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सोमवार, 2 अप्रैल 2012

'अभिव्यक्ति' सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका


पिछले दिसंबर के पन्द्रहवें दिन फरीदाबाद में सड़क पर चलते हुए अचानक बाएँ पैर के घुटने के अंदर की तरफ का बंध चोटिल हुआ कि अभी तक चाल सुधर नहीं सकी है। चिकित्सको का कहना है कि मुझे कम से कम एक-डेढ़ माह का बेड रेस्ट (शैया विश्राम) करना चाहिेए। तभी यह ठीक हो सकेगा। मैं चलता फिरता रहा तो इस के ठीक होने की अवधि आगे बढती जाएगी। अब बेड काम तो मुझ से कभी हुए नहीं तो अब बेड रेस्ट कैसे होता? वैसे भी मेरा पेशा ऐसा है कि मैं दूसरों की जिम्मेदारी ढोता हूँ। उस में कोताही करने का अर्थ है उन्हें न्याय और राहत प्राप्त  करने में देरी। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने मुवक्किलों के प्रति जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करूँ। लेकिन यह भी कोशिश रहती है कि मुझे काम के दिनों में कम से कम चलना पड़े, घुटने पर जोर कम से कम देना पड़े। अवकाश  के दिन तो मैं घर से निकलना भी पसंद नहीं करता। लेकिन अपने कार्यालय में तो बैठना ही पड़ता है। पर इस में पैर पर कोई जोर नहीं पड़ता। घर से न निकल पाने के कारण पिछले ढ़ाई माह में उन लोगों से जिन से मेरी निरंतर मुलाकात होती रहती थी उन्हें भी मैं नहीं मिल सका हूँ। आज भी एक दुकान के उद्घाटन और कम से कम दो लोगों की सेवा निवृत्ति पर हो रहे कार्यक्रम में जाना था पर पैर को आराम देने के लिए वहाँ जाना निरस्त किया। दिन में चार पाँच लोग कार्यालय में आए, कुछ लोग मिलने भी आए। शाम को अचानक महेन्द्र नेह आ गए। उन का आना अच्छा लगा। वे सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 38वें अंक की पाँच प्रतियाँ साथ ले कर आए थे। 
शिवराम
भिव्यक्ति मेरा सपना है, जिसे मैं ने तब देखा था जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मैं चाहता था कि मेरी अपनी पत्रिका हो जिस के माध्यम से मैं लोगों के साथ रूबरू हो सकूँ। लेकिन एक स्नातक विद्यार्थी के लिए इस सपने को साकार कर पाना संभव नहीं था। बाद में शिवराम मिले और बाराँ की संस्था दिनकर साहित्य समिति ने उन के संपादन में पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। तब से मैं इस का प्रकाशक रहा हूँ। पिछले बरस शिवराम ने अनायास ही हमेशा के लिए हमारा साथ छोड़ दिया। तब अभिव्यक्ति का 37वाँ अंक लगभग तैयार था। शेष काम महेन्द्र नेह ने पूरा किया। लेकिन मार्च 2012 का यह 38वाँ अंक पूरी तरह से महेंद्र नेह के संपादन में तैयार हुआ है। महेन्द्र नेह के जाने के बाद मैं ने पत्रिका का अंक देखना आरंभ किया। निश्चित रूप से एक पत्रिका संपादक का माध्यम होती है। अभिव्यक्ति के प्रकाशन का शिवराम, महेन्द्र नेह और इस से जुड़े तमाम लोगो का उद्देश्य एक ही है. लेकिन संपादन का असर उस के रूप पर पड़ना स्वाभाविक था। इस कोण से देखने पर मुझे अभिव्यक्ति का यह 38वाँ अंक एक अलग अनुभूति दे गय़ा। हालाँकि इस अंक का एक बड़ा भाग स्मृति भाग है। लेकिन इस में इस के अतिरिक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कोटा के लोगों की भागीदारी इस बार बढ़ी है। 

दा की तरह इस अंक का मुखपृष्ठ भी रविकुमार के रेखाकंन से बोल रहा है। मुख पृष्ठ पर ही वीरेन डंगवाल की एक कविता है- 

बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि 
बेईमानी भी एक सजावट है? 
कातिल मजे में है 
तो क्या हम मान लें कि 
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है 
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
त्रिका के 38वें अंक का संपादकीय महत्वपूर्ण है, और अन्य रचनाएँ भी। आप को जिज्ञासा होगी कि आखिर इस पत्रिका में क्या है? हमारी कोशिश होगी कि अभिव्यक्ति के 38वें अंक और इस से आगे के अंको की सामग्री  हम शनैः शनैः इसी नामके ब्लाग (अभिव्यक्ति) के माध्यम से आप तक पहुँचाएँ। आशा है हिन्दी ब्लाग जगत इस का स्वागत करेगा।