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शुक्रवार, 7 मई 2010

"मनुष्य का विकास" - यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का द्वितीय सर्ग

अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के प्रथम सर्ग धरती माता का पूर्वार्ध और उत्तरार्ध पढ़ चुके हैं। इन दोनों कड़ियों को ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग बदलने के साथ ही यादवचंद्र जी काव्य का रूप भी बदल देते हैं। यह इस के दूसरे सर्ग को पढ़ते हुए आप स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का दूसरा सर्ग "मनुष्य का विकास" प्रस्तुत है .........


परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र * 

द्वितीय सर्ग
मनुष्य का विकास
रूढ़ियों की रीढ़ पर 
देता मजूरा चोट-
 धरती काँपती
आकाश डगमग

जब हुआ विस्फोट-
पलटा तम का, 
ज्वाल से निर्मित चरण
आगे बढ़े
ऊषा लजाई
आग से पा ताप
कलियाँ मुस्कुराईँ
खुल गईँ 
प्यासी भुजाएँ
वासना के स्लथ नयन
ऊपर उठे
पर, झुक गए
यह गरल का उन्माद
करिश्मे नए।

यह अति नवीन प्रयोग-
चिर झूठी सुधा है
गरल, गति, भूडोल है
भीषण क्षुधा है।

पूर्णता या चाँदनी या शान्ति ? -
मस्तिष्क का प्रमाद
सुधा की भ्रान्ति।

जब फूटा गगन में
रश्मियों का ढ़ेर
जागा कन्दरा में 
एक भूखा शेर-

मांसल-पुष्ट-गर्वीली भुजाएँ
नत ललाट
और कुछ उभरी शिराएँ
देखता है 
क्रुद्ध वह मुड़ कर दिशाएँ
किधर, कैसे, किस तरह 
आगे बढ़ें
कुछ छीन लाएँ
फाड़ दामन सृष्टि के 
वह सोचता है 
किस तरह 
इस पेट की ज्वाला बुझाएँ। 

जीवन दीप की शत् शत् शिखाएँ
जल उठीं । दिनकर बढ़े 
ज्वाला बढ़ी, बलधर कढ़े
यह भूख का विद्रोह

भागा सूर्य, धरती, सोम
लो भूचाल-फूटा व्योम,
सूकर देव ! वाराहावतार !
रोक लो तुम 
विश्व मैं ले भागता
मैं स्वयं बन अवतार
अब हूँ योग अपना साधता
तब,
गिर गया दिनमान
फिरते जंगलों में श्वान
उस को मिल गए दो-एक
पौरुष का यही अभिमान
उस का जागता बन कर
वेद, सांख्य, पुराण।

बन्दर झाड़ियों का 
तोड़ता पत्थर
पहुँचता ताम्र के ले खड्ग
लोहे के बने पथ पर
जमाने के 
विकुण्ठित मुण्ड ले कर 
खून से लथ-पथ
भयावह मानवीय स्वरूप 
बन कर-
राम, कृष्ण, सीता
(व्यक्ति पूजा 
 सर्वोहँ)
रामायण, गीता
मुहम्मद, बुद्ध के 
त्रिपिटक, क़ुरान ?
प्रायश्चित कर्मों के गान

तो वर्ग का संघर्ष
करता आ रहा विस्फोट
औ, रूढ़ियों की रीढ़ पर
देता मजूरा चोट। 

विकासोन्मुख, क्षुधित, बेकल 
चलाती भावनाएँ हैं 
जगत को प्रतिनिमिष, प्रतिपल
कि, जिसमें ताप का परिमाण
करता भिन्न रूप निर्माण
स्थिर चेतना औ प्राण
गति या तेज, पौरुष, ज्ञान
जग को दे गया आलोक
पल पल प्रगति-विद्युत नाम


प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'मनुष्य का विकास' नाम का द्वितीय सर्ग समाप्त

गुरुवार, 6 मई 2010

फ्रेडरिक ऐंगेल्स का कार्ल मार्क्स की समाधि पर दिया गया भाषण

14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सब से महान जीवित विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गई। उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौट कर आए, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शांति से सो गए हैं -परन्तु सदा के लिए। 
स मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमरीका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है। इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसे अनुभव करेंगे। जैसे की जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्हों ने इस सीधी-सादी सचाई का पता लगाया - जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढंकी हुई थी - कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म आदि में लगने से पूर्व मनुष्य जाति को खाना पीना, पहनना ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलतः किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की मात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, कानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म-संबंधी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सब की व्याख्या की जा सकती है, न कि इस से उल्टा, जैसा कि अब तक होता रहा है।
रन्तु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का पता लगाया जिस से उत्पादन की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूँजीवादी समाज दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक सारा अन्वेषण - चाहे वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो य़ा समाजवादी आलोचकों न, अन्ध विश्लेषण ही था। ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए पर्याप्त हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली है, जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परंतु जिस भी क्षेत्र में मार्क्स ने खोज की -और उन्हों ने बहुत से क्षेत्रों में खोज की और एक में भी सतही छानबीन कर के ही नहीं रह गए - उस में यहाँ तक कि गणित में भी, उन्हों ने स्वतंत्र खोजें कीं।  
से वैज्ञानिक थे वह। परंतु वैज्ञानिक का उन का रूप उन के समग्र व्यक्तित्व में अर्धांश भी न था। मार्क्स के लिए विज्ञान ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक सिद्धांतों में किसी नयी खोज से, जिस के व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असंभव हो, उन्हें कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उन की खोज से उद्योग-धन्धों और सामान्यतः ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिलुकुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था। उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए आविष्कारों के विकास-क्रम का और मरसेल देप्रे के हाल के आविष्कारों का मार्क्स बड़े गौर से अध्ययन कर रहे थे। 

मार्क्स सर्वोपरि क्रान्तिकारी थे। जीवन में उन का असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उस से पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आजाद करने में योग देना था, जिसे सब से पहले उन्हों ने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उस का उद्धार हो सकता है। संघर्ष करना उन का सहज गुण था। और उन्हों ने ऐसे जोश, ऐसी लगन और ऐसी सफलता के साथ संघर्ष किया जिस का मुकाबला नहीं है। प्रथम राइनिश जाइटुंग (1842) में, पेरिस के वॉरवार्टस् (1844) में देत्शे ब्रूसेलर जाइटुंग (1847) में, न्यू राइनिश जाइटुंग (1848-49) में, न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून (1852-1861) में उन का काम, उस के अलावा अनेक जोशीली पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रुसेल्स और लन्दन के संगठनों में काम और अन्ततः उनकी चरम उपलब्धि महान अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना - यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, यदि उस ने और कुछ भी न किया होता, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था। 
न सब के फलस्वरूप मार्क्स अपने युग के सब से अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हे अपने राज्यों से निकाला। पूंजीपति चाहे वे रूढ़िवादी हों चाहे घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने मं एक दूसरे से होड़ करते थे। मार्क्स इस सब को यूँ झटकार कर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उस की ओर ध्यान न देते थे, आवश्यकता से बाध्य हो कर ही उत्तर देते थे। और अब वह इस संसार में नहीं हैं। साइबेरिया की खानों से ले कर केलिफोर्निया तक, यूरोप और अमरीका के सभी भागों में उस के लाखों क्रांतिकारी मजदूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उन के प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उन के निधन पर आँसू बहा रहे हैं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि चाहे उन के विरोधी बहुत रहे हों, परन्तु उनका कोई व्यक्तिगत शत्रु शायद ही रहा हो। 
न का नाम युगों-युगों तक अमर रहेगा, वैसे ही उन का काम भी अमर रहेगा!

यह भाषण कार्ल मार्क्स के अभिन्न साथी फ्रेडरिक ऐंगेल्स द्वारा हाईगेट क़ब्रिस्तान, लंदन में, 17 मार्च 1883 को अंग्रेजी में दिया गया था।

बुधवार, 5 मई 2010

मात्रात्मक परिवर्तन हो रहे हैं तो गुणात्मक भी होंगे

बेटी नौकरी करने के साथ अपना सारा काम खुद करती है। आवास की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, उन पर इस्त्री करना आदि आदि जो भी घर के काम हैं। उसे सफाई के लिए एक हेंडी वैक्यूम क्लीनर चाहिए था। मुझे पता नहीं था कहाँ मिलेगा। हम दोनों कल शाम बाजार निकले। कुछ जगह पूछताछ की। कार पहली बार उस गली से निकली थी। जिस में म्युजिक कैसेट बेचने वाले सरदार चरण सिंह की दुकान थी। मैं भी बहुत दिनों में उस तरफ आया था। मेरी इच्छा हुई कि मैं चरण सिंह से बात करूँ। वह दु्कान पर ही बैठा था, बिलकुल अकेला। मैं ने कार पार्क की औऱ उस की दुकान की तरफ बढ़ चला। 
कोई अठारह साल पहले मैं अदालत से घऱ लौटते समय अक्सर उस की दुकान पर चला जाया करता था। कुछ देर गप्पें होती थीं। नए कैसेट देखे जाते थे और कुछ खरीद भी लाता था। धीरे धीरे एक दोस्ती जैसा संबंध बन चला था। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैं व्यस्त हो गया। कैसेटों से अलमारी भऱ गई। और सब से बड़ी बात कि कंप्यूटर घऱ में आ गया। संगीत की जरूरत वह पूरी करने लगा। मेरा उस दुकान पर आना जाना कम होते होते बंद हो गया। लेकिन एक दूसरे के बारे में जानने की इच्छा बनी रही। चरण सिंह ने देखते ही पहचान लिया। बोलने लगा बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? उस की दुकान बहुत बड़ी थी। उस के खुद के मकान के नीचे बनी हुई। उस ने आधा ग्राउंड फ्लोर घेरा हुआ था। अब दुकान में कैसेट कम और सीडी-डीवीडी अधिक नजर आ रही थीं। वह अब भी शायद शहर का सब से बड़ा म्यूजिक स्टोर है। एक जमाना था जब  पूरा शहर ही नहीं अपितु तीन जिलों के दुकानदार उस से बेचने के लिए माल खरीदने आते थे।  लेकिन कल वह उदास लगा। दिन के जिस वक्त मैं वहाँ पहुँचा था उस समय तो वहाँ बहुत भीड़ होनी चाहिए थी। लेकिन एक भी ग्राहक वहाँ नहीं था। मुझे यह सब बहुत अजीब लगा।
मैं ने चरण सिंह से पूछा -काम-धाम कैसा चल रहा है? कहने लगा -बस चल रहा है। अब कैसेट का बाजार नहीं रहा। सीडी-डीवीडी का प्रचलन भी कम हो चला है। पेन ड्राइव चल रहे हैं। कारों में भी वही लगे हैं। बस घर और धंधे के खर्चे निकाल लेते हैं। वक्त और बदलती तकनीक ने उस के धंधे के प्राण निचोड़ लिए थे। वरना एक जमाना था जब इसी कैसेट के धंधे ने गुलशन कुमार को जूस वाले से करोड़पति बना दिया था। मैं ने उस के बच्चों के बारे में पूछा तो बताया कि एक लड़के ने इस बार आईआईटी के लिए प्रवेश परीक्षा दी है, दूसरा बीकॉम कर रहा है और सीए बनना चाहता है। फिर कहने लगा - वकील साहब अब धंधों में कुछ नहीं रखा। इस से अच्छी तो नौकरी है। कम से कम यह तो निश्चिंतता रहती है कि महिने आखिर में तनख्वाह मिल जाती है। बस जब तक अपन हैं तब तक ये धंधा है। बच्चे ये सब नहीं करने वाले। वैसे भी अब नंबर एक के धंधे में बरकत नहीं रही। करो तो उसी धंधे में नंबर दो वाले उसे पीट देते हैं। हम उन से कंपीटीशन नहीं कर सकते। जो भी धंधा चल रहा है वह बड़ी पूंजी का चल रहा है। आम दुकानदार तो बस अपनी और नौकरों की मजदूरी निकाल रहा है और कुछ नहीं। 
मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ कि एक समय के सफल व्यवसायी की संताने अपने लिए नौकरी करने का मार्ग तलाश रही थी। यह आज आम बात हो गई है। छोटा व्यवसायी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह लगातार उजरती मजदूर में बदलता जा रहा है। उजरती मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। श्रम जीवी बढ़ रहे हैं। जो दुकानदार है वह भी यदि टैक्स चुंगी आदि नहीं चुराता तो उतना ही कमा रहा है जितना मजदूरी कर के कमाता। छोटा उद्योगपति नष्ट हो रहा है। लेकिन बड़े उद्योगपति पनप रहे हैं। उन की पूंजी लगातार बढ़ती जा रही है। मैं महसूस करता हूँ कि जिस गति से उजरती मजदूर बढ़ रहा है उसी गति से व्यवस्था अपना ओज खोती जा रही है। 
हुत दिनों के बाद चरण सिंह की दुकान पर गया था। बिना कुछ लिए कैसे निकलता।  दिन में कार के डेशबोर्ड पर एक कैसेट छूट गई थी। दिन में धूप से बंद कार की हवा का ताप इतना बढ़ा कि वह पिघल कर दोहरी हो गई। बेटी ने अपने पसंद की दो कैसेट खरीदी, मेरी कार के लिए। हम वहाँ से चल दिए। दो एक दुकानें देखने पर हेंडी वैक्यूम क्लीनर मिल ही गया। घर आ कर भोजन किया। आधी रात को बेटी की ट्रेन थी। उसे छोड़ कर रेल्वे स्टेशन के बाहर आया तो बूंदाबांदी हो चुकी थी। कुछ देर ठंडक महसूस हुई। फिर ऊमस बढ़ गई। बस एक माह की बात है फिर बरसात के आने की तैयारी शुरू हो जाएगी। मुझे लगा कि देश दुनिया में जो एक मात्रात्मक परिवर्तन हो रहा है वह जल्दी ही व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन के लक्षण बताने लगेगा।

मंगलवार, 4 मई 2010

मैं वकील, एक आधुनिक उजरती मजदूर, अर्थात सर्वहारा ही हूँ।

पिछले आलेख में मैं ने एक कोशिश की थी कि मैं आम मजदूर और सर्वहारा में जो तात्विक भेद है उसे सब के सामने रख सकूँ। एक बार मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
ह परिभाषा अपने आप में बहुत स्पष्ट है। सब से पहले इस में आधुनिक शब्द का प्रयोग हुआ है। मजदूर तो सामंती समाज में भी हुआ करता था। बहुधा वह बंधक होता था। एक बंधुआ मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होता। वह एक ही स्वामी से बंधा होता है। उस का पूरा दिन और रात अपने स्वामी के लिए होती है।  सर्वहारा के लिए जिस मजदूर का उल्लेख हुआ है वह इस मजदूर से भिन्न है। यह मजदूर तो है लेकिन अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र है। दूसरे यह मजदूर आधुनिकतम  तकनीक पर काम करता है उस के निरंतर संपर्क में है। यह उजरती मजदूर है, अर्थात अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। वह घंटों, दिनों के हिसाब से, अथवा काम के हिसाब से अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचता है।  इस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं हैं। जीवन यापन के लिए इस के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा और कोई अन्य बेहतर साधन नहीं है।  
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे  बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक  आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ।  मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है। 
स तरह हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है। यह दूसरी बात है कि इन में बहुत कम, केवल चंद लोग हैं जो अपनी इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार होंगे। लेकिन उस से क्या? जैसे जैसे वर्तमान व्यवस्था का संकट बढ़ता जाता है, उन्हें इस वास्तविकता का बोध होता जाता है, वे स्वीकारने लगते हैं कि वे आधुनिक उजरती मजदूर अर्थात सर्वहारा हैं।

रविवार, 2 मई 2010

यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा

ल एक मई, मजदूर दिवस था। हिन्दी ब्लाग जगत में बहुत आलेख इस विषय पर या मजदूरों से संबंधित विषयों पर पढ़ने को मिले। अखबारों और पत्रिकाओँ की यह रवायत बन गई है कि किसी खास दिवस पर उस से संबंधित आलेख लिखें जाएँ और प्रकाशित किए जाएँ।  टीवी चैनल भी उन का ही अनुसरण करते हैं और यही सब अब ब्लाग जगत में भी दिखाई दे रहा है। जैसे ही वह दिन निकल जाता है लोग उस विषय को विस्मृत कर देते हैं और फिर अगले खास दिन पर लिखने में जुट जाते हैं। इस दिवस पर लिखे गए अधिकांश आलेखों के साथ भी ऐसा ही था। सब जानते हैं कि मई दिवस क्यों मनाया जाता है। उसे दोहराने की आवश्यकता नहीं।
डेढ़ सदी से अधिक समय हो चला है उस दिन से जब 'कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र' जारी किया गया था जिसे पिछली सदी के महान दार्शनिकों कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स ने लिखा था। इस घोषणा पत्र में 'प्रोलेटेरियट' शब्द का प्रयोग किया गया था और उस का अर्थ स्पष्ट किया गया था, यह इस तरह था - 
By proletariat, the class of modern wage labourers who, having no means of production of their own, are reduced to selling their labour power in order to live. [Engels, 1888 English edition]
हिंदी में इसी प्रोलेटेरियट को सर्वहारा कहा गया। आज सर्वहारा शब्द को सब से विपन्न व्यक्ति का पर्याय मान लिया जाता है। जब कि मूल परिभाषा पर गौर किया जाए तो सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
हाँ जिस 'श्रमशक्ति' का तात्पर्य केवल मनुष्य की शारीरिक ताकत से ही नहीं है। काम के दौरान या शिक्षा के फलस्वरूप मनुष्य जो कुशलता प्राप्त करता है वह भी उसी श्रमशक्ति का एक हिस्सा है। इस तरह कोई व्यक्ति जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को मुद्रा या वस्तुओं के बदले बेचने को बाध्य है तो  वह सर्वहारा ही है, उस से अलग नहीं।
दि हम अब पुनः सर्वहारा की परिभाषा पर गौर करें तो पाएंगे कि बहुत से लोग इस दायरे में आते हैं। मसलन इंजिनियर, डाक्टर, वकील, तमाम वैज्ञानिक, प्रोफेशनल्स और दूसरी क्षमताओं वाले लोग जो कि किसी न किसी संस्थान के लिए काम करते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं वे सभी उजरती मजदूर यानी सर्वहारा हैं। दुनिया में जो कुछ भी मानव द्वारा निर्मित है उन के द्वारा निर्मित हैं संचालित है। बस एक चीज है जो उन के पास नहीं  है और वह यह कि  उस का इन दुनिया नियंत्रण नहीं है। क्यों कि जो कुछ वे उत्पादित करते हैं वह पूंजी की शक्ल में रूपांतरित किया जा कर किसी और के द्वारा अपने अधिकार में कर लिया जाता है और फिर वे लोग पूंजी में रूपांतरित श्रम की ताकत पर दुनिया के सारे व्यापारों को नियंत्रित करते हैं। वे लोग जो दुनिया के मनु्ष्य समुदाय का कठिनाई से दस प्रतिशत होंगे इस तरह शेष नब्बे प्रतिशत लोगों पर नियंत्रण बनाए हुए हैं। 
मस्या यहीं है, इस सर्वहारा के एक बड़े हिस्से को पूंजी पर आधिपत्य जमाए लोगों ने यह समझने पर बाध्य किया हुआ है कि वे वास्तव में सर्वहारा नहीं अपितु उस से कुछ श्रेष्ठ किस्म के लोग हैं,  वे श्रमजीवी नहीं, अपितु बुद्धिजीवी हैं, और चाहें तो वे भी कुछ पूंजी पर अपना अधिकार जमा कर या दुनिया के नियंत्रण में भागीदारी निभा सकते हैं। तथाकथित बुद्धिजीवियों के सामने यह जो चारा लटका हुआ है वे उस की चाह में उस की ओर दौड़ते हैं। उन्हें यह पता नहीं कि यह चारा खुद उन के सर पर ही बांधा हुआ है जो उन के दौड़ने के साथ ही लगातार आगे खिसकता रहता है। इस बात से अनजान यह तबका लगातार चारे की चाह में दौड़ता रहता है। चारा लटके रहने का यह भ्रम जब तक बना हुआ है तब तक दुनिया की यह विशाल सर्वहारा बिरादरी चंद लोगों द्वारा हाँकी जाती रहेगी। जिस दिन यह भ्रम टूटा उस दिन उसे नहीं हाँका जा सकता। वह खुद हँकने को तैयार नहीं होगी। 
म जानते हैं कि भ्रम हमेशा नहीं बने रहते, दुनिया के सभी भ्रम एक दिन टूटे हैं। यह भ्रम भी एक दिन टूटेगा।

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

दादा जी! जरा अपने पोते पोतियों के दोस्त तो बनें!

श्री  विष्णु बैरागी जी के ब्लाग एकोऽहम् पर कुछ दिन पहले एक पोस्ट थी  'वृद्धाश्रम: मकान या मानसिकता'। मैं ने इस पर टिप्पणी की थी "काका साहब बेटे बहू और पोते पोती के दोस्त क्यों नहीं बन जाते हैं? क्यों दादा ही बने रहना चाहते हैं? मेरे पिता जी के काका जी ने यही किया था। वे हमारे और पिताजी के दोस्त बन गए थे। कभी पूरी बात लिखूंगा। शायद जल्दी ही।" इस पोस्ट को पढ़ कर जो कुछ मेरे स्मरण में आया उसे ही आज दोहरा रहा हूँ।

वे मेरे सब से छोटे दादा जी थे। कुल पाँच में से मेरे दादा जी और उन के छोटे भाई एक से, दो एकसे, और एक एक से कुल मिला कर मेरे पाँचों दादा जी तीन दंपतियों की संतान थे। सब से छोटे दादा जी से मेरे दादा जी का संबंध तीन पीढ़ी पहले से था। पर दादा जी ने जिस तरह परिवार को एक रखा था हमें बहुत बाद में पता लगा कि पांचों दादा जी एक माता-पिता की संतान नहीं थे।  छोटे दादा जी ने जीवन में बहुत पापड़ बेले। वे पहले एक दादा जी के साथ कोटा में व्यवसाय में थे, फिर अपना बिजली का काम करने लगे। जिन दादा जी के साथ वे थे वे लापता हो गए। तो सब भाइयों ने मिल कर उन की तीन बेटियों के ब्याह किए। छोटे दादा जी के खुद दो ब्याह हुए, एक बेटी भी हुई। पत्नियाँ कम उम्र में उन का साथ छोड़ गईं। वे अकेले रह गए तो कोटा छोड़ उज्जैन की एक कपड़ा मिल में नौकरी करने चले गए। बाद में वे बड़ी दादी को अपने साथ ले गए। छोटे दादा जी साल में एक-दो बार बारा आते हम बच्चों के लिए कुछ न कुछ ले कर आते। पिताजी और उन की खूब निभती थी। बारां में काका भतीजे दोनों चौबीसों घंटे साथ रहते।  
 
ब मैं सात आठ वर्ष का था, पिता जी अम्माँ, मुझे और दो बहनों को ले कर उज्जैन गए। हम वहाँ कोई आठ-दस दिन रुके। रोज शाम दादा जी हमें टेकरी पर घुमाने ले जाते, कभी आइसक्रीम खिलाते कभी कुछ और। इस तरह पाँच दिन निकल गए। छठे दिन सुबह सुबह ही दादा जी मुझ से पूछने लगे -तुम्हें यहाँ आए कितने दिन हो गए? मैं ने बताया पाँच दिन। तो कहने लगे -तुम कैसे बेकार बच्चे हो? तुम्हें यहाँ उज्जैन आए पाँच दिन हो गए हैं और अभी तक तुमने सिनेमा देखने की जिद नहीं की? सिनेमा नहीं देखा तो नए जमाने को कैसे पहचानोगे? मुझे यह सब जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि वे हम से इस तरह बात कर सकते हैं। पिताजी तो सिनेमा के कट्टर विरोधी थे। हमारी कभी उन से सिनेमा जाने कहने की हिम्मत नहीं होती थी। जाते भी थे तो तब जब वे बाराँ में नहीं होते थे, वह भी छोटे काका के साथ। धीरे-धीरे हम समझ गए कि ये दादा जी हैं जिन से अपनी इच्छा खुल कर कही जा सकती है और बहुत सी बातें ऐसी भी की जा सकती हैं जो हम परिवार के किसी दूसरे बुजुर्ग के साथ नहीं कर सकते। 
 
कोई पाँच सात बरस बाद परिवार की एक शादी में हम जोधपुर में थे। बाजार में निकले छोटे दादा जी ने वहाँ की मावा कचौरी और मिर्ची बड़े खिलवाए। छोटी बहिन कहने लगी मुझे चप्पलें लेनी हैं। हम सभी चप्पल की दुकान पर पहुँचे। बहिन ने पिता जी की उपस्थिति में सादी सी चप्पलें पसंद कीं, जिन्हें छोटे दादा जी ने रिजेक्ट कर दिया। कहने लगे -ये भी कोई चप्पलें हैं? बिलकुल आउट ऑफ फैशन। जरा ऊंची ऐड़ी वाली कुछ तड़क भड़क वाली खरीदो तो सहेलियाँ बार बार पूछें कि कहाँ से लाई है? कितने की लाई है? छोटे दादा जी ने उसे जबरन नवीनतम फैशन की चप्पलें पहनाईं। छोटे दादाजी हम सभी बच्चों के मित्र थे। वे हमारे मन को पढ़ सकते थे। इस का नतीजा था कि हम सब बच्चे उन का हमेशा ख्याल रखा करते। उन्हें क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है? केवल हम ही नहीं  मेरी सब बुआएँ और उन के बच्चे उन के साथ रहना पसंद करते थे।  मैं समझता हूँ कि मेरे छोटे दादा जी की ही तरह तमाम बुजुर्ग चाहें तो अपने बच्चों और उन के बच्चों के मित्र बन सकते हैं।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

ठंडा ठंडा मटके का पानी गर्मी में प्यास बुझाए, तपत तड़पत तन-मन में फिर से प्राण बसाए!!

खबार में खबर है, कोटा के जानकीदेवी बजाज कन्या महाविद्यालय को एक वाटर कूलर भेंट किया गया। पढ़ते ही वाटर कूलर के पानी का स्वाद स्मरण हो आता है। पानी का सारा स्वाद गायब है। लगता है फ्रिज से बोतल निकाल कर दफत्तर की मेज पर रख दी गई है। बहुत ठंडी है लेकिन एक लीटर की बोतल पूरी खाली करने पर भी प्यास नहीं बुझती। मैं अंदर घर में जाता हूँ और मटके से एक गिलास पानी निकाल कर पीता हूँ। शरीर और मन दोनों की प्यास एक साथ बुझ जाती है।
धर होली के पहले और बाद में बाजार में निकलते ही मटकों की कतारें लगी नजर आने लगती हैं। शहर की कॉलोनियों में मटकों से लदे ठेले घूमने लगती हैं। गृहणी ठोक बजा कर चार मटके खरीद लेती है। मैं आपत्ति करता हूँ -चार एक साथ? तो वह कहती है पूरी गर्मी और बरसात निकालनी है इन में। सर्दी के बने मटके हैं पानी को ठंड़ा रखेंगे। दो मटके मैं उठा कर घर में लाता हूँ और दो गृहणी। घर में फ्रिज है उस में बोतलें रखी हैं, पानी ठंडा रखा है। पर शायद ही कभी उन का पानी पीने की नौबत आती हो। मटके का ठंडा पानी हरदम हाजिर है। वही प्यास बुझाता है, मन की भी। उस में मिट्टी का स्वाद है, ऐसा स्वाद जिस के बिना मन की प्यास बुझती ही नहीं। 
र्मी आरंभ होती थी कि शहर में सड़क के किनारे प्याउएँ नजर आने लगती थीं। वे अब भी लगती हैं लेकिन पहले की अपेक्षा कम। बहुत सी समाज सेवी संस्थाओं ने उन के स्थान पर बिजली से चलने वाले वाटर कूलर फिट कर दिए हैं। कूलर के ऊपर पांच सौ/हजार लीटर की पानी की टंकी है जिस में पानी नलों से पहुँच जाता है। फिर वही पानी कूलर में आता रहता है। महीनों शायद ही उस टंकी और कूलर की स्टोरेज की सफाई होती हो। अदालत में भी पाँच सात कूलर लगे हैं। दो प्याऊ भी हैं,एक नगर निगम की और एक किसी समाजसेवी संस्था की। कूलर में पानी ठंडा है। लेकिन फिर भी उन प्याउओं पर दिन भर भीड़ लगी रहती है। वहाँ मटके का ठंडा पानी मिलता है। 

धर गर्मियाँ हों या सर्दियाँ हमेशा बिजली की कमी बनी रहती है। गर्मी में तो मांग से कम पड़ती है बिजली। सर्दी में बिजली की जरूरत सिंचाई के लिए किसानों को अधिक होती है। पावर कट आम बात है।  इस के बावजूद हमारी निगाह इस बात पर नहीं जाती कि मटका और सुराही पानी ठंडा करते हैं और बिना बिजली के। पानी पीने में स्वादिष्ट होता है। यदि हम पीने के पानी के ठंडा बनाने के लिए मटकों और सुराहियों का ही उपयोग करें तो कितनी ही हजार लाख यूनिट बिजली बचा सकते हैं। साथ ही मटका -सुराही निर्माण में जुटे लोगों को साल भर रोजगार देते रह सकते हैं।