किसी भी ब्लाग का उद्देश्य स्वयं को अभिव्यक्त करना, सहज हो कर विमर्श करना हो सकता है। विमर्श में विचारों में मत भिन्नता होगी ही, अन्यथा विमर्श का कोई लाभ नहीं हो सकता। लेकिन एक दूसरे पर कीचड़ उछालना, व्यंगात्मक टिप्पणियाँ करने से विमर्श नहीं होता, बल्कि वह समाप्त हो जाता है। विमर्श के चलते रहने की पहली शर्त ही यही है कि उस में एक दूसरे के प्रति सम्मान कायम रहे। मेरा यह सोचना है कि विचार अभिव्यक्ति की रक्षा आवश्यक है, चाहे वह गलत ही क्यों न हो। हाँ गलत विचार का प्रतिवाद होना चाहिए। लेकिन विचारों और उन के प्रतिवाद सभ्यता की सीमा न लांघें अन्यथा बर्बर और सभ्य में क्या अंतर रह जाएगा?
सच का सवाल महत्वपूर्ण था कि महिलाओं को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए संरक्षण जरूरी है? अन्यथा उन्हें इसी तरह अपशब्दों से नवाजा जाता रहेगा। मेरा सोचना है कि महिलाएँ संऱक्षण के बावजूद भी अपशब्द का शिकार होंगी। बराबरी के जिस संघर्ष में वे हैं उस के दौरान भी और उस के बाद भी। इस का प्रमाण है कि अपशब्द कहने के लिए यहाँ यह बहाना बनाया गया कि नारी और चोखेरबाली समूह की महिलाओं की टिप्पणियाँ यहाँ क्यों नहीं हैं? जब कि वे वहाँ थीं। महिलाएँ संरक्षण के जरिए इन अपशब्दों से नहीं बच सकतीं। यह पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ जब भी पुरुषों की प्रधानता पर चोट पड़ेगी वे तिलमिलाएंगे और तिलमिलाहट में सदैव गाली का ही उच्चारण होता है, राम का नहीं। इस समाज में महिलाओं को बराबरी हासिल करनी है तो वह खुद के बल पर ही करनी होगी। कुछ पुरुष उन के मददगार हो सकते हैं, लेकिन वे इस बराबरी के संघर्ष को अपनी मंजिल तक नहीं ले जा सकते हैं।
जहाँ तक सामाजिक सच का सवाल है। यह समाज पुरुष प्रधान समाज है, और महिलाएँ पददलित हैं, इस तथ्य से इन्कार नही किया जा सकता। प्रत्येक गली, मुहल्ले, गाँव, नगर, प्रांत और देश में इस के उदाहरण तलाशने की आवश्यकता नहीं है। खूब बिखरे पड़े हैं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को अधीनता की शिक्षा बचपन से दी जा रही है, वह अभी तक इस से मुक्त नहीं है। उसे तैयार ही अधीनता के लिए किया जाता है। बड़ी-बूढि़याँ और पिता व भाई इस हकीकत को जानते हैं कि स्त्री ने अधीनता को स्वीकार नहीं किया तो उस का जीना हराम कर दिया जाएगा, यह समाज एक-दो पीढ़ियों में बदलने वाला नहीं है। इस कारण वे बेटियों को अधीनता की शिक्षा देना उचित समझते हैं। अपने यहाँ आने वाली बहुओं का भी वे इसी तरह स्वागत करते हैं कि उसे बराबरी का हक नहीं मिले।
लेकिन मनुष्य समाज में बराबरी का हक वह विकासमान तत्व है, कि रोके नहीं रुकता। कुछ महिलाएँ उसे हासिल करने को जुट पड़ती हैं और किसी न किसी तरह उसे हासिल करती हैं। जब वे हासिल कर चुकी होती हैं, तो अन्य को भी प्रेरित करती हैं। कानून और प्रत्यक्ष ऱूप से पुरुषों को भी उन का साथ देना होता है।
इस का अर्थ यह भी नहीं कि महिलाएँ देवियाँ हैं। वे कतई देवियाँ नहीं। देवियाँ हो भी कैसे सकती हैं? वे तो अभी पुरुष से बराबर का हक मांग रही हैं। यह भी सच नहीं कि पुरुष कहीं भी महिलाओं द्वारा सताया न जाता हो। अनेक उदाहरण समाज में मिल जाएंगे जहाँ पुरुष महिलाओं द्वारा सताया जाता है। अनेक बार यह भी होता है कि पुरुष का जीना महिला दूभर कर देती है। लेकिन यह सामाजिक सच नहीं है। यह केवल सामाजिक सच का अपवाद है। सताए हुए पुरुष को महिलाओं द्वारा पुरुषों के समाज में बराबरी का हक मांगना नागवार गुजरता है। क्यों कि उन्हें अपना ही सच दुनियाँ का सामाजिक सच नजर आता है। वे अपनी बात को वजन देने के लिए ऐसे उदाहरण तलाश करने लगते हैं जिन से महिलाओं को आततायी घोषित किया जा सके। उन्हें ये उदाहरण खूब मिलते भी हैं। वे उन्हें संग्रह करते हैं, और लोगों के सामने रखने के प्रयास भी करते हैं। वे यहाँ तक भी जाने की कोशिश करते हैं कि महिलाओं को प्रकृति ने पुरुषों के भोग और उन की सेवा के लिए ही बनाया है। हाल ही में यहाँ तक कहने का प्रयास किया गया कि अधिक पत्नियों वाला पति दीर्घजीवी होता है।
हिन्दी ब्लाग-जगत इस तरह के प्रयासों से अछूता नहीं हैं। जब महिलाएँ सामूहिक कदम उठाती हैं तो इस तरह के लोगों को परेशानी होती है। उस का उत्तर वे तर्क से देने में असमर्थ रहते हैं तो अपशब्दों का प्रयोग करने लगते हैं। ऐसी हालत में महिलाओं के विरोध का यह जुनून एक रोग बन जाता है। किसी आगत रोग जो शरीर के बाहर के कारणों से उत्पन्न होता हो उस का निषेध यही है कि उसे घर में और सार्वजनिक स्थानों से हटा दिया जाए। ब्लाग पर उस का सही तरीका यही है कि टिप्पणियाँ ब्लाग संचालक की स्वीकृति के बाद ही ब्लाग पर आएँ, और उन को जवाब नहीं दिया जाए।
ऐसे पुरुष जो पुरुष प्रधान समाज में भी महिलाओं द्वारा सताए जाते हैं वे केवल दया और सहानुभुति प्राप्त करने की पात्रता ही रख सकते हैं। उन्हें चाहिए कि वे पूरे समाज के परिप्रेक्ष्य में स्वयं की परिस्थिति का आकलन करें और स्वयं की लडाई को सामाजिक बनाने का प्रयास न करें। क्यों कि वे सामाजिक रूप से वे ऐसा करेंगे तो ऐसी सेना में शामिल होंगे, हार जिस की नियति बन चुकी है। समाज आगे जा रहा है। वह महिलाओं की बराबरी के हक तक जरूर पहुँचेगा।
आज की परिस्थिति में महिलाओं द्वारा व्यक्तिगत रूप से सताए गए पुरुषों के पास केवल एक ही मार्ग शेष है। यदि समझ सकें तो समझें। मैं भाई विष्णु बैरागी की गांधी कथा से एक उद्धरण के साथ इस आलेख को समाप्त कर रहा हूँ .......
1931 की गोल मेज परिषद की बैठक। गांधी और अम्बेडकर न केवल आमन्त्रित थे अपितु वक्ताओं के नाम पर कुल दो ही नाम थे -अम्बेडकर और गांधी। गांधी का एक ही एजेण्डा था -स्वराज। उन्हें किसी दूसरे विषय पर कोई बात ही नहीं करनी थी। अम्बेडकर को अपने दलित समाज की स्वाभाविक चिन्ता थी। वे विधायी सदनों में दलितों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए पृथक दलित निर्वाचन मण्डलों की मांग कर रहे थे जबकि गांधी इस मांग से पूरी तरह असहमत थे। परिषद की एक बैठक इसी मुद्दे पर बात करने के लिए रखी गई। अंग्रेजों को पता था कि इस मुद्दे पर दोनों असहमत हैं। उन्होंने जानबूझकर इन दोनों के ही भाषण रखवाए ताकि दुनिया को बताया जा सके कि भारतीय प्रतिनिधि एक राय नहीं हैं-उन्हें अपने-अपने हितों की पड़ी है।
बोलने के लिए पहले अम्बेडकर का नम्बर आया। उन्होंने अपने धाराप्रवाह, प्रभावी भाषण में अपनी मांग और उसके समर्थन में अपने तर्क रखे । उन्होंने कहा कि गांधीजी को संविधान की कोई जानकारी नहीं है। इसी क्रम में उन्होंने यह कह कर कि ‘गांधी आज कुछ बोलते हैं और कल कुछ और’ गांधी को परोक्षतः झूठा कह दिया, जो गांधी के लिए सम्भवतः सबसे बड़ी गाली थी। सबको लगा कि गांधी यह गाली सहन नहीं करेंगे और पलटवार जरूर करेंगे। सो, सबको अब गांधी के भाषण की प्रतीक्षा आतुरता से होने लगी ।
गांधी उठे। उन्होंने मात्र तीन अंग्रेजी शब्दों का भाषण दिया -‘थैंक् यू सर।’ गांधी बैठ गए और सब हक्के-बक्के होकर देखते ही रह गए। बैठक समाप्त हो गई। इस समाचार को एक अखबार ने ‘गांधी टर्न्ड अदर चिक’ (गांधी ने दूसरा गाल सामने कर दिया) शीर्षक से प्रकाशित किया।बैठक स्थल से बाहर आने पर लोगों ने बापू से इस संक्षिप्त भाषण का राज जानना चाहा तो बापू ने कहा कि “सवर्णो ने दलितों पर सदियों से जो अत्याचार किए हैं, उससे उपजे विक्षोभ और घृणा के चलते वे (अम्बेडकर) यदि मेरे मुंह पर थूक देते, तो भी मुझे अचरज नहीं होता”।
16 टिप्पणियां:
रात के दो बजे यह टिप्पणी दे रहा हूँ क्योंकि अभी नींद नहीं आ सकी है। आज नारी का एक अलग रूप देखकर मन विचलित था, कुछ प्रश्न कचोट रहे थे। उनको अपने ब्लॉग सत्यार्थमित्रपर सुबह के लिए शिड्यूल कर के निवृत्त हुआ तो आप की पोस्ट सामने थी। ...पूरा पढ़ने के बाद आपके आहत मन का सहज अनुमान हो जाता है। इसका कारण भी मुझे पता है क्योंकि मैने पिछली पोस्टें और टिप्पणियाँ पढ़ी हैं। ब्लॉग मंच पर जिस विमर्श की आशा हम-आप कर रहे हैं उन्हें कुछ खटरागियों की वजह से धूमिल करने की कत्तई आवश्यकता नहीं है। यह मंच भी इस दुनिया की ही तरह है, जहाँ अच्छे लोगों की कमीं है, लेकिन दुनिया चल भी रही है उनके कारण ही। वह भी बहुतायत के बुरे होने के बावजूद।
बापू दूसरा गाल आगे कर दिये। अब शायद वह स्पिरिट रखने वाले लोग नहीं हैं। लिहजा चर्निंग और फ्रिक्शन होगा ही।
यह संक्रमण काल है। जितनी जल्दी खतम हो, अच्छा।
द्विवेदी जी ,मैंने आपके आलेख को आद्योपांत सायास पढा .मैं सहसा तो इस पर कुछ बेलौस टिप्पणी करना चाहता था पर पारिवारिक संस्कारों ने मुझे हठात रोक लिया .मैं यह समझ नही पा रहा कि एक फटे हुए ढोल के मानिंद इस नारी समानता के मुद्दे को इतना क्यों खींचा जा रहा है और आप अपनी रचनात्मक ऊर्जा और विपुल अध्ययन ऐसे कालातीत मुद्दे पर क्यों जाया कर रहे हैं !इसके निहितार्थ क्या हैं ?
नर नारी समानता का गुब्बारा जो पश्चिमी सोच की फूँक पा फूला था कब का पिचक चुका है .इस फटे पिचके गुब्बारे को यहाँ फिर से फुलाने का निष्फल प्रयास हो रहा है .मुझे उन तर्कों को फिर से उद्धृत करने की आवश्यकता नही है (आप प्रबुद्ध है जानते हैं )जो इस दिग्र्भमित आन्दोलन को आगाह करते आए हैं .परिवार हमारी एक ईकाई है -नर नारी एक दूसरे के पूरक है -क्या हम परिवार की सुख शान्ति की कीमत पर नारी एकता का भ्रमित यूटोपिया चाहते है ?
मैं आगे कुछ और बोलूंगा तो लोगों को आग लग जायेगी पर आपसे आभासी जगत में नहीं वास्तविक दुनिया में किसी ठौर इस मुद्दे पर जरूर वार्ता करना चाहता हूँ .मैं नारी के रोल रिवेर्सल के आसन्न खतरों से चिंतित हूँ अभी तो इतना ही कहूंगा !
द्विवेदी जी,
आपकी बात बिल्कुल सही है. मुझे यही लगता है कि जब तक हम अपने बच्चों को दूसरों को बराबर इज्ज़त देना और अपने से भिन्न दृष्टिकोण को समझने की आदत नहीं सिखायेंगे तब तक यह असहिष्णुता का माहौल कम होना कठिन है. सच को स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारें तो उसमें समाज के साथ हमारा अपना भी भला है.
यहाँ अमेरिका के समाज में एक बड़ा अन्तर मैं यह देखता हूँ कि रात के बारह बजे भी अकेली लडकी घर से निर्भीक होकर निकल सकती है. हमारे अपने देश में दिन में स्कूल आती-जाती बच्चियां भी छिछोरी निगाह से बच नहीं पाती हैं. बच्ची अगर गर्भ में मौत से बच गयी तो दहेज़ न लाने पर ससुराल में जलाई जा सकती है.
मगर इतनी सहज सी बात अपने आप न सही कमसकम दूसरों के (यहाँ पर आपके) समझाने पर तो लोगों की समझ में आनी चाहिए. जब तक लोग अपनी सही ग़लत बात मनवाने में बड़प्पन ढूंढते रहेंगे तब तक सत्यमेव जयते कैसे हो सकेगा?
कन्हैया लाल की जय! जन्माष्टमी की बधाई!
sawal ye hai ki barabari ka darza dega kaun aur manga kis se jaa raha hai.samaj ke do hi hisse hai ek purush aur dusra nari to jo purush nari ko aaj tak barabar nahi manta wo use manyata kyon dega aur dusri baat us se manyata li hi kyon jay.nari ko khud maan lena chahiye ki wo purusho se kam nahi hai.agar uske hisse ghar todne waali gali aati hai to bhi uske hisse srijan ka sabse bada inaam bhi hai,wo bad me beti,behan,bahu hai sabse pehle maan hai aur wo bhi purush ki.aapki post bahut kuch kehne aur sochne par mazboor kar rahi.ho sakta hai kuch log mujhse asahmat ho,unse kshama chahta hun
sabsey pehlae is aalekh kae liyae dhynavaad
koi naari barabri nahin mang rahee kyoki woh to pedaa hi baraabr hui haen , Anil Pusadkar ji . aur bhartiyae samvidhan mae nar aur naari kae hak barabar haen phir kyun naari ko hamesha kisii kae sanrakshna kii avashyktaa haen ??
मैं नारी के रोल रिवेर्सल के आसन्न खतरों से चिंतित हूँ अभी तो इतना ही कहूंगा ! Arvind Mishra ji role bhi hamarey hee nirdharit kiyae huae haen aur unkaa reversal bhi hamaarey hee haath mae haen . aaj jab naari purush kae saman har kaarya mae sakhsma haen to itni galiyaa kyun aatee haen jo stri vimarsh ki baat kartaa haen uskae liyae . samaj ki rudivaddi soch sae bahar aaney sae hee sam,aj badlaegaa aur jab aap jantey ahen ki role reversal ho rahaa haen to beto ko bhi wo sikhaaye jo betiyon ko sikhatey haen kyu ki aaj ki naari sakshm hae akaele bhi rehnae kae liyae so parivaar tootey gae agar aaj ki naari ko baraabri sae sammaan nahin diya gayaa .
blog par mahilao kae khilaaf jaese kaments aatey haen kyaa yae yae mansikata par jaa kar jaur padhey. http://mereaaspaas.blogspot.com/2008/08/blog-post_22.html
purush kaa har jwaab stri kae sharee par aa kar kyun ruktaa haen kabhie is par bhi aap sab likhey
kaun haen yae sab jo bloging kartee mahila kae shareer ko daekh rahey haen aur tika tippani kar rahey haen
sabhi budhi jiviyon ko mera pyar bhara namaskaar. main aap sab logon se ek hi bat kahna chahti hun ki kisi ki bhi post padhkar uttejit na hon. nar ya nari sab apne vichar vyakat karne ke liye swatantra hain. unko vyaktigat lena pagalpan hi hai. yadi kisi nari ko koi vyatha vyakt karni hai to iska ye matlab nahin ki vo aapki burayi hai. hum yahan sahitya padhne aate hain koi ladayi jeetne nahin. aap apne vichar vyakt karen hum apne. virodh kyun?
nariyon per na daya karen na rosh. agar sambhav ho to har kisi ki post se uske dil ki bhavnaon ko samjhne ki koshish karen. blog per nar -nari bankar nahin achhe mitr aur sehyogi bankar chalen. shubh kamnaon sahit
shobha
sab se pahle to aap ko ek code de rahi hoon, use apne sidebar mein HTML prishth - tatva laga kar usmein paste kar dein to bahut achchha hoga, kyonki yadi kabhi kisi anya compu. se blog dekhna pade to tippani ko devanagari mein likhne ka subheeta nahin hota. yadi pratyek blog par iski svayam suvidha ho to paathak ke lie uchit rahta hai. vah code pane ka link hai ----
http://www.widgetbox.com/widget/GoogleIndicTransliterate
Sanyog se is widget ki developer bhi main khud hoon.So aap ismein mera aatmaprachar dekhna chahein to bhale hi mut prayog karein.Astu.
Ab aap ki aaj ki pravishti ke lie aap ko badhayi dena chahoongi. aap ne vastusthiti ko bahut hi vyavaharik rukh se vishleshit kiya hai. Vimarsh ka uddeshya hi hota hai ki aisa vatavaran rahe,jismein sahi nishkarsh aa sakein. Kintu hota is se ulta hai. log jane kin kin karnon ke mare bahas kiye chale jate hain. aur blogjagat par to iske bhi kayi diggaj udaharan hain ki log baag keval apne hiot badhvane ke lie bahas kiye chale jate hain aur unhein charcha mein rahna va surkhiyon mein chhaye rahna hi jivan ka charam uddeshy lagta hai (blogging ka charam uddeshya bhi). aise mein sahi galat ka fatava dena nirapad nahin rahta.
Jis dharati par stree apni maan ke garbh tak mein surakshit nahin hai,yadi aise mein us prakar ki amanaveeyata se joojhati stree ko sabal banane ka yatna koi karta hai to us se doosron ko apna rajpat chhinta kyon pratyeet hota hai? na to sabhi striyan achchhi-buri hoti hain va na hi sabhi purush achchhe ya bure. donon mein donon prakar ki sambhavnayein hain. kintu tandoor mein jalayi jati beti,balatkar ka shikar hoti, dahej ke lie vadh ki jati, bajar mein bikti aur poster par bikti stree kya kahti hai? yadi koi kisi ke jivan ke adhikar ke lie sangharsh kare to usmein kasht ki baat hi kahan hai? strin bhi samantshah ho jati hain, kintu jivan bhar gulami jhelta manushy adhikar pate hi shoshak ban jata hai.
is liye yah un logon ko theek theek samajh lena chahiye (jo stree ki deh ke varnanon se apni kunthayein sadha karte hain)ki stree ki ladayi keval purush ke viruddh nahin hai apitu har prakar ki samant shahi ke viruddh hai, bhale hi vah purush kare ya koi adhikaronmat stree. stree ko na devi ka pad chahiye na rakshasi ka va na bhogya ka. use sahaj manushy matr hone ka adhikar to pane de koi. abhi to stree apne manveey adhikaron tak se vanchit hai.
'परिवार' को हम जिस परिपे्रक्ष्य में देखते और विचार-विमर्श का विषय बनाते हैं, वह भारतीय या कि पूर्वी अवधारणा है जो 'कुटुम्ब'जाती है जबकि 'फेमिली' जिस अर्थ में कहा जाता है, वह अत्यधिक सीमित है । जैसा कि ज्ञानदत्तजी ने कहा है, हम संक्रमण काल मे जी रहे हैं । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यते, तत्र रमन्ते देवा' वाली स्थिति तब थी जब व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताएं (या कहिए, लालसा) केवल जीवन यापन तक सीमति थी । आज हमें उपकरणों से लैस जीवन चाहिए जिसके लिए पति-पत्नी दोनों को कामकाजी बनना पड गया है । कोई कुछ भी कहे, अर्थोपार्जन व्यक्ति को अतिरिक्त आत्म विश्वास तो देता ही है । कामकाजी महिलाओं में भी यह आएगा ही । लेकिन हम पत्नी को हमसे बेहतर तो क्या, समान 'स्टेटस' में भी देखने को तैयार नहीं हो पाए हैं । अर्थोपार्जन करने वाली पत्नी हमें तब तक ही अच्छी लगती है जब तक वह अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाने के लिए एक कदम भी न बढाए । जैसे ही वह 'पत्नी' से 'व्यक्ति' बनती है, हमारा आहत पौरुष फुंफकार उठता है । जिस दिन हम स्त्री को व्यक्ति के रूप में स्वीकार कर लेंगे, ऐसे विमर्श स्वत: समाप्त हो जाएंग । अभी तो वह हमारे लिए 'जर और जमीन' की ही तरह 'वस्तु' मात्र है ।
आपको जन्माष्टमी पर्व की
बधाई एवं शुभकामनाएं
जो भगवान की भक्ति मे खो जाये उसे यह दुनिया भी बेकार लगती हे, ओर जॊ अपने परिवार मे घुल मिल जाये,पति हो या पत्नि, उस जगह पर ऎसी बाते कोई मायने रखती ही नही,ओर जो इस प्यार के सागर मे उतरा ही नही उसे क्या मालुम प्यार मे बराबरी कभी भी नही होती, वही घर स्वर्ग बनता हे जिस घर की स्त्रि सहन शील ओए ममता की मुरत होगी, वरना तो जब बराबरी की बात आयेगी तो वो घर तो होगा ही नही,बस चार दिवारो का एक मकान होगा, जिस मे दो चार लोग एक समझोते के तहत रहते हे
पिछली पोस्ट पर टिपण्णी करने की हिम्मत नहीं हुई... ज्ञानजी ने तो फिर भी कह दिया: "यहां बोलना खतरे जान है! :-)"
आज बस बापू के गाल आगे करने वाली बात दिल को छू गई... ऐसा व्यक्तित्व बना लेना बड़ा ही मुश्किल है ! लेकिन है तो सर्वोत्तम !
दिनेश जी आप ने बहुत ही अच्छा लेख लिखा है सबसे पहले तो इस संतुलित पर महिलाओं के पक्ष में लिखे लेख के लिए आप को धन्यवाद कहूँगी, महिला होने के नाते मेरे मन को भी ये लेख आंनदित कर गया। आप ने सही कहा कि विचारों में भिन्नता हो सकती है पर हमें अपनी शिष्टता नहीं छोड़नी चाहिए। ये भी सच है कि नारियों ने एक लंबी लड़ाई लड़ी है और फ़िर भी काफ़ी बाकी है पर ये भी सच है कि इसमें जब तक संवेदनशील पुरुष साथ न होगे ये लड़ाई काफ़ी कठिन और लंबी होगी। जैसे गांधी जी हरिजनो के प्रति संवेदनशील थे।
पर हम इस बात से सहमत नही कि जो पुरुष महिलाओं के हाथों प्रताड़ित होते है वो कमजोर होते हैं और वो सामाजिक समस्या नहीं। मुझे लगता है कि वो भी बड़ी तेजी से सामाजिक समस्या बनती जा रही है। और कमजोर चाहे कोई भी हो अन्याय चाहे किसी के भी साथ हो, चाहे नारी या पुरुष, उसे पूरा सरंक्षण और न्याय मिलना चाहिए। चाहे कोई भी हो अगर वो अपने से कमजोर को दबाने की कौशिश करे तो उसे रोकना ही चाहिए
नारी के उत्थान व सँघर्ष की यात्रा आज भी
"अनवरत" जारी है -
- लावण्या
सौवी पोस्ट के लिए बधाई...गांधी वाला उदारहण आँखे खोलने जैसा है.....अब समय बदल रहा है.....ओर उम्मीद है एक बेहतर युग आयेगा
'नारी समानता' के स्थान पर यदि 'नारी सम्मान' की बात की जाय तो अधिक उपयुक्त होगा. जब परिवार में सब एक दूसरे का सम्मान करेंगे तो समानता अपने आप आएगी.
समानता से पूर्व यह जान लेना व विचार करना आवश्यक है कि जिसके समान हम होना चाह रहे हैं, वह उत्तम है भी या नहीं? वैसे द्विवेदी जी आज तक स्त्री-पुरुष न समान रहे हैं और न होंगे. प्रकृति की व्यवस्था को हम बदल नहीं सकते. नर और नारी भिन्न-भिन्न हैं तो भिन्न ही रहेंगे हां, दोनों को उनकी प्रकृति के अनुरूप विकास के अवसर मिलने चाहिये.
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