शिवराम मूलतः ब्रजभाषी थे, हिन्दी पर उन की पकड़ बहुत अच्छी थी। जनता के बीच काम करने की ललक ने उन्हें नाटकों की ओर धकेला और संभवतः हिन्दी के पहले नुक्कड़ नाटककार हुए। एक संपूर्ण नाटककार जो नाटक लिखता ही नहीं था बल्कि उन्हें खेलने के लिए लिखता था। फिर उसे जमीन पर दर्शकों के बीच लाने के लिए अभिनेता जुटाता था। उन के नाटकों में लोकरंग का जिस खूबसूरती से प्रयोग देखने को मिलता है वह अद्वितीय है। लोकरंग उन के लिए वह दरवाजा है जिस से वे गाँव गोठ के दर्शकों के दिलों में घुस जाते हैं। हाड़ौती अंचल उन की कर्मभूमि बना। तब उन्हों ने जरूरी समझा कि वे हाडौती में भी लिखें। कोड़ा जमाल साई संभवतः उन की पहली हाड़ौती रचना है। एक खेल गीत की पंक्ति को पकड़ कर उन्होंने एक पैने और शानदार गीत की रचना की। आप भी उस की धार देखिए ...
कोड़ा जमाल साई .....
कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई
नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...
आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...
वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...
कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...
कोड़ा जमालशाही ...
कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई
उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....
बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...
आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...
वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी
कोड़ा जमाल साई .....
- शिवराम
कोड़ा जमाल साई
पाछी देखी मार खाई
आँख्याँ पै पाटी बांध
चालतो ई चाल भाई
घाणी का बैल ज्यूँ
घूम चारूँ मेर भाई
नपजाओ अन्न खूब, गोडा फोड़ो रोज खूब
लोई को पसीनो बणा, माटी मँ रम जाओ खूब
जद भी रहै भूको, तो मूंडा सूँ न बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
बेमारी की काँईं फकर, मरबा को काँईं गम
गाँव मँ सफाखानो, न होवे तो काँईं गम
द्वायाँ बेकार छै, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
तन का न लत्ता देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली थाँकी, टेलीविजनाँ पै देख
कर्तव्याँ मँ सार छै, अधिकाराँ न मांग भाई
कोड़ा जमाल साई ...
आजादी भरपूर छै, जीमरिया सारा लोग
व्यंजन छत्तीस छै, हाजर छै छप्पन भोग
थारै घर न्यूतो कोई नैं, म्हारो काँई खोट भाई
कोड़ा जमाल साई ...
वै महलाँ मँ रहै, या बात मत बोल
वै काँई-काँई करै, या पोलाँ न खोल
छानो रै, छानो रै, याँ का राज मँ बोल छे अमोल भाई
कोड़ा जमाल साई ...
कुछ मित्रों का आग्रह है कि इसे हिन्दी में भी प्रस्तुत किया जाए ...
कोड़ा जमालशाही ...
- शिवराम
कोड़ा जमालशाही
पीछे देखा मार खाई
आँखों पे पट्टी बांध
चलता ही चल भाई
घाणी के बैल जैसा
घूम चारों ओर भाई
उपजाओ अन्न खूब, घुटने तोड़ो रोज खूब
लोहू का पसीना कर, माटी मेँ रम जाओ खूब
जब भी रहे भूखा, तो मुंह से न बोल भाई
कोड़ा जमालशाही ....
बीमारी की क्या फिक्र, मरने का क्या गम
गाँव मेँ अस्पताल ना हो तो क्या गम
दवाइयाँ बेकार हैं, जोत भैरू जी की बोल भाई
कोड़ा जमाल साई ....
तन का न कपड़े देख, मन की न पीड़ा देख
चैन खुशहाली तेरी, टेलीविजन पै देख
कर्तव्योँ मेँ सार है, अधिकार न मांग भाई
कोड़ा जमालशाही...
आजादी भरपूर है, जीम रहे सारे लोग
व्यंजन छत्तीस हैं, हाजिर है छप्पन भोग
तेरे घर न्योता नहीं, मेरा क्या खोट भाई
कोड़ा जमालशाही ...
वे महलोँ में रहें, ये बात मत बोल
वे क्या क्या करें, ये पोल मत खोल
चुप रह, चुप रह, इनके राज में बोल है अमोल भाई
कोड़ा जमालशाही...
अनुवाद-दिनेशराय द्विवेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें