण सभी राजनीतिकों को हो जाए। न्याय व्यवस्था ऐसी हो कि न्याय जल्दी हो और सच्चा हो। सभी को उस पर विश्वास हो।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

मीडिया ने हमारी तर्क क्षमता को भौंथरा कर दिया है

रसों दोपहर महेन्द्र 'नेह' का फोन मिला, शाम साढ़े छह बजे प्रेस क्लब में विकल्प जन सांस्कृतिक मंच की मीडिया पर एक सेमीनार है, वहाँ पहुँचना है। मैं ने तुरंत हाँ कर दी। शाम को कुछ काम निकल आए और मैं कुछ देरी से सेमीनार में पहुँचा। लेखक, कवि, पत्रकार और कुछ अन्य सजग नागरिक, कुल पैंतीस -चालीस लोग वहाँ मौजूद थे। सेमीनार में कोटा के बाहर से राज्य-सभा की मीडिया सलाहकार समिति के सदस्य पत्रकार अनिल चमड़िया, अरूण कुमार उराँव, विजय प्रताप व वरूण शैलश आए हुए थे। सेमीनार का विषय "समय की सचाइयाँ और मीडिया" था। 
निल चमड़िया का कथन था कि हम सचाई कि उसी हिस्से को देख पाते हैं, जिसे मीडिया हमें दिखाना चाहता है। लगातार एक पक्षीय सूचना की बरसात कर के मीडिया ने हमारे सोचने-समझने और तर्क करने की क्षमता को भौंथरा कर दिया है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि अमरीका ने ईराक व अफगानिस्तान के विरूद्ध हमलों से पूर्व मीडिया के जरिये प्रचार युद्ध चलाया और अंतत: आसानी से जंग जीत ली। भारत के आदिवासी क्षेत्रों से देशी-विदेशी कंपनियों ने कोलम्बस के बाद जमीन और खनिजों की सबसे बड़ी लूट की है और लाखों आदिवासियों को विस्थापित कर दिया है। लेकिन मीडिया ने इस बात को कोई महत्व नहीं दे कर नक्सली और माओवादी गतिविधियों के बारे में अतिरंजित खबरों को अत्यधिक तरजीह दे कर इस बड़ी हकीकत को छुपा दिया।
लेक्ट्रोनिक मीडिया पत्रकार अरूण कुमार उरॉव का कहना था कि सूचना मंत्री अम्बिका सोनी  का यह कहना सही नहीं है कि मीडिया स्वयं ही अपने को नियंत्रित करता है। उस की वित्तपोषक ताकतें उसे नियंत्रित करती हैं। मनोरंजन के नाम पर "राखी का इंसाफ" "बिग-बॉस" जैसे सीरियल समाज में विकृति फैला रहे हैं। उन्होंने प्रन किया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ग्रामीणों, आदिवासियों व दलितों पर सीरियल क्यों नहीं बनते। दिल्ली से आये पत्रकार विजय प्रताप ने कहा कि मीडिया में एक ओर सत्ता संचालित सोच की धारा है, जिसे मुख्य-धारा कहा जाता है। पत्रकारिता की दूसरी धारा प्रतिरोध की धारा भी है, जिन्हें सचाई सामने लाने पर प्रताड़ित किया जाता है। इस संदर्भ में उन्होंने सीमा आजाद, हेमचंद्र पाण्डे, प्रशांत राही आदि पत्रकारों का उल्लेख किया। इन्डो एसियन न्यूज सर्विस (आईएनएस) से जुड़े पत्रकार वरूण शैलेश ने कहा कि राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान दिल्ली के भिखारियों व फुटपाथ के दूकानदारों को भारत की गरीबी को छुपाने के लिए निर्दयतापूर्वक खदेड़ दिया गया, लेकिन मीडिया ने इसे तरजीह नहीं दी। भ्रष्टाचार की जो खबरें इन दिनों प्रमुखता से छाई हुई हैं उस का कारण सत्ता और व्यापारिक घरानों की आपसी प्रतिस्पर्धा है। 
कोटा के पत्रकार दुर्गाशंकर गहलोत ने कहा कि हमें समाचार कम सूचनाऐं अधिक मिलती हैं। भारत जैसी सबसे पवित्र भूमि आज सबसे भ्रष्ट दिखाई जा रही है। पत्रकार हलीम रेहान ने कहा कि मीडिया की भूमिका के लिए पत्रकारों को दोषी नही ठहराया जा सकता। हितेश व्यास ने कहा कि इस तरह के नकारात्मक मीडिया के साथ सकारात्मक मीडिया पर भी बात होनी चाहिए? आर.पी. तिवारी का कहना था कि मीडिया ने आज सच्चाई को घूमिल कर दिया है। शायर शकूर अनवर ने का कहना था कि मीडिया द्वारा ने जनता को असत्य और फूहड़ता देखने के लिए मजबूर कर दिया है। साहित्यकार अरूण सैदवाल ने मीडिया को "अपनी ढपली-अपना राज" की संज्ञा देते हुए कहा कि मिशनरी और प्रतिबद्ध पत्रकारिता ही इस माहौल को बदल सकती है। सेमीनार का संचालन कर रहे महेन्द्र 'नेह' ने मीडिया की स्थिति पर मौजूँ शैर पढ़ा " आसान नहीं है सुलझाना इस गुत्थी का@ अहले दानिश ने बहुत सोच के उलझाया है"। उन का कहना था कि मीडिया-कर्मी जमीनी वास्तविकताओं को समझें तो मीडिया के प्रतिरोधी और सकारात्मक हिस्से को ताकतवर बनाया जा सकता है।
सेमीनार में मेरी तरह विशुद्ध श्रोता के रूप में शिरकत करने वालों में कवि-व्यंग्यकार ब्लागर अतुल चतुर्वेदी, अंजुम शैफी, ओम नागर संजय चावला, शायर चांद शेरी, अखिलेशा अंजुम, पुरूषोत्तम 'यक़ीन' कवि राम नारायण हलधर, गोपी लाल मेहरा, महेन्द्र पाण्डेय, परमानन्द कौशिक, विजय जोशी, अब्दुल गफूर, तारकेवर तिवारी, त्रिलोक सिंह मेरी पहचान के थे, शेष लोगों को मैंने पहली बार देखा था, उन से पहचान बढ़ाने का भी कोई अवसर मुझे नहीं मिला। इस सेमीनार से मुझे बहुत कुछ जानने को मिला और कुछ नए लोगों से पहचान हुई।

सेमीनार के बाद गपशप में रुक गए लोग