अनवरत के पिछले अंकों में आप यादवचंद्र जी के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के तीन सर्ग पढ़ चुके हैं। इन कड़ियों को ऊपर दिए गए लिंक पर क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है। इसे आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का चतुर्थ सर्ग "अग्नि देवता" प्रस्तुत है .........
परंपरा और विद्रोह
* यादवचंद्र *
चतुर्थ सर्ग
'अग्नि देवता'
पत्थरों के खींच ढोके
कन्दरा के द्वार भिड़ दो
हो गया सुनसान
जंगल सो गया
बिलकुल अंधेरा हो गया ........
हिम का निठुर आघात
हिंसक पशु बिचरते, देख --
भीषण रात
कितनी क्रूर
सुन्दर प्रात
मुझ से दूर ....
पंजे खोल कर
मृग शावकों पर
टूटते हैं शेर
नन्हें गीदड़ों को, देख --
बैठे भेड़िये हैं घेर .....
मानव देखता है
झाँक प्रस्तर द्वार
(जिव्हा चटचटाता)
माँस, निज आहार
पर अफसोस
निष्फल रो....ष
भीषण रा.....त
फिर आघा....त !
संघर्षण विचारों का
चली आँधी
चले तूफाँ
अमंगल स्वर हुए
हू..........ऊआँ
गहन वन में
भरा धुआँ
कड़क कर
टूटती हैं बिजलियाँ
आकाश फटता है
ध का ध क्
गहन जंगल - पहाड़ों पर
च टा च ट
क्या चटकता है ?
करोड़ों सूर्य उतरे हैं
जमीं की क्या नमी हरने ?
रहे हैं भेड़िए सब भाग !
हिंसक पशु लगे मरने !
.... ...... ...... ........
धधकती जा रही ज्वाला
धधकता जा रहा जंगल
अहर्निश.... ! है कभी मंगल
अमंगल से कभी हो त्रस्त
भागा जा रहा प्रतिपल
यहाँ से प्रान्त, प्रान्तर में
दिशाओं, देश देशों में
अनेकों रुप - वेशों में
प्रगतिमय मनुज का विस्ता......र
युग पर युग रहे हैं तिर.....
न अब अवरुद्ध उन के द्वा.....र
करता यज्ञ.....
स्वर में बांध अपनी भावनाएँ
गा रहा है प्रज्ञ
वेदों की ऋचाएँ
हे अनंग
अग्नि देव
पाहि माम् !.......
सु--अग्नि देवता बरो
मुझे प्रसन्न तुम करो
प्रदीप्त अंतरिक्ष में
हुए महानता कढ़ो
विभिन्न रूप राशि में
प्रकट इला - प्रदेश में
हरो तिमिर विभीषिका
समक्ष, रुद्र वेष में
अरी अरणि अरण्य की
हताश मत मुझे करो
प्रसन्न हो कृपा करो
दया करो, जलो' जलो
प्रकाश दायिनी ऊषा
हरो अमा, हरो निशा
प्रदान दिव्य नेत्र कर
दिखा पड़ाव, पुर, दिशा
बनो अनार्य के लिए
विनाश, मृत्यु - दान हे !
अ - जीत आर्य के लिए
करो अभय प्रदान हे !
रुचिर सुअन्न, सोम लो
प्रभूत तेजवान हे !
ऋचा गिरा सुना रही
उठो, मरूत - वितान हे !
प्रजापति ! तुझे प्रजा
पुकारती समिद्ध हो
पवित्र मथ रहे तुझे
मुझे प्रसिद्धि, सिद्धि दो
मृणाल - डाल - सी धरा-
गगन, मिला रही लपट
धुआँ उठा रही घटा
वे, बिजलियाँ रही चमक
अवाध्य अग्नि देव की
विमा वहाँ रही दमक
कि, इन्द्रदेव अग्नि से
मिले समोद उठ लपक
धरा कृतार्थ हो गई
कि स्वर्ग अग्नि देव ने
मिला दिया, दिखा दिया
अहा, प्रकाश देव ने
न त्रस्त अब मनुष्य के
विकासमय सबल चरण
खुले कि युग युगान्त से
उलझ रहे चपल चरण
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मनोजवा सुलोहिता
सुनील धूम की शिखा
गिरा कराल काल सी
अनार्य पर बढ़ा, दिखा
अहं नमामि हव्यवाह,
लो पवित्र अश्व - मांस
दो वरद प्रसस्त हस्त
आर्य छत्र पर दिवांशु
दिशा - दिशा
चमत्कृता
सविता की आरती !
शून्य बीच
रत्न दीप
कौन चली बारती !
हे अनंग अग्नि देव
औषधिः में विद्यमान
चकमक के घर्षण में
ज्योति, तेज, दिव्यज्ञान
अर्ध, दीप, पुष्प, मन्त्र
लो महान स्वर्गयान
हे कृशानु जाति वेद
पाहिमाम् ! पाहिमाम् !
प्रबंध काव्य 'परम्परा और विद्रोह' का
'अग्नि देवता' नाम का चतुर्थ सर्ग समाप्त
'अग्नि देवता' नाम का चतुर्थ सर्ग समाप्त
12 टिप्पणियां:
बहुत बढिया
निश्बद हूँ पढ़ने के बाद ।
क्या खूब आख्यान...
अग्नि पर अग्नि ड़ालता....
अग्नि का यह स्मरण अद्भुत है !
बस एक शब्द अद्भुत !
विकास को संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में पहली बार पढ़ रहा हूँ ।
बहुत ही सुंदर, मुंह से खुद वा खुद वाह वाह निकलती है, धन्यवाद इस सुंदर ओर अद्भुत पोस्ट के लिये
बहुत खूब
बहुत खूब
कुछ दिनों से लेपटॉप खराब था। अभी ही ठीक होकर आया।
ऐसी शब्दावली अब तो कठिनाई से ही मिलती है पढने को को।
वाह! प्रसाद जी की कामायनी याद आ रही है!
अग्नि-स्मरण अद्भुत है ! हर बार कहना पड़ता है अद्भुत !
आभार ।
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