@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 3 जुलाई 2011

पिता जी का जन्मदिन

मुझे पिताजी के साथ बहुत कम रहने का अवसर मिला। हुआ यूँ कि वे अध्यापक हुए तो बाराँ में उन का पदस्थापन हुआ। मुझे पता नहीं कि जब मैं पैदा हुआ तो उन का पदस्थापन कहाँ था। पर उस साल वे कुल 22 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापक थे। चाचा जी बारां में रह कर पढ़ते थे इसलिए माँ को बाराँ ही रहना पड़ता था। छह वर्ष में बाराँ जाना पहचाना नगर हो चुका था। वे अकेले ही कस्बे में रहते और साप्ताहिक अवकाश के दिन बाराँ आ जाते। जिस रात मेरा जन्म हुआ वे मेरी दादी को लेने गाँव गए हुए थे और माँ और चाचाजी अकेले थे। जब मैं दो ढाई वर्ष का हुआ तो एक मंदिर में पुजारी चाहिए था। मंदिर के मालिकान दादा जी को गाँव से ले आए, दादी और बुआ भी वहीं आ गईं। दादाजी का सारा परिवार वहीं आ गया था। मंदिर का काम पुजारी के अकेले के बस का न था। सारा परिवार उसी में जुटा रहता। पिताजी अक्सर नौकरी पर बाहर रहते। उन से सिर्फ अवकाशों में मुलाकात होती या फिर तब उन के साथ रहने का अवसर मिलता जब दीपावली के बाद वे माँ को और मुझे साथ ले जाते। गर्मी की छुट्टियाँ होते ही हम वापस बाराँ आ जाते। एक वर्ष वे शिक्षक प्रशिक्षण के लिए चले गए। कुछ वर्ष उन का पद स्थापन बाराँ में ही रहा तब उन के साथ रहने का अवसर मिला। 

वे कर्मयोगी थे। हर काम खुद कर लेते। भोजन बनाने का इतना शौक था कि कहीं कोई नया पकवान खाने को मिलता तो विधि पूछ कर आते और तब तक बनाने का प्रयत्न करते जब तक उसे श्रेष्ठता तक पकाना न सीख जाते। अक्सर अवकाश पर जब वे घर होते तो उन के कुछ मित्र भोजन पर आमंत्रित रहते, वे पकाते, अम्माँ मदद करतीं। हम परोसने आदि का काम करते। जब मैं बारह वर्ष का हुआ तो उन्हों ने मुझे भोजन बनाना सिखाया। सब से मुश्किल काम एक-दम  गोल चपाती बेलना था। जिसे वे बहुत खूबसूरती से करते थे। आटे का लोया चकले पर रखते और बेलन को ऐसा घुमाते कि एक बार में ही पूरी रोटी बेल देते, वह भी एकदम गोल। अम्माँ और घर की दूसरी महिलाएँ भी उतनी गोल चपाती न बेल पातीं। वे जिस भी विद्यालय में होते वहाँ सब से कनिष्ट होते हुए भी विद्यालय का सारा प्रशासन संभाल लेते। प्रधानाध्यापक प्रसन्न रहता, उसे कुछ करना ही न पड़ता। विद्यार्थी और उन के अभिभावक भी उन से प्रसन्न रहते। वे संस्कृत, गणित, अंग्रेजी, भूगोल के अच्छे शिक्षक होने के साथ वैद्य भी थे। विद्यालय में हमेशा एक प्राथमिक चिकित्सा का किट बना कर रखते और अक्सर उस का उपयोग करते। घर पर बहुत सी दवाएँ हमेशा रखते। परिजनों के साथ वे मित्रों आदि की चिकित्सा भी करते। दवाई की कीमत कभी न लेते। वे अच्छे स्काउट भी थे। अक्सर अपने क्षेत्र में लगने वाले प्रत्येक स्काउट केम्प के मुख्य संचालक होते।
नुशासनहीनता उन्हें बर्दाश्त न थी। इस कारण मुझे उन से अनेक बार पिटना पड़ा। पिटाई करते समय वे बहुत बेरहम हो जाते। फिर भी मुझे कभी उन से शिकायत न हुई। उन की आँखों में जो प्रेम होता था, वह सब कुछ भुला देता था। पिताजी मेरा जन्मदिन हमेशा मनाते, शंकर जी का अभिषेक कराते, ब्राह्मणों को भोजन कराते और उन के मित्रों को भी। मुझे भी कुछ न कुछ उपहार अवश्य ही मिलता था। कुछ बड़ा हुआ तो पिताजी के नौकरी पर बाहर रहने के कारण घर के बहुत से काम मुझे ही करने पड़ते। वे जब भी आते हमेशा दादी और दादाजी की सेवा में लगे रहते। मैं सोचता था कि पिताजी के सेवानिवृत्त हो जाने के उपरांत मैं भी पिताजी और अम्माँ की ऐसे ही सेवा करूंगा। लेकिन मुझे पिताजी के सेवानिवृत्त होने के पहले ही बाराँ छोड़ कर वकालत के लिए कोटा आना पड़ा। पिताजी ने मुझे ऐसा करने से रोका नहीं। बहुत बाद में मुझे यह अहसास हुआ कि वे मेरे इस फैसले से खुश न थे। सेवानिवृत्त होने पर वे बाराँ रहने लगे। तब वे स्वैच्छिक काम करना चाहते थे। लेकिन उन के पूर्व विद्यार्थियों ने उन से आग्रह किया कि वे कम से कम उन की बेटियों को अवश्य पढ़ाएँ। वे फिर पढ़ाने लगे। लड़कियाँ घर पढ़ने आतीं। उन का घर बेटियों से भरा रहने लगा। एक रात मुझे खबर मिली कि वे हमें छोड़ कर चले गए। तब उन की उम्र बासठ वर्ष की ही रही होगी। मुझे हमेशा यह अवसाद रहेगा कि मुझे उन की सेवा का अवसर न मिला। परिस्थितियाँ ऐसी रहीं कि माँ भी अभी तक मेरे साथ नहीं रह सकीं। 

कुछ दिन पूर्व आयोजन में हाडौ़ती/हिन्दी के ख्यात कवि/गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से मुलाकात हुई। मैं जब भी उन से मिलता हूँ लगता है अपने पिताजी के सामीप्य में हूँ। जिस वर्ष मेरा जन्म हुआ था तब वे और पिताजी एक ही स्कूल में अध्यापक थे। वहाँ दोनों ने मिल कर अध्यापकों द्वारा ट्यूशन पढ़ाने की प्रथा को तोड़ा था और वे दोनों विद्यार्थियों को अपने घर बुला कर निशुल्क पढ़ाने लगे थे। हाड़ा जी साहित्य अकादमी के एक कार्यक्रम में झालावाड़ से पधारे थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद उन्हें झालावाड़ जाना था। मैं ने उन्हें अपनी कार में बस स्टेंड तक छोड़ने का प्रस्ताव किया। वे राजी हो गए। इस तरह मुझे कुछ घड़ी अपने पिता के एक साथी के साथ रहने का अवसर मिला। मुझे अहसास हुआ कि जैसे पिताजी भी कहीं समीप ही हैं। 

षाढ़ मास के शुक्लपक्ष की द्वितिया देश, दुनिया में रथयात्रा के रूप में मनाई जाती है। पिताजी का जन्म इसी दिन हुआ था। हम इस दिन को हमेशा पिताजी के जन्मदिन के रूप में मनाते।  इस दिन घर में चावल, अमरस बनते और पूरा परिवार इकट्ठे हो कर भोजन करता। आज भी हम ने घर में चावल, अमरस बना है साथ में अरहर की दाल है।  हम भोजन करते हुए पिताजी को स्मरण कर रहे हैं।

शनिवार, 2 जुलाई 2011

'हवा' ... महेन्द्र नेह की कविता

पिछले दिनों देश ने सरकार के विरुद्ध उठती आवाजों को सुना है। एक अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारगर कार्यवाही के लिए उपयुक्त कानूनी व्यवस्था बनाए। वे जनलोकपाल कानून बनवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के युवाओं का उन्हें समर्थन मिला। कानून बनाने को संयुक्त कमेटी गठित हुई। लेकिन सरकार की मंशा रही कि कानून बने तो कमजोर। अब खबरें आ रही हैं कि कानून को इस तरह का बनाने की कोशिश है कि भ्रष्टाचार मिटे न मिटे पर उस के विरुद्ध आवाज उठाने वाले जरूर चुप हो जाएँ। दूसरी ओर बाबा रामदेव लगातार देश को जगाने में लगे रहे। उन्हों ने पूरे तामझाम के साथ अपना अभियान रामलीला मैदान से आरंभ किया जिस का परिणाम देश खुद देख चुका है। इस बीच पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ गई। उन्हों ने दूसरी सभी चीजों की कीमतें बढ़ा दीं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इस तरह विरोध प्रदर्शन किया कि कोई कह न दे कि जनता पर इतना कहर बरपा और तुम बोले भी नहीं। देश की जनता परेशान है, वह बदलाव चाहती है लेकिन उसे उचित मार्ग दिखाई नहीं दे रहा। मार्ग है, लेकिन वह श्रमजीवी जनता के संगठन से ही संभव है। वह काम भी लगातार हो रहा है लेकिन उस की गति बहुत मंद है।

नता जब संगठित हो कर उठती है और जालिम पर टूटती है तो वह नजारा कुछ और ही होता है। जनता का यह उठान ही आशा की एक मात्र किरण है। कवि महेन्द्र 'नेह' उसे अपनी कविता में इस तरह प्रकट करते हैं ...

हवा
  • महेन्द्र 'नेह'


घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जा कर टकरा गई!
हवा मौसम को फिर से गरमा गई!!

दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी 
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जा कर टकरा गई!

हर तरफ दासता के कुँए, खाइयाँ
हर तरफ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जा कर टकरा गई?







    शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

    जनता को क्या मिलेगा, सिङ्गट्टा ???

    ज जुलाई महीने की पहली तारीख है, भारत का डाक्टर्स डे, हिन्दी में कहें तो चिकित्सक दिवस। सारे विश्व में यह डॉक्टर्स डे 30 मार्च को मनाया जाता है जिस दिन जॉर्जिया के प्रसिद्ध चिकित्सक क्राफोर्ड डब्लू लोंग ने पहली बार शल्य चिकित्सा में निश्चेतक का प्रयोग किया था। लेकिन हम ने उस की तारीख चार माह आगे खिसका कर उसे डॉ. बिधानचंद्र राय के जन्मदिन पर मनाना आरंभ कर दिया जिस से इस दिवस पर चिकित्सक भी समाज को उन के योगदान को स्मरण करते हुए केवल बधाइयाँ और शुभकामनाएँ हासिल करने में ही न जुटे रहें वरन् अपने कर्तव्यों पर भी ध्यान दें। ऐसा नहीं चिकित्सकों को अपने कर्तव्यों का ध्यान नहीं है। लेकिन जब समाज का एक हिस्सा नग्न नर्तन के साथ जनता को लूटने में व्यस्त हो और सरकारों ने उन्हें खुली छूट दे रखी हो तब चिकित्सक भला कैसे पीछे रह सकते हैं। वे पीछे रहें भी कैसे?  दवा कंपनियाँ उन्हें  रहने दें तब न? उन्हें सिर्फ अपने पास आए रोगियों को चिकित्सा के लिए दवाएँ लिखनी हैं। शेष काम तो दवा कंपनियाँ खुद कर लेती हैं। 
    ज राजस्थान पत्रिका के कोटा संस्करण में राजेश त्रिपाठी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। आप स्वयं इसे पढ़ कर अनुमान कर सकते हैं कि हमारी सरकार ने किस तरह दवा कंपनियों को जनता की लूट के लिए खुला छोड़ रखा है। इस लूट का हिस्सा न केवल चिकित्सकों को मिलता है अपितु अन्य अनेक लोग उसमें शामिल होते हैं, उन में राजनेता शामिल न हों यह हो नहीं सकता।

     1.39 रुपए की गोली 26.50 रुपए में बेच कर 1906 प्रतिशत कीमत पर बेचना किसी कानून का उल्लंघन न करता हो, तब हम समझ सकते हैं कि संसद से ले कर सरकार तक किन लोगों के लिए और किन लोगों द्वारा चलाई जा रही है। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे की सिविल सोसायटी और विपक्षी दल इस बारे में कभी आवाज नहीं उठाते। उस के लिए कोई अनशन करने की बात भी नहीं करता। ऐसा करने पर तो सिस्टम याने की व्यवस्था बदलना जरूरी हो जाएगा। जब कि लोकपाल कानून बना कर भ्रष्टाचार मिटाने या कालाधन वापस देश में लाने के लिए व्यवस्था बदलना जरूरी नहीं। 
    ब मैं एक काल्पनिक प्रश्न से जूझ रहा हूँ, यह कालाधन वास्तव में देश में वापस ले आया जाएगा तो भी लूटने वाले उसे छोड़ेंगे थोड़े ही। किसी न किसी तरह वे लोग ही उस पर कब्जा कर लेंगे जो अभी उस का आनंद ले रहे हैं। जनता को क्या मिलेगा, सिङ्गट्टा ???

    गुरुवार, 30 जून 2011

    बटुए में, सपनों की रानी

    हाय!
    क्या जमाना था वह भी? चवन्नी चवन्नी नहीं महारानी विक्टोरिया और मधुबाला की तरह हुआ करती थी। जिसे दूर से देखा जा सकता था। तब तक चूड़ी बाजे में वह गाना भी नहीं बजा था ... मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू ... चली आ .... तू चली आ ... वरना हम मन ही मन अक्सर उसे ही गा रहे होते।


    दादाजी, हमें दो पैसे देते थे। कभी दो बड़े बड़े तांबे के पैसे, कभी एक बड़ा पैसा और एक छेद वाला पहिए जैसा। एक पैसे के मोटे सेव और एक पैसे का कलाकंद उस छोटे से पेट के लिए पर्याप्त से अधिक ही होता था। तब तक स्कूल के दर्शन भी नहीं किए थे। लेकिन बालपोथी के चित्र देख-देख अक्षर पढ़ना सीख लिए थे, फिर मात्राएँ भी आने लगी थीं। बारह खड़ी बोलने में मजा आता था। कक्का किक्की कुक्कू केकै कोकौ कंकः .... कन्दोई की दुकान से अखबार के टुकड़ों में सेव-कलाकंद ले कर आते और घर के किसी एकांत कोने में बैठ कर नाश्ते का आनंद लेते हुए अखबार पढने की कोशिश करते।

    सुनते थे कि पैसे की भी पाइयाँ होती थीं, तब बंद हो चुकी थीं। बिलकुल अभी आज से बंद होने वाली चवन्नी जैसी। पर कभी कभी दादा जी के पास देखने को मिल जाती थीं। एक किस्सा सुनाया जाता था कि अंग्रेज अफसर को गाँव में रुकना पड़ गया सोने के लिए उस ने किसी किसान से चारपाई का इंतजाम करने को कहा। बेचारा पूरे गाँव में मारा मारा फिरा और घंटे भर बाद आकर कहा म्हारा! तीन ही मिली। अंग्रेज को समझाने में पसीने छूट गए कि उसे चारपाई चाहिए चार पाई नहीं। किसान समझा तो बोला। तो म्हारा फैली ख्हता नै कै खाट छाईजे। वा तो म्हारा घरणे ई चार-चार छै।
    शहर में सिनेमा घर तो था नहीं। दिन भर मैदान खेलने के काम आता था और रात में चारों और परदों की दीवार बना दी जाती थी, उसी में सिनेमा दिखाया जाता था। उसे फट्टा टाकिज कहा करते थे। उस में हमें पहली बार जब सिनेमा देखने का मौका मिला तो टिकट चवन्नी का था। 
    फिर बड़ा पैसा, छेद वाला पैसा बंद हुआ। एक नया पैसा आ गया। अम्माँ के माथे की बिंदी जितना बड़ा और वैसा ही गोल तांबे का। इकन्नी चार पुराने पैसों के बजाए नए छह पैसों की हो गई चवन्नी पच्चीस की और रूपया 100 पैसे का। ये फायदा होने  लगा कि चवन्नी के खुट्टे लो तो चार आने के अलावा एक पैसा बच जाता। सारा हिसाब गड़बड़ा गया। फिर इकन्नी भी बंद हो गई। पच्चीस पैसे वाली चवन्नी चलती रही। वह चवन्नी नहीं थी चौथाई रुपया था, या फिर पच्चीस पैसे का सिक्का, पर उस ने चवन्नी का नाम चुरा लिया था। उस नाम को आज तक धरे रही। आज उस का भी आखिरी समय आ ही गया। 
    धर हाडौ़ती में तो चवन्नी क्या अठन्नी भी सालों से बंद है। बेटी मुम्बई पढ़ने लगी तो वहाँ चवन्नी चलती दिखाई दी थी। जब भी मुम्बई जाता एक-दो चवन्नियाँ जेब में चली आतीं। पिछले पाँच बरस से मुम्बई नहीं गया हूँ, लेकिन वहाँ से आई एक चवन्नी मेरे बटुए में अभी तक पड़ी है। उसे देखता हूँ, उसे कहता हूँ। आज से तेरी भी बाजार से छुट्टी। मैं उसे बटुए से निकाल कर श्रीमती जी को पकड़ा रहा हूँ। कुछ पुराने चाँदी के सिक्के हैं जो एक कपड़े के खूबसूरत बटुए में रखे हैं, जिन्हें वे दीवाली के दिन निकाल कर धो-पोंछ कर रख देती हैं पूजा में। कहता हूँ -इस चवन्नी को भी वहीं रख दो। देखा करेंगे दीवाली के दीवाली।

    मंगलवार, 28 जून 2011

    "शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"

    निशा, शायद यही नाम है, उस का। उस का नाम रजनी या सविता भी हो सकता है। पर नाम से क्या फर्क पड़ता है? नाम खुद का दिया तो होता नहीं, वह हमेशा नाम कोई और ही रखता है जो कुछ भी रखा जा सकता है। चलो उस लड़की का नाम हम सविता रख देते हैं।

    ह ग्यारह वर्ष से जीएनएम  यानी सामान्य नर्सिंग और दाई का काम कर रही है। ग्यारह साल कम नहीं होते एक ही काम करते हुए। इतना अनुभव हो जाता है कि कोई भी अधिक जटिलता के काम कर सकता है। वह भी चाहती है कि उसे भी अधिक जटिल काम मिलें, नौकरी में उस की पदोन्नति हो। पर इस के लिए जरूरी है कि वह कुछ परीक्षाएँ और उत्तीर्ण करे। उस ने प्रशिक्षण  में दाखिला ले लिया। साल भर पढ़ाई की। जब परीक्षा हुई तो परीक्षक की निगाहें उस पर गड़ गईं। उस के काम में कोई कमी नहीं लेकिन फिर भी ... परीक्षक ने कहा पास नहीं हो सकोगी। होना चाहती हो तो कुछ देना पड़ेगा। उसे अजीब सा लगा, उस ने कोई उत्तर नहीं दिया। परिणाम आया तो वह अनुत्तीर्ण हो गई। फिर एक साल पढ़ाई, फिर परीक्षा और परिणाम की प्रतीक्षा ...

    इस बार वही परीक्षक ट्रेनिंग सेंटर के आचार्य की पीठ पर विराजमान था, कामचलाऊ ही सही, पर पीठ तो आचार्य की थी। उस ने सविता को देखा तो पूछा
    -तुम पिछले साल उत्तीर्ण नहीं हुई? उस ने उत्तर दिया
    -कहाँ सर? आप ने मदद ही नहीं की।
    -मैं ने तो तुम्हें उपाय बताया था।
    -नहीं सर! वह मैं नहीं कर सकती। हाँ कुछ धन दे सकती हूँ।
    -सोच लो, धन से काम न चलेगा।
    -सोचूंगी।
     कह कर वह चली आई। सोचती रही क्या किया जाए। आखिर उस ने सोच ही लिया। वह फिर आचार्य के पास पहुँची, कहा
    -सर ठीक है जो आप कहते हैं मैं उस के लिए तैयार हूँ। पर मेरी दो साथिनें और हैं, उन की भी मदद करनी होगी। वे दो दो हजार देने को तैयार हैं। आचार्य तैयार हो गए। सविता को चौराहे पर मिलने के लिए कहा।
    सविता चौराहे तक पहुँची ही थी कि स्कूटर का हॉर्न बजा। आचार्य मुस्कुराते हुए स्कूटर लिए खड़े थे। वह पीछे बैठ गई। स्कूटर नगर के बाहर की एक बस्ती की ओर मुड़ा तो सविता पूछ बैठी।
    -इधर कहाँ? सर!
    -वह तुम्हारी अधीक्षिका थी न? वह आज कल दूसरे शहर में तैनात है उस के घर की चाबियाँ मेरे पास हैं, वहीं जा रहे हैं। क्या तुम्हें वहाँ कोई आपत्ति तो नहीं?
    -ठीक है सर! वहाँ मुझे कोई जानता भी नहीं।

    कुछ देर में स्कूटर घर के सामने रुका। आचार्य ने ताला खोला अंदर प्रवेश किया। कमरा खोल कर सविता को बिठाया। सविता ने अपने ब्लाउज से पर्स निकाल कर चार हजार आचार्य को पकड़ा दिए।
    -तुम बैठो! तुम बाहर का दरवाजा खुला छोड़ आई हो, मैं बंद कर आता हूँ।
    आचार्य कमरे से निकल गया। सविता के पूरे शरीर में कँपकँपी सी आ गई। उसे लगा जैसे कुछ ही देर में उसे बुखार आ जाएगा। लेकिन तभी ..
    आचार्य मुख्य द्वार बंद कर रहा था कि कुछ लोगों ने बाहर से दरवाजे को धक्का दिया। वह हड़बड़ा गया। उसे दो लोगों ने पकड़ लिया। अंदर कमरे में जहाँ सविता थी ले आए। इतने सारे लोगों को देख सविता की कँपकँपी बन्द हुई। आचार्य के पास से नोट बरामद कर लिए गए। उन्हें धोया तो रंग छूटने लगा। आचार्य के हाथों में भी रंग था।

    विता को फिर से कँपकँपी छूटने लगी थी। वह सोच रही थी, जब उस के पति और ससुराल वालों को पता लगेगा तो क्या सोचेंगे?  उन का व्यवहार उस के प्रति बदल तो नहीं जाएगा? उस के और रिश्तेदार क्या कहेंगे? क्या उस का जीवन बदल तो नहीं जाएगा? और उस के परीक्षा परिणाम का क्या होगा? सोचते सोचते अचानक उस ने दृढ़ता धारण कर ली। अब कोई कुछ भी सोचे, कुछ भी परिणाम हो। उस ने वही किया जो उचित था और उसे करना चाहिए था। वह सारे परिणामों का मुकाबला करेगी। कम से कम कोई तो होगा जो यह कहेगा "शाबास बेटी, तुमने ठीक किया"।

    चार्य जी, जेल में हैं। पुलिस ने उन की जमानत नहीं ली। अदालत  भी कम से कम कुछ दिन उन की जमानत नहीं लेगी। अच्छा तो तब हो जब उन की जमानत तब तक न ली जाए जब तक मुकदमे का निर्णय न हो जाए।
    (कल सीकर में घटी घटना पर आधारित)

    सोमवार, 27 जून 2011

    वर्षा से हरियाई हाड़ौती

    मेरा अपना हाड़ौती अंचल मनोरम है। बरसात में तो इस की छटा निराली होती है। कुछ दिन पूर्व एक समारोह में हाड़ौती के वरिष्ठ कवि, गीतकार रघुराज सिंह हाड़ा से भेंट हुई, मुझे उन्हें बस तक पहुँचाने का सुअवसर मिला। मार्ग में वार्तालाप के दौरान वे कहने लगे हाड़ौती शब्द हाड़ा राजपूतों के जन्म से पुराना है। वे वास्तव में चौहानवंशी हैं। हाड़ौती में बसी उन के वंशज हाड़ा कहलाए। इस तरह हाड़ा शब्द राष्ट्रीयता सूचक है। वे बताने लगे कि हाड़ौती शब्द की उत्पत्ति सरस्वती से हुई। स का उच्चारण ह होने पर सरस्वती हरह्वती हो जाती है। जो बोलने के लिहाज से हरवती और बाद में हरौती और फिर हाड़ौती हो जाता है। आर्य वंशज जब उत्तरी हमलों के दबाव से पंजाब से दक्षिण में खिसकने लगे तो मार्ग में राजस्थान का रेगिस्तान पड़ा और उस के बाद यह हाडौती अंचल। यहाँ उन्हें पारियात्र पर्वत से निकली चर्मणवती, सिंध, परवन, पारवती (देवी) और उन की सहायक नदियाँ दिखाई दीं, पर्वत और मैदान दोनों का समिश्रण देखने को मिला और उन्हों ने इसे सरस्वती का अंचल मान कर इसे उसी के नाम पर हाडौ़ती नाम दिया। हाडौती शब्द की उत्पत्ति का यह स्वरूप कितना सही है, मैं नहीं जानता, किन्तु तर्क संगत प्रतीत होता है। इस संबंध में शब्दों के यात्री अजित वडनेरकर या अन्य विद्वान अधिक प्रकाश डाल सकते हैं। 

    पिछले सोमवार से वर्षा ने इस हाडौ़ती अंचल में प्रवेश किया। बुध से शुक्र तक खूब मेघ खूब बरसे। अनेक वर्षों बाद आषाढ़ मास के पूर्वार्ध में इतनी वर्षा हुई कि सभी नदियाँ किनारों से ऊपर बहने लगीं। सारे प्रकृति हरिया गई। फिर वर्षा ने कुछ अवकाश लिया, पर मौसम अभी शीतल और नम बना हुआ है। मेघों ने सूर्य को ढका हुआ है। मंद मंद शीतल पवन बहती रहती है। आज सुबह मैं अदालत के लिए निकला तो मार्ग में दोनो और के सारे वृक्ष हरिया गए थे। पिछले सोमवार से पहले दिखाई देने वाला पीला रंग कनेर के पुष्पों और अमलतास के बचे खुचे पुष्पगुच्छों तक सीमित हो चुका था। प्रथम वर्षा कितनी जीवनदायिनी हो सकती है हरियाई प्रकृति से पता लगता है। लोग शनि-रवि को लोग नगर त्याग कर आस-पास बह निकली जलधाराओं के किनारे जा पहुँचे। वहीं उन्हों ने भोजन बना कर आमोद के साथ इस प्रकृति उत्सव का आरंभ कर डाला। यह प्रकृति उत्सव अभी दो माह भादौं के उत्तरार्ध तक चलना है। इस बीच कुछ वृद्ध वृक्ष धराशाई हो गए, आषाढ़ के उत्तरार्ध से वर्षारंभ मानने से चल रहे विवाह समारोहों में बाधा पड़ी, बस पुलिया से नाले में खिसक गई और एक नई दुलहिन को नदी पार कराने को जो व्यवस्था करनी पड़ी आप इन चित्रों में देख सकते हैं -

    अचानक तेज वर्षा में यातायात

    वर्षा के थपेड़े से गिरा एक बुजुर्ग वृक्ष
    चालक ध्यान नहीं रख पाया बस का पहिया पुलिया से नीचे चला गया, बचे 60 यात्री

    हवा भरी ट्यूब, उस पर चारपाई, चारपाई पर नई ब्याही दुलहिन और उस के कपड़ों की गठरी को पार कराई गई नदी
     

    रविवार, 26 जून 2011

    न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन

    राजस्थान में गर्मी के मौसम में अप्रेल के तीसरे सप्ताह से जून के आखिरी सप्ताह तक उच्च न्यायालय व अधीनस्थ न्यायालयों का समय सुबह 7 बजे से 12 बजे तक का हो जाता है और जून के प्रथम से चौथे सप्ताह तक दीवानी न्यायालय में अवकाश हो जाता है। इस से यह सोचना कि कुछ न्यायालयों में ताला पड़ा रहता होगा गलत है। हमारे यहाँ ऐसा कोई न्यायालय है ही नहीं जो केवल दीवानी न्यायालय का काम देखता हो। सभी न्यायालयों को दीवानी और अपराधिक दोनों प्रकार का काम करना होता है। जैसे कनिष्ठ खंड सिविल न्यायाधीश के न्यायालय को प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ भी होती हैं। इस तरह अपराधिक मुकदमों की सुनवाई इन अवकाशों में होती रहती है। इस के अतिरिक्त सभी दीवानी काम करने वाले विशेष न्यायालय जैसे मोटरवाहन दुर्घटना दावा अधिकरण, श्रम न्यायालय, परिवार न्यायालय और सभी राजस्व न्यायालय चलते रहते हैं। वकीलों को नित्य ही अदालत जाना पड़ता है। 

    लेकिन मेरे जैसे वकीलों को जिन के पास प्रमुखतः दीवानी मुकदमों का काम होता है, एक विश्राम मिल जाता है। हम चाहें तो इन दिनों बेफिक्र हो कर यात्रा पर जा सकते हैं। क्यों कि अवकाश होने से बाहर जाने वाले वकीलों को न्यायालय सहयोग करता है। अधीनस्थ भारतीय न्यायालयों के लिए इस तरह का सहयोग करना आसान है। उन की दैनिक सूची में 80 से सौ सवा सौ तक मुकदमे प्रतिदिन रहते हैं। वास्तविक काम सिर्फ 20-30 मुकदमों में हो पाता है। शेष मुकदमों में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। सुबह सुबह ही पेशकार को पता लग जाता है कि कौन कौन वकील आज नहीं है, वह उन के मुकदमों की पत्रावलियाँ अलग निकाल लेता है और न्यायाधीश की सहमति ले कर उन में अगली पेशी दे देता है।

    ब सुबह की अदालतें और दीवानी अदालतों के अवकाश समाप्त होने को हैं। अगले बुध से न्यायालय सुबह 10 से 5 बजे तक के हो जाएंगे और दीवानी अदालतें भी आरंभ हो जाएंगी। मैं ने आज ही अपने कार्यालय को संभाला। अवकाश के दिनों में जिस तरह मैं काम करता रहा उस तरह से बहुत सी पत्रावलियाँ सही स्थान पर नहीं थीं। उन्हें सही किया और कामों की सूची बना ली। आम तौर पर वकीलों को इस काम के लिए बदनाम किया जाता है कि वे मुकदमों में पेशियों पर पेशियाँ ले कर मुकदमों को लंबा करते रहते हैं और यह मुकदमों में देरी का सब से बड़ा कारण है। लेकिन ऐसा नहीं है। मुकदमे तो इसलिए लंबे होते हैं कि अदालतें कम हैं, वे क्षमता से तीन-चार गुना काम प्रतिदिन रखती हैं, जिन में से तीन चौथाई से दो तिहाई में तो उन्हें पेशी ही बदलनी होती है। इस का नतीजा यह है कि वकील की डायरी में भी प्रतिदिन उस की क्षमता से तीन-चार गुना काम होता है। यदि वह अपनी क्षमता के अनुसार ही काम रखे तो उस में से तीन चौथाई में केवल पेशी बदल दी जाए तो उस के पास दिन का चौथाई काम ही रह जाए। 
    स मामले में एक उदाहरण मेरे पास है। पिछले दो वर्ष से मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण में किसी मुकदमे में पेशी एक माह से अधिक की नहीं दी जाती थी। अदालत लगभग तीस मुकदमे ही अपने पास रखती थी और चाहती थी कि हर मुकदमे में काम हो। यह अदालत अक्सर दो से तीन वर्ष में मुकदमों का निर्णय कर भी रही थी। लेकिन फास्ट ट्रेक अदालतों के समाप्त होने से मोटरयान अधिनियम की एक सहायक अदालत समाप्त हो गई। उस में लंबित सारे मुकदमे इसी अदालत के पास आ गए। अब वहाँ प्रतिदिन 60-70 मुकदमों की सूची बनने लगी है। वही दो तिहाई मामलों में पेशी ही बदलती है। पेशी भी अब दो-तीन माह से कम की नहीं लगाई जा रही है। भारत की न्याय व्यवस्था में सुधार के लिए यह आवश्यक है कि यहाँ अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में तुरंत वृद्धि की जाए। फिलहाल अमरीका की तुलना में भारत में केवल 15 प्रतिशत न्यायालय हैं और ब्रिटेन की तुलना में 25 प्रतिशत। न्याय नहीं के बराबर हो तो एक न्यायपूर्ण समाज की कल्पना करना फिजूल है। जहाँ तक मेरा प्रश्न है मेरा प्रयत्न रहता है कि मेरे कारण किसी मुकदमे में पेशी न बदले। मेरी यह कोशिश जारी रहेगी।

    भारत सरकार के मंत्रीमंडल ने इसी माह 'न्यायदान और विधिक सुधारों के लिए राष्ट्रीय मिशन' (“National Mission for Justice Delivery and Legal Reforms) का कार्यक्रम हाथ में लेना तय किया है जिस में पाँच वर्षों में 5510 करोड़ रुपयों का खर्च आएगा। इसमें से 75 प्रतिशत का वहन केन्द्र करेगा और शेष का संबंधित राज्य। पूर्वोत्तर राज्यों के मामलों में केन्द्र 90 प्रतिशत खर्च उठाएगा। इस योजना के अंतर्गत नीतिगत और विधि संबंधी परिवर्तन, प्रक्रिया में परिवर्तन, मानव संसाधन विकास, सूचना तकनीक का उपयोग और अधीनस्थ न्यायालयों के भौतिक मूलढांचे का विकास सम्मिलित होंगे। कहा यह गया है कि वर्तमान में मुकदमों के निस्तारण में औसतन 15 वर्ष का समय लगता है इसे 3 वर्ष तक ले आया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो न्याय व्यवस्था में तेजी से सुधार देखने को मिलेंगे। लेकिन बिना अधीनस्थ न्यायालयों की संख्या में वृद्धि किए यह असंभव है जिस के लिए कुछ भी स्पष्ट रूप से इस कार्यक्रम में नहीं कहा गया है।