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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

सही और विज्ञान सम्मत वर्षारंभ आज बैसाखी के दिन

भारतवर्ष एक ऐसा देश है जिस में आप नववर्ष की शुभकामनाएँ देते देते थक सकते हैं। लगभग हर माह कम से कम एक नया वर्ष अवश्य हो ही जाता है। उस का कारण यह भी है कि यही दुनिया का एक मात्र भूभाग है जहाँ दुनिया के विभिन्न भागों से लोग पहुँचे और यहीं के हो कर रह गए। उन्हों ने इस देश की संस्कृति को अपनाया तो कुछ न कुछ वह भी जोड़ा जो वे लोग साथ ले कर आए थे। वस्तुतः भारत वसुधैव कुटुम्बकम उक्ति को चरितार्थ करता है। 
र्ष का संबंध सीधे सीधे सौर गणित से है। धरती जितने समय में सूर्य का एक चक्कर पूरा लगा लेती है उसी कालावधि को हम वर्ष कहते हैं। लेकिन काल की न तो यह सब से बड़ी इकाई है और न ही सब से छोटी। इस से छोटी इकाई माह है, जिस का संबंध चंद्रमा द्वारा पृथ्वी का एक चक्र पूरा करने से है। लेकिन दृश्य रूप में चंद्रमा एक दिन गायब हो जाता है और फि्र से एक पतली सी लकीर के रूप में सांयकालीन आकाश में पतली सी चांदी की लकीर के रूप में दिखाई देता है। इसे हम नवचंद्र कहते हैं। एक दिन एक क्षण के लिए पृथ्वी से पूरा दिखाई देता है जिसे हम पूर्ण चंद्र कहते हैं।  इस तरह से नव चंद्र से नव चंद्र तक की अथवा पूर्ण चंद्र से पूर्ण चंद्र तक की अवधि को हम मास या माह कहते हैं। इस से छोटी इकाई दिन है, जिस का संबंध पृथ्वी का अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा कर लेने से है। फिर इस के दो भाग दिवस और रात्रि हैं। उन्हें फिर से प्रहरों, घड़ियों, पलों और विपलों में अथवा घंटों, मिनटों और सेकण्डों में विभाजित किया गया है।
ब इन में ताल मेल करने का प्रयत्न किया गया अर्थात वर्ष, मास और दिवस के बीच। एक वर्ष की कालावधि में 12 मास होते हैं। लेकिन उस के बाद भी लगभग 10 दिनों का अंतराल छूट जाता है।  इस तरह तीन वर्ष में लगभग एक माह अतिरिक्त हो जाता है। इस का समायोजन करने के लिए भारतीय पद्धति में प्रत्येक तीन वर्ष में एक वर्ष तेरह माह का हो जाता है। लेकिन सौर वर्ष को जो वास्तव में 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 10 सैकण्ड का होता है को बारह समान भागों में बाँटने का कार्य बहुत महत्वपूर्ण था। जब पृथ्वी सूर्य का एक चक्र पूरा करती है तो सूर्य आकाश की परिधि के 360 अंशों की यात्रा करती है। इस खगोल को हम ने 30-30 अंशों के 12 बराबर हिस्सों में बाँटा। प्रत्येक हिस्से को उस भाग में पड़ने वाले तारों द्वारा बनाई गई आकृति के आधार पर नाम दे दिया। इन्हीं आकृतियों को हम राशियाँ या तारामंडल कहते हैं। मेष आदि राशियाँ ये ही तारामंडल हैं। जब एक राशिखंड से दूसरे राशि खंड में सूर्य प्रवेश करता है तो हम उसे संक्रांति कहते हैं। इस तरह पूरे एक वर्ष में सूर्य 12 बार एक राशि से दूसरी राशि में संक्रांति करता है। प्रत्येक संक्रांति को हम ने उस राशि का नाम दिया जिस राशि में सूर्य प्रवेश करता है। 14 जनवरी को सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो हम उस दिन को मकर संक्रांति का दिन कहते हैं। इस तरह कुल 12 संक्रांतियाँ होती है।
क्यों कि वर्ष का संबंध पृथ्वी द्वारा सूर्य का एक चक्र पूरा कर लेने से है जो हमें सूर्य के खगोल में यात्रा करते हुए महसूस होता है। इस कारण से हमें वर्ष का आरंभ भी सूर्य कि इस आभासी यात्रा के किसी महत्वपूर्ण पड़ाव से होना चाहिए।  राशि चक्र का आरंभ हम मेष राशि से मानते हैं और स्वाभाविक और तर्क संगत बात यह है कि सूर्य के इस मेष राशि में प्रवेश से हमें वर्षारंभ मानना चाहिए।  सूर्य के मेष राशि में प्रवेश को हम मेष की संक्रांति कहते हैं। यह दिन भारत में विशेष रूप से पंजाब में जो भारत की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता सिंधुघाटी सभ्यता का केन्द्र रहा है बैसाखी के रूप में हर वर्ष 13 अप्रेल को मनाया जाता है। इसी 13 अप्रेल को हम वैज्ञानिक रूप से सही वर्षारंभ कह सकते हैं। यह मौसम भी  नववर्ष के लिए आनन्द दायक है। जब फसलें कट कर किसान के घर आती हैं। किसान इन दिनों समृद्धि का अहसास करता है। उन घरों में उल्लास का वातावरण रहता है। इन्ही दिन अधिकांश वृक्षों में कोंपले फूट कर नए पत्ते आते हैं। तरह तरह के रंगों के फूलों से धरती दुलहन की भांति सजी होती है। सही में नया वर्ष तो इसी दिन आरंभ होता है। आज फिर यही दिन है। बैसाखी का दिन।
बैसाखी के इस खुशनुमा दिन पर मैं आप को फिर से नव वर्ष की शुभकामनाएँ देना चाहता हूँ। आज का यह दिन इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि आज ही के दिन जलियाँवाला बाग में सैंकड़ों निहत्थे लोगों ने आजादी के लिए लड़ने की कसम खाते हुए अंग्रेजों की बन्दूकों का सामना किया और शहीद हो गए। इसलिए पहले शहीदों को

श्रद्धांजलि!  
 

 फिर शुभकामनाएँ....

बैसाखी, 13 अप्रेल से आरंभ होने वाला यह वर्ष भारतवर्ष के जनगण के लिए मंगलमय हो !

रविवार, 7 अप्रैल 2013

आलू के कापे बनाम पोटेटो चिप्स


सुबह सुबह मैं अपने घर ऑफिस में बैठा काम कर रहा था कि आदेश हुआ -छत पर चलो¡ मैं ने पूछा- क्यों? तो उत्तमार्ध कहने लगी -बन्दर आ गए हैं, उन्हें भगाना है, मुझे आलू के चिप्स सुखाने हैं धूप में।

ज नींद जल्दी खुल गई थी। उत्तमार्ध रसोई में थी। मैं पानी पीने उधर गया तो रात को बनाए हुए चिप्स फिटकरी के पानी में उबाले जा रहे थे। उन्हें सुखाना तो निहायत जरूरी था। मैं ने कहा- बन्दर भागेंगे नहीं। वैसे ही चले जाएंगे। इधर उन की रुचि का कुछ नहीं है। बस वे रात के आसरे से आज की कर्मस्थली की और जाते हुए इधर से गुजर रहे होंगे। बस निरीक्षण करते जा रहे होंगे कि इधर कुछ उन की रुचि का तो नहीं है। तभी एक बन्दर नीचे आंगन में उतरा और पक्षियों के लिए रखा गए पानी के पाउण्डे से पानी पीने लगा। जैसा सोचा था। कुछ देर बाद श्रीमती जी छत पर चली गईं। उन के जाने के बाद मैं भी छत पर पहुँचा। दूर दूर तक बन्दर नहीं थे। फिर भी मैं ने पूछा -बन्दर चले गए?

-न्दर तो तभी चले गए। वे आधी चटाई पर चिप्स फैला चुकी थी। कहने लगी – बाकी के चिप्स आप सुखा दीजिए। मैं तब तक नीचे से और ले आती हूँ। मुझे आश्चर्य हुआ –अभी और हैं? उन्हों ने कहा –हाँ। पर मुझ से तो नीचे बैठा नहीं जाएगा। डाक्टर ने उकडूँ बैठने से मना किया है। बैठ तो जाउंगा, पर उठने में परेशानी होगी। वे बोली –चलो रहने दो। मैं फैला दूंगी। आप ध्यान रखिएगा इतने मैं बाकी के ले आती हूँ। वे नीचे उतर गईं।

मैं फालतू कैसे वहाँ खड़ा रहता। छत पर कुर्सी या स्टूल भी न था जिस पर बैठ जाता। मैं चटाई के नजदीक नीचे ही बैठ गया। चिप्स फैलाने लगा। जब तक वे लौटी, मैं लगभग सारे चिप्स फैला चुका था। फिर भी चटाई पर कुछ स्थान शेष था। उन्हों ने कुछ चिप्स चटाई पर डाल दिए । मैं फैलाने लगा। वे दूसरी ओर एक पुरानी साड़ी पर चिप्स फैलाने लगी। मैं फालतू हो गया तो नीचे आ गया। कुछ देर बाद वे भी नीचे उतर आई। मैं शेव बनाने लगा तभी एक मुवक्किल दफ्तर में नमूदार हुआ। मैं दफ्तर जा कर बैठ गया। मुवक्क्लों से निपटते निपटते ग्यारह बज गए। उत्तमार्ध ने मुझे स्नान करने का आदेश दिया तो मैं उठ कर स्नानघर चला गया।

स्नान कर के निकला तो तले हुएचिप्स तैयार थे। मैं ने पूछा –इतनी जल्दी सूख भी गए और तल भी गए। वे बोली -ये तो कल बनाए जो हैं।

चपन से ही चिप्स घर पर बनते देखे हैं। तब हम इन्हें चिप्स नहीं कापे कहा करते थे। चिप्स नाम तो बाद में महानगरीय लोगों से सुनने को मिला। अब कापा शब्द गायब ही हो गया है। घर के बने चिप्स खाने में जो स्वाद है वह बाजार के थैली पैक चिप्स और हलवाई की दुकान के चिप्स में कहाँ? सब का बनाने का तरीका भिन्न है। घरों पर भी तरीका बदल गया है। पहले आलू को हलका उबाल कर छिलका उतारा जाता था और फिर बना कर सुखाए जाते थे। अब उन्हें चाकू से छील कर सीधे पानी में चिप्स बना दिए जाते हैं। फिर फिटकरी के पानी में उन्हें उबाल कर धूप में सुखा कर संग्रह कर लिया जाता है। उन्हें कभी भी तल कर नमक-मिर्च और अन्य मसाले लगा कर खाया जाता है। हलवाई उन्हें सीधे फिटकरी के पानी में बना बिना उबाले और सुखाए तल देता है। ये फैक्ट्री वाले क्या करते हैं? ये तो वे ही जानें।

शनिवार, 23 मार्च 2013

शहीद भगत सिंह और उनके क्रान्तिकारी विचार

  • महेन्द्र नेह


ज से 82 वर्ष पूर्व, 23 मार्च 1931 को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा तत्कालीन सरकार का तख्ता पलटने का आरोप लगाकर शहीद भगतसिंह व उनके क्रांतिकारी साथी सुखदेव व राजगुरू को फाँसी के फन्दे पर लटका दिया गया। उस समय भगत सिंह की उम्र मात्र 23 साल थी। उनके दोनेां साथियों की उम्र भी इसके आस-पास ही थी। अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए जिन ताकतों ने मजबूर किया, उनमें भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है।

ज जबकि देश के 10 प्रतिशत अमीरों द्वारा देश की सम्पदा की लूटपाट और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की साझेदारी द्वारा 90 प्रतिशत गरीब जनता को एक नई गुलामी की जंजीरों में जकड़ कर जीना मुश्किल कर दिया है, यह जरूरी हो गया है कि हम इस बारे में गंभीर चिंतन करें कि आखिर 15 अगस्त 1947 के बाद हमें किस तरह की ‘आजादी’ मिली, जिसमें अमीर और अधिक अमीर तथा गरीब और भी अधिक गरीब होते चले गये? हमें यह विचार भी करना चाहिए कि क्या अमीरी और गरीबी ईश्वर द्वारा प्रदत्त है? या फिर समाज-व्यवस्था के बदलने से अमीरी और गरीबी के इस दुश्चक्र को बदला भी जा सकता है? और यदि इसे बदला जा सकता है तो इसके तौर-तरीके क्या हैं? हमें इसके लिए क्या करना होगा?

ब्रिटिश भारत की औपनिवेशिक गुलामी से आजादी के लिए अपने-अपने ढंग से जो वर्ग कोशिश कर रहे थे, उनमें यदि एक ओर बजाज और बिड़ला जैसे पूंजीपति थे तो दूसरी और देश के छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित और आदिवासी भी शामिल थे। ये सभी समुदाय कमोबेश ब्रिटिश गुलामी और उसके अत्याचारों से पीड़ित थे। लेकिन आजादी के सपने सबके अलग-अलग थे। यदि बजाज और बिड़ला का सपना देश में बड़े-बड़े कारखाने लगाकर देश की सम्पत्ति और श्रम को लूटकर अरबपति-खरबपति बनना था तो श्रमिकों का सपना था कि उनसे जानवरों की तरह काम न लिया जाये, उनकी मेहनत का एक हिस्सा उन्हें भी मिले और वे भी एक इन्सानी जिन्दगी जी सकें। किसानों का सपना था कि उनकी फसल जागीरदारों, जमींदारों और व्यापारियों के गोदामों में न जाकर उनके अपने घरों में आ सके। दलितों का सपना था कि उन्हें अस्पृश्यता से मुक्ति मिले तो महिलाओं का सपना था कि उन्हें दहेज की आग में जलने के बजाय पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा प्राप्त हो।

जादी की लड़ाई के समय यद्यपि कांग्रेस-पार्टी ही प्रमुख थी, जिसके झण्डे के नीचे अमीर और गरीब-वर्ग एक साथ संघर्ष कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व पर जो लोग हावी थे, उनमें निःसंदेह ऐसे नेता थे, जिनकी प्राथमिकता पूंजीपतियों और जागीरदारों के हित थे। भले ही वे भाषणों में मजदूरों-किसानों के हितों की बात करते थे। दूसरी ओर ऐसे नेता व विचारक थे जिनके सामने यह स्पष्ट था कि यदि गोरे अंग्रेजों के स्थान पर काले भारतीय, जॉन की जगह जनार्दन आजादी के बाद सत्ता पर बैठ जाते हैं और शासन की नीतियों में कोई अंतर नहीं आता तो वह आजादी सच्ची आजादी नहीं होगी। इस तरह के विचार रखने वालों में महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द, क्रांतिकारी कर्तार सिंह सराबा एवं भगत सिंह आदि प्रमुख थे।

देश की जनता को सच्ची आजादी कैसे मिल सकती है, इस बारे में यदि किसी ने सबसे अधिक विचार किया और अपने विचारों को अमल में लाने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, तो शहीद भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथी, उनकी सबसे अगली कतारों में थे। उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में न केवल भारत की क्रांतिकारी परम्परा और इतिहास की जानकारी प्राप्त की अपितु पूरी दुनियां के क्रांतिकारी विचारों व साहित्य का गहन अध्ययन किया। अपने समय में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलनों से शिक्षा ली तथा आजादी के बाद का भारत कैसा होगा, इसका पूरा खाका तैयार किया। आज जबकि हमारे देश के शासन पर काबिज लगभग सभी राजनैतिक पार्टियाँ भ्रष्ट, जन-विरोधी और अविश्वसनीय साबित हो चुकी है तथा अंग्रेजों की तरह ‘‘फूट डालो और राज करो’’ की नीतियों के अंतर्गत धर्म, जाति, भाषा और प्रदेश के बँटवारे के नारे देकर निजी स्वार्थों की दलदल में फँस चुकी है। क्या समय हमसे माँग नहीं कर रहा कि हम भगतसिंह और उनके साथियों द्वारा स्वाधीन भारत के बारे में बनाये गये खाके को सामने रखें, उसका अध्ययन करें और उसके आधार पर वर्तमान पूंजीवादी-सामंती समाज को बदलकर एक नये जनपक्षधर समाजवादी समाज के निर्माण के लिए आगे आयें।

गतसिंह का मानना था कि आजाद भारत में शासन की बागडोर पूंजीपति-जमींदारों के हाथों में न होकर, मेहनतकशों- श्रमिकों व किसानों के हाथों में होनी चाहिए। हिन्दुस्तान सोशलिस्ट एसोसिएशन के घोषणापत्र में उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि ‘‘भारत साम्राज्यवाद के जुए के नीचे पिस रहा है। इसमें करोड़ों लोग आज अज्ञानता और गरीबी के शिकार हो रहे हैं। भारत की बड़ी जनसंख्या जो मजदूरों और किसानों की है, उनको विदेशी दबाव एवं आर्थिक लूट ने पस्त कर दिया है। भारत के मेहनतकश वर्ग की हालत आज बहुत गम्भीर है। उसके सामने दोहरा खतरा है - विदेशी पूंजीवाद का एक तरफ से और भारतीय पूंजीवाद के धोखे भरे हमले का दूसरी तरफ से। भारतीय पूंजीवाद विदेशी पूंजी के साथ हर रोज बहुत से गठजोड़ कर रहा है। कुछ राजनैतिक नेताओं का डोमेनियन (प्रभुता सम्पन्न) का दर्जा स्वीकार करना भी हवा के इसी रूख को स्पष्ट करता है।


गतसिंह का मानना था कि ‘‘इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’’ अपने क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के लिए ही उन्होंने ब्रिटिशकालीन संसद में एक ऐसा बम फेंका, जिससे एक भी व्यक्ति हताहत नहीं हुआ, लेकिन उसके धमाके की आवाज लंदन तक पहुंची तथा ब्रिटिश सत्ता थर्रा उठी। उन्होंने संसद में उस दिन पेश होने वाले मजदूर-विरोधी ‘‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’’ के नारे लगाये तथा अपने परचे में लिखा कि हम देश की जनता की आवाज अंग्रेजों के उन कानों तक पहुंचाना चाहते हैं, जो बहरे हो चुके हैं।

न्होंने फांसी के फंदे पर लटकाये जाने से पहले 2 फरवरी 1931 को ‘‘क्रांतिकारी कार्यक्रम का मसविदा’’ तैयार किया, जिसके कुछ अंश फांसी लगाये जाने के बाद लाहौर के ‘‘द पीपुल’’ में 29 जुलाई, 1931 और इलाहाबाद के ‘‘अभ्युदय’’ में 8 मई, 1931 को प्रकाशित हुए थे। इस महत्वपूर्ण दस्तावेज में उन्होंने भारत में क्रांति की व्याख्या करते हुए भविष्य की रूपरेखा तैयार की, जिसमें सामंतवाद की समाप्ति, किसानों के कर्जे समाप्त करना, भूमि का राष्ट्रीयकरण व साझी खेती करना, आवास की गारन्टी, कारखानों का राष्ट्रीयकरण, आम शिक्षा व काम के घन्टे जरूरत के अनुसार कम करना आदि बुनियादी काम बताये गये।

गतसिंह का मानना था कि एक जुझारू व मजबूत क्रांतिकारी पार्टी के बिना देश में आमूलचूल परिवर्तन असम्भव हैं। उनका मानना था कि क्रांतिकारी पार्टी के अभाव में पूंजीपति जमींदार और उनके मध्यवर्गीय टटपूंजिये नेता व नौकरशाह किसी भी कीमत पर श्रमिकों का शासन पर नेतृत्व स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने देश के छात्रों व नौजवानों के नाम जेल से भेजे गये पत्र में आव्हान किया कि वे एक खुशहाल भारत के निर्माण के लिए त्याग और कुर्बानियों के रास्ते को चुनें। उस पत्र की ये पंक्तियां आज भी शहीद भगतसिंह के विचारों की क्रांतिकारी मशाल को देश के युवाओं द्वारा सम्भाले जाने की अपील करते हुई प्रतीत होती है: ‘‘इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्वपूर्ण काम है।....... नौजवानों को क्रांति का यह संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्ट्री-कारखानों के क्षेत्रों में, गंदी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रांति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।’’

- 80, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा - 324009 (राज.) मो. 093144-16444

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी

ज और कल देश के 11 केन्द्रीय मजदूर संगठन हड़ताल कर रहे हैं। उन के साथ आटो, टैक्सी बस वाले और कुछ राज्यों में सरकारी कर्मचारी भी हड़ताल पर जा रहे हैं।  केन्द्रीय संगठनों ने इस दो दिनों की हड़ताल की घोषणा कई सप्ताह पहले कर दी थी।  सरकार चाहती तो इस हड़ताल को टालने के लिए बहुत पहले ही केन्द्रीय संगठनों से वार्ता आरंभ कर सकती थी। लेकिन उस ने ऐसा नहीं किया। वह अंतिम दिनों तक हड़ताल की तैयारियों का जायजा लेती रही। जब उसे लगने लगा कि यह हड़ताल ऐतिहासिक होने जा रही है तो हड़ताल के तीन दिन पहले केन्द्रीय संगठनों से हड़ताल न करने की अपील की और एक दिखावे की वार्ता भी कर डाली।  न तो सरकार की मंशा इस हड़ताल को टालने की थी और न ही वह इस स्थिति में है कि वह मजदूर संगठनों की मांगों पर कोई ठीक ठीक संतोषजनक आश्वासन दे सके।  इस का कारण यह है कि यह हड़ताल वास्तव  में वर्तमान केन्द्र सरकार की श्रमजीवी जनता की विरोधी नीतियों के विरुद्ध है। श्रम संगठन तमाम श्रमजीवी जनता के लिए राहत चाहते हैं। जब कि सरकार केवल पूंजीपतियों के भरोसे विकास के रास्ते पर चल पड़ी है चाहे जनता को कितने ही कष्ट क्यों न हों। वह इस मार्ग से वापस लौट नहीं सकती।  सरकार की प्रतिबद्धताएँ देश की जनता के प्रति होने के स्थान पर दुनिया के पूंजीपतियों और साम्राज्यवादी देशों के साथ किए गए वायदों के साथ है। 
लिए देखते हैं कि इन केन्द्रीय मजदूर संगठनों की इस हड़ताल से जुड़ी मांगें क्या हैं?

  1. महंगाई के लिए जिम्मेदार सरकारी नीतियां बदली जाएं
  2. महंगाई के मद्देनजर मिनिमम वेज (न्यूनतम भत्ता) बढ़ाया जाए
  3. सरकारी संगठनों में अनुकंपा के आधार पर नौकरियां दी जाएं
  4. आउटसोर्सिंग के बजाए रेग्युलर कर्मचारियों की भर्तियां हों
  5. सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी प्राइवेट कंपनियों को न बेची जाए
  6. बैंकों के विलय (मर्जर) की पॉलिसी लागू न की जाए
  7. केंद्रीय कर्मचारियों के लिए भी हर 5 साल में वेतन में संशोधन हो
  8. न्यू पेंशन स्कीम बंद की जाए, पुरानी स्कीम ही लागू हो 
मांगो की इस फेहरिस्त से स्पष्ट है कि केन्द्रीय मजदूर संगठन इस बार जिन मांगों को ले कर मैदान में उतरे हैं  वे आम श्रमजीवी जनता को राहत प्रदान करने के लिए है।  

स बीच प्रचार माध्यमों, मीडिया और समाचार पत्रों के माध्यम से सरकार यह माहौल बनाना चाहती है कि इस हड़ताल से देश को बीस हजार करोड़ रुपयों की हानि होगी।  जनता को कष्ट होगा।  वास्तव में इस हड़ताल से जो हानि होगी वह देश की न हो कर पूंजीपतियों की होने वाली है।  जहाँ तक जनता के कष्ट का प्रश्न है तो कोई दिन ऐसा है जिस दिन यह सरकार जनता को कोई न कोई भारी मानसिक, शारीरिक व आर्थिक संताप नहीं दे रही हो। यह सरकार पिछले दस वर्षों से लगातार एक गीत गा रही है कि वह महंगाई कम करने के लिए कदम उठा रही है। लेकिन हर बार जो भी कदम वह उठाती है उस से महंगाई और बढ़ जाती है। कम होने का तो कोई इशारा तक नहीं है। 
हा जा रहा है कि मजदूरों और कर्मचारियों को देश के लिए काम करना चाहिए।  वे तो हमेशा ही देश के लिए काम करते हैं। पर इस सरकार ने उन के लिए पिछले कुछ सालों में महंगाई बढ़ाने और उन को मिल रहे वेतनों का मूल्य कम करने के सिवा किया ही क्या है? ऐसे में वे भी यह कह सकते हैं कि जिस काम के प्रतिफल का लाभ उन्हें नहीं मिलता वैसा काम वे करें ही क्यों? 
मित्रों! यह हड़ताल देश की समस्त श्रमजीवी जनता के पक्ष की हड़ताल है और यह हड़ताल कैसी भी हो लेकिन इस हड़ताल का ऐतिहासिक महत्व होगा क्यों कि यह शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमजीवी वर्गों का शंखनाद है और इस बार सभी रंगों के झण्डे वाले मजदूर संगठन एक साथ हैं। यह हड़ताल एक नया इतिहास लिखेगी और भविष्य के लिए भारतीय समाज को एक नई दिशा देगी।


लेखक-पाठक के बीच की दूरी पाटने के लिए लेखकों को स्वयं सामूहिक प्रयास करने होंगे

उपन्यासकार अशोक जामनानी के साथ एक विचारोत्तेजक संगोष्ठी 


कुछ दिन पहले अचानक मुझे महेन्द्र 'नेह' ने बताया कि युवा उपन्यासकार श्री अशोक जमनानी केन्द्रीय साहित्य अकादमी की लेखक यात्रा योजना के अंतर्गत 17 फरवरी को कोटा आ रहे हैं और "विकल्प" अखिल भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मोर्चा की कोटा इकाई को उन के साथ "लेखक और पाठक के बीच दूरी को कौन पाटेगा" विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन करना है। उन्हों ने यह भी बताया कि उस दिन वे खुद और शकूर "अनवर" कोटा में नहीं होंगे। संगोष्ठी को आयोजित करने की दायित्व मुझे वहन करना है। यह सूचना मिलने के अगले दिन ही मुझे चार दिनों के लिए बाहर जाना था और 11 फरवरी को लौटना था। महेन्द्र ने मुझे आश्वासन दिया कि गोष्ठी के लिए आरंभिक तैयारी वे कर लेंगे और मुझे केवल एक दिन पहले उस काम में जुटना है। मैं 11 फरवरी रात को कोटा पहुंचा और यहाँ आते ही अपनी वकालत में व्यस्त हो गया। 15 फरवरी की शाम मुझे अचानक उक्त दायित्व का स्मरण हुआ तो मैं ने महेन्द्र 'नेह' को फोन किया। तो पता लगा वे मोर्चा के अखिल भारतीय सम्मेलन में जाने के लिए ट्रेन में बैठ चुके हैं और मोर्चा के अ.भा. सचिव होने के कारण उस की तैयारियों की व्यस्तता के कारण संगोष्ठी की तैयारी भी नहीं कर सके हैं, सब कुछ मुझे ही करना है।
अतिथि का स्वागत
मैं अपने व्यक्तिगत कारणों से विगत तीन-चार वर्षों से इस तरह के कार्यक्रम आयोजनों के दायित्व से दूर ही था। अब अचानक यह दायित्व आ गया जिसे निभाना था। खैर! मैं ने विकल्प के सक्रिय साथियों में से तथा अपने मित्रों से टेलीफोन से संपर्क किया। गोष्ठी के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ साथियों के सहयोग से कराईं। मुझे आशा थी कि इस आयोजन में लगो पर्याप्त संख्या में जुट जाएंगे। समय की कमी के कारण पहली गलती तो यह हुई कि गोष्ठी की सूचना किसी स्थानीय अखबार में प्रकाशित कराने की बात तब स्मरण हुई जब 17 फरवरी का अखबार लोगों के हाथों में पहुँच गया। जिस का सीधा नतीजा यह हुआ कि संगोष्ठी में उपस्थिति अपेक्षित से कम रही। संतोष की बात यह रही कि संगोष्ठी के विषय में रुचि रखने वाले लेखक और विद्वान पर्याप्त संख्या में उपस्थित थे। करीब ढाई घंटे चली यह संगोष्ठी बहुत उपयोगी रही। विषय पर विस्तार से चर्चा हुई और जो प्रश्न संगोष्ठी में रखा गया था उस पर एक सामान्य निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका।  
अशोक जमनानी
संगोष्ठी में अतिथि उपन्यासकार अशोक जमनानी ने विषय प्रवर्तन करते हुए कहा कि आज के लेखक अपने साहित्य के स्थान पर स्वयं को स्थापित करने में लगे हैं, जिस के कारण लेखक और पाठक के बीच दूरी बढ़ी है। प्रकाशकों की रुचि भी लेखक को ब्राण्ड बनाने में है। पुस्तकों के सस्ते संस्करण प्रकाशित कर के साहित्य को पाठकों तक पहुँचाने में उस की रुचि नहीं है क्यों कि उसे इस तरह हजारों पुस्तकें बेच कर जो लाभ होता है उस से अधिक लाभ वह ब्रांड लेखक की पुस्तकों को सरकारी और सांस्थानिक पुस्तकालयों को महंगी पुस्तकें बेच कर कमा लेता है। इन पुस्तकालयों में पहुँच कर पुस्तकें पाठक की पहुँच से दूर हो जाती हैं। लेखक को ब्रांड बनाने में अकादमियों और पुरस्कारों का योगदान है वे कृतियों को नहीं लेखक को पुरस्कार सम्मान देते हैं। पाठक लेखक को तो जानता है पर यह नहीं जानता कि वह क्या लिख रहा है और कौन सा साहित्य महत्वपूर्ण है। हमारी शिक्षा प्रणाली में भी साहित्य पर जोर नहीं दिया जाता लेकिन लेखक के जीवन पर जोर दिया जाता है। 
ओम नागर
विषय प्रवर्तन के उपरान्त सब से पहले तकनीकी विश्वविद्यालय के व्याख्याता रंजन माहेश्वरी बोले। वे लेखक नहीं हैं लेकिन फिर भी संगीत और लेखन की दुनिया से जुड़े हैं। उन्हों ने कहा कि लेखक को आज इंटरनेट से जुड़ना होगा। जो इंटरनेट पर लिख रहे हैं वे केवल देश के ही नहीं दुनिया भर के पाठकों से सीधे जुड़ रहे हैं। जब अमिताभ जैसे लोकप्रिय अभिनेता अपने दर्शकों से सीधे जुड़ने के लिए ब्लाग लिख सकते हैं तो लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकते? कथाकार राधेश्याम मेहर ने कहा कि अकादमियाँ निष्पक्ष नहीं हैं। वे अपने हिसाब से काम करती हैं। व्यंगकार हितेष व्यास ने कहा कि लेखक प्रकाशक के पास जाता है और प्रकाशक अपने लाभ के लिए उस का उपयोग करता है। अकादमियाँ भी साहित्यकारों और पाठकों के बीच पुल बनाने का काम नहीं करती। केन्द्रीय साहित्य अकादमी ने जमनानी जी को कोटा भेजा लेकिन वे कोटा के साहित्यकारों से परिचित नहीं हैं यह अकादमी की कमजोरी है। स्पिक मैके के अशोक जैन ने कहा कि जैसे संगीत के क्षेत्र में लोग अच्छे कंठ-संगीत के स्थान पर किसी नयी नृत्यांगना का नृत्य देखना पसंद करते हैं वैसी ही स्थिति साहित्य में है, इसे तोड़ना होगा। कवि ओम नागर ने कहा कि आज साहित्य की शर्तें बाजार तय कर रहा है वह लेखक और पाठक को दूर कर रहा है। उसे इस से कोई सरोकार नहीं कि लेखक और पाठक के बीच कोई रिश्ता स्थापित हो।  
संचालक शू्न्य आकांक्षी
स अवसर पर जब मुझे बोलने के लिेए कहा गया तो मैं ने अपनी बात कही कि तुलसीदास के पहले भी रामकथा थी लेकिन तुलसीदास ने जनता तक उसे पहुँचाने के लिए सघर्ष किया और जान की बाजी तक लगा दी। प्रेमचंद ने जनता के लिखा तो उसे प्रकाशित करने के लिए खुद प्रेस चलाई और पत्रिकाएं निकाली। उन में जनता के हित का साहित्य पाठक तक पहुँचाने की जिद थी। जिद आज भी लेखक को अपने अंदर पैदा करनी होगी तभी लेखक पाठक से अपनी दूरी कम कर सकेगा। कवि अम्बिकादत्त ने कहा कि रचनाकार को पाठक तक पहुँचने का माध्यम भी तलाशना पड़ेगा। उसे अपने साहित्य की भाषा, विधा और शैली को पाठक के अनुरूप बनाना होगा। गोष्ठी के अध्यक्ष अपने विचार रखें इस के पूर्व अशोक जमनानी ने पुनः कहा कि गोष्ठी के अंत में उन्हों ने कहा कि इस दूरी को पाटने के लिए लेखक को अपना व्यक्तित्व हिमालय की तरह उच्च और साहित्य को उस से निकलने वाली गंगा जैसा बनाना होगा जो धरती पर आ कर उसे सींचती है और जन-जन तक पहुँच जाती है। प्रकाशकों ने समाज के साथ रिश्ता कायम करने वाली रचनाओं और रचनाकारों को पहले हाशिए पर डाला और फिर परिदृश्य से गायब कर दिया।  संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि निर्मल पाण्डेय ने कहा कि साहित्यकार जर्रे से बनता है लेकिन फिर उसे विस्मृत कर अपना नाम करने में जुट जाता है यह एक दुर्भावना है। लेखक को इस दुर्भावना से मुक्त हो कर पाठकों की संवेदना से जुड़ना होगा। संगोष्ठी का संचालन करते हुए कवि शून्याकांक्षी ने कहा कि कोटा में सर्वाधिक लेखन होने के बावजूद भी यहाँ अच्छे प्रकाशक का अभाव है। वर्ष में बीसियों पुस्तकें कोटा के लेखकों की प्रकाशित होती हैं और वे बाहर के प्रकाशक तलाशते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए लेखकों को अपने सामूहिक प्रकाशन का प्रयास करना चाहिए। एक सामूहिक प्रकाशन ही लेखकों को पाठकों से बेहतर जोड़ सकता है। गोष्ठी के अंत में विकल्प की और से वरिष्ठ ग़ज़लकार अखिलेश अंजुम ने सभी प्रतिभागियों का आभार व्यक्त किया।
मंच पर अध्यक्ष निर्मल पाण्डेय, अशोक जमनानी, दूसरे अध्यक्ष अम्बिकादत्त और संचालक शून्य आकांक्षी
संगोष्ठी के उपरान्त मेरी जमनानी जी से बात हुई तो वे संतुष्ट थे।  उनका कहना था कि संगोष्ठी में भले ही उपस्थिति कम रही हो पर यह एक उपयोगी और विचारोत्तेजक संगोष्ठी रही।  यह विचार सामने आया कि लेखक को पाठक से दूरी कम करने के लिए स्वयं सभी स्तरों पर प्रयास करने होंगे।  न केवल उस की संवेदना से जुड़ना होगा, उस के लिए अपने लेखक को उस तक संप्रेषणीय बनाना होगा। वे मेरे इस विचार से भी सहमत थे कि प्रकाशन को सस्ता बनाना होगा और इस के लिए अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन अत्यन्त जरूरी है।  अव्यवसायिक सामूहिक प्रकाशन की आवश्यकता क्यों पड़ रही है यह भी एक प्रासंगिक विषय है इस पर भी विचार किया जाना चाहिए और इस पर भी इसे कैसे स्थापित किया जा सकता है।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2013

विदेशी शब्दों की बाढ़


मारे साहित्य के प्रत्येक युग में विदेशी शब्दों की एक बाढ़ सी हमारे यहाँ आई है।  हमारा अपना युग भी इस का अपवाद नहीं है।  और यह एक ऐसी चीज है जिस का जल्दी ही अन्त नहीं होगा।  विदेशी धरती में विकसित नए विचारों से हमारा परिचय अपने साथ नए शब्दों को भी ले आता है।  लेकिन इस में कोई शक नहीं कि बिना जरूरत या बिना उपयुक्त कारण के हमारी भाषा में विदेशी शब्दों की खिचड़ी पकाने का आग्रह सहज बुद्धि और परिष्कृत रुचि के विरुद्ध है।  लेकिन यह आग्रह न तो हमारी भाषा का कुछ बाल बाँका कर सकता है, न ही हमारे साहित्य का।  यह केवल उन्हीं के लिए बुरा सिद्ध होगा जिन के सिर पर यह सवार है।  लेकिन इस की दूसरी, विरोधी अति, अर्थात अपरिमित शुद्धता का भी कोई भिन्न नतीजा नहीं निकलेगा।  दोनों एक ही सिक्के को दो पहलू हैं।  भाषा का एक अपनी आत्मा, उस की अपनी प्रतिमा है।  इसलिए उन ढेर सारे विदेशी शब्दों में से जिन का समावेश किया गया, केवल कुछ ही जीवित रह सके, बाकी अपने आप गायब हो गए।  इसी प्रकार, नए गढ़े गए शब्दों का भी वही भाग्य होगा, - कुछ प्रचलित होंगे और बाकी लुप्त हो जाएंगे। 

-विस्सारिन ग्रिगोरियेविच बेलिंस्की (1811-1848) प्रसिद्ध रूसी आलोचक

ज्ञान का, और अन्धविश्वासों का सूत्रपात




मानव सदा अपनी आदिम अवस्था में नहीं रह सकता था, सदा प्रकृति और गोचर जगत की नाल से जुड़ा नहीं रह सकता था।  पशु ही ऐसा है जो प्रकृति से कभी अनमेल या बेसुरेपन का अनुभव नहीं करता, किन्तु मानव? न केवल बाह्य प्रकृति से, वरन् स्वयं अपने से भी उस का द्वंद्व चलता रहता है।  यह असंगति इसे झनझनाती  और व्यथित करती है, और यह व्यथा उसे सदा आगे बढ़ने को प्रेरित करती है।  कभी कभी ऐसा होता है कि प्रकृति के साथ यह वैमनस्य, यह अंतर्विरोध इतना भयानक रूप ले लेता है कि मानव सत्य की टोह छोड़ कर ऑथेलो की भाँति अन्धी झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त किसी भुलावे को पकड़ने के लिए, यहाँ तक कि एकदम औघड़ जादू-टोनों तक में पड़ने के लिए विकल हो उठता है।  यह जैसे भी हो, उस जानलेवा द्वंद्व को भूलना और उस से निकल भागना चाहता है¡  ... यहीं से ज्ञान का, और अन्धविश्वासों का भी सूत्रपात होता है...¡

- अलेक्सान्द्र इवानोविच हर्ज़न (1812-1870)

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

एक पेजी मार्क्सवाद

हुत लोग हैं जो मार्क्सवाद पर उसे बिना जाने बात करते हैं।  उन्हें लगता है कि मार्क्सवाद को समझना कठिन है या वह बहुत विस्तृत है उस में सर कौन खपाए। लेकिन मार्क्सवाद को समझना कठिन नहीं है। यूँ तो किसी भी दर्शन को समझने के लिए बहुत कुछ करना होता है। इसे यूँ समझ लीजिए कि कार्ल मार्क्स ने अपनी मूल प्रारंभिक पुस्तक "राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" लिखने के लिए पंद्रह वर्षो तक अनुसंधान कार्य किया और अपने आर्थिक सिद्धान्त का आधार तैयार किया। उन्हों ने अपने अन्वेषण के निष्कर्षों को अर्थशास्त्र के एक वृहत् ग्रंथ में सूत्रबद्ध करने की योजना बनाई। इस ग्रन्थ का पहला भाग जून 1859 में प्रकाशित हुआ। उस के प्रकाशन के तुरन्त बाद दूसरा भाग प्रकाशित करने का इरादा मार्क्स का था। लेकिन अगले विस्तृत अध्ययन के कारण उन्हों ने पूंजी लिख डाली। 

"राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास" की जो भूमिका मार्क्स ने लिखी उस में एक पृष्ठ के एक पैरा में अपने सिद्धान्त, जो बाद में मार्क्सवाद की रीढ़ माना गया को स्पष्ट किया है।  जो लोग मार्क्सवाद को समझना चाहते हैं उन्हें इस एक पैरा में सब कुछ मिल सकता है और इच्छा होने पर बाद में वे और आगे अध्ययन कर सकते हैं। आप इस एक पृष्ठ की मार्क्सवाद की रूपरेखा को "एक पेजी मार्क्सवाद" की संज्ञा दे सकते हैं। 


क्या है मार्क्सवाद?


पने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित सम्बन्धों में बन्धते हैं जो अपरिहार्य एवं उन की इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये सम्बन्ध उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन सम्बन्धों का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है – व ह असली बुनियाद है, जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिस के अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक उत्पादन प्रणाली जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्कर्या को निर्धारित करती है। मनुष्यों की चेतना उन के अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उलटे उन का सामाजिक अस्तित्व उन की चेतना को निर्धारित करता है। अपने विकास की एक खास मंजिल पर पहुँच कर समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियाँ तत्कालीन उत्पादन सम्बन्धों से, या – उसी चीज को कानूनी शब्दावली में यों कहा जा सकता है – उन सम्पत्ति सम्बन्धों से टकराती है।, जिन के अंतर्गत वे उस समय तक काम करती होती है। ये सम्बन्ध उत्पादन शक्तियों के विकास के अनुरूप न रह कर उन के लिए बेड़ियाँ बन जाते हैं। तब सामाजिक क्रांति का युग शुरु होता है। आर्थिक बुनियाद के बदलने के साथ समस्त वृहदाकार ऊपरी ढाँचा भी कमोबेश तेजी से बदल जाता है। ऐसे रूपान्तरणों पर विचार करते हुए, एक भेद हमेशा ध्यान में रखना चाहिए. एक ओर तो उत्पादन की आर्थिक परिस्थितियों का भौतिक रूपान्तरण है, जो प्रकृति विज्ञान की अचूकता के साथ निर्धारित किया जा सकता है। दूसरी ओर वे कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, सौंदर्यबोधी, या दार्शिनिक, संक्षेप में विचारधारात्मक रूप हैं, जिन के दायरे में मनुष्य इस टक्कर के प्रति सचेत होते हैं और उस से निपटते हैं। जैसे किसी व्यक्ति के बारे में हमारी राय इस बात पर निर्भर नहीं होती कि वह अपने बारे में क्या सोचता है, उसी तरह हम ऐसे रूपान्तरण के युग के बारे में स्वयं उस युग की चेतना के आधार पर निर्णय नहीं कर सकते। इस के विपरीत भौतिक जीवन के अन्तर्विरोधों के आधार पर ही, समाज की उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों की मौजूदा टक्कर के आधार पर ही इस चेतना की व्याख्या की जानी चाहिए। कोई भी समाज व्यवस्था तब तक खत्म नहीं होती, जब तक उस के अन्दर तमाम उत्पादन शक्तियाँ, जिन के लिए उस में जगह है, विकसित नहीं हो जातीं और नए, उच्चतर उत्पादन सम्बन्धों का आविर्भाव तब तक नहीं होता जब तक कि उन के अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियाँ पुराने समाज के गर्भ में ही पुष्ट नहीं हो चुकतीं। इसलिए मानव जाति अपने लिए हमेशा ऐसे ही कार्यभार निर्धारित करती है, जिन्हें वह सम्पन्न कर सकती है। कारण यह कि मामले को गौर से देखने पर हमेशा हम यही पाएंगे कि स्वयं कार्यभार केवल तभी उपस्थित होता है, जब उसे सम्पन्न करने के लिए जरूरी भौतिक परिस्थितियाँ पहले से तैयार होती हैं, या कम से कम तैयार हो रही होती हैं। मोटे तौर से ऐशियाई, प्राचीन, सामन्ती एवं आधुनिक, पूंजीवादी उत्पादन प्रणालियाँ समाज की आर्थिक संरचना के अनुक्रमिक युग कही जा सकती हैं। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादन की सामाजिक प्रक्रिया के अन्तिम विरोधी रूप हैं – व्यक्तिगत विरोध के अर्थ में नहीं, वरन् व्यक्तियों के जीवन की सामाजिक अवस्थाओं से उद्भूत विरोध के अर्थ में विरोधी हैं। साथ ही पूंजीवादी समाज के गर्भ में विकसित होती हुई उत्पादन शक्तियाँ इस विरोध के हल की भौतिक अवस्थाएँ उत्पन्न करती हैं। अतः इस सामाजिक संरचना के साथ मानव समाज के विकास का प्रागैतिहासिक अध्याय समाप्त हो जाता है।


-कार्ल मार्क्स, राजनीतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा का एक प्रयास की भूमिका से (1859)

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

मनुष्य समाज का भविष्य क्या है?


र्गहीन मानव समाज एक सपना नही अपितु यथार्थ है। मानव समाज को अस्तित्व में आए दो लाख वर्ष हुए हैं। इन में से 90 से 95 प्रतिशत समय उस ने वर्गहीन समाज की अवस्था में ही बिताया है। मनुष्य जीवन का मात्र पिछले दस हजार वर्षों का काल ही ऐसा है जिन में वर्गों का अस्तित्व दृष्टिगोचर होता है। पृथ्वी पर मनुष्य के आविर्भाव से आज तक के काल का केवल पाँच प्रतिशत के अनुभव के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त करना कि वर्गहीन समाज एक सपना है अपने आप में एक सपना है। साम्यवाद मनुष्य समाज से एक वर्ग को समाप्त कर देने मात्र से स्थापित नहीं हो सकता। उस के लिए मनुष्य समाज के सभी वर्गों का समूल नाश होना आवश्यक है। साम्यवाद तभी संभव है। सभी वर्गों के समूल नाश की बात से केवल वे लोग इन्कार करते हैं जो किसी न किसी प्रकार से शोषण पर आधारित व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं और शोषकों और शोषण की व्यवस्था की रक्षा में खड़े हैं। मुझे उन लोगों पर हँसी आती है जो "साम्यवादी शासन" की बात करते हैं। साम्यवाद में तो शासन होता ही नहीं वह तो मानव समाज की शासनहीनता की अवस्था है। सभी समान हों तो कौन किस पर शासन करेगा? साम्यवाद और शासन में तो उतना ही बैर है, जितना रोशनी और अंधकार में। जब कोई वर्ग ही नहीं होगा तो कौन किस पर शासन करेगा? वर्गीय शासन में जनता शब्द या तो कोई अर्थ नहीं रखता और यदि रखता है तो उस से केवल वे लोग भासित होते हैं जो शोषक वर्ग के शिकार हैं। वास्तव में जनता एक भ्रामक शब्द है। समाज में शोषक होते और शोषित होते हैं। वर्तमान समाज व्यवस्था में जब पूंजीपति वर्ग ने अपने ही जाए उजरती मजदूरों के वर्ग के हाथों अपनी मृत्यु को निश्चित जान कर अपनी रक्षा के लिए सामंतवाद के समूल नाश के अपने कर्तव्य से च्युत हो कर उन से समझौता किया और अनेक ऐसे वर्गीय समूहों को जीवित रहने दिया जो खुद एक और श्रमजीवियों के शोषण में जुटे हैं तो दूसरी ओर सरमाएदारों के शोषण के शिकार भी हैं। यह पूंजीपति-भूस्वामी वर्ग ही हैं जो मनुष्य समाज के सभी सदस्यों को जनता की संज्ञा प्रदान कर के भेड़ों और भेड़ियों की युति को रेवड़ बताने के भ्रम को जीवित रखते हैं। जब तक मनुष्यों की खाल में भेड़िये मौजूद हैं साम्यवाद किसी प्रकार संभव नहीं। ये भेड़िये ही हैं जो साम्यवाद के विरोधी हैं जो अपनी अवश्यंभावी मृत्यु के टल जाने को जनता द्वारा साम्यवाद के विचार को कूड़े के ढेर में फेंक देना घोषित करते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि “वर्गहीन समाज भले स्थापित हो जाय पर शासनहीन होना सम्भव नहीं लगता। आदिम समय से ही मनुष्य मनुष्य पर शासन करता आया है। जानवरों तक में यह प्रवृत्ति पायी जा सकती है। काश मनुष्य की यह इच्छा सच हो पाती पर शायद यह (शासनहीनता की स्थिति) व्यावहारिक रूप से कभी नहीं हो सकेगा।” इस तरह सोचने वाले लोग मनुष्य जीवन के 95 प्रतिशत काल को मनुष्य जीवनकाल के संपूर्ण अनुभव को 100 प्रतिशत पर थोप रहे होते हैं। शासन को तो सभ्यता के युग ने उत्पन्न किया है। उस के पहले के इतिहास में शासन कहाँ था? कोई जरा इतिहास से खोज कर तो बताए। इस धारणा को भी शोषक वर्गो ने अपनी अवश्यम्भावी मृत्यु को कुछ समय के लिए टालने के लिए जन्म देता है और उसे प्रचारित करता है। इस के बिना तो वे पाँच बरस भी जीवित नहीं रह सकते।

क्सर यह सन्देह प्रकट किया जाता है कि ये शोषक भेड़िये साम्यवाद की खाल में भी मौजूद हैं जो साम्यवाद के नाम पर शासन करने का मंसूबा पालते रहते हैं। तो उन के लिए जवाब हाजिर है कि भेड़िए साम्यवाद की खाल जरूर पहन सकते हैं। क्यों कि जब मौत आती है तो सियार शहर की ओर भागते हैं। हर समाजवाद और साम्यवाद विरोधी शासक ने समाजवाद का नारा जोरों से लगाया है। उन में हिटलर भी शामिल है और इंदिरागांधी भी।  लोग यह भी कहते हैं कि इतिहास में हजारों चीजें हैं जो वापस लौट कर नहीं आतीं। उसी तरह वर्गहीन समाज भी लौट कर नहीं आ सकता। वे सही कहते हैं कि हजारों चीजें है जो वापस नहीं लाई जा सकतीं। लेकिन मैं कहता हूँ कि किसी भी चीज को वापस नहीं लाया जा सकता और न ही किसी भी समाज को पीछे नहीं ले जाया जा सकता। हालांकि लोग और अनेक इतिहासकार यह घोषणा भी करते रहते हैं कि इतिहास दोहराया जाता है। लेकिन इतिहास कभी खुद को नहीं दोहराता। विकास की गति वृत्ताकार नहीं होती। वह गोलाकार कमानी (Spring) की तरह होती है। इस अवधारणा को अब तक के इतिहास ने बार बार प्रमाणित किया है। चीजें लौटती है लेकिन पहले से अधिक विकसित रूप में। हमें जानना चाहिए कि मनुष्य समाज में वर्गो की उत्पत्ति क्यों कर हुई? वे क्या कारक थे जिन्होंने वर्गों को उत्पन्न किया? वर्गीय सत्ताएँ बार बार सत्ताच्युत की गई हैं, नए वर्गों ने पुराने वर्गों को हटा कर अपने वर्ग के लिए मुक्ति प्राप्त की है और अपनी सत्ता स्थापित की है। लेकिन इस पूंजीवाद ने उजरती मजदूरों के एक नए वर्ग को पैदा किया है (जिस में उच्च वेतनभोगी तकनीशियन, वैज्ञानिक और प्रबंधक भी सम्मिलित हैं) जो लगातार मुक्ति के लिए संघर्षरत है। उजरती मजदूरों का यह वर्ग अत्यन्त विशाल है। 
पूंजीवाद ने स्वयं अपने विकास के इस चरण में साबित कर दिया है कि पूंजीपति वर्ग मनुष्य समाज के लिए बिलकुल बेकार की चीज है, समाज में उस के लिए कोई काम नहीं है वह मनुष्य समाज के लिए एक व्यर्थ का बोझा मात्र है।  स्वयं पूंजीपति वर्ग ने सभी प्रकार के कामों को वेतनभोगी उजरती मजदूरों को करने को सौंप दिया है और उन्हें वे सफलतापूर्वक कर रहे हैं। पूंजीवादी विचारक उजरती मजदूरों के इस वर्ग को अनेक फर्जी उपवर्गों में विभाजित करते है। लेकिन ये सभी विभाजन आभासी हैं उन का समाप्त होना अवश्यंभावी है। यही वह क्रांतिकारी वर्ग है जिसे वर्तमान सत्ता को समाप्त करना है। लेकिन यही वह वर्ग भी है जो शासन कर के स्वयं मुक्त नहीं हो सकता। उस की मुक्ति और विजय इसी में है कि वह मनुष्य समाज से सदैव के लिए वर्गों का उन्मूलन कर दे। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो प्रतिक्रांति ही उस का भविष्य बन जाती है।  यह प्रतिक्रांति फिर से पूंजीपति वर्ग को जीवनदान देती है और उस की सत्ता की अस्थाई पुनर्स्थापना करती है। जब जब भी उजरती मजदूरों के इस सर्वहारा वर्ग ने पूंजीवाद को परास्त करने के उपरान्त मनुष्य समाज से तमाम वर्गों के उन्मूलन के संघर्ष को स्थगित किया है वहाँ प्रतिक्रांतियाँ हुई हैं। लेकिन यह नया विशाल वर्ग अपने अनुभवों से लगातार सीखता है और सीख रहा है। उस ने अपनी मुक्ति के संघर्ष को त्यागा नहीं है, वह इसे त्याग भी नहीं सकता। उसने अपने संघर्ष को और अधिक मजबूत किया है। आरंभ में यह संघर्ष केवल सुविधाएँ हासिल करने का होता था। लेकिन जब वह देखता है कि सुविधाएँ तो उस से बार बार छीन ली जाती हैं तो वह अपनी सत्ता स्थापित करने में इस का हल पाता है और जब वह यह अनुभव हासिल कर लेता है कि उस की सत्ता को भी बार बार पदच्युत कर दिया जाता है तो वह वर्गों के समूल नाश की और आगे बढ़ता है। वह वर्ग मुक्ति की कामना और उस के लिए संघर्ष का कभी त्याग नहीं कर सकता। उस की मुक्ति वर्गों के उन्मूलन में है जिसे वह एक दिन हासिल कर के रहेगा। साम्यवाद ही मानव समाज का भविष्य है।

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

दुनिया के सभी श्रमजीवी एक कौम हैं।

ब किसी ऐसे कारखाने में अचानक उत्पादन बंद हो जाए, जिस में डेढ़ दो हजार मजदूर कर्मचारी काम करते हों और प्रबंधन मौके से गायब हो जाए तो कर्मचारी क्या समझेंगे? निश्चित ही  मजदूर-कर्मचारी ही नहीं जो भी व्यक्ति सुनेगा वही यही सोचेगा कि कारखाने के मालिक अपनी जिम्मेदारी से बच कर भाग गए हैं।   इस दीवाली के त्यौहार के ठीक पहले पिछली पांच नवम्बर को यही कुछ कोटा के सेमटेल कलर लि. और सेमकोर ग्लास लि. कारखानों में हुआ।  गैस और बिजली के कनेक्शन कट गए।  प्रबंधन कारखाने को छोड़ कर गायब हो गया।  मजदूर कारखाने पर ड्यूटी पर आते रहे। कुछ कंटेनर्स में रिजर्व गैस मौजूद थी। कुछ दिन उस से कारखाने के संयंत्रों को जीवित रखा।  फिर खतरा हुआ कि बिना टेक्नीकल सपोर्ट के अचानक प्रोसेस बंद हो गया तो विस्फोट न हो जाए।  फिर भी प्रबंधन न तो मौके पर आया और न ही उस ने कोई तकनीकी सहायता उपलब्ध कराई।  जैसे तैसे मजदूरों ने अपनी समझबूझ और अनुभव से कारखाने के प्रोसेस को बंद किया।  तीन माह हो चले हैं प्रबंधन अब भी मौके से गायब है।

ब कंपनी का चेयरमेन कहता है कि कारखानों के उत्पादों की बाजार में मांग नहीं है इस लिए उन्हें नहीं चलाया जा सकता।  सारी दुनिया इस बात को जानती है कि कारखाने और उद्योग अमर नहीं हैं।   वे आवश्यकता होने पर पैदा होते हैं और मरते भी हैं, उन की भी एक उम्र होती है।  इन कारखानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है और यह कोई नई घटना नहीं है।  सभी उद्योगों के प्रबंधकों को अपने कारखानों के बंद होने की यह नियति बहुत पहले पता होती है।  वे जानते हैं कि उन के उत्पाद के स्थान पर एक नया उत्पाद बाजार में आ गया है, जल्दी वह उन के उद्योग के उत्पाद का स्थान ले लेगा और उन का कारखाना अंततः बंद हो जाएगा।  उन्हें चाहिए कि वे कारखाने को बंद करने की प्रक्रिया तभी आरंभ कर दें।   अपने कर्मचारियों और मजदूरों को बताएँ कि उन की योजना क्या है? और वे कब तक कर्मचारियों को रोजगार दे सकेंगे? जिस से कर्मचारी अपने लिए काम तलाशने की कोशिश में जुट जाएँ। जब तक उन्हें इन कारखानों में काम मिलना बंद हो वे अपने रोजगार की व्यवस्था बना लें।  जब वे नए रोजगार के लिए जाने लगें तो उन्हें उन का बकाया वेतन, ग्रेच्युटी और भविष्य निधि आदि की राशि नकद मिल जाए।  

लेकिन कोई कारखानेदार ऐसा नहीं करता।  वह कर्मचारियों और मजदूरों में यह भरोसा बनाए रखने का पुरजोर प्रयत्न करता है कि कारखाना बंद नहीं होगा।  वे कैसे भी उसे चलाएंगे।  हालांकि वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे प्रकृति से नहीं लड़ सकते और कारखाना अवश्य बंद होगा।  तब प्रबंधक उद्योग में लगी पूंजी से अधिक से अधिक धन निकालने लगते हैं।  उसे खोखला करने पर उतर आते हैं।  कोशिश करते हैं कि वित्तीय संस्थाओं से अधिक से अधिक कर्ज लें।  इस के लिए वे कारखाने की सभी संपत्तियों को गिरवी रख देते हैं।  अंत में उद्योग की संपत्तियों पर भारी कर्ज छूट जाता है इतना कि उस से किसी तरह कर्ज न चुकाया जा सके, और छूट जाते हैं मजदूरों कर्मचारियों के बकाया वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि की राशियाँ।  उ्द्योगों के ये स्वामी कर्मचारियों को जो वेतन देते हैं उस में से भविष्य निधि, जीवन बीमा आदि के लिए कर्मचारियों के अंशदान की कटौती करते हैं लेकिन उन्हें भविष्य निधि योजना और जीवन बीमा आदि को जमा नहीं कराते।  ये भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत अमानत में खयानत/गबन का गंभीर अपराध है।  पर कोई पुलिस उन के इस अपराध का प्रसंज्ञान नहीं लेती। 

द्योगिक कंपनी एक दिन बीमार कंपनी बन जाती है और बीमार औद्योगिक कंपनियों के पुनर्वास बोर्ड को आवेदन करती है कि उसे बचाया जाए। अजीब बात है यहाँ वक्त की मार से मरने वाले उद्योग का खाना खुराक  समय से पहले बंद कर के उसे मारने का पूरा इंतजाम किया जाता है और फिर उसे बीमार और यतीम बना कर समाज के सामने पेश कर दिया जाता है कि अब उसे बचाने की जिम्मेदारी समाज की है।  यही आज का सच है।   आज अधिकांश उद्योग आधुनिक हैं और उन में उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। सैंकड़ों हजारों लोग मिल कर उत्पादन करते हैं। उन के बिना उत्पादन संभव नहीं, लेकिन उन में से कोई भी न तो उत्पादन के साधनों का स्वामी है और न ही उत्पादित माल की मिल्कियत उस की है। उत्पादन के साधनों और उत्पादित माल दोनों पर पूंजीपतियों का स्वामित्व है जिन के बिना भी ये चल सकते हैं, जो खुद अपने ही किए से बिलकुल बेकार की चीज सिद्ध हो चुके हैं। 

मारी सरकारें, वे राज्यों और केंद्र में बैठी सिर्फ आश्वासनों की जुगाली करती हैं।  वे बीमार कंपनियों को स्वस्थ बनाने के अस्पताल के नाम पर बीआईएफआर और एएआईएफआर जैसी संस्थाओं को स्थापित करती हैं।  वे इस बात की कोई व्यवस्था नहीं करतीं जिस से यह पता लगाया जा सके कि वक्त की मार में कौन से उद्योग अगले 2-4-5 सालों में बंद हो सकते हैं।  यदि वे इस के लिए कोई काम करें तो फिर उन्हें यह भी व्यवस्था करनी होगी कि बंद उद्योगों के मजदूरों को कहाँ खपाया जाए, उन के लिए वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराया जाए।  यह भी व्यवस्था बनानी जाए कि बंद होने वाले उद्योग के कर्मचारियों को उन का वेतन, ग्रेच्यूटी और भविष्य निधि आदि की राशि समय से मिल जाए।  लेकिन देश और देश की जनता की ठेकेदार सरकारें ये व्यवस्था क्यों करने लगीं।  वे मजदूरों, कर्मचारियों, किसानों और श्रमजीवी बिरादरी का प्रतिनिधित्व थोड़े ही करती हैं।  जब उन की पार्टियों को वोट लेने होते हैं तभी वे सिर्फ इस का नाटक करती हैं।  उन्हें तो अपने मालिकों (पूंजीपतियों, जमींदारों और विदेशी पूंजीपतियों की चाकरी बजानी होती है।)  ये चाकरी वे पूरी मुस्तैदी से करती हैं।  वे कहती हैं उन्हों ने बकाया वेतन के लिए, बकाया ग्रेच्युटी के लिए और भविष्य निधि की राशि मजदूरों को मिले उस के लिए कानून बना रखे हैं। उन्हों ने ऐसे कानून भी बना रखे हैं जिस से बड़े कारखाने सरकार की अनुमति के बिना बंद न हों।  (छोटे कारखानों को जब चाहे तब बंद होने की कानून से भी छूट है) लेकिन कारखाने फिर भी बंद होते हैं।  मजदूरों कर्मचारियों के वेतन फिर भी बकाया है, उन की ग्रेच्यूटी बकाया है।  भविष्य निधि में नियोजक के अंशदान की बात तो दूर उन के खुद के वेतन से काटा गया अंशदान भी पूंजीपति आसानी से पचा गए हैं, डकार भी नहीं ले रहे हैं।   कानून श्रमजीवी जनता के लिए फालतू की चीज है। क्यों कि उन्हें लागू करने वाली मशीनरी के लिए सरकार के पास धन नहीं है।  थोड़ी बहुत मशीनरी है उस के पास बहुत काम हैं। वे इस काम को करेंगे तब तक खून पीने वाले ये पंछी न जाने कहाँ गायब हो चुके होंगे।  यह मशीनरी पूरी तरह से पूंजीपतियों की जरखरीद गुलाम हो चुकी है। 

तो रास्ता क्या है?  जब तक श्रमजीवी जनता केवल अपनी छोटी मोटी आर्थिक मांगों के लिए ही एक बद्ध होती रहेगी तब तक उस की कोई परवाह नहीं करेगा।  अब तो वे इस एकता के बल पर लड़ कर वेतन बढ़ाने तक की लड़ाई को अंजाम तक नहीं पहुँचा सकते।  आज राजनीति पर पूंजीपतियों और भूस्वामियों का कब्जा है। राजनीति उन के लिए होती है।  सरकारें उन के लिए बनती हैं। श्रमजीवी जनता के लिए नहीं।  श्रमजीवियों के लिए सिर्फ और सिर्फ आश्वासन होते हैं।  मजदूरों और कर्मचारियों को यह समझाया जाता है कि राजनीति बुरी चीज है और उन के लिए नहीं है,  वह केवल पैसे वालों के लिए है।  दलित और पिछड़े श्रमजीवियों को समझाया जाता है कि यह ब्राह्मण है इस ने तुम्हारा सदियों शोषण किया है, ब्राह्मण परिवार में जन्मे श्रमजीवी को समझाया जाता है कि वे जन्मजात श्रेष्ठ हैं, इस के आगे उन्हें हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसियों में बाँटा जाता है।  इस से भी काम नहीं चलता तो उन्हें मर्द और औरत बना कर कहा जाता है कि  औरतें तो कमजोर हैं और सिर्फ शासित होने के लिए हैं चाहें वे किसी उम्र हों,  चाहे घर में हों या बाहर हों। श्रमजीवियों को इस समझ से छुटकारा पाना होगा।  संगठित होना होगा।  एक कौम के रूप में संगठित होना होगा।  उन्हें समझना होगा कि दुनिया के सभी श्रमजीवी, मजदूर, किसान, कर्मचारी, विद्यार्थी, महिलाएँ एक कौम हैं।  उन्हें श्रमजीवियों की अपनी इस कौम के लिए आज के सत्ताधारी पूंजीपतियों, जमीदारों से सत्ता छीननी होगी।  ऐसी सत्ता स्थापित करनी होगी जो धीरे धीरे श्रमजीवियों के अलावा सभी कौमों को नष्ट कर दे और खुद भी नष्ट हो जाए। 

खैर, फिलहाल तीन माह हो रहे हैं सेमटेल कलर और सेमकोर ग्लास के 1800 श्रमिकों को कारखानों में खाली बैठे डटे हुए।  प्रबंधन गायब है।  वह राजधानी दिल्ली में सरकार और कानून की सुरक्षा में बैठा बैठा एलान कर रहा है कि कारखाना अब चल नहीं सकता।  वह मजदूरों की पाई पाई चुका देगा।  लेकिन कारखानों की जमीन बेच कर।  मजदूरों को पता है कंपनी पर कर्जा है, ऐसा कर्जा जो सीक्योर्ड (डेट) कहलाता है।  कानून कहता है कि पहले सीक्योर्ड क्रेडिटर का चुकारा किया जाएगा।  मालिक ने कारखाना बंद करने के बहुत बाद में सरकार को कारखाना बंद करने और  बीआईएफआर को कंपनी को बीमार घोषित करने के आवेदन पेश कर दिए हैं। सीक्योर्ड क्रेडिटरों को चुकारा करने के बाद कंपनी के पास कुछ नहीं बचना है।  सरकार कहती है कि जमीन औद्योगिक उपयोग की है और लीज पर है उसे अन्य कामों के लिए बेचा नहीं जा सकता।  औद्योगिक उपयोग के लिए बेचने पर जो रकम मिलेगी उसे सीक्योर्ड क्रेडिटर पचा जाएंगे।  मजदूरों कर्मचारियों के लिए न कोई कानून है और न कोई सरकार।  श्रम विभाग के पास केवल आश्वासन पर आश्वासन हैं।  तमाम प्रतिक्रिया वादी दल और संगठन जिन में भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस आदि सम्मिलित हैं खूब उछलकूद मचा रहे हैं कि वे मजदूरों को उन के हक दिला कर रहेंगे।  मजदूरों को चार माह से वेतन नहीं मिला है।  उन के घर किस से चल रहे हैं?  उन के बच्चे स्कूल जा रहे हैं या नहीं? किसे पता?

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं

कोई पाँच बरस पहले ब्लागिरी शुरु हुई थी। पहले ब्लाग तीसरा खंबा आरंभ हुआ और लगभग एक माह बाद अनवरत। धीरे धीरे गति बढ़ी और हर तीन दिन में कम से कम दो पोस्टें लिखने लगा। लेकिन 2011 में आ कर गति कम हुई,  सप्ताह में तीन चार पोस्टें रह गईं। 2012 में केवल 53 पोस्टें हुई, औसत सप्ताह में केवल एक पर आ कर टिक गया। इस वर्ष तो जनवरी निकला जा रहा है लेकिन एक भी पोस्ट न हो सकी। कहा जा सकता है कि ब्लागिरी से मोह टूट रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है। अखबार, पत्रिकाएँ और पुस्तकें जिस तरह लेखन और विचारों को प्रकाश में लाने के माध्यम है उसी तरह ब्लागिरी भी है। सब से अच्छा तो यह है कि यह एक स्वयं प्रकाशन माध्यम है। जिस पर आप केवल खुद ही नियंत्रण रखते हैं। 
ब्लागिरी की गति कम होने के अनेक कारण रहे हैं। जिन में कुछ तो मेरे अपने स्वास्थ्य संबंधी कारण हैं। दिसंबर 2011 में हर्पीज जोस्टर का शिकार होने के बाद, दाँतों ने कष्ट दिया और उस के तुरंत बाद ऑस्टिओ आर्थराइटिस ने जकड़ा जिस के कारण एक पैर में लिगामेंट का स्ट्रेन भुगतना पड़ा। ऑस्टियो आर्थराइटिस नियंत्रण में है पर उस ने दोनों घुटनों के कार्टिलेज को जो क्षति पहुँचाई है उस की भरपाई में समय लगेगा। जब किसी व्यक्ति के चलने फिरने में बाधा आती है तो उस की सभी गतिविधियाँ प्रभावित होती हैं। आय के साधन जो व्यक्ति और परिवार को चलाने के लिए महत्वपूर्ण हैं उन्हें नियमित रूप से चलाए रखना आवश्यक होता है।  उन कामों को करने के उपरान्त समय इतना कम शेष रहता है कि अन्यान्य गतिविधियों मंद हो जाती हैं। यही मेरे साथ भी हुआ।
र्ष 2011 के अंत में तीसरा खंबा ब्लाग को एक स्वतंत्र वेबसाइट में परिवर्तित किया गया था। यह साइट कानूनी विषयों पर है और जोर इस बात पर है कि कानूनी मामलों पर पाठकों का विधिक शिक्षण हो तथा अधिक से अधिक मामलों पर आम पाठक की सहायता की जा सके। तीसरा खंबा अनेक बाधाओं के बावजूद लगभग निरंतर है। वर्ष 2012 में उस पर 330 पोस्टें लिखी गईं। यदि सप्ताह का एक दिन अवकाश का समझ लें तो औसतन प्रतिदिन एक पोस्ट से अधिक इस साइट पर लिखी गई है। अधिकांश पोस्टों में पाठकों को उन की कानूनी समस्याओं के हल सुझाए गए हैं। एक समस्या का हल सुझाने और उसे वेबसाइट पर लाने में कम से कम एक से दो घंटे तो लगते ही हैं।  मैं समझता हूँ कि एक व्यक्ति के लिए सामाजिक जीवन के लिए इतना समय व्यतीत करना पर्याप्त है।
तीसरा खंबा का एक खास उद्देश्य है। लेकिन अनवरत ब्लाग अपने विचारों व लेखन को और अपनी मनपसंद रचनाओं को सामने लाने का माध्यम बना। उसी से हिन्दी के ब्लाग जगत में मेरी पहचान बनाई।  पाँच वर्ष की ब्लागिरी की ओर पीछे मुड़ कर झाँकता हूँ तब महसूस होता है कि बिना किसी योजना के बहुत कुछ कर डाला गया।  लेकिन जो कुछ किया गया उसे कुछ योजना बद्ध रीति से और तरतीब से भी किया जा सकता था। पिछले दो माह इसी विचार में निकले कि वहाँ क्या किया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यह समय भारतीय समाज के लिए महत्वपूर्ण है। जब समाज पूरी तरह से बदलाव चाहता है। लेकिन प्रश्न यही हैं कि समाज में किस तरह का बदलाव कैसे संभव है।  समाज कोई एक  व्यक्ति या समूहों की इच्छा से नहीं बदलता। समाज की भौतिक आर्थिक परिस्थितियाँ उसे बदलती हैं।  वे ही नए शक्ति समूह खड़े करती हैं जो समाज को बदलते हैं। निश्चित रूप से यह अध्ययन का विषय है।  इस समय में मुझे क्या करना चाहिए? अनवरत ब्लाग का उपयोग किस तरह करना चाहिए? यही सोच रहा हूँ।  पर सोच की इस प्रक्रिया के बीच अनवरत का यह ठहराव बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा है। अनवरत को अनवरत रहना चाहिए। इस लिए यह तय किया है कि सप्ताह में कम से कम एक बार पोस्ट अवश्य लिखी जाए और इस की गति को बढ़ा कर सप्ताह में 3-4 पर लाया जाए।