@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत: 'पार्वती' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचम सर्ग

शनिवार, 22 मई 2010

'पार्वती' -यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का पंचम सर्ग




नवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के चार सर्ग पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का पंचम सर्ग "पार्वती" प्रस्तुत है ......... 


परंपरा और विद्रोह  
* यादवचंद्र *

  पंचम सर्ग
'पार्वती'
खल्, खल् खल् - खल् खल्
धार प्रबल
चट्टानी सरिता 
क्षुब्ध विकल
पर्वत से दौड़ी -
काली - सी फुत्कार मारती
व्याली - सी
अंगों में तड़पन
बिजली सी - 
वाणी में गुरुता
बदली सी
आँखों में जीता 
काल लिए
मुट्ठी में नर का 
भाल लिए

आंधी - अंधड़ की चाल लिए
कांधे पर ऋक्ष विशाल लिए
कन्दरा त्वरित चिग्घाड़ उठी
शेरों की त्रस्त दहाड़ उठी
नारी का नर है डरा हुआ
स्वागत में उस के खड़ा हुआ
पाताल, धरा, अंबर - प्रांतर
जंगल - उपवन, पुर, विजन, डगर
सब की साँसें हैं 
रुकी हुई 
सब की आंखें हैं
झुकी हुई
दिग्गज की फटती 
छाती है
लो, आदि भवानी 
आती है
भिक्षा में नर 
आहार मांग
नारी से नर 
कण चार मांग
मिल जाय अगर, निज
भाग मांग
जीवन की बुझती 
आग मांग
यौवन का बंधन
प्यार मांग
जो लेना है, मन
मार मांग
नर विवश खड़ा
बिल्लाता है
दो होंठ हिला
रह जाता है
कुछ मांग न डर
से पाता है
युग पर युग 
बीता जाता है..........

यह देख - भवानी
की बेटी
हिम -शिला पाट पर
है लेटी
मन में कुछ गुनती
जाती है
भौंहें तन - तन जाती हैं
विकराल भुजा  वह
घूर रही 
"क्यों बनी आज तक 
मूढ़ रही

जो सुंदर युवा - हिमाला है
वह मेरे चर की माला है
सारा परिवार
हमारा है
उस पर अधिकार 
हमारा है
उस चोटी से 
उस चोटी तक
इस घाटी से 
उस घाटी तक
सब कुछ मेरी ही थाती है
माँ वृथा विधान बनाती है
मुझ में पुरुषार्थ
जवानी है
मेरे भाले पर 
पानी है"

सासों में आंधी उमड़ उठी
खूँ उबला, लपटें घुम़ड़ उठीं
तन गईं शिराएँ यौवन की
बाजी जब लगती जीवन की
पौरुष करतब दिखलाता है
दर्शन कुछ काम न आता है

पत्थर के भाले पर सूरज कुर्बान हुआ
पर्वत की टक्कर से पर्वत हैरान हुआ
माँ के पैरों के नीचे की मिट्टी सरकी
फट गई धरा की छाती जो बिजली कड़की
कड़की कड़ - कड़ हड्डियाँ, निशाना हाथ लगा !
वय की अनुचरी रही किस्मत है, भाग्य जगा !!
'नारी के पाँव 
पखार पुरुष
जंगल बोले -
उस की भृकुटी 
तन जाय तनिक 
- पर्वत डोले'

नारी का जूठा नर किस्मत को कोस रहा
निरुपाय पुरुष दिल अपना आप मसोस रहा
पर, भीम बेलि चीड़ों के तने निहार रही
बाहों में बांध पहाड़, उदण्ड विचार रही -

'जो सुन्दर युवा हिमाला है
वह मेरे चर की माला है'
                      और तब - 
नंगी पाषाणी पलकों में 
एक अजानी लाज समाई
क्रूर, हिमानी कल्याणी बन
शान्ति सुधा बरसाने आई

प्रिये सहेली विटप - लताएँ
प्राण सखा हैं सावन के घन
फूलों की प्यारी हमजोली
फूल रहा फूलों का कानन

 
 नर को बान्ध भुजा में अपनी
तू ने अपनी दुनिया बांधी
सदा मुक्त जो रही खेलती
अंगूरी में डूबी आंधी

बंधी आप तू स्वयं चाह में
नर की ममता की पुतली तू
जाओ पी की प्रिये सुहागिन
मानव स्रष्टा की जननी तू
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'पार्वती' नाम का पंचम-सर्ग समाप्त

13 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत सुन्दर

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

लयात्मक व सुन्दर ।

honesty project democracy ने कहा…

बहुत ही सार्थक सोच और उम्दा विचार की प्रस्तुती / दिल्ली में कल पूरे देश के ब्लोगरों के सभा का आयोजन किया जा रहा है जो ,नांगलोई मेट्रो स्टेशन के पास जाट धर्मशाला में किया जा रहा है ,आप सबसे आग्रह है की आप लोग इसमें जरूर भाग लें और एकजुट हों / ये शुभ कार्य हम सब के सामूहिक प्रयास से हो रहा है /अविनाश जी के संपर्क में रहिये और उनकी हार्दिक सहायता हर प्रकार से कीजिये / अविनाश जी का मोबाइल नंबर है -09868166586 -एक बार फिर आग्रह आप लोग जरूर आये और एकजुट हों /
अंत में जय ब्लोगिंग मिडिया और जय सत्य व न्याय
आपका अपना -जय कुमार झा ,09810752301

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

वाह! मान्त्रिक शक्ति युक्त लगती है कविता।

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

वाकई...मंत्र-मुग्ध करते शब्द...

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

यादवेन्द्र जी को पढ़ना एक अछूते अहसास से गुजरना है |
नाद - सौन्दर्य है कविताओं में !
एक निवेदन है कि कुछ जगह , टाइपिंग की गलती से पढ़ते समय
लय का विधान टूटने लगता है , ऐसा न हो तो बेहतर ! आभार !

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

जी , जरूर ,,
फिलहाल यह खंड देखें ---
यह देख - भवानी
की बेटी
हिम -शिला पाट पर
हे लेटी
मन में कुछ गुनत
जाती है
--- हे लेटी की जगह 'है लेटी ' ज्यादा मुफीद होगा !
अन्यत्र भी कहीं खटका था , शायद !

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

...नर विवश खड़ा
बिल्लाता है
दो होंठ हिला
रह जाता है
कुछ मांग न डर
से पाता है
युग पर युग
बीता जाता है.........

...वाह! सुंदर.

उम्मतें ने कहा…

अभिभूत हूं

बेनामी ने कहा…

bahut hi umdaah soch sir...
kavya bhi utna hi behtareen...
yun hi likhte rahein...
ummeed hai mere blog par bhi aapke darshan honge...
http://i555.blogspot.com/

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

....बहुत सुन्दर
...

विष्णु बैरागी ने कहा…

ऐसी कविताओं को पढना, एक काल खण्‍ड से गुजरनने जैसा होता है। ऐसी रचनाऍं यदि सस्‍वर सुनने को मिल जाऍं तो उनका आनन्‍द शतगुना हो जाता है।

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

हर खण्ड सुन्दर है । जितना पढ़ने को मिला , अद्‌भुत अहसास दे रहा है ।