अगली रात्रि का भी जब दूसरा प्रहर समाप्त होने को था, तब सनत ने संपर्क किया। दृश्यवार्ता में संपर्क बन जाने पर सूत जी बोले- सनत! मैं कल तुम्हें लक्ष्मी के भेद बताने वाला था। अब उसे ध्यान से श्रवण करो! लक्ष्मी सदैव श्रम से ही उत्पन्न होती है। जल, वायु आदि पदार्थ प्रकृति में बिना मूल्य प्राप्त होते हैं। लेकिन किसी गांव में जल का कोई स्रोत न हो, और जल पर्वत की तलहटी के सोते से भर कर लाना हो तो ग्राम में लाया गया जल मूल्यवान हो जाता है। उस में यह मूल्य उत्पन्न होता है जल को सोते से गांव तक लाने में किए गए श्रम से। केवल मनुष्य ही है जो प्राकृतिक वस्तुओं के स्थान व रूप बदल कर उन का उपयोग करता है। इस तरह प्रकृति में प्राप्त वस्तुओं को मानवोपयोगी बनाने के लिए श्रम आवश्यक है। इसी श्रम के योग से वस्तुओं में मूल्य उत्पन्न होता है। एक हीरा भूमि के गह्यर में दबा होता है। मनुष्य अपने श्रम से उसे पृथ्वी की गहराई से बाहर निकालता है और उसे तराश कर सुंदर व बहुमूल्य बना देता है। उस हीरे में जो भी मूल्य उत्पन्न होता है वह उसे गहराई से निकालने और तराशने में किए गए श्रम से उत्पन्न होता है। प्राकृतिक वस्तुओं में श्रम के योग से उत्पन्न हुआ यही मूल्य लक्ष्मी है। इसे हम प्रारंभिक लक्ष्मी कह सकते हैं। यह आवश्यक नहीं कि श्रम सदैव ही मूल्य उत्पन्न करे। यदि किया गया श्रम मानवोपयोगी नहीं तो वह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं करेगा। जैसे कोई कुएँ से बाल्टी भर पानी खींच कर बाहर निकाले और उस बाल्टी भर पानी को फिर से कुएँ में डाल दे तो वह श्रम तो करेगा किन्तु उस से कोई मूल्य उत्पन्न नहीं होगा. लेकिन जब भी मूल्य उत्पन्न होता है तो वह श्रम से ही होता है। बिना श्रम के लक्ष्मी कभी उत्पन्न नहीं होती।
एक हीरा खानहे, पाठक!
सूत जी के इतना कहने पर सनत ने प्रश्न किया -लेकिन ताऊ कहते थे "भाई आप श्रम से कितनी बडी लक्ष्मी पैदा कर सकते हैं? वो तो बिना ताऊपने के नहीं आ सकती, यह गारंटी है। भले धीरु भाई की हिस्ट्री देख लिजिये. जो कि महान ताऊ थे।"
सूत जी बोले -ताऊ ने बिलकुल सही कहा। मनुष्य यदि अकेला श्रम करे तो कितना मूल्य उत्पन्न कर सकता है? बहुत थोड़ा न? जो उस के स्वयं के लिए पर्याप्त हो, या उस से कुछ अधिक। मनुष्य के आरंभिक जीवन में ऐसा ही था। उस का सारा दिन फल संग्रहण और शिकार में ही व्यतीत हो जाता था। दिन भर पूरा परिवार श्रम कर के भी केवल अपने जीवनयापन जितना ही जुटा पाता था। लेकिन औजारों के आविष्कार और पशुपालन से यह संभव हुआ कि वह कुछ अधिक मूल्य उत्पन्न कर सके और कुछ खाद्य व अन्य जीवनोपयोगी सामग्री एकत्र कर सके। जब उस ने औजार परिष्कृत कर लिए खेती का आविष्कार हुआ तो वह और अधिक मूल्य उत्पन्न उत्पन्न करने लगा। वह इतना उत्पादन करने लगा कि उपयोग के उपरांत संग्रह योग्य उपयोगी पदार्थ बचने लगे। यही वह लक्ष्मी थी जिसे मनुष्य ने सहेजा।औद्योगिक क्रांति
वर्तमान युग की बात करें तो आज मनुष्य स्वयं अपने परिवार के उपयोग के लिए वस्तु उत्पादन के लिए ही श्रम करता ही नहीं है। वस्तु उत्पादन आज इतना विकसित और जटिल हो चुका है कि प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने लिए एक विशिष्ठ दक्षता का कार्य तलाशता है और उसी पर श्रम करता है। मुद्रा के आविष्कार ने इस तरह के श्रम को आसान किया है। अब मनुष्य को किसी भी किए गए विशिष्ठ और दक्ष कार्य के बदले मुद्रा प्राप्त हो जाती है और वह उस से अपने लिए जीवनो पयोगी वस्तुएँ क्रय कर के प्राप्त कर सकता है। इस तरह का विनिमय बहुत पहले आरंभ हो गया था। लेकिन आज वह चरम पर है। इसी विनिमय ने बाजार को उत्पन्न किया है। इसी तरह धीरे धीरे श्रम सामुहिक होता गया। भाप, तेल और विद्युत शक्ति का उपयोग उत्पादन में आरंभ होने ने ही यूरोप की औद्योगिक क्रांति को जन्म दिया। जिस ने स्वाधीनता और जनतंत्र के मूल्य दुनिया में स्थापित किए।सामुहिक-श्रम
हे, पाठक!
सूत जी आगे बोले -अब काम समूहों में होते हैं। हर कोई दूसरे के लिए श्रम करता है और श्रम का मूल्य मुद्रा में प्राप्त करता है। श्रम कर के वह जितना मूल्य उत्पन्न करता है। वह उसे पूरा नहीं मिलता। अपितु उसे मिलने वाला मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि बाजार में विशिष्ठ प्रकार का श्रम करने वाले कितने लोग हैं? और उस तरह का श्रम करा कर मूल्य उत्पादित कराने वाले कितने? दुनिया में एक श्रम बाजार बन गया है। दुनिया में उत्पादित उपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का भी बाजार है। बाजार में श्रंम और उत्पादित वस्तुएं मुद्रा में मूल्य दे कर क्रय-विक्रय की जा सकती हैं। किसी भी श्रम बाजार में सदैव श्रम विक्रय करने वालों की अधिकता बनी रहती है। प्रारंभ में किसी नए प्रकार की विशिष्ठता के श्रम करने वालों की कमी रहती है तो श्रम का मूल्य बहुत अधिक प्राप्त होता है और वास्तव में उन के द्वारा उत्पादित किए जाने वाले मूल्य से भी अधिक हो सकता है। किन्तु यह अत्यन्त अस्थाई होता है। कुछ ही काल में उस विशिष्ठ श्रम को करने वाले अनेक लोग हो जाते हैं और बाजार में श्रम का मूल्य उत्पादित मूल्य से बहुत कम हो जाता है। इस श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य से उस श्रम के बदले चुकाया गया मूल्य बहुत कम होता है। इन दोनों के अंतर का अतिरिक्त मूल्य सदैव ही उत्पादन के साधनों के स्वामियों के पास रहता है। यही अतिरिक्त मूल्य एकत्र हो कर जब पुनः उत्पादन के उद्यम में लगाया जाता है तो वह पूंजी हो जाता है। संग्रहीत अतिरिक्त मूल्य को ही टिप्पणीकार ज्ञानदत्त जी पाण्डे ने महालक्ष्मी कहा है और ताऊ का कथन भी उचित और यथार्थ कि ताऊपने के बिना यह महालक्ष्मी पैदा नहीं हो सकती। धनसंचय कर उत्पादन के उद्यम का स्वामी बनना और एक ऐसा तंत्र खड़ा करना जो लगातार अतिरिक्त मूल्य का सृजन करता रहे ताऊपना नहीं तो क्या है? ऐसे ताऊओं को ही आज पूँजीपति कहा जाता है। ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं, वहीं श्रमजीवी जनता इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है। ताऊ लोग अपनी महालक्ष्मी के बल पर एक-केन-प्रकरेण अपने प्रतिनिधियों को महा पंचायत में पहुँचाते हैं। श्रमजीवियों के पास महालक्ष्मी की शक्ति नहीं, लेकिन लक्ष्मी को उत्पन्न करने की शक्ति है। वे अपनी शक्ति को सामूहिक रूप से संगठित करें तो ताऊ लोगों पर भारी पड़ सकते हैं। श्रमजीवी जनता के पास संगठन ही एक मात्र मार्ग है जिस के बल पर वे अपने अधिक से अधिक प्रतिनिधि महापंचायत में पहुँचा सकते हैं। नया तथ्य यह है कि हाल के चुनावों के बाद महापंचायत के 543 में से 300 चुने हुए सदस्य करोड़पति हैं।
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा?
इतना कह कर सूत जी ने सनत से पूछा- अब तो तुम्हें ज्ञानदत्त जी और ताऊ जी की टिप्पणियों में सार दिखाई दे रहा होगा?
महाताऊ (पूंजीपति)
हे, पाठक!इस पर सनत बोला - गुरूवर? प्रश्न का उत्तर तो मिल गया। लेकिन आप की बात से मन में बहुत से नवीन प्रश्न उत्पन्न हो गए हैं। लगता है मुझे बहुत कुछ पढ़ना पड़ेगा, समझना पड़ेगा। जिस तरह के व्यवसाय में हूँ उस में तो यह बहुत आवश्यक भी है। सोचता हूँ एक बार मरकस बाबा की "पूँजी" को आद्योपांत पढ़ डालूँ और उस के बाद ही आप से कुछ बात करूँ।
सूत जी बोले -अवश्य पढ़ो। वह एक महत्वपूर्ण पुस्तक है जो डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होने पर भी बहुत से संशयों का निवारण करती है। उस का अध्ययन कर तुम भविष्य के लिए नए मार्ग के बारे में कुछ विचार कर सकोगे। रात्रि बहुत हो चुकी है। मैं अब विश्राम करूंगा, और हाँ ये लम्पी दृश्यवार्ता से मुझे अधिक देर नहीं सुहाती कष्ट होने लगता है। तुम कभी सप्ताह भर का अवकाश ले कर नैमिषारण्य आ जाओ। यहाँ खूब बतियाएँगे, वाद-विवाद-संवाद करेंगे और एक दूसरे से सीखेंगे। मुझे भी तुम जैसे प्रश्न करने वाले नौजवानों से ही तो ऊर्जा मिलती है। लगातार पढ़ने-सीखने की आवश्यकता बनी रहती है। सत्य कहता हूँ जिस दिन पढ़ना-सीखना बंद हो जाएगा उस दिन मेरा सूत मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
14 टिप्पणियां:
सूत जी ने, मरकस बाबा की बातों को बहुत सरल शब्दों में और संक्षिप्त में बयान कर दिया। उम्मीद है अब लोगों को समझ आ गया होगा कि महालक्ष्मी ताऊपने के बिना क्यों उत्पन्न नहीं होती...
Sundar upyogee prasang ko aapne bada hee rochak roop de diya...
सत्य वचन महराज .
बड़ी तकनीकी पोस्ट है यह। सूत जी हार्वर्ड हो आये या जे.एन.यू.? :D
आखिर सत्य तो सत्य होता है.:)
बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी .....
रामराम.
"ताऊ लोग जहाँ अधिक से अधिक अतिरिक्त मूल्य प्राप्त कर अपने लिए और अधिक महालक्ष्मी पर आधिपत्य चाहते हैं, वहीं श्रमजीवी जनता इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।"
"यहाँ आपका इशारा "श्रमजीवियों" और "ताऊओं" के बीच शाश्वत टकराव से है.
हमारी शंका ;
क्या कोई तीसरा (यहाँ राज्य) भी है जो इस टकराव में ज़ज की भूमिका निभाता है और उसका अस्तित्व तब तक है जब तक यह टकराव बना रहता है ? अर्थात राज्य की भूमिका या सार्थकता उस प्राइमरी कक्षाओं की दो झगडालू बिल्लियों के बीच बन्दर की भूमिका के सिवाय और कुछ नहीं है ?
कथा के इस संवाद का पिछला वाक्य "श्रमजीवी जनता इस महालक्ष्मी से अपने भाग का आशीर्वाद चाहती है।"
हमारी दूसरी शंका ;
"अपने भाग का आशीर्वाद" परिमाण में कितना चाहती है ?
ऐसा क्यूँ लगता है कि मरकस बाबा के सैद्धांतिक ज्यादा थे व्यवहारिक कम?
और ऐसा क्यूँ लगता है कि मरकस बाबा के अनुयायी धार्मिक कट्टरपंथियों की तरह उनकी कहीं गयी बातों से थोडा भी इधर उधर नहीं सोचते ?
और भी कई बातें दिमाग में चल रही हैं. पर विवाद का डर है ! तो बोलो! हरे नमः, गोविन्द, माधव, हरे मुरारी.
श्रम करो और "श्री " से वर पाओ - बहुत सुँदर आख्यान रहा दीनेश भाई जी
- लावण्या
बहुत ज्ञान वर्धक !
आखिर महापंचायत में ये ३०० करोड़पति महाताऊ ही तो है |
काफ़ी अच्छी तरह लिखा है जी आपने, बहुत ही रोचक रूप दे दिया है आपने,
प्रेम से बोलो जय हो ताऊपने की।
अभिषेक ओझा,
इस तरह से पलायन करने से प्रश्न पीछा नहीं छोड़ते. बहस तो करनी ही होगी. हो सकता हैं हम एक-दूसरे को अपने पक्ष में न जीत पायें लेकिन एक वर्ग दृष्टिकोण तो पैदा हो ही जायेगा.
आप की पोस्ट में व्यक्त सकारात्मक विचारों-जन सरोकारों और श्रमजीवियों की पक्षधरता-व्यक्त प्रेरक-प्रोत्साहक-सार्थक विचारों को साला-दिल से.
आप का दोस्त-स्नेहाधीन,
जन कवि डा. रघुनाथ मिश्र (मेरे ६४वें जन्मदिन २३/०९/१२ की पूर्व संध्या पर)मेर दिल से निकले उदगार-उपहार पुष्प के रूप में स्वीकार करें.
ताऊपना तो आजकल हर जगह चाहिए बिना ताऊपने के तो जीना भी दूभर हो गया है !!
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