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शनिवार, 17 अप्रैल 2021

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

मैंने नहीं, तुमने बुलाया है


मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
हाहाकार मचा है नगर भर में
एक के पीछे दूसरी, तीसरी
एम्बुलेंस दौड़ती हैं सड़कों पर
जश्न सारे अस्पतालों ने मनाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
ताले पड़े हैं विद्यालयों पर
नौनिहाल सब घरों में बन्द हैं
पसरा है सन्नाटा बाजारों में
कुनबा मुख-पट्टियों ने बढ़ाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
प्राण-वायु की तलाश में
भटकते वाहनों पर इन्सान हैं
फेफड़ों के वायुकोशों पर
डेरा विषाणुओं ने लगाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है
सज रही हैं, चिताओं पर चिताएँ
लकड़ियाँ शमशान सबका अभाव है
अपने लिए तुमने अवसर भुनाने को
अतिथि नहीं, दुष्काल बुलाया है
मैंने नहीं, तुमने बुलाया है

- दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 5 सितंबर 2015

डरे न कोई जमना तट पर

सहसमुखी विषधर जब कोई
जमना जल पर काबिज हो ले
उधर पड़े ना पाँव किसी का
जमना तट वीराना हो ले

बच्चे खेलें जा कर तट पर
भय न उन को कोई सताए
खेल खेल में उछले गेंद
सीधी जमना जल में जाए

तब बालक कोई जा कूदे
जमना में हलचल मच जाए
लगे झपटने विषधर उस पर
नटखट बालक हाथ न आए

गाँव गाँव के सब नर नारी
डरें सभी अरु काँपें थर थर
भाग भाग कर होएँ इकट्ठा
पड़े साँप भारी बालक पर

बालक चपल साँप से ज्यादा
चढ़ बैठे विषधर के फण पर
नाच नाच कुचले फण सारे
लगे उसे बस एक घड़ी भर

विवश विषधर सरपट भागे
पीछा छोड़े जमना जल का
हो जाएँ निर्भय तटवासी
जल निर्मल हो फिर जमना का

जब भी अहम् कुण्डली मारे
फुफकारे जब कोई विषधर
डरे न कोई जमना तट पर
चपल हैं बालक इस धरा पर
  •  दिनेशराय द्विवेदी

शनिवार, 31 मई 2014

कोड़ा जमाल साई

शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...

कोड़ा जमाल साई ..... 
  • शिवराम

कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई

नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...

आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...

वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...


कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...

कोड़ा जमालशाही ... 
  • शिवराम

कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई


उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....

बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....

तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...

आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...

वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी




 

मंगलवार, 6 अगस्त 2013

भाई ने भाई मारा रे


महेन्द्र नेह ने पिछले दिनों कुछ पद लिखे हैं, उन में से एक यहाँ प्रस्तुत है। 
उन के अन्य पद भी आप अनवरत पर पढ़ते रहेंगे।
 
 'पद'

  • महेन्द्र 'नेह' 

    भाई ने भाई मारा रे

 ये कैसी अनीति अधमायत ये कैसा अविचारा रे।

एक ही माँ की गोद पले दोउ नैनन के दो तारा रे।। 



जोते खेत निराई कीनी बिगड़ा भाग संवारा रे।

दोनों का संग बहा पसीना घर में हुआ उजारा रे।। 

                                    

अच्छी फसल हुई बोहरे का सारा कर्ज उतारा रे।

सूरत बदली, सीरत बदली किलक उठा घर सारा रे।। 



कुछ दिन बाद स्वार्थ ने घर में अपना डेरा डाला रे।

खेत बॅंट गये, बँट गये रिश्ते, रुका नहीं बॅंटवारा रे।।
                         

 

कोई नहीं पूछता किसने हरा भरा घर जारा रे।

रक्तिम हुई धरा, अम्बर में घुप्प हुआ अॅंधियारा रे।।

बुधवार, 3 जुलाई 2013

धरती पिराती है

'कविता'


धरती के अंतर में
धधक रही ज्वाला के
धकियाने से निकले 

गूमड़ हैं,     पहाड़

मदहोश इंसानो! 

जरा हौले से 
चढ़ा करो इन पर
धरती पिराती है,

जब भी पक जाते हैं, गूमड़

तो फूट  पड़ते हैं।
  • दिनेशराय द्विवेदी

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत

र्वोच्च न्यायालय के ताजा निर्णय के बाद छह करोड़ गुजरातियों के नाम खुली चिट्ठी लिखने वाले नरेन्द्र मोदी के नाम गुजराती आईपीएस अधिकारी संजीव राजेन्द्र भट्ट ने खुली चिट्ठी लिखी है। इस चिट्ठी के अंत में भट्ट ने महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय के अपने सहपाठी भूचुंग डी. सोनम की एक कविता उदृत की है। यहाँ उस कविता का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है ... 

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
  • भूचुंग डी. सोनम

मेरे पास सिद्धांत है, बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सिद्धांत कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए
 
मेरे साथ सत्य है, कोई बल नहीं
तुम्हारे पास बल है, सत्य कोई नहीं
तुम 
तुम हो, और मैं 
मैं हूँ
सुलह का कोई मार्ग नहीं  
उतरो मैदान में युद्ध के लिए

तुम तोड सकते हो
मेरा सिर
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम फो़ड़ सकते हो
मेरी हड्डियाँ
फिर भी तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए
 
तुम मुझे जिंदा दफन कर सकते हो
फिर भी
तैयार हूँ मैं युद्ध के लिए

करूंगा मैं युद्ध
अपनी रगों में दौड़ते हुए सत्य के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
सचाई के हर अंश के साथ 
 
करूंगा मैं युद्ध
जीवन के अंतिम श्वास तक

करूंगा मैं युद्ध, अनवरत
धराशाई न हो जाए जब तक
असत्य की ईंटों से निर्मित तुम्हारा दुर्ग

घुटने न टिका दे जब तक  
तुम्हारे असत्यों से पूजित शैतान  
सचाई के फरिश्ते के सामने 

रविवार, 28 अगस्त 2011

ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ?

न्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देश भर में जिस तरह का समर्थन प्राप्त हुआ वह अद्भुत था। लेकिन इस के पीछे उन हजारों कार्यकर्ताओं का श्रम भी था, जो गाँव गाँव, नगर नगर और गली गली में सक्रिय थे। ये वे कार्यकर्ता थे जो किसी न किसी रूप में अन्याय का लगातार विरोध करते रहे थे और जिन का एक न्याय संगत व्यवस्था की स्थापना में विश्वास था। महेन्द्र 'नेह' ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। जिन्हों ने न केवल इस आंदोलन में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका अदा की अपितु आंदोलन की कोटा इकाई को नेतृत्व प्रदान करने में प्रमुख रहे। उन के इस सक्रिय योगदान के साथ साथ उन के गीतों ने भी इस आंदोलन के लिए चेतना की मशाल जगाने का काम किया। कल मैं ने उन का एक गीत यहाँ प्रस्तुत किया था जो इन दिनों आंदोलन के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। आज मैं एक और गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गीत चालीस-बयालीस वर्ष पहले रचा गया था। शायद तब जब लोकपाल बिल का विचार सब से पहले पैदा हुआ था। समय समय पर इसे लोकप्रियता मिली और आज इस आंदोलन के बीच फिर से लोकप्रिय हो उठा।


ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ? 
  • महेन्द्र 'नेह'
 
ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ 
भूखों को यहाँ गोलियाँ प्यासों को बर्छियाँ!

है पैसा बड़ा, आदमी छोटा बहुत यहाँ
इन्सान से दस्तूर है खोटा बहुत यहाँ 
मलबा समझती आदमी को ऊँची हस्तियाँ!

मेहनत यहाँ दौलत के शिकंजों में कसी है
जनता यहाँ महंगाई के जबड़ों में फँसी है
बालू के ढेर पर तड़पती जैसे मछलियाँ!

घर-घर से उभरती है  मुफलिसी की कहानी
सड़कों में भटकती है परेशान जवानी
कैंसर से सिसकती हैं यहाँ बीमार बस्तियाँ!

कर्जे के मकाँ में उम्मीदें क़ैद हैं यहाँ 
डण्डा लिए दरोगाजी मुस्तैद हैं यहाँ 
हैं आदमी पे हावी यहाँ खाकी वर्दियाँ!

जनतंत्र नाम का यहाँ गुण्डों का राज है
इन्सानी खूँ के प्यासे दरिन्दों का राज है 
ज़िन्दा चबा रहे हैं आदमी की बोटियाँ!

बदलेंगी उदास ये तारीक फ़िजाएँ
होंगी गरम ये धमनियाँ ये सर्द हवाएँ
लाएंगी रंग एक दिन ये सूखी अँतड़ियाँ!

उट्ठेंगे इस ज़मीन से जाँबाज जलजले
मिट जाएंगे जहान से नफरत के सिलसिले
जीतेगा आदमी जलेंगी मोटी कुर्सियाँ!
 


रविवार, 7 अगस्त 2011

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कविता

नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम
 
तनिक रुक कर साँस तक नहीं लेते
उखड़ने लगी हैं साँसें, लड़खड़ाने लगे हैं पैर,
फिर भी 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


हतप्रभ, हताश लोग छोड़ने लगे हैं नाचघर
ब्लेक में खरीदी गई टिकटें बिखरने लगी हैं
नाचघर के बाहर
लोग चीख रहे हैं, रुको-रुको-रुको 
अब रुक भी जाओ, फिर भी रुक नहीं रहें हैं
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

दिखाई नहीं दे रहे हैं उन्हें 
नाचघर छोड़ते हताश लोग
सुनाई नहीं दे रही हैं उन्हें 
लोगों की चीखें, चीत्कार 
अनिच्छा से थिरक रहे हैं अंग 
अनिच्छा से उठ रहे हैं पैर 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

 
नहीं रुकेंगे वे, रुक नहीं सकते वे
नाचते ही रहेंगे, नाचते ही रहेंगे 
देखो! देखो! देखो!
वे खुद नहीं नाच रहे हैं
हाथ, पैर, कमर और सिर 
पारदर्शी धागों से बंधे हैं 
धागे ही नचाए जा रहे हैं, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम

कौन पकड़े है? इन धागों के सिरे
कौन है? जो नचाए जा रहा है
वही पवित्र (?) भूरी आँखों वाली बिल्ली 
निष्प्राण! वित्तीय पूंजी
उसी की पकड़ में है, सारे धागों के सिरे
वही नचाए जा रही है, और 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


है कोई! जो काट दे इन धागों को 
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम
कोई तो काटो, काट डालो इन धागों को
अरे! अन्न और कपास उपजाने वालों!
कारखानों में काम करने वालों!
पसीना बहा सब कुछ बनाने वालों 
अपने अपने औजार लाओ, और 
काट डालो इन धागों को
वरना, मर जाएंगे, अंकल सैम

नाच ..!     नाच ...!     नाच ...! 
नाचते ही जा रहे हैं, अंकल सैम


  • दिनेशराय द्विवेदी


रविवार, 10 जुलाई 2011

एक नया कविता ब्लाग "अमलतास"

'अमलतास' हिन्दी का एक नया कविता ब्लाग है। जिस में आप को हर सप्ताह मिलेंगी हिन्दी के ख्यात गीतकार कवि 'कुमार शिव' के गीत, कविताएँ और ग़ज़लें।
पिछली शताब्दी के आठवें दशक में हिन्दी के गीतकार-कवियों के बीच 'कुमार शिव' का नाम उभरा और तेजी से लोकप्रिय होता चला गया। एक लंबा, भारी बदन, गौरवर्ण नौजवान कविसम्मेलन के मंच पर उभरता और बिना किसी भूमिका के सस्वर अपना गीत पढ़ने लगता। गीत समाप्त होने पर वह जैसे ही वापस जाने लगता श्रोताओं के बीच से आवाज उठती 'एक और ... एक और'। अगले और उस से अगले गीत के बाद भी श्रोता यही आवाज लगाते। संचालक को आश्वासन देना पड़ता कि वे अगले दौर में जी भर कर सुनाएंगे।
ये 'कुमार शिव' थे। उन का जन्म 11 अक्टूबर 1946 को कोटा में हुआ।  राजस्थान के दक्षिण-पूर्व में चम्बल के किनारे बसे इस नगर में ही उन की शिक्षा हुई और वहीं उन्हों ने वकालत का आरंभ किया। उन्हों ने राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बैंच और सर्वोच्च न्यायालय में वकालत की। अप्रेल 1996 से अक्टूबर 2008 तक राजस्थान उच्चन्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करते हुए 50,000 से अधिक निर्णय किए, जिन में 10 हजार से अधिक निर्णय हिन्दी में हैं। वर्तमान में वे भारत के विधि आयोग के सदस्य हैं। साहित्य सृजन किशोरवय से ही उन के जीवन का एक हिस्सा रहा है। 
1995 से वे कवि कविसम्मेलनों के मंचों से गायब हुए तो आज तक वापस नहीं लौटे। तब वह उच्च न्यायालय में मुकदमों के निर्णय करने में व्यस्त थे। उन का लेखनकर्म लगातार जारी रहा। केवल कुछ पत्र पत्रिकाओं में उन के गीत कविताएँ प्रकाशित होती रहीं।  एक न्यायाधीश की समाज के सामने खुलने की सीमाएँ उन्हें बांधती रहीं। 'अमलतास' अब 'कुमार शिव' की रचनात्मकता को पाठकों के रूबरू ले कर आया है।
कुमार शिव का सब से लोकप्रिय गीत 'अमलतास' के नाम से प्रसिद्ध हुआ था। ब्लाग पर यह गीत पहली पोस्ट के रूप में उपलब्ध है। मिसफिट पर अर्चना चावजी के स्वर में इस गीत का पॉडकास्ट यहाँ उपलब्ध है।  ने इस गीताआप इस मीठे गीत को पढ़ेंगे, सुनेंगे और खुद गुनगुनाएंगे तो आप के लिए यह समझना कठिन नहीं होगा कि इस ब्लाग को 'अमलतास' नाम क्यों मिला।

शनिवार, 9 जुलाई 2011

दौड़

ज जिस क्षेत्र में भी जाएँ हमें दौड़ का सामना करना पड़ता है। घर से सड़क पर निकलते ही देख लें। यातायात में हर कोई आगे निकल लेना चाहता है, चाहे उसे नियम तोड़ने ही क्यों न पड़ें। यही बात हर क्षेत्र में है। शिक्षा क्षेत्र में छात्र दौड़ रहे हैं तो कैरियर के लिए हर कोई दौड़ रहा है।  दौडें तनाव पैदा करती हैं और दौड़ में ही जीवन समाप्त हो जाता है। आस पास देखने और जीने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इसी दौड़ को अभिव्यक्त किया है 'शिवराम' ने अपनी इस कविता में ... 

'कविता'

दौड़

  • शिवराम
दौड़ से बाहर हो कर ही 
सोचा जा सकता है
दौड़ के अलावा भी और कुछ

जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिंता
दौड़ ही मृत्यु

होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उन का सौंदर्य भी
मगर बोध कम भोग ज्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी 
दौड़ मे दौड़ ही होते हैं 
दौड़ के पड़ाव

दौड़ में रहते हुए 
कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के अलावा
यहाँ तक कि 
दौड़ के बारे में भी






गुरुवार, 7 जुलाई 2011

किस की है यह दौलत?

'कविता'
किस की है यह दौलत?
  • दिनेशराय द्विवेदी

मंदिर के तहखानों में मिली है अकूत दौलत
इतनी कि देश के बड़े से बड़े सूबे का बजट भी पड़ गया छोटा
अभी बाकी हैं खोले जाने और भी तहखाने

सवाल उठे
किस की है यह दौलत?
कौन है इस का स्वामी?
क्या किया जाए इस का?

मैं ने पूछा ...
पहली बरसात के बाद खेत हाँक कर लौटे किसान से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और बिजाई की तैयारी में जुट गया

मैं ने पूछा ...
हाथ-ठेला धकेलते मजदूर से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और ठेले के आगे जाकर खींचता चला गया

मैं ने पूछा ...
नदी किनारे कपड़े धोती एक महिला से
वह ठठा कर हँसी हाहाहा .....
और तेजी से कपड़े कूटने लगी

मैं ने पूछा ...
कंप्यूटर पर काम करते सोफ्टवेयर इंजिनियर से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और फिर से कंप्यूटर में डूब गया

मैं ने पूछा ...
सड़क किनारे दौड़ते सैनिक से
वह ठठा कर हँसा हाहाहा .....
और आगे दौड़ गया

शाम को सब मिले
एक साथ ढोलक और हारमोनियम बजाते
गाते हुए फ़ैज़ का एक पुराना गीत ...

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
एक खेत नहीं,   एक देश नहीं,   हम सारी दुनिया मांगेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब.........
 
 










आप भी सुन ही लीजिए ...

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शनिवार, 2 जुलाई 2011

'हवा' ... महेन्द्र नेह की कविता

पिछले दिनों देश ने सरकार के विरुद्ध उठती आवाजों को सुना है। एक अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकार भ्रष्टाचार के विरुद्ध कारगर कार्यवाही के लिए उपयुक्त कानूनी व्यवस्था बनाए। वे जनलोकपाल कानून बनवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। देश के युवाओं का उन्हें समर्थन मिला। कानून बनाने को संयुक्त कमेटी गठित हुई। लेकिन सरकार की मंशा रही कि कानून बने तो कमजोर। अब खबरें आ रही हैं कि कानून को इस तरह का बनाने की कोशिश है कि भ्रष्टाचार मिटे न मिटे पर उस के विरुद्ध आवाज उठाने वाले जरूर चुप हो जाएँ। दूसरी ओर बाबा रामदेव लगातार देश को जगाने में लगे रहे। उन्हों ने पूरे तामझाम के साथ अपना अभियान रामलीला मैदान से आरंभ किया जिस का परिणाम देश खुद देख चुका है। इस बीच पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें बढ़ गई। उन्हों ने दूसरी सभी चीजों की कीमतें बढ़ा दीं। प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने इस तरह विरोध प्रदर्शन किया कि कोई कह न दे कि जनता पर इतना कहर बरपा और तुम बोले भी नहीं। देश की जनता परेशान है, वह बदलाव चाहती है लेकिन उसे उचित मार्ग दिखाई नहीं दे रहा। मार्ग है, लेकिन वह श्रमजीवी जनता के संगठन से ही संभव है। वह काम भी लगातार हो रहा है लेकिन उस की गति बहुत मंद है।

नता जब संगठित हो कर उठती है और जालिम पर टूटती है तो वह नजारा कुछ और ही होता है। जनता का यह उठान ही आशा की एक मात्र किरण है। कवि महेन्द्र 'नेह' उसे अपनी कविता में इस तरह प्रकट करते हैं ...

हवा
  • महेन्द्र 'नेह'


घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जा कर टकरा गई!
हवा मौसम को फिर से गरमा गई!!

दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी 
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जा कर टकरा गई!

हर तरफ दासता के कुँए, खाइयाँ
हर तरफ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जा कर टकरा गई?







    शुक्रवार, 17 जून 2011

    ख़ौफ तारी था उसका


    'कविता'

    ख़ौफ तारी था उसका 
    •  दिनेशराय द्विवेदी

    उस के नाम से डरा कर, माताएँ
    सुलाती थीं अपने बच्चों को

    उस के शहर का रुख़ करने की खबर से
    खड़े हो जाते थे रोंगटे
    शहरवासियों के

    उसे देखा जाता था
    सिर्फ चित्रों, और वीडियो में
    सुनी जा सकती थी उस की आवाज
    सिर्फ रिकॉर्ड की हुई।

    ख़ौफ तारी था उस का
    सारे जहाँ में
    जहाँ जहाँ बस्तियाँ थीं
    जहाँ जहाँ इन्सान थे

    कुछ भी कर सकता था वह
    कोई भी हो सकता था
    उस का निशाना, बस शर्त इतनी थी
    कि इन्सानों पर ख़ौफ तारी रहे

    तलाश जारी थी उस की
    सारी जहाँ में
    जंगलों में, वीरान पहाड़ियों में
    हर उस जगह, जहाँ छुप सकता था
    इन्सान की निगाहों से बचाकर खुद को

    बरसों की तलाश के बाद मिला
    इंसानों की एक बस्ती में
    एक बंद घर में सुरक्षा की दीवारों के बीच
    जवान बीबी के साथ

    डरता हुआ अपने ही बुढ़ापे से
    जवानी बरकरार रखने वाली
    दवाइयों की खेप के बीच
    अपनी ही तस्वीरें देखते हुए

    मिनटों में हो गया तमाम
    कहते हैं ... ठेला था जिन्होंने
    उसे इस रास्ते पर
    उन्होंने ही ठेल दिया उसे
    समंदर की गहराइयों में

    # #  # # #  # # #  # #




    बुधवार, 15 जून 2011

    शिवराम की कविता ... जब 'मैं' मरता है

    शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है - 



    'कविता'
    जब 'मैं' मरता है*
    • शिवराम

    हमें मारेंगी
    हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ

    पहले वे छीनेंगी
    हमसे हमारे सब
    फिर हम से 
    हमें ही छीन लेंगी

    बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
    'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
    कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
    जैसे-जैसे फूलता जाता है
    तनता जाता है
    एक अवस्था में पहुँच कर 
    फूट जाता है

    रबर की चिंदियों की तरह
    बिखर जाएंगे एक दिन
    जो न उगती हैं न विकसती हैं
    मिट्टी में मिल जाती हैं 
    धीरे-धीरे

    बच्चे रोते हैं
    जब फूटता है उन का गुब्बारा
    जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
    हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना


    *शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से