हमारे साहित्य के प्रत्येक युग में विदेशी शब्दों की एक बाढ़ सी हमारे यहाँ आई है। हमारा अपना युग भी इस का अपवाद नहीं है। और यह एक ऐसी चीज है जिस का जल्दी ही अन्त नहीं होगा। विदेशी धरती में विकसित नए विचारों से हमारा परिचय अपने साथ नए शब्दों को भी ले आता है। लेकिन इस में कोई शक नहीं कि बिना जरूरत या बिना उपयुक्त कारण के हमारी भाषा में विदेशी शब्दों की खिचड़ी पकाने का आग्रह सहज बुद्धि और परिष्कृत रुचि के विरुद्ध है। लेकिन यह आग्रह न तो हमारी भाषा का कुछ बाल बाँका कर सकता है, न ही हमारे साहित्य का। यह केवल उन्हीं के लिए बुरा सिद्ध होगा जिन के सिर पर यह सवार है। लेकिन इस की दूसरी, विरोधी अति, अर्थात अपरिमित शुद्धता का भी कोई भिन्न नतीजा नहीं निकलेगा। दोनों एक ही सिक्के को दो पहलू हैं। भाषा का एक अपनी आत्मा, उस की अपनी प्रतिमा है। इसलिए उन ढेर सारे विदेशी शब्दों में से जिन का समावेश किया गया, केवल कुछ ही जीवित रह सके, बाकी अपने आप गायब हो गए। इसी प्रकार, नए गढ़े गए शब्दों का भी वही भाग्य होगा, - कुछ प्रचलित होंगे और बाकी लुप्त हो जाएंगे।
-विस्सारिन ग्रिगोरियेविच बेलिंस्की (1811-1848) प्रसिद्ध रूसी आलोचक