पिछली पोस्टों घमौरियों ने तोड़ा अहंकार - एक ग्रामयात्रा, देवताओं को लोगों की सामूहिक शक्ति के आगे झुकना पड़ता है और घूंघट में दूरबीन और हेण्डपम्प का शीतल जल से आगे .......
कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था। पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है।
कोई दो सौ कदम चलने पर ही पोस्टमेन जी का घर आ गया। एक कमरा पक्का बना हुआ था, शेष वही कवेलूपोश। घर में आंगन था जिस में नीम का पेड़ लगा था। पास ही एक हेण्डपम्प था। पेड़ के नीचे दो चारपाइयाँ बिछी थीं। एक बुनी हुई और दूसरी निवार से बुनने की प्रक्रिया में थी। हम बुनी हुई चारपाई पर बैठ गए। पोस्टमेन जी चाय बनाने को कहने लगे। मैं ने इनकार किया कि मैं तो बीस बरस से चाय नहीं पीता। उन्हों ने शरबत का आग्रह किया। मैं ने उस के लिए भी मना कर दिया। उन की पोती जल्दी से शीतल जल ले आई। पोस्टमेन जी बताने लगे कि वे रिटायर होने के बाद गाँव ही आ गए। यहाँ कुछ जमीन है उसे देखते हैं, खेती अच्छी हो जाती है। दो लड़कों ने गाँव में ही अपना स्कूल खोल रखा है, जिस में सैकण्डरी तक पढ़ाई होती है। खुद पढ़ाते हैं और गाँव के ही कुछ नौजवानों को जिन्होंने बी.एड. कर रखा है और सरकारी नौकरी नहीं लगी है स्कूल में अध्यापक रख लिया है। स्कूल अच्छा चल रहा है, यही कोई ढाई सौ विद्यार्थी हैं। दो लड़के कोटा में नौकरी करते हैं। वहाँ उन्हों ने नौकरी के दौरान मकान बना लिया था उस में रहते हैं। मुझे पोस्टमेन जी अपने जीवन से संतुष्ट दिखाई दिए। इस से अच्छी कोई बात नहीं हो सकती थी कि उन के चारों पुत्र रोजगार पर हैं, सब के विवाह हो चुके हैं। उन्हें पेंशन मिल रही है और खेती की जमीन पर खेती हो जाती है।
चौपाल पर गाँव का एक बालक |
मैं ने उन से पूछा -खेती में तो खटना पड़ता होगा?
वे बताने लगे -खेती में आजकल कुछ नहीं करना पड़ता। सभी काम मशीनों से हो जाते हैं जो करवा लिये जाते हैं। बस खाद-बीज-कीटनाशक की व्यवस्था करनी पड़ती है। रखवाली और अन्य कामों के लिए एक हाळी (वार्षिक मजदूरी पर खेती के कामों के लिए रखा मजदूर) रख लेते हैं। हंकाई-जुताई-बिजाई ट्रेक्टर वाला किराए पर कर देता है। फसल पकने पर कंबाइन आ जाता है जो काट कर अनाज निकाल कर बोरों में भर देता है। ट्रेक्टर किराए पर ले कर फसल मंडी में बेच आते हैं। निराई आदि के काम बीच में आ जाते हैं तो मजदूर मिल जाते हैं। उन्हों ने बताया कि गाँव में जितने भी लोगों के पास खुद की भूमि है वे सभी इसी तरह काम करते हैं। किसी के पास ट्रेक्टर और दूसरे साधन हैं तो वे भी उन से काम करने के लिए मजदूर रख लेते हैं। गाँव में जिन के पास भूमि है उन सब के पास बहुत समय है, वे केवल खेती का प्रबंधन करते हैं या फिर मौज-मस्ती में जीवन गुजारते हैं।
-इस हिसाब से गाँव संपन्न दिखाई देना चाहिए, लेकिन वैसी संपन्नता दिखाई नहीं देती। अभी भी गांव के 70-80 प्रतिशत घरों पर पक्की छतें नहीं हैं। मैं ने पूछा।
पोस्टमेन जी बताने लगे। लोग खुद तो कुछ करते नहीं सब मजूरों और मशीनों पर कराते हैं। नतीजे में खेती में खर्चा बहुत हो जाता है बस गुजारे लायक ही बचता है। जो लोग खेती के साथ दूसरे व्यवसाय करने लगते हैं या जिन्हें नौकरियाँ मिल जाती हैं वे अवश्य संपन्न हो चले हैं, पर ऐसे लोग कम ही हैं। हाँ, जिन के पास खेती नहीं है और केवल मजदूरी पर निर्वाह कर रहे हैं उन के पास इसी कारण से काम की कमी नहीं रही है। जो अच्छा काम करते हैं उन्हें हमेशा काम मिल जाता है। वैसे साल भर काम नहीं रहता है। लेकिन जब काम नहीं मिलता है तब वे नरेगा आदि में चले जाते हैं। उन में से जिन में कोई ऐब नहीं है वे धन संग्रह भी कर पाए हैं। गाँव में स्थिति यह है कि किसी जमीन वाले को पैसे की जरूरत पड़ जाए तो ये मजदूरी करने वाले लोग तीन रुपया सैंकड़ा मासिक ब्याज पर उधार दे देते हैं।
मैं ने अपने मोबाइल पर समय देखा पौने चार हो रहे थे। मुझे उसी दिन रातको जोधपुर के लिए निकलना था। यह तभी हो सकता था जब कि मैं कम से कम छह बजे तक कोटा अपने घर पहुँच सकता। मुझे लगा अब यहाँ से चलना चाहिए। मैं ने पोस्टमेन जी से विदा लेनी चाही लेकिन, वे मुझे मेरे मेजबान के घर तक छोड़ने आए। मेजबान का घर मेहमानों से भरा था। कुछ सुस्ता रहे थे, कुछ बतियाने में लगे थे। लेकिन घर की महिलाओं और लड़कियाँ काम में लगी थीं। रसोई में चाय बन रही थी। दो महिलाएँ हेण्डपम्प के पास बर्तन साफ करने में लगी थीं। मेहमानों के लिए चाय आई। मैं ने मना किया तो मेरे लिए तुरंत ही नींबू की शिकंजी बन कर आ गई। अब सब लोगों को भोजन कराने की तैयारी थी। जो कहीं और बन रहा था। मैं भोजन करने के लिए रुकता तो फिर जोधपुर न जा सकता था। मैं निकलने के लिए अपनी कार तक आया। उस की धूल झाड़ ही रहा था कि मेजबान का पुत्र वहाँ आ गया। भोजन बिलकुल तैयार है बस आधे घंटे में आप निपट लेंगे, मैं उस के आग्रह को न टाल सका।
वह मुझे उस स्थान पर ले गया जहाँ भोजन बन रहा था और खिलाया जाना था। वह एक घर था जिस मेंकेवल दो कच्चे कमरेबने थे, शेष भूमि रिक्त थी। जो जानवरों को बांधने आदि के काम आती थी। वहीं भोजन बन रहा था। खाली भूमि को साफ कर दिया गया था जिस से वहाँ बैठा कर भोजन कराया जा सके। हम पाँच-छह लोग जिन्हें जाने की जल्दी थी बिठा दिए गए। भोजन में आलू-टमाटर की स्वादिष्ट सब्जी थी, कच्चे आम की आँच थी जिस में बेसन की नमकीन बूंदी डाली गई थी, इस के अलावा बेसन के चरपरे सेव थे और मीठी बूंदी थी जिसे हम यहाँ नुकती कहते हैं, गरमागरम पूरियाँ परोसी जा रही थीं। हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था, यह। गर्मी के कारण भोजन स्वादिष्ट होने पर भी ठीक से न कर पाए। भोजन के उपरांत हम गाँव से लौट पड़े।
15 टिप्पणियां:
हा हा हा
जीमयो कोनी गयो तो थाने पत्तळ बंधवा लेणी थी,
घरां आयां पाछै जीम लेता।
राम राम सा
कैसे मानुष हैं भोजन भक्ति के बाद भी भोजन नहीं कर पाए...
हाड़ौती का ठेठ परंपरागत मीनू था
@ वाह फ़िर तो खाने मे मजा आ गया होगा :)
ग्राम्यजीवन की सरलता और स्नेह को स्थापित करती यह पोस्ट ।
अरे, भोजन तो दबा ही लेना चाहिये था...पंडितों को बदनाम करियेगा क्या? :)
हा हा!! मजेदार यात्रा वृतांत!
बहुत सुंदर बात कही कि लोग खुद ही काम नही करते तो खुशहाल केसे रहेगे, ओर भोजन का सुन कर तो मुहं मै पानी आ गया
praveen pandey jee se asehmat hone ki koi bat hi nai hai.....
जिस जाजम पर लड़का बैठा है उसे देखकर शादी ब्याह वाले भीड़ भड़क्के की याद आ गयी ...कल ही मामा के लडके कि शादी थी और हम यहाँ शिकागो में नीरस रोटी दाल तोड़ रहे हैं :)
मशीनों ,मजदूरी, खाद, बीज, सिंचाई वगैरह के खर्चे काट कर खेती केवल घाटे का सौदा है ये सत्य पूरे देश का है किन्तु बड़े नौकरशाह /धन्नासेठ /राजनेताओं के लिए यही खेत सोना उगलते है ! इतना सोना कि उन्हें इनकम टेक्स देने के नौबत ही नहीं आती :(
यहां हरियाणा में भी लोग जमीन बेचकर कोठियां, गाडी खरीदकर ऐशोआराम में पड जाते हैं और धीरे-धीरे सबकुछ गंवा रहे हैं। खेतों में काम ज्यादातर बिहार से आये मजदूरों से करवाया जा रहा है।
प्रणाम
लगभग यही हाल है गाँवों की अर्थव्यवस्था का. मैं भी घर रह कर आया हूँ ऐसा ही देखने को मिलता है.
बेहतर...
हमें भी काफ़ी कुछ यात्रा करादी आपने...
एक पंथ दो काज किये आपने इस यात्रा मे इतनी अच्छी जानकारी भी इक्कठी कर ली और रिश्तेदारों के हाजरी भी । एक नई बात और आपसे सीख ली। धन्यवाद।
उस मेहनती किसान की छवि का क्या हुआ? मैं तो खेतों के बगल में ही रहती थी। सदा उन मेहनती किसानों को खोजती रहती थी जिनपर न जाने कितनी कविताएँ लिखी गईं हैं और जिनके शोषण की याद दिला हम लज्जित होते रहे हैं।
जो मेहनती हैं वे सब आसपास नौकरी करते हैं गाय भैंसों की सेवा स्त्रियाँ करती हैं, गुड़ाई आदि भी प्रायः स्त्रियाँ ही करती हैं किसान तो बुवाई, कटाई, व दाना निकालने के समय घूमता दिखता है।
घुघूती बासूती
एक विस्तृत टिप्पणी की अपेक्षा है।
http://shrut-sugya.blogspot.com/2010/06/blog-post_29.html
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