हाड़ौती से दो लोक सभा सदस्य चुने जाने हैं। एक झालावाड़ से और दूसरा कोटा से। झालावाड़ क्षेत्र में बारां जिला भी शामिल है। वहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के सुपुत्र भाजपा के उम्मीदवार हैं। इस क्षेत्र के लिए वे अब भी पराए हैं। उन्हें इसी लिए चुना गया था कि वे भाजपा की दिग्गज नेता और मुख्यमंत्री के पुत्र हैं और शायद क्षेत्र की तरक्की के कुछ काम आएँ। उन की तरक्की को जनता ने ऐसा परखा कि उन के क्षेत्र के आठ विधानसभा क्षेत्रों में से छह में कुछ माह पहले ही कांग्रेस के उम्मीदवारों को चुन कर भेजा। यदि मतदान का पैटर्न वही रहा तो भाजपा वहाँ हारी हुई है। उन के मुकाबले एक महिला उर्मिला जैन को काँग्रेस ने अपना उम्मीदवार बनाया है। ये अन्ता के विधायक प्रमोद भाया की धर्मपत्नी हैं और उन के सामाजिक कामों में उन के साथ कंधे से कंधा लगा कर चलती हैं। पहली बार राजनीति में उतर रही हैं। भाया जहाँ एक धनाड्य व्यापारी परिवार से आते हैं, उन्हों ने अपनी संपत्तियों में अपने बूते कई गुना इजाफा किया है और लगातार पिछले पन्द्रह वर्षों से सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। यही कारण है कि पिछली बार काँग्रेस से टिकट नहीं मिलने पर उन्हों ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और अपना दम दिखाते हुए विधायक बने, बाद में उन्हें काँग्रेस ने स्वीकार कर लिया। इस बार काँग्रेस से चुनाव लड़ा और जीता। अपने प्रभाव के कारण बाराँ जिले की चारों विधानसभा सीटें काँग्रेस को दिलवाईं। इस क्षेत्र पर काँग्रेस अध्यक्षा कुछ कृपालु दीख पड़ती हैं। तभी तो बाराँ जिले के आदिवासी क्षेत्र में जब तब खुद सोनिया और राहुल आते-जाते हैं और कभी कभी अचानक भी। यदि यह सीट भाजपा से छीन ली जाती है तो भाजपा को तो हानि होगी ही। वसुंधरा का अहं भी कई गुना पराजित हो चुका होगा।
कोटा क्षेत्र में बूंदी जिला भी आता है। यहाँ से भाजपा ने अपना नया उम्मीदवार श्याम शर्मा को घोषित किया है। इन शर्मा जी की खसूसियत यह है कि ये उम्मीदवारी मिलने तक भाजपा के सदस्य नहीं थे और राज्य सरकार के निर्माण विभाग में अफसरी कर रहे थे। अपने विभाग में उन की कोई उपलब्धि हो न हो पर उन्हों ने अपनी इंजिनियरिंग का कमाल बाहर बहुत दिखाया। किसी तरह भारत विकास परिषद में स्थान बना कर भाजपा की प्रान्तीय सरकार के अनुग्रह से एक बस्ती के बीच (जिस का एक निवासी मैं भी हूँ) भूमि आवंटित करवा कर उस पर एक औषधालय खोला। बिना किसी अनुमति के उस औषधालय को एक पाँच मंजिला अस्पताल में परिवर्तित कर दिया। जब वहाँ औषधालय बन रहा था तो बस्ती के लोग आशंकित थे कि उन की आवासीय शांति अब भंग होने वाली है। इस लिए इस औषधालय को बनने से रोका जाए। एक भले काम को रोकने के अभियान को रोकने में मेरी भी भूमिका रही। लेकिन कुछ समय बाद ही जब वह एक बड़े अस्पताल में तब्दील होने लगा और उस का कचरा और प्रदूषण बस्ती को प्रभावित करने लगा तो उन से बस्ती के लोगों को लड़ना पड़ा। वह लड़ाई अभी भी जारी है। जिस का केवल एक ही असर है कि बस्ती के पार्क की भूमि अस्पताल को नजर होने से बच गई। अस्पताल में चैरिटी और सरकारी अनुदानों का पैसा और मुफ्त सरकारी भूमि लगी है लेकिन अस्पताल पूरी तरह से एक निजि व्यावसायिक अस्पताल की तरह चल रहा है।लोग बताते हैं कि इस बीच इन उम्मीदवार की काली-गोरी संपत्ति में इजाफा हुआ है। इसे सच मानने के अलावा चारा भी नहीं क्यों कि बिना संपत्ति के जीतने के लिए चुनाव लड़ना संभव नहीं है। इन की एक मात्र राजनैतिक योग्यता यह है कि ये बरसों से रा.स्वं.सं के कार्यकर्ता रहे हैं और सामान्य कार्यकर्ताओं की तरह अपनी माली हालत को बचाए रखने के स्थान पर उच्चता के शिखर पर ले गए हैं जिस ने उनके राजनीति प्रवेश प्रशस्त किया है। उन के नाम की घोषणा के साथ ही भाजपा में विरोध के स्वर उठे कि जो व्यक्ति आज तक भाजपा का सदस्य नहीं है उसे टिकट दे दिया गया। आखिर लंबी कतार में सब से आगे वह व्यक्ति आ गया जो दूर दूर तक कतार में कभी नजर नहीं आया।
इस उदाहरण से यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि भाजपा में दोहरी सदस्यता है, यह दल रा.स्वं.सं और उस के पारिवारिक संगठनों के कार्यकर्तओं को भी अपना सदस्य ही मानती है। ऐसा भी विचार आता है कि मूल राजनैतिक दल तो रा.स्वं.सं ही है। भाजपा तो उस का प्रकटीकरण मात्र है। यह धारणा जनता में जाती है तो उस के लाभ और हानियाँ दोनो ही हैं। काँग्रेस अभी तक यह तय नहीं कर सकी है कि इस क्षेत्र से कौन उम्मीदवार होगा। यह तो सही है कि काँग्रेस किसी प्रभावशाली उम्मीदवार को सामने लाने में समर्थ हो सकी तो श्याम शर्मा की चुनौती कोई मायने नहीं रखती। देखिए चुनाव में होता क्या है?
रहा सवाल अपना, तो अपने राम इतना परिदृश्य देखने के बाद भी उदासीन ही हैं। राम जानते हैं, कोई जीते फर्क कुछ नहीं पड़ने का। इसी लिए भक्त तुलसीदास जी कह गए 'कोऊ नृप होऊ हमें का हानी'। अभी तक तो ऐसा ही चल रहा है। वे आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से और ये आएँगे तो भी जोड़ तोड़ से। कल कोई कह रहा था कि दोनों की रस्सियाँ दिनों दिन टूट टूट के छोटी हुई जा रही हैं बस इधर उधर से टुकड़े जोड़ जोड़ के काम चला रहे हैं। आगे गली में रस्सियों के बहुत से छोटे छोटे टुकड़े आपस में मिल कर फुसफुसा रहे थे। इन पुरानी रस्सियों के साथ जुड़ जुड़ कर मजा नहीं आ रहा, ऐसा न करें कि सारे छोटे टुकड़े मिल कर उन से लंबे हो जाएँ। बीच में एक बंदा बोल रहा था कि एक बड़ी रस्सी तो होनी चाहिए। इन बातों से भी हमारी उदासी नहीं टूट रही है। हम तो रस्सी नहीं रेशा हैं। यह भी पता नहीं कि उस उधड़ती-टूटती रस्सी से निकले हैं या फिर सीधे कपास-जूट के खेत से आ रहे हैं। हाँ, इतना जरूर जानते हैं कि रस्सी बनती रेशे से है और बहुत सारे रेशे मिल कर एक साथ घूमने लगें तो नई रस्सी बन जाती है।