पंडित श्याम शंकर जी व्यास अपने जमाने के जाने माने अध्यापक थे। उन के इकलौते पुत्र थे कमल किशोर व्यास। उन्हें खूब मार पीट कर पढ़ाया गया। पढ़े तो कमल जी व्यास खूब, विद्वान भी हो गए। पर परीक्षा में सफल होना नहीं लिखा था। हुए भी तो कभी डिविजन नहीं आया, किस्मत में तृतीय श्रेणी लिखी थी। जैसे-तैसे संस्कृत में बी.ए, हुए। कुछ न हो तो मास्टर हो जाएँ यही सोच उन्हें बी.एस.टी.सी. करा दी गई। वे पंचायत समिति में तृतीय श्रेणी शिक्षक हो गए। पंचायत समिति के अधीन सब प्राइमरी के स्कूल थे। वहाँ विद्वता की कोई कद्र न थी। गाँव में पोस्टिंग होती। हर दो साल बाद तबादला हो जाता। व्यास जी गाँव-गाँव घूम-घूम कर थक गए।
व्यास जी के बीस बीघा जमीन थी बिलकुल कौरवान। पानी का नाम न था। खेती बरसात पर आधारित थी। व्यास जी उसे गाँव के किसान को मुनाफे पर दे देते और साल के शुरु में ही मुनाफे की रकम ले शहर आ जाते। बाँध बना और नहर निकली तो जमीन नहर की हो गई। मुनाफा बढ़ गया। गाँव-गाँव घूम कर थके कमल किशोर जी व्यास ने सोचा, इस गाँव-गाँव की मास्टरी से तो अच्छा है अपने गाँव स्थाई रूप से टिक कर खेती की जाए।
खेती का ताम-झाम बसाया गया। बढ़िया नागौरी बैल खरीदे गए। खेत हाँकने का वक्त आ गया। कमल किशोर व्यास जी खुद ही खेत हाँकने चल दिए। दो दिन हँकाई की, तीसरे दिन हँकाई कर रहे थे कि एक बैल नीचे गिरा और तड़पने लगा। अब व्यास जी परेशान। अच्छे खासे बैल को न जाने क्या हुआ? बड़ी मुश्किल से महंगा बैल खरीदा था, इसे कुछ हो गया तो खेती का क्या होगा? दूर दूर तक जानवरों का अस्पताल नहीं ,बैल को कस्बे तक कैसे ले जाएँ? और डाक्टर को कहाँ ढूंढें और कैसे लाएँ? बैल को वहीं तड़पता छोड़ पास के खेत में भागे, जहाँ दूसरा किसान खेत हाँक रहा था। उसे हाल सुनाया तो वह अपने खेत की हँकाई छोड़ इन के साथ भागा आया। किसान ने बैल को देखा और उस की बीमारी का निदान कर दिया। भाया यो तो बैल 'बगाग्यो' । व्यास जी की डिक्शनरी में तो ये शब्द था ही नहीं। वे सोच में पड़ गए ये कौन सी बीमारी आ गई? बैल जाने बचेगा, जाने मर जाएगा?
किसान ने उन से कहा मास्साब शीशी भर मीठा तेल ल्याओ। मास्टर जी भागे और अलसी के तेल की शीशी ले कर आए। किसान ने शीशी का ढक्कन खोला और उसे बैल की गुदा में लगा दिया, ऐसे कि जिस से उस का तेल गुदा में प्रवेश कर जाए। कुछ देर बाद शीशी को हटा लिया। व्यास जी महाराज का सारा ध्यान बैल की गुदा की तरफ था। तेल गुदा से वापस बाहर आने लगा मिनटों में बैल की गुदा में से तेल के साथ एक उड़ने वाला कीड़ा (जिसे हाड़ौती भाषा में बग्गी कहते हैं) निकला और उड़ गया। व्यास जी को तुरंत समझ आ गया कि 'बगाग्यो' शब्द का अर्थ क्या है। उन का संस्कृत और हिन्दी का अध्ययन बेकार गया।
पंडित कमल किशोर व्यास हाड़ौती का शब्दकोश तलाशने बैठे तो पता लगा कि ऐसा कोई शब्दकोश बना और छपा ही नहीं है । बस बैल की गुदा में बग्गी घुसी थी, इस कारण से बीमारी का नाम पड़ा 'बगाग्यो'। यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"।
18 टिप्पणियां:
गांवों में ऐसे कई शब्द प्रचलित होते है जो किसी शब्द कोष में नहीं मिलते | और जो गांव के लोग शहरों में रहने लग गए वे भी इन शब्दों को नहीं जान पाते | इसीलिए बेचारे व्यास जी भी नहीं समझ पाए |
हा हा हा आप भी मौज की पिनक में आ गए ! वैसे यह एक अच्छा प्रोजेक्ट हो सकता है की इन हड़बड़ शब्दों का एक संग्रह तैयार किया जाय ! यह कार्य अनूप जी बहुत मन से कर सकेगें या इसके लिए वे रिसर्च स्कालर भी ढूंढ सकते हैं ! उनके वालंटियर भी एक नही हजार हैं !
इसी तरह गांवों से ही नए शब्दों का निकास होता हैं, जो बाद में जाकर शब्दकोष की शोभा बढाते हैं.
आपने इसका एक अच्छा उदहारण प्रस्तुत किया, "बड़ी चोखी बात लागी".
तभी तो आज के भाषा वैज्ञानिक देशज भाषा और शब्दावली पर जोर दे रहे है :)
प्रस्तुति/प्रसंग मजेदार है आनंद आ गया पंडित जी आभार.
वाह भाई साहब मज़ा आ गया
कहन का अंदाज़ ग़ज़ब है
आज आये घने दिन के बाद हाडौती वाले रंग में. घणा मजा आया.
रामराम.
बगाग्यो = बग (bug) आगयो?
हुआ तो यही था. बढ़िया.
आप के लिखने की शेली बहुत अच्छी लगी, ओर मेने भी बहुत ध्यान से पढा, बहुत अच्छा लगा, अगर एक महीना पहले पढ लेता तो मुझे एम्बुलेंस की जरुरत ना पडती, यही इलाज कर के इस हाडौती को भगा देते:)
धन्यवाद
हा हा !
ये भी खूब रही!!
बहुतेरे शब्द हैं जो किसी शब्दकोश में नहीं मिलेंगे लेकिन प्रचलित हैं
वैसे Ghost Buster ने ठीक ही कहा है -बग आ ग्यो=बगाग्यो
इंटरनेट पर दो वेबसाईट्स देखीं थी ऐसे ही (अ-शब्दकोशीय) शब्दों की
पहली है Urban Dictionary
दूसरी है (व्यस्कों के लिए) Cool Slangs
बी एस पाबला
ये भी खूब रही... घणा मजा आया.वाकई!!!
आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.
धांसू-हांसू-फांसू पोस्ट । मजेदार।
एक नया शब्द जानने को तो मिला ही और साथ ही साथ आपके प्रस्तुतीकरण में मजा आ गया।
जय हो! अपन का काम तो तड़, भड़ , खड़ की गैरजिम्मेदारी वाला है। अपने आप नये शब्द गढ़ जाते हैं! शोध संस्थान जैसे काम अरविन्दजी जैसे जिम्मेदार को थमाइये जी। पूर्वजों का कुछ कर्ज भी उतार सकेंगे। :)
हा हा !
कहीं व्यास जी ने नया शब्दकोष तो नहीं लिख डाला.
यह तो वही हुआ "तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये"।
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bas yahi kuchh huaa tha us chutkule par jo aap hamare BLOG par padh ka aaye hain.
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Aapki post to hamesh ki tarah WAH WAH.
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is tarah ki post ke baad ham to shabdheen ho jaate hain kuchh bhi kahne ko.
fir bhi BAHUT CHHOTE HONE KE BAAD BHI AAPKO BADHAAII
वाह, वडनेरकर जी को सौप दें यह शब्द। वहां से बग और चलते चलते चन्द्रबग्गी तक पंहुचा देंगे! :)
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