बेटी नौकरी करने के साथ अपना सारा काम खुद करती है। आवास की सफाई, खाना बनाना, कपड़े धोना, उन पर इस्त्री करना आदि आदि जो भी घर के काम हैं। उसे सफाई के लिए एक हेंडी वैक्यूम क्लीनर चाहिए था। मुझे पता नहीं था कहाँ मिलेगा। हम दोनों कल शाम बाजार निकले। कुछ जगह पूछताछ की। कार पहली बार उस गली से निकली थी। जिस में म्युजिक कैसेट बेचने वाले सरदार चरण सिंह की दुकान थी। मैं भी बहुत दिनों में उस तरफ आया था। मेरी इच्छा हुई कि मैं चरण सिंह से बात करूँ। वह दु्कान पर ही बैठा था, बिलकुल अकेला। मैं ने कार पार्क की औऱ उस की दुकान की तरफ बढ़ चला।
कोई अठारह साल पहले मैं अदालत से घऱ लौटते समय अक्सर उस की दुकान पर चला जाया करता था। कुछ देर गप्पें होती थीं। नए कैसेट देखे जाते थे और कुछ खरीद भी लाता था। धीरे धीरे एक दोस्ती जैसा संबंध बन चला था। फिर कुछ ऐसा हुआ कि मैं व्यस्त हो गया। कैसेटों से अलमारी भऱ गई। और सब से बड़ी बात कि कंप्यूटर घऱ में आ गया। संगीत की जरूरत वह पूरी करने लगा। मेरा उस दुकान पर आना जाना कम होते होते बंद हो गया। लेकिन एक दूसरे के बारे में जानने की इच्छा बनी रही। चरण सिंह ने देखते ही पहचान लिया। बोलने लगा बहुत दिनों बाद दिखाई दिए? उस की दुकान बहुत बड़ी थी। उस के खुद के मकान के नीचे बनी हुई। उस ने आधा ग्राउंड फ्लोर घेरा हुआ था। अब दुकान में कैसेट कम और सीडी-डीवीडी अधिक नजर आ रही थीं। वह अब भी शायद शहर का सब से बड़ा म्यूजिक स्टोर है। एक जमाना था जब पूरा शहर ही नहीं अपितु तीन जिलों के दुकानदार उस से बेचने के लिए माल खरीदने आते थे। लेकिन कल वह उदास लगा। दिन के जिस वक्त मैं वहाँ पहुँचा था उस समय तो वहाँ बहुत भीड़ होनी चाहिए थी। लेकिन एक भी ग्राहक वहाँ नहीं था। मुझे यह सब बहुत अजीब लगा।
मैं ने चरण सिंह से पूछा -काम-धाम कैसा चल रहा है? कहने लगा -बस चल रहा है। अब कैसेट का बाजार नहीं रहा। सीडी-डीवीडी का प्रचलन भी कम हो चला है। पेन ड्राइव चल रहे हैं। कारों में भी वही लगे हैं। बस घर और धंधे के खर्चे निकाल लेते हैं। वक्त और बदलती तकनीक ने उस के धंधे के प्राण निचोड़ लिए थे। वरना एक जमाना था जब इसी कैसेट के धंधे ने गुलशन कुमार को जूस वाले से करोड़पति बना दिया था। मैं ने उस के बच्चों के बारे में पूछा तो बताया कि एक लड़के ने इस बार आईआईटी के लिए प्रवेश परीक्षा दी है, दूसरा बीकॉम कर रहा है और सीए बनना चाहता है। फिर कहने लगा - वकील साहब अब धंधों में कुछ नहीं रखा। इस से अच्छी तो नौकरी है। कम से कम यह तो निश्चिंतता रहती है कि महिने आखिर में तनख्वाह मिल जाती है। बस जब तक अपन हैं तब तक ये धंधा है। बच्चे ये सब नहीं करने वाले। वैसे भी अब नंबर एक के धंधे में बरकत नहीं रही। करो तो उसी धंधे में नंबर दो वाले उसे पीट देते हैं। हम उन से कंपीटीशन नहीं कर सकते। जो भी धंधा चल रहा है वह बड़ी पूंजी का चल रहा है। आम दुकानदार तो बस अपनी और नौकरों की मजदूरी निकाल रहा है और कुछ नहीं।
मुझे बिलकुल आश्चर्य नहीं हुआ कि एक समय के सफल व्यवसायी की संताने अपने लिए नौकरी करने का मार्ग तलाश रही थी। यह आज आम बात हो गई है। छोटा व्यवसायी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहा है। वह लगातार उजरती मजदूर में बदलता जा रहा है। उजरती मजदूरों की संख्या बढ़ रही है। श्रम जीवी बढ़ रहे हैं। जो दुकानदार है वह भी यदि टैक्स चुंगी आदि नहीं चुराता तो उतना ही कमा रहा है जितना मजदूरी कर के कमाता। छोटा उद्योगपति नष्ट हो रहा है। लेकिन बड़े उद्योगपति पनप रहे हैं। उन की पूंजी लगातार बढ़ती जा रही है। मैं महसूस करता हूँ कि जिस गति से उजरती मजदूर बढ़ रहा है उसी गति से व्यवस्था अपना ओज खोती जा रही है।
बहुत दिनों के बाद चरण सिंह की दुकान पर गया था। बिना कुछ लिए कैसे निकलता। दिन में कार के डेशबोर्ड पर एक कैसेट छूट गई थी। दिन में धूप से बंद कार की हवा का ताप इतना बढ़ा कि वह पिघल कर दोहरी हो गई। बेटी ने अपने पसंद की दो कैसेट खरीदी, मेरी कार के लिए। हम वहाँ से चल दिए। दो एक दुकानें देखने पर हेंडी वैक्यूम क्लीनर मिल ही गया। घर आ कर भोजन किया। आधी रात को बेटी की ट्रेन थी। उसे छोड़ कर रेल्वे स्टेशन के बाहर आया तो बूंदाबांदी हो चुकी थी। कुछ देर ठंडक महसूस हुई। फिर ऊमस बढ़ गई। बस एक माह की बात है फिर बरसात के आने की तैयारी शुरू हो जाएगी। मुझे लगा कि देश दुनिया में जो एक मात्रात्मक परिवर्तन हो रहा है वह जल्दी ही व्यवस्था में गुणात्मक परिवर्तन के लक्षण बताने लगेगा।