पिछले आलेख में मैं ने एक कोशिश की थी कि मैं आम मजदूर और सर्वहारा में जो तात्विक भेद है उसे सब के सामने रख सकूँ। एक बार मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि सर्वहारा का तात्पर्य उस 'आधुनिक उजरती मजदूर से है जिस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं होते और जो जीवन यापन के लिए अपनी श्रमशक्ति को बेचने के लिए मजबूर है"।
यह परिभाषा अपने आप में बहुत स्पष्ट है। सब से पहले इस में आधुनिक शब्द का प्रयोग हुआ है। मजदूर तो सामंती समाज में भी हुआ करता था। बहुधा वह बंधक होता था। एक बंधुआ मजदूर अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र नहीं होता। वह एक ही स्वामी से बंधा होता है। उस का पूरा दिन और रात अपने स्वामी के लिए होती है। सर्वहारा के लिए जिस मजदूर का उल्लेख हुआ है वह इस मजदूर से भिन्न है। यह मजदूर तो है लेकिन अपनी श्रम शक्ति को बेचने के लिए स्वतंत्र है। दूसरे यह मजदूर आधुनिकतम तकनीक पर काम करता है उस के निरंतर संपर्क में है। यह उजरती मजदूर है, अर्थात अपनी श्रम शक्ति को बेचता है। वह घंटों, दिनों के हिसाब से, अथवा काम के हिसाब से अपनी श्रम शक्ति को बाजार में बेचता है। इस के पास उत्पादन के अपने साधन नहीं हैं। जीवन यापन के लिए इस के पास अपनी श्रम शक्ति को बेचने के अलावा और कोई अन्य बेहतर साधन नहीं है।
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ। मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है।
मैं स्वयं अपना उदाहरण देना चाहूँगा। मैं एक वकील हूँ और किसी का कर्मचारी नहीं हूँ। अपनी मर्जी का स्वयं मालिक भी हूँ। लेकिन उस के बावजूद मैं एक उजरती मजदूर ही हूँ। रोज अपने दफ्तर में बैठता हूँ और समय से अदालत पहुँच जाता हूँ। ये दोनों स्थान मेरे लिए अपने श्रम को बेचने के बाजार हैं। किसी भी व्यक्ति को जब मेरे श्रम की आवश्यकता होती है तो वह मेरे पास आता है और सब से पहले यह देखता है कि मेरा श्रम उस के लिए उपयोगी हो सकता है अथवा नहीं। जब वह पाता है कि मेरा श्रम उसके उपयोगी हो सकता है तो वह मुझे बताता है कि मुझ से वह क्या काम लेना चाहता है। मैं उस काम का हिसाब और उस में लगने वाले श्रम का मूल्यांकन करता हूँ। वह मुझ से उस काम में लगने वाले श्रम का मूल्य पूछता है। मैं उसे बताता हूँ तो वह फिर मोल-भाव करता है। यदि मुझे उस समय अपने श्रम को बेचने की अधिक आवश्यकता होती है तो मुझे अपना भाव कम करना होता है यदि परिस्थिति इस के विपरीत हुई, खऱीददार को मेरे श्रम की अधिक आवश्यकता हुई और मुझे अपने श्रम को बेचने की आवश्यकता कम तो मेरे श्रम के मूल्य में वृद्धि हो जाती है। इस तरह कुल मिला कर मैं एक आधुनिक उजरती मजदूर ही हूँ। मेरे पास आय का अर्थात जीवन यापन का कोई अन्य साधन नहीं है । इस तरह मैं एक सर्वहारा हूँ। मेरे प्रोफेशन में बहुत लोग ऐसे भी हैं जिन के पास जीवन यापन के अन्य साधन भी हैं। अनेक तो ऐसे भी हैं जिन के जीवन यापन के प्रधान साधन कुछ और हैं, वकालत का प्रोफेशन नहीं। निश्चित रूप से ऐसे लोग सर्वहारा नहीं हैं। लेकिन आज स्थिति यह है कि वकालत के प्रोफेशन में 60-70 प्रतिशत लोग वही हैं जिन के जीवन यापन का एक मात्र जरिया वकालत ही है और निश्चित रूप से वे सर्वहारा हैं। यही स्थिति डाक्टरों की है। इंजिनियरों में तो सर्वहाराओं की संख्या और भी अधिक है।
इस तरह हम पाते हैं कि पूंजीवाद ने चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और इंजिनियरों को भी आधुनिक उजरती मजदूरों में परिवर्तित कर दिया है। यह दूसरी बात है कि इन में बहुत कम, केवल चंद लोग हैं जो अपनी इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार होंगे। लेकिन उस से क्या? जैसे जैसे वर्तमान व्यवस्था का संकट बढ़ता जाता है, उन्हें इस वास्तविकता का बोध होता जाता है, वे स्वीकारने लगते हैं कि वे आधुनिक उजरती मजदूर अर्थात सर्वहारा हैं।