14 मार्च को तीसरे पहर, पौने तीन बजे, संसार के सब से महान जीवित विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गई। उन्हें मुश्किल से दो मिनट के लिए अकेला छोड़ा गया होगा, लेकिन जब हम लोग लौट कर आए, हमने देखा कि वह आरामकुर्सी पर शांति से सो गए हैं -परन्तु सदा के लिए।
इस मनुष्य की मृत्यु से यूरोप और अमरीका के जुझारू सर्वहारा वर्ग की और ऐतिहासिक विज्ञान की अपार क्षति हुई है। इस ओजस्वी आत्मा के महाप्रयाण से जो अभाव पैदा हो गया है, लोग शीघ्र ही उसे अनुभव करेंगे। जैसे की जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्हों ने इस सीधी-सादी सचाई का पता लगाया - जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढंकी हुई थी - कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म आदि में लगने से पूर्व मनुष्य जाति को खाना पीना, पहनना ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलतः किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की मात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, कानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म-संबंधी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सब की व्याख्या की जा सकती है, न कि इस से उल्टा, जैसा कि अब तक होता रहा है।
परन्तु इतना ही नहीं, मार्क्स ने गति के उस विशेष नियम का पता लगाया जिस से उत्पादन की वर्तमान पूंजीवादी प्रणाली और इस प्रणाली से उत्पन्न पूँजीवादी समाज दोनों ही नियंत्रित हैं। अतिरिक्त मूल्य के आविष्कार से एकबारगी उस समस्या पर प्रकाश पड़ा, जिसे हल करने की कोशिश में किया गया अब तक सारा अन्वेषण - चाहे वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने किया हो य़ा समाजवादी आलोचकों न, अन्ध विश्लेषण ही था। ऐसे दो आविष्कार एक जीवन के लिए पर्याप्त हैं। वह मनुष्य भाग्यशाली है, जिसे इस तरह का एक भी आविष्कार करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। परंतु जिस भी क्षेत्र में मार्क्स ने खोज की -और उन्हों ने बहुत से क्षेत्रों में खोज की और एक में भी सतही छानबीन कर के ही नहीं रह गए - उस में यहाँ तक कि गणित में भी, उन्हों ने स्वतंत्र खोजें कीं।
ऐसे वैज्ञानिक थे वह। परंतु वैज्ञानिक का उन का रूप उन के समग्र व्यक्तित्व में अर्धांश भी न था। मार्क्स के लिए विज्ञान ऐतिहासिक रूप से एक गतिशील, क्रांतिकारी शक्ति था। वैज्ञानिक सिद्धांतों में किसी नयी खोज से, जिस के व्यावहारिक प्रयोग का अनुमान लगाना अभी सर्वथा असंभव हो, उन्हें कितनी भी प्रसन्नता क्यों न हो, जब उन की खोज से उद्योग-धन्धों और सामान्यतः ऐतिहासिक विकास में कोई तात्कालिक क्रांतिकारी परिवर्तन होते दिखाई देते थे, तब उन्हें बिलुकुल ही दूसरे ढंग की प्रसन्नता का अनुभव होता था। उदाहरण के लिए बिजली के क्षेत्र में हुए आविष्कारों के विकास-क्रम का और मरसेल देप्रे के हाल के आविष्कारों का मार्क्स बड़े गौर से अध्ययन कर रहे थे।
मार्क्स सर्वोपरि क्रान्तिकारी थे। जीवन में उन का असली उद्देश्य किसी न किसी तरह पूँजीवादी समाज और उस से पैदा होने वाली राजकीय संस्थाओं के ध्वंस में योगदान करना था, आधुनिक सर्वहारा वर्ग को आजाद करने में योग देना था, जिसे सब से पहले उन्हों ने ही अपनी स्थिति और आवश्यकताओं के प्रति सचेत किया और बताया कि किन परिस्थितियों में उस का उद्धार हो सकता है। संघर्ष करना उन का सहज गुण था। और उन्हों ने ऐसे जोश, ऐसी लगन और ऐसी सफलता के साथ संघर्ष किया जिस का मुकाबला नहीं है। प्रथम राइनिश जाइटुंग (1842) में, पेरिस के वॉरवार्टस् (1844) में देत्शे ब्रूसेलर जाइटुंग (1847) में, न्यू राइनिश जाइटुंग (1848-49) में, न्यूयॉर्क डेली ट्रिब्यून (1852-1861) में उन का काम, उस के अलावा अनेक जोशीली पुस्तिकाओं की रचना, पेरिस, ब्रुसेल्स और लन्दन के संगठनों में काम और अन्ततः उनकी चरम उपलब्धि महान अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना - यह इतनी बड़ी उपलब्धि थी कि इस संगठन का संस्थापक, यदि उस ने और कुछ भी न किया होता, उस पर उचित ही गर्व कर सकता था।
इन सब के फलस्वरूप मार्क्स अपने युग के सब से अधिक विद्वेष तथा लांछना के शिकार बने। निरंकुशतावादी और जनतंत्रवादी, दोनों ही तरह की सरकारों ने उन्हे अपने राज्यों से निकाला। पूंजीपति चाहे वे रूढ़िवादी हों चाहे घोर जनवादी, मार्क्स को बदनाम करने मं एक दूसरे से होड़ करते थे। मार्क्स इस सब को यूँ झटकार कर अलग कर देते थे जैसे वह मकड़ी का जाला हो, उस की ओर ध्यान न देते थे, आवश्यकता से बाध्य हो कर ही उत्तर देते थे। और अब वह इस संसार में नहीं हैं। साइबेरिया की खानों से ले कर केलिफोर्निया तक, यूरोप और अमरीका के सभी भागों में उस के लाखों क्रांतिकारी मजदूर साथी जो उन्हें प्यार करते थे, उन के प्रति श्रद्धा रखते थे, आज उन के निधन पर आँसू बहा रहे हैं। मैं यहाँ तक कह सकता हूँ कि चाहे उन के विरोधी बहुत रहे हों, परन्तु उनका कोई व्यक्तिगत शत्रु शायद ही रहा हो।
यह भाषण कार्ल मार्क्स के अभिन्न साथी फ्रेडरिक ऐंगेल्स द्वारा हाईगेट क़ब्रिस्तान, लंदन में, 17 मार्च 1883 को अंग्रेजी में दिया गया था।