@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 8 नवंबर 2008

शिवराम की कविताएँ 'बवंडर' और 'तौहीन'

दो दिन कोटा से बाहर हूँ, कम्प्यूटर और जाल हाथ लगे न लगे, कुछ  कह नहीं सकता। 
पहले से सूची-बद्ध की गई इस कड़ी में पढ़िए शिवराम की शिवराम की कविताएँ  'बवंडर' और 'तौहीन' ...
बवंडर
 यह बवंडर भी थमेगा एक दिन 
थम गई थीं जैसे सुनामी लहरें

आखिर यह बात 
आएगी ही समझ में 
कि- यह दुनियाँ 
ऐसे नहीं चलेगी
और यह भी कि 
कि- आखिर कैसे चलेगी 
यह दुनिया? 

ज्यादा दिन नहीं चलेगा 
यह बवंडर बाजारू
थमेगा एक दिन
 ... शिवराम
***** 
 
तौहीन 
सातवें आसमान के
पार जाना था तुम्हें
तुम उड़े ,
और ठूँठ पर जा कर बैठ गए

यह उड़ान की नहीं,
परों की तौहीन है
तुम्हारी नहीं, 
हमारी तौहीन है।  
... शिवराम 
*****

शुक्रवार, 7 नवंबर 2008

होमोसेपियन बराक और तकिए पर पैर

दो नवम्बर, 2008 ईस्वी को तकिए पर पैर रखे गए थे। पूरे पाँच दिन हो चुके हैं। बहुत हटाने की कोशिश की, पर मुए हट ही नहीं रहे। कल तो बड़े भाई टाइम खोटीकार जी का हुकुम भी आ गया।
डा. अमर कुमार said...अब तकिये पर से पैर हटा भी लो, पंडित जी ! अब कुछ आगे भी लिखो, अपनी मस्त लेखनी से.. !    6 November, 2008 11:18 AM
खैर पैर तो अब बराक हुसैन ओबामा के साथ तकिए पर जम चुके हैं, हटाए न  हटेंगे। पाँच बरस की हमारी गारंटी, और अमरीकी वोटरों की जमानती गारंटी है। इस  के बाद भी पाँच बरस की संभावना और है, कि जमे ही रहें। पर पैर तकिए पर जम ही जाएँ तो इस का मतलब यह तो नहीं कि बाकी शरीर भी काम करना बंद कर दे। इन्हें तो काम करना होगा और पहले से ज्यादा करना होगा। आखिर पैरों की तकिए पर मौजूदगी को सही साबित भी तो करना है।

पूरब,  पश्चिम और दक्षिण में पहुँचे गोरे बहुत बरस तक यह समझते रहे कि वे अविजित हैं, और सदा रहेंगे। अमरीकियों ने यह तो साबित कर दिया कि उन का ख़याल गलत था। देरी हुई, मगर इस देरी में उन की खाम-ख़याली की भूमिका कम और काले और पद्दलितों की इस सोच की कि गोरे लोग बने ही राज करने को हैं, अधिक थी। अब सब को समझ लेना चाहिए कि ये जो होमोसेपियन, है वह किसी भेद को बर्दाश्त नहीं करेगा, एक दिन सब को बराबर कर छोड़ेगा।

अमरीका तो अमरीका, दुनिया भर के लोग ओबामा की जीत से खुश हैं। लेकिन यह खुशी वैसी ही सुहानी है, जैसे दूर के डोल। सारी दुनिया में जो लोग होमोसेपियन्स में किसी भी तरह का भेद करते हैं। उन्हें होशियार हो जाना चाहिए कि एक दिन उन के खुद के यहाँ कोई  होमोसेपियन बराक हो जाएगा और अपने पैर तकिए पर जमा देगा।

याद आ रही है महेन्द्र 'नेह' की यह कविता .....

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं’
महेन्द्र नेह
हम सब जो तूफानों ने पाले हैं
हम सब जिन के हाथों में छाले हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

जब इस धरती पर प्यार उमड़ता है
हम चट्टानों का चुम्बन लेते हैं
सागर-मैदानों ज्वालामुखियों को
हम बाहों में भर लेते हैं।

हम अपने ताजे टटके लहू से
इस दुनियां की तस्वीर बनाते हैं
शीशे-पत्थर-गारे-अंगारों से
मानव सपने साकार बनाते हैं।

हम जो धरती पर अमन बनाते हैं
हम जो धरती को चमन बनाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

फिर भी दुनियाँ के मुट्ठी भर जालिम
मालिक हम पर कोड़े बरसाते हैं
हथकड़ी-बेड़ियों-जंजीरों-जेलों
काले कानूनों से बंधवाते हैं।

तोड़ कर हमारी झुग्गी झोंपड़ियां
वे महलों में बिस्तर गरमाते हैं।
लूट कर हमारी हरी भरी फसलें
रोटी के टुकड़ों को तरसाते हैं।

हम पशुओं से जोते जाते हैं
हम जो बूटों से रोंदे जाते हैं
हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।

लेकिन जुल्मी हत्यारों के आगे
ऊंचा सिर आपना कभी नहीं झुकता
अन्यायों-अत्याचारों से डर कर
कारवाँ कभी नहीं रुकता।

लूट की सभ्यता लंगड़ी संस्कृति को
क्षय कर हम आगे बढ़ते जाते हैं
जिस टुकड़े पर गिरता है खूँ अपना
लाखों नीग्रो पैदा हो जाते हैं।

हम जो जुल्मों के शिखर ढहाते हैं
जो खूँ में रंग परचम लहराते हैं

हम सब नीग्रो हैं, हम सब काले हैं।।
****************************************** 

रविवार, 2 नवंबर 2008

तकिए पर पैर

  

तकिए पर पैर
दिनेशराय द्विवेदी

सबसे नीचे, पैर!
दिन भर ढोते 
शरीर ,

बीच में,  उदर
भोजन का संग्रह,

सब से ऊपर, सिर
नियंत्रित करता
सब को,

वहीं एक छिद्र
भकोसता हुआ
पेट के लिए,

रात चारपाई पर
होते सब बराबर
लंबायमान 
एक सतह पर,

टूट जाते अहम्
सिर और पेट के,


कभी  होते
सिर के बजाय पैर
 तकिए पर।
***********************************************

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

दिवाली अवकाश के बाद पहला काम का दिन

 पाँच दिनों के अवकाश के बाद आज छठे दिन अदालतें खुलनी थीं तो भी खराब हुई आदत मुकाम पर नहीं आई।  आज उठना नहीं है क्या? पत्नी की आवाज सुन कर। सामने घड़ी पर निगाह गई तो घंटे का कांटा सात से पार जा चुका था, मिनट कौन देखता। सीधे टायलट भागे लघुशंका को, वापस लौट कर रसोई के नल से पानी भर चार-पांच गिलास पिए। तब तक कॉफी बेडरूम में हाजिर थी। जब से कार्तिक का महिना लगा है। श्रीमती शोभा कब उठती हैं और कब स्नान वगैरह कर अपना पूजा-पाठ निपटाती हैं, पता नहीं लगता। इस से पहले हम उठते थे तो कॉफी पहले से बेडरूम की टी-टेबुल पर विराजमान रहती थी। टाइम टेबुल बदला तो हम समझ गए क्या चक्कर चला है। हमने तीसरे दिन कहा। लगता है कार्तिक स्नान चल रहा है? जवाब मुस्कुराहट में मिला। (इस का राज आप तलाशते रहें।)

कॉफी सुड़कते मेल देखी, ब्लागवाणी पर नजर दौड़ाई तो रात के बाद से कोई ज्यादा ब्लाग नहीं  थे। मेल में तीसरा खंबा में कानूनी सलाह के लिए एक सवाल था। सवाल बिलकुल कानूनी नहीं निजी था। जैसे मेरे ज्योतिषी दादाजी के पास अक्सर आया करते थे, और उन के पास कोई ज्योतिषीय उत्तर नहीं हुआ करता था। मैं सोच में था कि इस का क्या जवाब दूँ? फिर दादाजी वाला रास्ता अपनाया, वैसा ही जवाब दिया और तीसरा खंबा में पोस्ट किया। फिर लगे अदालत की तैयारी में। एक दावे का प्रारूप देना था एक सेवार्थी निगम को। टाइप हो कर तैयार था। प्रिंट निकालना चाहा तो अपने इंकजेटप्रिंटर ने इन्कार कर दिया। बोला नया पेन, नयी डायरी, नया बस्ता लाए हो दिवाली के लिए। नयी कैशबुक और लेजर लाए हो। मेरे लिए एक अदद नयी इंक कार्ट्रिज नहीं ला सकते? अब भी मुझे एचपी का अमरीकन बच्चा समझते हो? पांच बरस हो गए हैं इस घर में दीवाली मनाते। मुझे नयी कार्ट्रिज चाहिये, अभी और इसी वक्त चाहिए। मांग वाजिब थी। उसे कहा तो कि मंदी चल रही है पुरानी को रीफिल कर के काम चला लो। पर उस पर कोई असर नहीं हुआ। निगम का दावा धरा रह गया। कार्ट्रिज तो बाजार से ही संभव था जो 11 के पहले नहीं खुलता।

टाइम बरबाद करने के स्थान पर सीधे बाथरूम की शरण ली। ऑफिस का सारा काम तो प्रिंटर निपटा ही चुका था। स्नान-ध्यान करते ही भोजन मिल गया। रवानगी दर्ज कर ऑफिस आए तो पता लगा मुंशी नहीं आया था। उसे फोन किया तो पता लगा वह भी आज सीएल पर है। हम ने खुद ही अपनी फाइलें संभाली। समय लगा। अदालत पहुँच कर घड़ी देखी। तुरंत बड़े भाई टाइमखोटीकार का स्मरण हो आया। लगा वे हमें ही पूछ रहे थे कि बताओ किस के बारह बजे? वहाँ भी दो सहयोगी सीएल पर थे। एक ने बताया कि आज तो अदालतों में काम सस्पेंड कर दिया गया है। मैं ने कारण पूछा तो बताया गया कि एक वकील साहब की दीपावली के अवकाश में उन के भाई की मदद करते समय पूजा कर दी गई। अखबार में खबर तो मैं ने भी पढ़ी थी, लेकिन पुलिस ने पुजारी दल में से कुछ को पकड़ भी लिया था, इस लिए बिरादरी के सम्मान का कोई अवसर नहीं था। फिर भी सम्मान किया गया तो जरूर कोई राज रहा होगा। सम्मान के कारण केवल पेशियाँ नोट करने का ही काम शेष रह गया था।

मुंशी तो था नहीं। मैं खुद ही पेशियाँ नोट करने निकला,सोचा इस बहाने लोगों से दीवाली का राम-राम भी हो लेगा। जेब में पेन नहीं था तो पहले एक पेन भी खरीदना था। अपनी जगह से उठते ही राम-राम  शुरू हो ली। पेन वाले तक पहुंचने में घंटा भर लग गया। पेन खरीदा, एक अदालत से पेशी नोट कर बाहर निकला ही था कि मोबाइल थरथरा उठा। देखा तो सहयोगियों की घंटी थी कॉफी के लिए बुला रहे थे। हम सीधे केंटीन पहुँचे। कॉफी से निपट कर अदालतों का चक्कर लगाया तो पता लगा 80%  जज कैजुअल लीव पर हैं। काम वैसे ही नहीं होना था, एक-एक जज पर पांच-पांच अदालतों की फाइलों पर ऑटोग्राफ बनाने का भार था। बार ने अपने एक वकील के सम्मान का मौका भी न छोड़ा और न्याय प्रशासन की मदद भी कर दी। यह भी आकलन हो गया कि शनिवार को भी ये जज कैजुअल पर ही होंगे और काम नहीं होगा। सोमवार को निश्चित ही दीपावली मिलन का समारोह होना है, तो काम उस दिन भी नहीं होगा।

हमें भी सकून मिला कि अवकाश पर आए बच्चों के साथ चार दिन और बिताने को मिलेंगे।

गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

किसे बचाने की आवश्यकता है? बैंकों को? नहीं, मनुष्य को?

कल दो समाचार पढ़ने को मिले जिन्हों ने कार्ल मार्क्स की पुस्तक "पूंजी" को पढ़ने और समझने की इच्छा को और तीव्र कर दिया। अब लगता है उसे पढ़ना और समझना जरूरी हो गया है। दोनों समाचार इस तरह हैं ...

म्युनिख (जर्मनी) के एक रोमन कैथोलिक आर्चबिशप रिन्हार्ड मार्क्स ने एक और दास कैपीटल लिख कर बाजार में उतार दी है। निश्चय ही वे इस समय कार्ल मार्क्स और उन की पूंजीवाद के विश्लेषण की पुस्तक "पूँजी" की बढ़ती हुई लोकप्रियता को अपने लिए भुनाना चाहते हैं। हालाँकि उन्हों ने कहा कि यह पुस्तक साम्यवाद के प्रचार और उस की रक्षा के लिए नहीं अपितु रोमन कैथोलिक संप्रदाय की सामाजिक शिक्षाओं को मौजूदा सामाजिक परिस्थितियों में लागू करने के लिए लिखा गया है। इस पुस्तक का प्रथम अध्याय 19वीं शताब्दी के विचारक कार्ल मार्क्स को संबोधित करते हुए एक पत्र की शैली में लिखा गया है। इस पुस्तक को बुधवार को जारी किया गया। इस से यह तो साबित हो ही गया है कि कार्ल मार्क्स इन दिनों तेजी से फैशन में आए हैं और शिखर पर मौजूद हैं।

उधर 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो ने जो पुर्तगाल के अब तक के अकेले नोबुल पुरस्कार प्राप्त व्यक्ति हैं, ब्राजीलियन मास्टर फर्नान्डो मियरलेस द्वारा निर्देशित एक फिल्म प्रस्तुत करते हुए कह दिया कि कार्ल मार्क्स उतने सही कभी भी नहीं थे जितना कि आज हैं। उन्हों ने कहा कि सारा धन बाजार में लगा दिया गया है, फिर भी वह इतनी तंगी है। ऐसे में किसे बचाने की आवश्यकता है?  बैंकों को?  नहीं, मनुष्य को?

सरमागो ने कहा कि अभी इस से भी खराब स्थिति आने वाली है। उन से जब पूछा गया कि फिल्म की थीम और अर्थव्यवस्था के संकट में क्या संबंध है तो उन्होंने कहा कि " हम हमेशा थोड़े बहुत अंधे होते हैं, विशेष रुप से इस मामले में कि कौन सी बात जरूरी है"। सरमागो के करीब तीस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिन में कविता, गद्य और नाटक सम्मिलित हैं। अभी निमोनिया से उबरने के उपरांत उन्हों ने अपना नवीनतम उपन्यास "एक हाथी की यात्रा" सम्पन्न किया है, जिस में एक एशियाई हाथी की सोलहवीं शताब्दी में यूरोप की कहानी का वर्णन है।

इन दोनों समाचारों को पढ़ने के बाद अपने एक अजीज मित्र से कार्ल मार्क्स की "पूँजी" को अपने कब्जे में करने का इन्तजाम आज कर लिया गया है। हो सकता है, अगले रविवार तक वह मेरे कब्जे में आ जाए। फिर उसे पढ़ने और आप सब के साथ मिल बांटने का अवसर प्राप्त होगा।
  • चित्र - 1998 का साहित्य का नोबल पुरस्कार प्राप्त जोस सर्मागो

बुधवार, 29 अक्टूबर 2008

जय जय गोरधन! गीत-हरीश भादानी

आज गोवर्धन पूजा है। इस मौके पर स्मरण हो आता है हरीश भादानी जी का गीत "जय जय गोरधन !"
हरीश भादानी राजस्थान के मरुस्थल की रेत के कवि हैं।राजस्थानी और हिन्दी में उन का समान दखल है।   11 जून 1933 बीकानेर में (राजस्थान) में जन्मे । 1960 से 1974 तक वातायन (मासिक) का संपादन किया। कोलकाता से प्रकाशित मार्क्सवादी पत्रिका 'कलम' (त्रैमासिक) से भी आपका गहरा जुड़ाव रहा है। अनौपचारिक शिक्षा, पर 20-25 पुस्तिकायें प्रकाशित। राजस्थान साहित्य अकादमी से "मीरा" प्रियदर्शिनी अकादमी, परिवार अकादमी, महाराष्ट्र, पश्चिम बंग हिन्दी अकादमी(कोलकाता) से "राहुल"  और  के.के.बिड़ला फाउंडेशन से "बिहारी" सम्मान से आपको सम्मानीत किया जा चुका है।

"जय जय गोरधन"  सत्ता के अहंकार के विरुद्ध जनता का गीत है..



 
।। जय जय गोरधन ।।
* हरीश भादानी *


काल का हुआ इशारा
लोग हो गए गोरधन !

 
हद कोई जब
माने नहीं अहम,
आँख तरेरे,
बरसे बिना फहम, 
 तब बाँसुरी बजे
बंध जाए हथेली
ले पहाड़ का छाता 
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

हठ का ईशर 
जब चाहे पूजा,
एक देवता
और नहीं दूजा,
तब सौ हाथ उठे
सड़कों पर रख दे
मंदिर का सिंहासन
जय जय गोरधन 
काल का हुआ इशारा!

सेवक राजा 
रोग रंगे  चोले,
भाव ताव कर
राज धरम तोले,
तब सौ हाथ उठे,
उठ थरपे गणपत
 गणपत बोले गोरधन
जय जय गोरधन !

काल का हुआ इशारा
 लोग हो गए गोरधन !
  *******
 

सोमवार, 27 अक्टूबर 2008

पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी?

कल से ही घर पर हूँ, दीवाली की तैयारियाँ जोरों पर हैं। बिजली वाला बल्ब लगा गया है, कल रात से ही जलने लगे हैं। शोभा (पत्नी) लगातार व्यस्त है पिछले कई दिनों से। बल्कि यूँ कहूँ कि महिनो से। कभी सफाई, कभी पुताई, कभी धुलाई, बच्चों के लिए कपड़े, त्यौहार के लिए मिठाइयाँ और पकवान निर्माण और इन सब के साथ-साथ घर का रोजमर्रा का काम। कितनी ऊर्जा भरी पड़ी है महिलाओं में, मैं दंग रह जाता हूँ। बच्चे आ गए पहले बेटा आया उस ने कुछ कामों में हाथ बंटाया, बाकी समय अपने मित्रों से मिलने में लगा रहा। सब घर जो आए हैं दीवाली पर। बेटी आई तब से कहीं नहीं गई। एक पुराने काम वाले टॉपर को ठीक करने में लगी है दो दिन से बाकी माँ का हाथ बंटा रही है।  उसे वापसी का रिजर्वेशन दो नवम्बर का चाहिए, चार का उस के पास है। तत्काल में हो सकता है। लेकिन रेल्वे की कोई साइट यह नहीं बता रही है किस ट्रेन में कितनी सीटें खाली हैं। कल ही सुबह रिजर्वेशन विण्डो पर सबसे पहले लाइन में लगने के लिए कितने घंटे पहले जाना होगा हम यही कयास लगाने आज जा कर सुबह आठ बजे विण्डो का नजारा करने गए। कुल मिला कर काम उतना ही कठिन जितना हनुमान के लंका जा कर सीता का पता लगाने का था। वे लंका जला आए थे, हम से तो आज लाइटर से गैस भी न जली, माचिस से जलाना पड़ा। कल रिजर्वेशन करा पाएँगे या नहीं मैं तो क्या भगवान भी न बता पाएंगे।

दोपहर भोजनोपरांत कम्प्यूटर पर बैठा ही था कि फोन घनघना उठा। एक पुराने मुवक्किल का था। कहने लगा एक केस ले कर आ रहा हूँ, घर ही मिलना।  मैं सोच रहा था दीवाली के दिन कैसी विपत्ति आन पड़ी? अदालतें भी शुक्रवार के पहले नहीं खुलेंगी। फिर भी  वह सौ किलोमीटर दूर लाखेरी से कोटा आया हुआ है, तो जरूर कोई विपत्ति ही रही होगी, मैं ने आने को हाँ कह दिया। करीब बीस मिनट बाद वह मेरे घर के कार्यालय में था। करीब साठ की उम्र होगी उस की, साथ में एक तीस-पैंतीस की महिला और एक लड़का करीब पच्चीस साल का साथ था। उस ने बताया कि वह उस की बेटी और भान्जा है। फिर वह कथा बताने लगा।

 अठारह साल पहले बेटी का ब्याह किया था तब वह सोलह की थी। अब कोटा में ही अपने पति के साथ रहती है। उस के छह और आठ वर्ष के दो बेटे हैं। पति पेन्टिंग का काम करता है। बेटी ने बताया कि कई साल से वह सिलाई का काम करती है जिस से करीब तीन-चार हजार हर माह कमा लेती है। पति कभी काम पर जाता है कभी नहीं जाता। जितना कमाता है उस का क्या करता है? पता नहीं। तीन बार मकान बनाए तीनों बार बेच दिए। खुद किराए के मकान में रहते रहे। पिछली बार मकान बनाने पर कर्जा रह गय़ा था जिसे पिता जी से चालीस हजार ले कर चुकाया। लेकिन कुछ दिन बाद ही मकान को बेच कर एक प्लाट खरीद लिया और उस पर निर्माण का काम चालू कर दिया। उसने अपना कमाया एक लाख रुपया मकान बनाने में पति को दे दिया। करीब पचास हजार अपने पिता से ला कर और दे दिया। करीब  तीस हजार अपने सिलाई के ग्राहकों से उधार दिलवा दिया।

तीन माह पहले मकान तैयार होते ही वे उस में जा कर रहने लगे। एक कमरा मेरे पास है, एक ससुर के पास।  अब पति कहता है इस मकान से निकल मकान बेचूंगा। दारू पी कर मारता है। पुलिस में शिकायत भी कर चुकी हूँ। मोहल्ले में बदनाम करता है कि मेरी औरत अच्छी और वफादार नहीं है। झगड़ा शुरू हुआ था, घर खर्च से, घर में सारा खर्च मैं डालती हूँ। बच्चों की फीस मैं देती हूँ। एक दिन बच्चों के रिक्शे वाले को किराया देने को कहा तो झगड़ा हुआ और आदमी से मार खाई। उस के बाद से अक्सर हाथ उठा लेता है। ससुर और देवर पति का साथ देते हैं। मुझे सताने को बच्चों को मारने लगता है। वह कहता है मैं मकान बेचूंगा। मैं कहती हूँ कि मकान में दो लाख से ऊपर तो मेरा लगा है। घर मैं चलाती हूँ। तेरा क्या है? कैसे मकान बेचेगा? एक दिन पीहर गई तो मकान के कागज निकाल कर ले गया और अभी अपनी बहिन से मेरे और खुद के नाम नोटिस भिजवाया है कि मकान बहिन का है हम उस में किराएदार हैं। पांच महीने से किराया नहीं दिया है। मकान खाली कर संभला दो नहीं तो मुकदमा करेगी। अभी पुलिस ने समझौते के लिए बुलाया था, नहीं माना। सहायता केन्द्र से बाहर आते ही धमकी दे दी कि मैं तो चाहता था कि तू मुकदमा करे तो मेरा रास्ता खुले। पुलिस वालों ने 498-ए, 406 और 420 आई पी सी में,  घरेलू हिंसा कानून में और मकान में हिस्से के लिए मुकदमे करने को कहा है। मेरे मुवक्किल, उस के पिता ने कहा कि मार-पीट से बचने को उस ने अपने भान्जे को उस के पास रख छोड़ा है।

खैर तुरंत कुछ हो नहीं सकता था। मैं ने पुलिस द्वारा अब तक की गई कार्यवाही के कागज लाने को कहा और अदालत खुलने पर शुक्रवार को आने को कहा। वे चले गए।

ऐन दिवाली के बीच, जब मैं सब को हार्दिक शुभकामनाएँ प्रेषित कर रहा हूँ, परिवार के लिए सर्वांग समृद्धि की कामना कर रहा हूँ। वहाँ एक घर टूट रहा है। एक महिला ने अपने पैरों पर खड़े हो कर एक घर बनाया, उसे वह बचाना भी चाहती है। अच्छे खासे पेंटर पति को जो रोज कम से कम दो सौ रुपए, माह में पाँच हजार कमा सकता है। मकान बना कर बेचने और मुनाफा कमाने का ऐसा चस्का लगा है कि उस में उस ने अपने काम को  छोड़ दिया, पत्नी और अपने ससुर का कर्जदार हो गया, लेकिन उस कर्ज को चुकाना नहीं चाहता। चाहता है पत्नी घर चलाती रहे, वह मकान बनाए और बेचे। जल्दी ही करोड़ पति हो जाए। सम्पत्ति उस के पास रहे और पत्नी मार खाती रहे, बच्चे बिना कसूर पिटते रहें। पत्नी और बच्चे ऐसे रहें कि जब चाहो तब उन्हें घर से बाहर धकेल दो। 

खुद्दार, खुदमुख्तार पत्नी अब पिटना नहीं करना चाहती, वह अपने पैरों पर खड़ी है। केवल इतना चाहती है उस का घर बसे। लेकिन पति भी तो सहयोग करे। अभी वे सब एक ही घर में हैं। पर इस शीत-युद्ध के बीच पता नहीं कैसे उन की दीवाली होगी? और छह-आठ वर्ष के बच्चे पता नहीं उन की दीवाली कैसी होगी? और कब तक उन का घर बचा रहेगा?