@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

क्या सर्वोच्च न्य़ायालय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में निर्णय देगा?

शिक्षा के अधिकार कानून द्वारा निजी विद्यालयों पर 25 प्रतिशत आर्थिक रूप से कमजोर विद्यार्थियों को प्रवेश देने की बाध्यता के विरुद्ध प्रस्तुत की गई याचिकाओं पर आज सर्वोच्च निर्णय निर्णय देने वाला है। लंबी सुनवाई के उपरान्त दिनांक 3 अगस्त 2011 को निर्णय को मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया, न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् तथा न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार द्वारा सुरक्षित रख लिया गया था। इस मामले में  दो पृथक पृथक निर्णय दिए जाएंगे जिनमें से एक मुख्य न्यायाधीश एचएस कापड़िया का तथा दूसरा न्यायाधीश केएसपी राधाकृष्णन् का होगा। इस मामले में सोसायटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स तथा इंडिपेंडेंट स्कूल्स फेडरेशन ऑफ इंडिया तथा कुछ अन्य ने चुनौती दी है कि इस कानून से राज्य के हस्तक्षेप के बिना विद्यालय संचालित करने के उन के अधिकार का उल्लंघन हुआ है। उन का यह भी कहना है कि 25 प्रतिशत विद्यार्थियों को निशुल्क प्रवेश देने से उन के संचालन के लिए आर्थिक स्रोत चुक जाएंगे। फिर भी ऐसा किया जाता है तो ऐसे विद्यालयों द्वारा जो व्यय इन 25 प्रतिशत विद्यार्थियों पर किया जाता है उस की सरकार द्वारा भरपाई की जानी चाहिए।  

देश की अधिकांश जनता का विश्वास है कि इस मामले में निर्णय गरीब विद्यार्थियों के पक्ष में होगा। निश्चय ही देश के बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी वहन करना राज्य का कर्तव्य होना चाहिए। सभी विद्यालय राज्य के नियंत्रण में ही संचालित किए जाने चाहिए और विद्यालयों के स्तर में किसी तरह का कोई भेद नहीं होना चाहिए। लेकिन निजि विद्यालयों ने शिक्षा में समता को पूरी तरह नष्ट कर दिया है। जो लोग अपने बच्चों के लिए धन खर्च करने की क्षमता रखते हैं उन के लिए अच्छे और साधन संपन्न विद्यालय मुहैया कराने की छूट ने और सरकारी विद्यालयों के लगातार गिरते स्तर ने शिक्षा को एक उद्योग में बदल दिया है और इस उद्योग में निवेश कर के लोग अकूत धन संपदा एकत्र कर रहे हैं। एक निजि विद्यालय हर वर्ष अपनी संपदा में वृद्धि करते हैं। संरक्षकों की जेबें खाली कर नयी नयी इमारतें खड़ी की जाती हैं। सरकारी विद्यालयों से अधिक अच्छी शिक्षा प्रदान करने का दावा करने वाले इन विद्यालयों के कर्मचारियों को सरकारी विद्यालयों के कर्मचारियों की अपेक्षा बहुत कम वेतन दिया जाता है। उन्हें किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं मिलती। राज्य सरकारों ने कहीं कहीं इन कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लिए कानून बनाए भी हैं तो उन की पालना कराने वाला कोई नहीं है। 

क स्थिति यह भी है कि सरकारों के पास अच्छे विद्यालय खोले जाने के लिए पर्याप्त आर्थिक साधन नहीं हैं। ऐसे में जनता की जेबें खाली करने वाले विद्यालयों पर 25 प्रतिशत निर्धन विद्यार्थियों को निशु्ल्क शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी राज्य द्वारा सौंपी जाती है तो वह किसी प्रकार संविधान के प्रावधानों के विपरीत नहीं हो सकता। अपेक्षा की जानी चाहिए कि आज सर्वोच्च न्यायालय निर्धन विद्यार्थियों के पक्ष में अपना निर्णय. देगा।

सोमवार, 2 अप्रैल 2012

'अभिव्यक्ति' सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका


पिछले दिसंबर के पन्द्रहवें दिन फरीदाबाद में सड़क पर चलते हुए अचानक बाएँ पैर के घुटने के अंदर की तरफ का बंध चोटिल हुआ कि अभी तक चाल सुधर नहीं सकी है। चिकित्सको का कहना है कि मुझे कम से कम एक-डेढ़ माह का बेड रेस्ट (शैया विश्राम) करना चाहिेए। तभी यह ठीक हो सकेगा। मैं चलता फिरता रहा तो इस के ठीक होने की अवधि आगे बढती जाएगी। अब बेड काम तो मुझ से कभी हुए नहीं तो अब बेड रेस्ट कैसे होता? वैसे भी मेरा पेशा ऐसा है कि मैं दूसरों की जिम्मेदारी ढोता हूँ। उस में कोताही करने का अर्थ है उन्हें न्याय और राहत प्राप्त  करने में देरी। मेरी कोशिश रहती है कि मैं अपने मुवक्किलों के प्रति जिम्मेदारी को अवश्य पूरा करूँ। लेकिन यह भी कोशिश रहती है कि मुझे काम के दिनों में कम से कम चलना पड़े, घुटने पर जोर कम से कम देना पड़े। अवकाश  के दिन तो मैं घर से निकलना भी पसंद नहीं करता। लेकिन अपने कार्यालय में तो बैठना ही पड़ता है। पर इस में पैर पर कोई जोर नहीं पड़ता। घर से न निकल पाने के कारण पिछले ढ़ाई माह में उन लोगों से जिन से मेरी निरंतर मुलाकात होती रहती थी उन्हें भी मैं नहीं मिल सका हूँ। आज भी एक दुकान के उद्घाटन और कम से कम दो लोगों की सेवा निवृत्ति पर हो रहे कार्यक्रम में जाना था पर पैर को आराम देने के लिए वहाँ जाना निरस्त किया। दिन में चार पाँच लोग कार्यालय में आए, कुछ लोग मिलने भी आए। शाम को अचानक महेन्द्र नेह आ गए। उन का आना अच्छा लगा। वे सामाजिक यथार्थवादी साहित्य की पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के 38वें अंक की पाँच प्रतियाँ साथ ले कर आए थे। 
शिवराम
भिव्यक्ति मेरा सपना है, जिसे मैं ने तब देखा था जब मैं स्नातक की पढ़ाई कर रहा था। मैं चाहता था कि मेरी अपनी पत्रिका हो जिस के माध्यम से मैं लोगों के साथ रूबरू हो सकूँ। लेकिन एक स्नातक विद्यार्थी के लिए इस सपने को साकार कर पाना संभव नहीं था। बाद में शिवराम मिले और बाराँ की संस्था दिनकर साहित्य समिति ने उन के संपादन में पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। तब से मैं इस का प्रकाशक रहा हूँ। पिछले बरस शिवराम ने अनायास ही हमेशा के लिए हमारा साथ छोड़ दिया। तब अभिव्यक्ति का 37वाँ अंक लगभग तैयार था। शेष काम महेन्द्र नेह ने पूरा किया। लेकिन मार्च 2012 का यह 38वाँ अंक पूरी तरह से महेंद्र नेह के संपादन में तैयार हुआ है। महेन्द्र नेह के जाने के बाद मैं ने पत्रिका का अंक देखना आरंभ किया। निश्चित रूप से एक पत्रिका संपादक का माध्यम होती है। अभिव्यक्ति के प्रकाशन का शिवराम, महेन्द्र नेह और इस से जुड़े तमाम लोगो का उद्देश्य एक ही है. लेकिन संपादन का असर उस के रूप पर पड़ना स्वाभाविक था। इस कोण से देखने पर मुझे अभिव्यक्ति का यह 38वाँ अंक एक अलग अनुभूति दे गय़ा। हालाँकि इस अंक का एक बड़ा भाग स्मृति भाग है। लेकिन इस में इस के अतिरिक्त अत्यन्त महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं। कोटा के लोगों की भागीदारी इस बार बढ़ी है। 

दा की तरह इस अंक का मुखपृष्ठ भी रविकुमार के रेखाकंन से बोल रहा है। मुख पृष्ठ पर ही वीरेन डंगवाल की एक कविता है- 

बेईमान सजे बजे हैं,
तो क्या हम मान लें कि 
बेईमानी भी एक सजावट है? 
कातिल मजे में है 
तो क्या हम मान लें कि 
क़त्ल एक मजेदार काम है?
मसला मनुष्य का है 
इसलिए हम को हरगिज न मानेंगे
कि मसले जाने के लिए ही बचा है मनुष्य !!
-वीरेन डंगवाल
त्रिका के 38वें अंक का संपादकीय महत्वपूर्ण है, और अन्य रचनाएँ भी। आप को जिज्ञासा होगी कि आखिर इस पत्रिका में क्या है? हमारी कोशिश होगी कि अभिव्यक्ति के 38वें अंक और इस से आगे के अंको की सामग्री  हम शनैः शनैः इसी नामके ब्लाग (अभिव्यक्ति) के माध्यम से आप तक पहुँचाएँ। आशा है हिन्दी ब्लाग जगत इस का स्वागत करेगा।

शनिवार, 31 मार्च 2012

गलती करो तो भुगत लो, पर गाँठ जरूर बांध लो


यूँ तो मुझे सब लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुस्त वकील हूँ। पर मैं जानता हूँ कि जल्दबाजी का नतीजा अच्छा नहीं होता। अभी कुछ दिन पहले एक मुकदमे में सफलता हासिल हुई। मुवक्किल बहुत प्रसन्न थे। मिठाइयों के डब्बे और कोटा की मशहूर कचौड़ियाँ ले कर अदालत पहुँचे। उन्हों ने मुझे ही नहीं, मेरे सभी सहयोगियों, क्लर्कों और अदालत के चाय क्लब के दोस्तों को नवाजा। वे इतना लाए थे कि सब का मन भरपूर हो गया। मिठाइयों और कचौड़ियों का स्वाद ले कर कॉफी की चुस्कियाँ ली गईं। फिर वे हमें पान की दुकान तक ले चले। रास्ते में मैं ने उन्हें कहा कि लोग मुझे बहुत सुस्त वकील कहते हैं। तो उन की प्रतिक्रिया थी कि वे सही कहते हैं। लेकिन मैं उस के साथ एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि आप मनचाहा परिणाम भी लेते हैं जो अधिक महत्वपूर्ण है।  सही है कि जब हम कोई काम पूरा जाँच परख कर करेंगे तो उस का मनचाहा परिणाम भी मिलेगा और इस सब में समय लगना तो स्वाभाविक है। लेकिन कभी कभी मेरे जैसा व्यक्ति भी गलती कर ही बैठता है।

ह गलती तब होती है जब आप खुद पर जरूरत से अधिक विश्वास कर बैठते हैं। कई बार सुरक्षा को ताक पर रख देते हैं। पिछले शनिवार मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। रात के कोई सवा बारह बजे होंगे। घड़ियाँ और कलेंडर तारीख बदल चुके थे। मैं भी अपने काम का समापन कर सोने के लिए जा ही रहा था। कंप्यूटर बन्द करने के पहले आदतन मेल बॉक्स देखने लगा तो वहाँ एक मेल बेटे की आईडी से आई हुई थी। मैं ने सोचा जरूर कुछ महत्वपूर्ण संदेश होगा। मेल को खोला तो वहाँ केवल एक लिंक मिला। तुरंत उस पर चटका लगा दिया। एक जाल पृष्ठ खुला। वहाँ कोई सोफ्टवेयर डाउनलोड करने की सुविधा थी।  आनन फानन में मैने उसे डाउनलोड भी कर डाला और जैसा कि अक्सर होता है एक एक्जीक्यूटेबल फाइल हमारे कंप्यूटर में सुरक्षित हो गई। इतना करने के बीच में एक बार यह चेतावनी भी मिली कि यह कोई मेलवेयर भी हो सकता है। मैं ने उस की भी अनदेखी कर डाली।  इस बात का विश्वास था कि बेटे ने भेजा है तो कोई असुरक्षित वस्तु हो ही नहीं सकती। फिर इस तरह के मेलवेयर की चेतावनी पिछले दिनों मुझे मेरी ही वेबसाइट के बारे में इतनी बार मिली है कि मैं उस का आदी हो चुका था। खैर!

तना करने में केवल दस मिनट खर्च हुए। मैंने उसे तुरंत ही एक्जीक्यूट कर दिया और वह जो भी सोफ्टवेयर था वह इंस्टॉल हो गया। जैसे ही वह इंस्टाल हुआ उस ने कंप्यूटर को स्केन कर डाला और कुछ ही मिनटों में एक सौ से अधिक मेलवेयर फाइलें तलाश कर दीं। फिर कहने लगा इन फाइलों को हटाने और दुरुस्त करने के लिए मुझे उस के निर्माता से पूरा पैकेज खरीदना चाहिए जिस की कीमत थी 98 डालर। यह तो  मेरे बस में न था कि कंप्यूटर की सुरक्षा के लिए पाँच हजार रुपए खर्च किए जाएँ। । मुझे संदेह होने लगा कि यह सब बेटे की नहीं बल्कि बेटे के नाम से किसी और की करतूत है। मैं ने उस सोफ्टवेयर को अनइंस्टॉल करना चाहा। लेकिन यह संभव नहीं था। मैं ने सोचा सुबह यह सब बेटे से ही पूछा जाएगा। मैं ने कंप्यूटर बंद किया और जा कर सो गया। 
सुबह उठा कंप्यूटर संभाला। आदतन सब से पहले मेल जाँचने के लिए ब्राउजर खोला तो वह पहली मेल देखते देखते क्रेश हो गया। वह बार बार ऐसा ही करने लगा। एक मेल पढना भी संभव नहीं रहा। दूसरे दो ब्राउजर्स के साथ कोशिश की तो उन का भी वही हाल हुआ। हर बार वही रात को इंस्टॉल किया हुआ सोफ्टवेयर सर पर बंदूक तान कर कह रहा था निकाल पाँच हजार मैं तेरे कंप्यूटर को ठीक कर दूंगा। मैं सोच रहा था यह कौन आफत आ पड़ी? एक तो ठीक से चल रहा कंप्यूटर का इस ने कबाड़ा कर दिया और अब ब्लेक मेल कर रहा है। मेरा बस होता तो इसे घर में घुसने ही न देता। पर मैं बेटे के नाम से आए व्यक्ति को कम से कम ड्राइंगरूम तक तो आने से भी कैसे रोकता?

तने में बेटी सो कर उठी। मैं ने उसे अपना हाल बताया तो कहने लगी- यह मेल तो मुझे भी मिली थी, लेकिन मैं ने तो भैया को रात ही फोन कर के पूछ लिया था। उस की मेल आईडी हैक हो गई है और उस से यह मेल कई लोगों को भेजी गई है। मैं ने और बेटी ने दो घंटे तक प्रयत्न किया कि घर में इस तरह छद्म तरीके से घुस बैठे राक्षस को निकाल फैंका जाए। पर वह निकलने को तैयार न था और दूसरे काम भी न करने दे रहा था। मैं ने बेटे से संपर्क किया तो उस की सलाह थी कि यह ऐसे न निकलेगा। कंप्यूटर ही फॉर्मेट करना पड़ेगा। आखिर मैं ने मोर्चा संभाला। ऑपरेटिंग सिस्टम वाले ड्राइव से सभी जरूरी फाइलें हटा कर दूसरे ड्राइव मे डाली और ड्राइव को फॉरमेट कर फिर से आपरेटिंग सिस्टम डालना आरंभ किया। आपरेटिंग सिस्टम काम करने लगा तो दूसरे ए्प्लीकेशन चालू किए। इस बीच सिस्टम ने मॉनीटर निचले दाय़ें कोने पर झंडी टांग दी कि विंडो की यह प्रति असली नहीं है। मुझे तो यह झंडी दो मिनट के लिए भी बर्दाश्त न थी। बेटे से जानकारी ली गई। माइक्रोसोफ्ट से प्रति की जाँच कराई गई। जाँच के बाद उस ने प्रति को असली पाया। फिर अपडेटस् और सर्विस पैक्स आने लगे। माइक्रोसोफ्ट ने अपना वायरस प्रतिरोधक (माइक्रोसोफ्ट सीक्योरिटी असेंशियल) मुफ्त भेंट किया। हम निहाल हो गए। हमारा कंप्यूटर अब दौड़ रहा है।

मैं अपने बेटे पर कैसे अविश्वास कर सकता था? लेकिन मुझे बेटे के नाम से मिली वस्तु पर जरूर अविश्वास करना चाहिए था। क्यों कि विश्वासघात वहीं होता है जहाँ घोर विश्वास होता है। उस वस्तु के बारे में मिली चेतावनी को अनदेखा नहीं करना चाहिए था।  सब से बढ़ कर तो यह कि किसी भी काम को बहुत देख-परख कर सोच समझ कर काम करने की आदत किसी भी विश्वास के तहत कभी त्यागनी नहीं चाहिए।

गुरुवार, 29 मार्च 2012

ओलों से सर की बचत के लिए हम बालों के मोहताज नहीं

कोई सर मुड़ा कर नाई की दुकान से निकला ही हो और आसमान से ओले गिरने लगे हों ऐसा छप्पन साल की जिन्दगी में न  तो सुना और न ही अखबार में पढ़ा। इस से पहले किसी किताब में भी इस तरह की किसी घटना का उल्लेख नहीं देखा। लेकिन चूँकि मुहावरा है और चल निकला है तो चल निकला है। वैसे मेरे जैसे लोगों के लिए इस मुहावरे का कोई अर्थ नहीं है जिन के सर पर या तो बाल पूरी तरह भूतकाल की वस्तु हो कर रह गए हैं या फिर किनारों पर सिमट कर रह गए हैं। हमारे लिए तो ओले कभी भी पड़ें क्या फर्क पड़ता है? हम जानते हैं कि ओले पड़ने पर क्या करना है। शायद यही कारण है कि अब तक अनेक बार ओले पड़ते देखे हैं पर सिर को कभी नुकसान नहीं पहुँचा। लेकिन इस बार ओले काम कर गए हम तो हम, उस्ताद भी देखते रह गए।

हुआ यूँ कि तीन-चार बरस पहले हम ने वेब साइटस् चलाने वाले मित्र से वैसे ही शौकिया तौर पर पूछा था कि क्या तीसरा खंबा डाट कॉम डोमेन मिल सकता है? उन्हों ने मात्र बीस मिनट बाद ही बताया कि हमारे नाम से यह डोमेन ले लिया गया है। अब आगे की कोई गणित तो हमें आती नहीं थी। सो वह डोमेन पड़ा ही रहा। हम ब्लागस्पाट की सेवाओं का आनन्द लेते रहे। इस साल हमने ठान ही लिया कि अपने ब्लाग तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर ले जा कर वेबसाइट बना डालेंगे। फिर मित्र की और हमारी कवायद चली आखिर तीसरा खंबा को अपने डोमेन पर स्थानान्तरित करने में कामयाबी मिल गई। हम ने भी जोर शोर से अपने ब्लागस्पॉट के ब्लाग तीसरा खंबा पर अपने ब्लाग की अंतिम पोस्ट की घोषणा कर दी और नए वर्ष की पहली तारीख 1 जनवरी 2012 को तीसरा खंबा अपने डोमेन की वेबसाइट में परिवर्तित हो गया। 


म अपना सिर मुंड़वा कर प्रसन्न थे। खूब जोर शोर से साइट आरंभ हो गई। पाठकों में भी निरंतर वृद्धि होती रही। बहुत सारी सुविधाएँ भी मिलीं। दो माह कैसे गुजरे, पता भी नहीं लगा। मार्च का आरंभ हुआ तो पता लगा रास्ते इतने आसान नहीं हैं। हम पर कभी रूमानियत सवार थी तो सोचते थे कहीं जाएँ न जाएँ एक बार सोवियत संघ के रूस जरूर हो कर आएंगे। वह मेरे अनेक प्रिय लेखकों टाल्सटॉय, चेखव, गोगोल, गोर्की, मायकोवस्की आदि का देश था। गंगा तो देखी थी पर वोल्गा और देखना चाहते थे। मास्को का वह विश्वविद्यालय देखना चाहते थे जहाँ महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अध्यापन किया, विवाह किया और एक संतान भी उन्हें हुई। लेकिन रूमानियत में या तो आदमी रांझा, मजनूँ, भगत सिंह हो कर शहीद हो सकता है या फिर उस की  रूमानियत यथार्थ की शक्ल अख्तियार कर लेती है। हम रूमानियत से निकल कर अपने वतन के यथार्थ में उलझे रह गए। सोवियत संघ अपनी गलतियों का शिकार हो कर टूट गया। इस से यह सिद्ध हुआ कि काबुल भले ही घोडों के लिए प्रसिद्ध रहा हो लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि वहाँ गधे नहीं होते। 

तो, फरवरी निकलते ही पता लगा कि केश-विहीन सिर पर  कठोर-कठोर शीतल-शीतल कंकड़ पड़ने लगे हैं। आसमान पर देखा तो वहाँ कोई बादल तक न था, सूरज तेज चमक रहा था। आखिर यह ओले आए कहाँ से। तीसरा खंबा न पाठकों से खुल रहा था और न ही हम से उस का एडमिन खुल रहा था। जब भी खोलना चाहते ब्राउजर किसी रूसी वेबसाइट के पते पर पहुँचा देता, तो कभी ब्राउजर रिपोर्टेड अटैक साइट का बोर्ड चिपका जाता। हम ने अपने वेब एडमिनिस्ट्रेटर को बताया तो पता लगा हमला हम पर ही नहीं हुआ है नासा पर भी हो रहा है। बताया कि वे हमले को विफल करने की तैयारी कर रहे हैं, बस कुछ समय लग सकता है। हम ने संतोष की साँस ली। हम ने सोचा चलो एक दो दिन इस काम से फुरसत मिली। 
दूसरे दिन तीसरा खंबा खुलने लगा। हम फिर प्रसन्न हो गए कि हमला विफल हो गया है। लेकिन तीसरे दिन फिर तीसरा खंबा रूस जाने लगा। अब तो धूप छाहँ का सिलसिला आरंभ हो गया। एक दिन हमला विफल होता। हम चैन की साँस लेते। तीसरा खंबा पर कोई न कोई माल अपलोड कर देते। लेकिन दूसरे दिन ही फिर वही हाल वेब साइट अपहृत पाई जाती। बताया गया कि जिस सर्वर से हमारी वेबसाइट संचालित हो रही है उस के सभी किराएदारों को यही परेशानी है। छत का एक छेद बंद किया जाता है। दूसरे दिन छत दूसरी जगह से टपकनी शुरू हो जाती है। वह मार्च का आरंभ था अब मार्च का अंत भी आ रहा है लेकिन छत है कि टपकना बंद ही नहीं हो रही है। हम ने शिकायत की तो पता लगा, घर बदलने की व्यवस्था की जा रही है। सप्ताह भर में घऱ बदल दिया जाएगा। हम ने भी सप्ताह भर चैन से बैठने की ठान ली है। देखते हैं, सप्ताह भर में क्या होता है? तीसरा खंबा की रूस यात्रा बंद होती है या नहीं?  होती है तो ठीक वर्ना, वर्ना क्या? जो हम से बन पड़ेगी करेंगे। पर तीसरा खंबा को रूस न जाने देंगे। मजबूत सी टोपी लाएंगे, सर पर पहनेंगे, पर ओलों को सर पर तबला न बजाने देंगे।

शनिवार, 24 मार्च 2012

भैस की अक्ल

ल जब दूध लेने गए, तो दूध निकलने में देर थी। मैं अपनी कार में बैठे इन्तजार करने लगा। पास में एक भैंस खूंटे से बंधी थी। वह खड़ी होना चाहती थी लेकिन उस के मुहँ से बंधी रस्सी इस तरह उस के सींग में फँस गई थी कि वह खड़ी होती तो जरा भी इधर उधर न खिसक सकती थी, जो उस के लिए बहुत कष्ट दायक स्थिति होती। वह लगातार प्रयास कर रही थी कि सींग में फँसी रस्सी निकल जाए। वह निकाल भी लेती लेकिन फिर से सींग में फँस जाती। आखिर वह खड़ी हुई और सिर झुकाए झुकाए रस्सी को निकालने का प्रयत्न किया। एक दो बार असफल हुई। मैं ने सोचा उस का वीडियो लिया जाए। मैं तैयार हुआ, भैंस ने कोशिश की और इस बार वह असफल नहीं हुई। उस ने सींग में से रस्सी को निकाल ही दिया। शायद वह वीडियो उतारने का ही इंतजार कर रही थी। शॉट पहली बार में ही ओ.के. हो गया।    




सही कहा है ... 

करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान, 
रसरी आवत जात हि सिल पर होत निसान

बुधवार, 21 मार्च 2012

धूल भरे दिन का सूर्यास्त

ल सुबह से ही आसमान में धूल के कण दिखाई देने लगे थे। सूरज की चमक कम थी। लेकिन जैसे जैसे दिन चढ़ता गया धूल बढ़ती गई। सांझ तक सारा आकाश धूल से ढका था। सूर्यास्त का यह दृश्य मैं ने एक ही स्थान से देखा। आप के लिए भी कुछ चित्र हैं -
सूर्यास्त से पहले

सूर्य एक बिंदु


पंछी लौट चले घर को

संध्या के माथे की बन्दी

विदाई की बेला

अलविदा!


अब रोशनी थोड़ी देर और

रात्रि विश्राम की तैयारी

रात हुई, बत्तियाँ जल उठीं
चित्रों को बड़ा कर के देखा जा सकता है

गुरुवार, 15 मार्च 2012

बंदर की रोटी बनाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया -एक औषधीय वृक्ष

पिछली पोस्ट में मैं ने एक वृक्ष और उस के कुछ भागों के चित्र पोस्ट किए थे। स्थानीय लोग इसे बन्दर की रोटी का पेड़ कहते हैं। टिप्पणियों से पता लगा कि कुछ क्षेत्रों में इसे बंदर पापड़ी या बंदर बाटी भी कहा जाता है। हरे रंग की जो संरचनाएँ जो चित्रों में  थीं वे वास्तव में इस वृक्ष के फल हैं। यह फल ऐसा है लगता है कि दो पत्तियों के बीच एक बीज को फँसा दिया गया हो। पिछली पोस्ट प्रकाशित करने तक मुझे इस वृक्ष के बारे में बस इतनी ही जानकारी थी। बाद में मैं ने भी इस के बारे में अंतर्जाल पर खोज की और पता लगा कि यह बहुत से औषधीय गुणों से संपन्न वृक्ष है और संपूर्ण भारत में पाया जाता है। 

   

मादा बन्दर (लंगूर) इस के फलों के इन पत्तियों जैसे छिलकों को हटा कर इस के बीच की मींगी को निकाल कर खाती हैं। .कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि मादा बंदर इस का सेवन गर्भ धारण के उपरान्त प्रसव के कुछ दिन बाद तक करती हैं। यह मींगी शरीर के इम्यून सिस्टम को बेहतर बनाता है। हालांकि यह फल फरवरी मार्च अप्रेल में ही वृक्ष पर उपलब्ध रहता है। मैं ने भी इस के बीज की मींगी को खा कर देखा वह स्वादिष्ट लगती है। 

 विभिन्न प्रान्तों में इस के विभिन्न नाम हैं। गुजरात, मध्यप्रदेश और राजस्थान में इसे चरेल कहा जाता है। इस के अलावा इसे कान्जो, वाओला, कांजू, बन चिल्ला, चिलबिल, सिलबिल, धाम्ना, बेगाना, थावासी, रसबीज, कालाद्रि, निलावही (कन्नड़), आवल (मलायलम), वावली पापड़ा (मराठी), दौरंजा, टुरुंडा ( उड़िया), राजैन, खुलैन, अर्जन (पंजाबी),चिरबिल्व (संस्कृत) अया, अविल, काँची, वेलैया (तमिल), तथा थापासी, नेमाली, पेडानेविली (तेलगू) नामों से जाना जाता है।   इस का वानस्पतिक नाम होलोप्टीलिया इंटेग्रिफोलिया Holoptelea integrifolia है और अंग्रेजी में इसे इंडियन एल्म  Indian Elm नाम से जाना जाता है। यह वृक्ष अर्टीकेसी परिवार का सदस्य है। इस में जनवरी फरवरी माह में पुष्प खिलते हैं।  


स वृक्ष में औषधीय गुणों की कमी नहीं है।  इस पेड़ की छाल का उपयोग गठिया की चिकित्सा के लिए प्रभावी स्थान पर लेप कर के किया जाता है। इस की छाल का अन्दरूनी उपयोग आंतों के छालों की चिकित्सा के लिए किया जाता है। सूखी छाल गर्भवती महिलाओं के लिए ऑक्सीटॉकिक के रूप में गर्भाशय के संकुचन को प्रभावित करने के लिए किया जाता है जिस से प्रसव आसानी से हो सके। इस की पत्तियों के काढ़े का उपयोग वसा के चयापचय को विनियमित करने के लिए किया जाता है। पत्तियों को लहसुन के साथ पीस कर दाद, एक्जीमा आदि त्वचा रोगों में रोग स्थल पर लेप के लिए प्रयोग किया जाता है। पत्तियों को लहसुन और काली मिर्च के पीस कर गोलियाँ बनाई जाती हैं और एक गोली प्रतिदिन पीलिया के रोगी को चिकित्सा के लिए दी जाती है। लसिका ग्रन्थियों की सूजन में इस की छाल का लेप प्रयोग में लिया जाता है। छाल के लेप का उपयोग सामान्य बुखार में रोगी के माथे पर किया जाता है।  इस की छाल आँखों के लिए एण्टीइन्फ्लेमेटरी एजेंट के रूप में काम आती है। सफेद दाग के रोग में इस का लेप दागों पर किया जाता है।

पिछली पोस्ट के बाद तक मैं इस वृक्ष के बारे में कुछ नहीं जानता था। लेकिन खोज करने पर इतनी जानकारी प्राप्त हुई। यदि हम अपने आसपास की वनस्पतियों के बारे में इस तरह जानकारी करें तो हिन्दी अंतर्जाल पर बहुत जानकारी एकत्र कर सकते हैं।


सोमवार, 12 मार्च 2012

बन्दर की रोटियाँ देने वाला यह वृक्ष कौन सा है?

मित्रों!
विगत साढ़े तीन माह से अनवरत अनियमित था। लेकिन इस बार तो एक लंबा विराम ही लग गया। एक बार जब खिलाड़ी कुछ दिन के लिए मैदान से बाहर होता है तो उस का पुनर्प्रवेश आसान नहीं होता। मेरे साथ भी यही हो रहा है। सप्ताह भर से सोच रहा हूँ कि कहाँ से आरंभ करूँ।  कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। कल अचानक तीसरा खंबा पर 1000 पोस्टें पूरी हो गयी। यह कैसे हो गया। इतना कैसे लिख गया। मुझे स्वयं पर आज आश्चर्य हो रहा है। लेकिन यह सब ब्लागिरी का ही प्रताप है जिस ने मुझ से इतना काम करवा लिया। वाकई ब्लागरी में बहुत ताकत है। अनवरत पर आज अपनी अनुपस्थिति इस पोस्ट के साथ तोड़ रहा हूँ।  लिखने को अनेक विषय हैं लेकिन आज बात कुछ हट कर।


वृक्ष
 कोटा  कलेक्ट्रेट परिसर में एक वृक्ष है।  इस के नजदीक की चाय आदि की दुकानें हैं उन्हीं में से एक पर हम अक्सर कॉफी पीने आते हैं। गर्मी में उस की घनी शीतल छाया में बैठ कर कॉफी सुड़कने का आनंद ही कुछ और है।  मैं लोगों से हर बार इस वृक्ष का नाम पूछता हूँ.  लेकिन मैं आज तक इस वृक्ष का नाम नहीं जान सका। जिन से भी पूछा उन्हों ने आड़े तिरछे नाम बताए। मैं जानना चाहता हूँ कि इस वृक्ष का नाम क्या है? यदि पता लग सके तो इस वृक्ष का वानस्पतिक विज्ञानी नाम भी जानना चाहता हूँ। इस वृक्ष का ऋतुचक्र वार्षिक है। वर्ष भर यह हरे पत्तों से भरा रहता है। लेकिन जनवरी में इस के पत्ते झड़ने लगते हैं और यकायक केवल नंगी शाखाएँ दिखाई देने लगती हैं। लेकिन कुछ ही दिनों में पुनः यह हरा हो उठता है। इस बार इस पर पत्तों जैसी हरी संरचनाएँ उग आती हैं जैसे दो पत्तियों को जोड़ कर उन के बीच पराठे की तरह मसाला भर दिया हो। मई माह तक इन की हरियाली बनी रहती है। फिर यह सूखने लगती हैं और जून में बड़े आकार के कोमल पत्ते निकल आते हैं जो पकते हुए गहरे हरे हो जाते हैं और जनवरी तक बने रहते हैं। अनेक व्यक्तियों इसे बन्दर की रोटी का पेड़ बताया। ऊपर का चित्र उसी वृक्ष का है। मैं कभी कभी इस पेड़ की शाखा पर ट्री हाउस बनवा कर उस में मनपसंद किताबों के साथ छुट्टियाँ बिताने की कल्पना करता हूँ।  शाखाओं के चित्र नीचे हैं। क्या आप बताएंगे इस वृक्ष का नाम क्या है? इस का वानस्पतिक नाम क्या है? परिवार और जाति बता सकें तो और भी बेहतर।

शाखाएँ

शाखा

शाखाग्र

बंदर की रोटियाँ

प के उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी। 

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

शाह ईरान द्वारा वृक्षारोपण का मुहूर्त

रान के बादशाह का किस्सा जिसे फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में जगह दी, मैं अपने वायदे के मुताबिक कल आप के पेश-ए-नजर नहीं कर सका था। लेकिन आज कोई बाधा नहीं है। तो देर किस बात की? शुरू करते हैं ....

रान के प्रसिद्ध बादशाह शाह अब्बास ने कहीं अपने महल मेंबगीचा लगाने की आज्ञा दी थी और इस काम के लिए एक दिन भी नियत कर चुका था। बादशाही बागवान भी मेवे के कुछ वृक्षों के लिए एक उचित स्थान चुन चुका था। परन्तु बादशाही ज्योतिषी ने नाक-भौं चढ़ा कर कह दिया कि यदि सायत निकाले बिना वृक्ष लगा दिए जाएंगे तो कदापि नहीं फूलेंगे-फलेंगे। बादशाह शाह अब्बास ने नजूमी की बात मान कर सायत निकालने को कहा तोउस ने पाँसा आदि डाला और अपनी पुस्तक के पृष्ठ उलट-पलट कर हिसाब लगाया और कहा कि नक्षत्रों के अमुक अमुक स्थानों में होने के कारण जान पड़ता है कि दूसरी घड़ी के बीतने के पहले ही वृक्ष लगा दिए जाएँ।

बादशाही बागवान जो नजूमियों तथा ज्योतिषियों से कुछ पूछना व्यर्थ समझता था इस समय उपस्थित नहीं था। अतः इस के बिना ही कि उस के आने की प्रतीक्षा की जाए, गड्ढे खुदवाए गए और बादशाह ने अपने हाथों से वृक्षों को स्थान स्थान में लगा दिया।  ताकि पूर्व स्मृति की रीति पर कहा जाए कि ये वृक्ष स्वयं शाह अब्बास ने अपने हाथों लगाए थे। इधर बागवान जो अपने समय पर तीसरे पहर आया तो वृक्षों को लगा हुआ पा कर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। और यह विचार कर के कि वे उस क्रम से नहीं लगाए गए हैं जैसे उस ने विचारा था, जिस से उसे उन के पोषण में सुभीता रहता। उस ने सभी पौधों को उखाड़ कर उन की जगह मिट्टी डाल कर रख दिया। रात भर वृक्ष इसी तरह रखे रहे। 


ज्योतिषी से किसी ने जा कर यह बात कह दी। इस का परिणाम यह हुआ कि वह बादशाह के पास जा कर बागवान की इस कार्यवाही के लिए बुरा-भला कहने लगा। अपराधी बागवान को उसी समय बुलाया गया। बादशाह ने उस से अत्य़न्त क्रोध के साथ उस से कहा - "तू ने यह क्या हरकत की कि जिन दरख्तों को हम ने नेक सायत निकलवा कर अपने हाथ से लगाया था उन को ही उखाड़ डाला। अब क्या उम्मीद है कि इस बाग का कोई दरख्त फल लाएगा, क्यों कि जो नेक सायत थी वह तो गुजर गई और फिर नहीं आ सकती।"


बागवान एक स्पष्टवादी गँवार मुसलमान था। नजूमी की ओर तिरछी दृष्टि डाल कर बोला -"अरे! कमबख्त बदशकुनी,जरा ख्याल तो कर कि यही तेरा नजूम है कि जो दरख्त तेरे कहने से दोपहर को लगाए गए थे वे शाम से पहले ही उखड़ गए?" शाह अब्बास आकस्मिक रूप से मजेदार बात सुन कर एकदम हँस पड़ा। और ज्योतिषी की तऱफ पीठ कर के वहाँ से चला गया।

कुंडली मिलान

ल की पोस्ट में मैं ने वायदा किया था कि आज ईरान के बादशाह के साथ घटी घटना जिस का वर्णन फ्रेंक्विस बर्नियर ने अपनी किताब में किया है आप को बताउंगा। लेकिन कल की पोस्ट पर नीरज रोहिल्ला की बहुत सच्ची टिप्पणी आई है जो फिर से पेशे नज़र है-

दिनेशजी,
इस पोस्ट को लिखने के लिये बहुत आभार।
जब हम बच्चे थे तो अक्सर ही पुरानी पीढी के लोगों से सुनने को मिल जाया करता था कि हमारी तो जनमपत्री है ही नहीं या फ़िर बिना पत्री मिलाये ही विवाह हो गया। मेरे माता पिता का विवाह बिना जन्मपत्री मिलाये हुआ जिसका ताना आज भी दोनो एक दूसरे को मौके-बेमौके देते रहते हैं कि अगर पहले पत्री मिला ली होती तो दोनो बच जाते, वैसे पत्री उनकी आज तक नहीं बनी है।

लेकिन आज के दौर में विवाह के दौरान इस जन्मपत्री और कुंडली साफ़्टवेयर ने आतंक मचा रखा है। लडका/लडकी देख लिया, परिवार की पूरी खबर है, सब कुछ बढिया है लेकिन अरे ये क्या पत्री नहीं मिल रही है। कौन समझाये कि पहले जब विवाह सम्बन्ध मात्र किसी समबन्धी की सलाह पर बन जाते थे तो शायद पत्री का मिलान मन को संतोष देता होगा लेकिन...खैर जाने दीजिये...

इसके अलावा संगीताजी ने भी पहले फ़लित ज्योतिष के बारे में कई भ्रमों को दूर किया और कहा कि गत्यात्मक ज्योतिष अधिक वैज्ञानिक है। भाई, ग्रहों की गणना तो पहले भी गति के आधार पर होती चली आ रही है, उसमें नया क्या है? लेकिन हां, उससे पहले शायद गत्यात्मक ज्योतिष के आधार पर किसी ने शेयर बाजार, क्रिकेट मैच की पहली और दूसरी ईनिंग और सरकारों की भविष्यवाणी शायद ही इतने वैज्ञानिक तरीके से की हो। संगीताजी: असहमति के लिये पहले से ही माफ़ी मांग लेता हूँ, इसे व्यक्तिगत द्वेष कतई न समझा जाये।   

ब इस टिप्पणी के बाद मैं एक और ही किस्सा आप के सामने रख रहा हूँ -

न दिनों मैं अपनी बेटी के लिए जीवन साथी की खोज में हूँ। मुझे पता लगा कि मेरी ही बिरादरी के परिचित व्यक्ति के बारे में मुझे पता लगा कि उस का पुत्र है जो मेरी पुत्री का जीवन साथी हो सकता है। मैं ने उसे टेलीफोन किया। उस ने तुरंत जन्म की तारीख, स्थान और समय चाहा, मैं ने उसे बता दिया। चार मिनट बाद ही उस का फोन आ गया कि कुंडली नहीं मिली। नाड़ी दोष है और ब्राह्मणों में तो इस दोष के कारण विवाह हो ही नहीं सकता। मैं ने उसे त्वरित जवाब के लिए धन्यवाद दिया। उस ने यह भी बताया कि वह छह सौ कुंडलियाँ मिला चुका है लेकिन एक भी नहीं मिली।  

मैंने उस से पूछा कि हमारी बिरादरी में  तीस साल पहले तक कुल साढ़े चार सौ परिवार थे। जिन में से  कम से कम आधे जन्मपत्रिका बनाने , देखने और कुंडलियाँ मिलाने का व्यवसाय ही किया करते थे। वे बिरादरी के बाहर और स्वगोत्रीय विवाह नहीं किया करते थे। इस का अर्थ है कि उन्हें साढ़े चार सौ परिवारों में से स्वगोत्रीय परिवारों को त्याग देने पर लगभग तीन सौ परिवारों  में ही अपने पुत्र या पुत्री के लिए जीवनसाथी तलाशना होता था। फिर उन की जन्म कुंडलियाँ कैसे मिलती थीं? 


ह निरुत्तर था। लेकिन मैं ने उसे  बताया कि वे जन्म कुंडलियाँ नहीं देखते थे। वे परिवार और उन के सदस्यों को देखते थे और विवाह कर देते थे। मैं ने कल बताया था कि मेरे दादाजी, नानाजी, पिताजी, मामाजी, चाचा जी, मौसाजी आदि ज्योतिष का काम करते थे। लेकिन इन में से किसी का भी विवाह जन्मकुंडली मिला कर नहीं हुआ था और सभी विवाह सफल विवाह थे।  जन्म कुंडलियाँ मिलाने का जो फैशन आज कल  ज़नून की तरह चल निकला हैष उस से किसी का भला नहीं हो रहा है, अपितु  विवाह संबंधों में अड़चनें ही पैदा हो रही हैं। अभी लोगों के हाथ में कम्प्यूटर नए नए आए हैं और जन्म पत्रिका और कुंडली मिलाने के  असल और पायरेटेड सोफ्टवेयर मुफ्त में उपलब्ध हैं। अब जो काम पहले नजूमी और ज्योतिषी किया करते थे वे खुद करने लगे हैं। लेकिन जब अड़चनें बहुत बढ़ने लगेंगी और  खूब नाप-तौल कर कुंडली मिलाने के बाद भी विवाह असफल होने लगेंगे तब यह फैशन जल्दी ही तिरोहित होने वाला है। इस लिए लोगों को सावधान हो जाना चाहिए। जन्मकुंडलियाँ बनाना और मिलाना बंद कर देना चाहिए। पैदाइश की तारीख और स्थान तक तो ठीक है लेकिन समय तुरंत ही विस्मृत कर देना चाहिए।  
ईरान के बादशाह का किस्सा फिर कल पर ...

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

नज़ूमियत

दादाजी, पिताजी, नानाजी, मामाजी, मौसाजी, चाचाजी सभी अंशकालिक ज्योतिषी रहे हैं। मुझे भी स्कूल जाने की उम्र के पहले राशियों, ग्रहों, नक्षत्रों, महिनों आदि के नाम। गिनती और पहाड़ों के साथ रटने पड़े। बारह की उम्र होते होते पंचांग देखना सिखाया गया। फिर जन्मपत्रिका बनाना और पढ़ना सिखाने का समय आ गया। जहां तक काल गणना का मामला था। यह सब पूरी तरह वैज्ञानिक लगता था और सीखने में आनंद आता था। लेकिन जब फलित का  चक्कर शुरू हुआ तो हम चक्कर खा गए। किसी राशि का क्या स्वभाव है यह कैसे जाना गया? सूर्य सिंह राशि का ही स्वामी क्यों है और चंद्रमा कर्क राशि का ही क्यों? बाकी सभी ग्रह दो दो राशियों के स्वामी क्यों हैं? ये राहु और केतु आमने सामने ही क्यों रहते हैं? ये किसी राशि के स्वामी क्यों न हुए? फिर प्लूटो और नेप्च्यून का क्या हुआ? इन का उत्तर मुझे ज्योतिष सिखाने वालों के पास नहीं था। आज तक कोई दे भी नहीं सका। हमारी ज्योतिष की पढ़ाई वहीं अटक गई। फलित ज्योतिष केवल अटकल लगने लगी जो वास्तव में है भी। पर मेरे बुजुर्गों में एक खास बात थी कि ज्योतिष उन की रोजी-रोटी या घर भरने का साधन नहीं था। दादाजी दोनों नवरात्र में अत्यन्त कड़े व्रत रखते थे। मैं ने उस का कारण पूछा तो बताया कि ज्योतिष का काम करते हैं तो बहुत मिथ्या भाषण करना पड़ता है, उस का प्रायश्चित करता हूँ। मैं ने बहुत ध्यान से उन के ज्योतिष कर्म को देखा तो पता लगा कि वे वास्तव में एक अच्छे काउंसलर का काम कर रहे थे। अपने आप पर से विश्वास खो देने वाले व्यक्तियों और नाना प्रकार की चिन्ताओं से ग्रस्त लोगों को वे ज्योतिष के माध्यम से विश्वास दिलाते थे कि बुरा समय गुजर जाएगा, अच्छा भी आएगा। बस प्रयास में कमी मत रखो। लेकिन आज देखता हूँ कि जो भी इस अविद्या का प्रयोग कर रहा है वह लोगों को उल्लू बनाने और पिटे पिटाए लोगों की जेब ढीली करने में कर रहा तो मन वितृष्णा से भर उठता है। अब वक्त आ गया है कि इस अविद्या के सारे छल-छद्म का पर्दा फाश हो जाना चाहिए।

सा नहीं है कि इस अविद्या का पर्दा-फाश लोग पहले नहीं करते थे। हर युग में नजूमियों की कलई खोलने वालों की कमी नहीं रही है। मैं ने पिछले दिनों आप को बताया था कि मैं चार नई किताबें खरीद कर लाया हूँ। इन दिनों उन में से एक 'बर्नियर की भारत यात्रा' पढ़ रहा हूँ। फ्रेंक्विस बर्नियर नाम के ये महाशय एक फ्रेंच चिकित्सक थे और शाहजहाँ के अंतिम काल तथा औरंगजेब के उत्थानकाल में भारत में बादशाही दरबार के नजदीक रहे। वे 12 वर्ष तक औरंगजेब के निजि चिकित्सक रहे। उन्हों ने अपनी इस किताब में कुछ मनोरंजक किस्से नजूमियत के बारे में लिखें हैं।  शाहजहाँ के कैद हो जाने और औरंगजेब के गद्दीनशीन हो जाने के बाद के दिनों की बात करते हुए वे लिखते हैं .....

..... एशिया के अधिकांश लोग ज्योतिष के ऐसे विश्वासी हैं कि उन की समझ में संसार की कोई ऐसी बात नहीं जो नक्षत्रों की चाल पर निर्भर न करती हो और इसी कारण वे प्रत्येक काम में ज्योतिषियों से सलाह लिया करते हैं। यहाँ तक कि ठीक लड़ाई के समय भी जब कि दोनों ओर के सिपाई पंक्तिबद्ध खड़े हो चुके हों, कोई सेनापति अपने ज्योतिषी से मुहूर्त निकलवाए बिना युद्ध नहीं आरंभ करता, ताकि कहीं ऐसा न हो कि किसी अशुभ लग्न में लड़ाई आरंभ कर दी जाए। बल्कि ज्योतिषियों से पूछे बिना कोई व्यक्ति सेनापति के पद पर भी नियुक्त नहीं किया जाता। बना उन की आज्ञा के न तो विवाह हो सकता है, न कहीं की यात्रा की जा सकती है, बल्कि छोटे छोटे काम भी उन से पूछ कर किए जाते हैं, जैसे लौंडी गुलाम खरीदना या नए कपड़े पहनना इत्यादि। इस विश्वास ने लोगों को ऐसे कष्ट में डाल रखा है और इस के ऐसे ऐसे बुरे परिणाम हो जाते हैं कि मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि अब तक लोग कैसे पहले ही की तरह इस विषय में विश्वासी बने हुए हैं क्यों कि सरकारी या बेसरकारी, प्रकट या अप्रकट, कैसा ही प्रस्ताव हो उस से ज्योतिषी को सूचित करना आवश्यक होता है।

ह घटना जिस का मैं उल्लेख करना चाहता हूँ यह है कि खास बादशाही मुसलमान ज्योतिषी (नजूमी) अकस्मात जल में गिर पड़ा और डूब कर मर गया। इस शोकजनक घटना से दरबार में बड़ा विस्मय फैला और इन नजूमियों की प्रसिद्धि में जो कि भविष्य की बातें जानने वाले माने जाते हैं बहुत धक्का लगा। यह व्यक्ति सदैव बादशाह और उस के दरबारियों के लिए मुहुर्त निकाला करता था। अतएव उस के इस तरह प्राण दे देने से लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि ऐसा अभ्यस्त विद्वान जो वर्षों तक दूसरे के भविष्य मे होने वाली अच्छी अच्छी बातें बतलाता हो उसी आपत्ति से जो स्वयं उस पर आने वाली थी परिचित न हो सका? इस पर लोग यह कहने लगे कि यूरोप में जहाँ विद्या की बहुत चर्चा है ज्योतिषियों और भविष्यवादियों को लोग धोखेबाज और झूठा समझते हैं और इस विद्या पर विश्वास नहीं करते, वरन यह जानते हैं कि धूर्त लोगों ने बड़े आदमियों के दरबार तक पहुँचने और उन को अपना ग्राहक बनाने के लिए यह ढंग रच रखा है। 

न्हीं दिनों ईरान की एक और ऐसी ही घटना का भी बर्नियर ने उल्लेख किया है, लेकिन उस का उल्लेख कल, आज वैसे ही पोस्ट बहुत लंबी हो गयी है।   

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

विश्वसनीय सरकारें अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

सोमवार सुबह 5.55 की ट्रेन से बेटी पूर्वा को जाना था। अलार्म बजा तो हम तीनों की नींद छूट गई। पूर्वा अपनी तैयारी करने लगी और उस की माँ उस के लिए नाश्ता बनाने में जुट गई। मैं फिर से सो गया। मुझे फिर पाँच बजे जगाया गया, कॉफी का प्याला सामने था। मैं ने उसे पिया और फिर मैं भी तैयार हो गया। साढ़े पाँच हम घर से निकले। पत्नी जी ने दूध लाने की बाल्टी भी साथ रख ली। पूर्वा की ट्रेन को रवाना कर हम छह बजे स्टेशन से चले और सीधे दूध वाले के यहाँ। वहाँ अंधेरा छाया हुआ था। रोड लाइटस् बंद हो चुकी थीं और अभी सुबह होनी शेष थी। हम ने दूध वाले के यहाँ कोई हलचल न देख सोचा अभी वह सो कर उठा ही नहीं है। हम अपनी कार में ही बैठे रहे। कुछ देर बाद दूध वाले के डेरे में कुछ रोशनी दिखाई दी। शायद चूल्हा सुलगाया गया था। हम उस के डेरे की ओर बढ़े तो दिखाई दिया कि वह कुछ दूध निकाल भी चुका था। उस ने बताया कि दो एक ग्राहक दूध ले कर जा भी चुके हैं। उस के यहाँ सामने दुहा दूध लेने वाले आते हैं इसलिए वह ग्राहक आने पर ही दूध निकालता है। वह इधर उधऱ के काम करता रहा। कुछ देर में एक ग्राहक और आया तब उस ने एक भैंस दुहना आरंभ किया। 

म दूध लेकर घर पहुंचे तो शरीर में थकान थी।  हुआ यूँ था कि मैं ने सुबह स्टेशन जाने के पहले पैर पर चोट के स्थान पर मल्हम लगा कर पट्टी कर ली थी। कुछ अधिक कस गई तो पैर दर्द करने लगा था। मैं फिर से बिस्तर पर लेट लिया। नौ बजे उठ कर निपटना आरंभ किया और ग्यारह बजे अदालत के लिए निकल पड़ा।  घुटने के एमसीएल की चोट में दर्द निवारक के सिवा कोई दवा नहीं होती है। असली दवा तो विश्राम है जो उस दिन कम मिला था। जल्दी में दवा लेना भूल गया। तो दर्द दिन में बढ़ता रहा। शाम को आया तो बहुत पीड़ा थी। मैं ने तुरन्त दर्द निवारक ली और लेट गया। कुछ देर बाद दर्द से छुटकारा मिला। रात को अचानक गैस सिलेंडर की गैस दगा दे गई। अपने एक कनिष्ठ को कहा तो उस ने गैस की व्यवस्था की। उस के बाद काम करने का मन न किया। ब्लाग अनवरत पर लिखने का मन होते हुए भी कुछ न लिखा और  तीसरा खंबा पर भी। जल्दी ही सोने चला गया। इस तरह रात को पूरे आठ घंटों का विश्राम मिल गया। सुबह उठा और पैर जमीन पर रखे तो एक दम ठीक थे। ऐसा लगा चोट पूरी तरह दुरुस्त हो गयी थी। अखबार में खबर थी दैनिक बिजली कटौती ग्यारह से एक के स्थान पर आज से आठ से दस बजे तक होगी। आठ बजने ही वाले थे। कुछ देर में बिजली चली गयी। अब काम तो हो नहीं सकता था। इसलिए आराम से निबटते रहे। आज दर्द नहीं था तो दर्द निवारक नहीं लिया बल्कि साथ रख लिया कि दर्द होने लगा तो अदालत में ही ले लिया जाएगा। अदालत में कुछ चलना फिरना हुआ तो हलका दर्द होने लगा। लेकिन मेरी चाल अन्य दिनों की अपेक्षा ठीक थी। फिर भी मैं ने दर्द निवारक ले ही ली। 

दालत से लौट कर कुछ विश्राम किया तो दर्द बिलकुल नहीं रहा। अभी भी नहीं है। इस से यह स्पष्ट हुआ कि चोट अब ठीक हो रही है। यदि वास्तव में कुछ दिन पैर को अधिक आराम दिया जाए घुटने पर कम से कम जोर डाला जाए तो बिलकुल ठीक हो लेगी। मेरी कोशिश यही रहेगी जिस से मैं जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकूँ। 

शाम को खबर थी कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह पूछे जाने पर कि क्या वह सेना प्रमुख वी.के.,सिंह की उम्र संबंधी याचिका को निरस्त करने का आदेश वापस लेगी क्यों कि वह आदेश नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत लगता है,  सरकार ने तय किया है कि वह अपने आदेश को वापस नहीं लेगी और सेना प्रमुख की उम्र का विवाद न्यायालय को तय करने देगी। मुझे सरकार का यह रवैया ठीक नहीं लगा अपितु इस में सरकार के अहंकार की झलक दिखाई दी। आखिर जो निर्णय सरकार स्वयं कर सकती है उन्हें वह न्यायालयों पर क्यों छोड़ देती है। आखिर कानून और तथ्यों की रोशनी में जो निर्णय न्यायालय कर सकते हैं उन निर्णयों को सरकार क्यों नहीं कर सकती? भारत के न्यायालयों की सब से बड़ी पक्षकार सरकारें ही हैं। यदि सरकार स्वयं कानून के अनुसार तथ्यों के आधार पर उचित और न्यायपूर्ण निर्णय करने लगे तो अदालतों में काम का बोझ एकदम चौथाई कम हो सकता है। यदि वैसी स्थिति में भी सरकार के निर्णय को कोई चुनौती देता है तो न्यायालय तथ्यों और कानून की प्रारंभिक जाँच के आधार पर वैसी याचिकाओँ का निपटारा कर सकता है जिस में न्यायालयों का बहुत समय बच सकता है और सरकार भी अधिक विश्वसनीय हो सकती है। लेकिन लगता है वैसी सरकारें बनना अभी भारत के भविष्य में दूर दूर तक बदा नहीं हैं।

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों का अनुसरण करना ही होगा


सेना प्रमुख जनरल वी.के. सिंह की जन्मतिथि से सम्बन्धित विवाद पर सर्वोच्च न्यायालय अंतिम रूप से क्या निर्णय देता है, यह अभी भविष्य के गर्भ में है। उस से पूर्व 30 दिसंबर को रक्षा मंत्रालय ने एक आदेश जारी कर जनरल की उस याचिका को निरस्त कर दिया जिस में उन की जन्मतिथि को सेना के रिकार्ड में 10 मई 1950 के स्थान पर 10 मई 1951 दर्ज करने का निवेदन किया गया था। सेना के रिकार्ड में उन की दोनों तिथियाँ उन की जन्मतिथि के रूप में दर्ज हैं। उन की जितनी भी पदोन्नतियाँ हुई हैं उन पर विचार करते समय उन की जन्मतिथि 10 मई 1951 ही मानी गई थी। पिछले शुक्रवार को जनरल की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अटार्नी जनरल से पूछा कि क्या सरकार अपने 30 दिसंबर के निर्णय को वापस लेना चाहेगी? क्यों कि वह नैसर्गिक न्याय सिद्धान्तों के विपरीत प्रतीत होता है। अटार्नी जनरल ने इस पर सर्वोच्च न्यायालय को कहा कि वे इस संबंध में सरकार से निर्देश प्राप्त करेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस कथन से स्पष्ट है कि सेना प्रमुख की शिकायत पर निर्णय करने के पूर्व सुनवाई का अवसर प्रदान नहीं किया गया।  
किसी भी कर्मचारी या अधिकारी की शिकायत पर आदेश करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर प्रदान करना, उसे अपने पक्ष के समर्थन में सबूत और तर्क प्रस्तुत करने का अवसर देना नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का प्रमुख अंग है। यदि देश की सरकार सेना प्रमुख की शिकायत का निस्तारण भी प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्तों का पालन किए बिना करती है तो इस से यह संदेश जाता है कि सरकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करने की परवाह नहीं करती।
किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध निर्णय करने के पूर्व उसे सुनवाई का अवसर दिया जाना महत्वपूर्ण जनतांत्रिक अधिकार है इस अधिकार की अवहेलना करना सरकार के चरित्र पर प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है कि वह व्यवहार में जनतांत्रिक भी है अथवा नहीं। पिछले दिनों भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए जाने के लिए जन-लोकपाल कानून को बनाने के लिए अन्ना टीम द्वारा किए गए जनान्दोलन पर सरकार की ओर से जोरो से यह प्रश्न उठाया गया था कि आखिर अन्ना टीम क्या है जिस की बात पर सरकार विचार करे। वे किस प्रकार से सिविल सोसायटी का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस बात पर जोर दिया गया था कि केवल चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद और विधानसभाओं में पहुँचने वाले लोग ही सही जन प्रतिनिधि हैं।
लेकिन चुनाव के माध्यम से चुन कर संसद, विधानसभा और अन्य निकायों में पहुँच जाने से इन जनप्रतिनिधियों को किसी भी तरह के निर्णय जनता पर या जनता की इकाई किसी एक व्यक्ति पर अपना निर्णय थोप देने का अधिकार नहीं मिल जाता है। उन के द्वारा किए गए निर्णय साम्य, न्याय के सिद्धान्तों पर खरे उतरने चाहिए। तभी यह कहा जा सकता है कि देश में चुनी हुई सरकारें जनतांत्रिक पद्धति का अनुसरण कर रही है। वर्ना स्थिति यह बनती जा रही है कि चुनाव के माध्यम से बहुमत प्राप्त सरकार बना लेने को ऐसा माने जाने लगा है जैसे सरकार को पाँच वर्ष तक देश में तानाशाही चलाने का  अधिकार मिल गया है।
म इस घटना को इस परिदृश्य में भी देख सकते हैं कि यदि सरकार सेना प्रमुख को सुनवाई का अवसर प्रदान न कर के देश के सभी नियोजकों को यह संदेश देना चाहती है कि कर्मचारियों की शिकायतों पर निर्णय के लिए उन्हें सुनवाई का अवसर देने की कोई आवश्यकता नहीं है।  नियोजक कर्मचारियों पर अपनी मनमानी चला सकते हैं। यदि ऐसा संदेश नियोजकों तक पहुँचता है तो वे तो ऐसी मनमानी करने को तैयार बैठे हैं। वैसे भी देश में न्याय व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि कर्मचारी के विरुद्ध यदि कोई अन्याय हो और वह न्याय प्राप्त करने के लिए न्यायपालिका का रुख पकड़े तो उस मामले को नियोजक बरसों तक लटकाने में सफल रहते हैं। नियोजक मामले को सर्वोच्च न्यायालय तक ले जाने में समर्थ हैं जब कि इस के विपरीत एक कर्मचारी में इतनी भी शक्ति नहीं कि वह सर्वोच्च न्यायालय के किसी साधारण वकील से सलाह लेने की शुल्क अदा कर सके।
स मामले की सुनवाई विधिवत सुनवाई करने के पहले ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को यह संकेत दे कर सही ही किया है कि देश में सभी नियोजकों को किसी भी कर्मचारी की शिकायत पर निर्णय करने के पहले नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना होगा और उसे अपने पक्ष के समर्थन में सुनवाई का अवसर देना होगा।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

ब्लाग पर फिर से वापस ..

प्ताह के अंतिम दिन अपनी उत्तमार्ध शोभा के साथ बाजार जाना पड़ा। वहाँ के काम निपटाते निपटाते ध्यान आया कि अदालत में कुछ काम हैं जो आज ही करने थे। मैं शोभा को घर छोड़ अदालत पहुँचा। काम मामूली थे आधे घंटे में हो लिए। तब ध्यान गया कि आज मौसम कुछ बदला बदला है। हवा झोंकों में चल रही थी और रह रह कर उन के साथ ही टीन की छतों पर गिरे पतझर के पत्ते धूल मिट्टी लिए नीचे गिर रहे थे। हवा में न गर्मी थी और न ही चुभोने वाली शीतलता, बस सुहानी लग रही थी। अब लगा कि वसंत ने न केवल आंगन में आ जमा है अपितु नृत्य भी कर रहा है।  फिर फागुन याद आया, उसे आने में भी बस तीन दिन शेष हैं। मुझे यह भी ध्यान आया कि यही फरवरी-मार्च के माह चिकित्सकों के लिए कमाई के माह कहे जाते हैं। फिर धीरे-धीरे वे सब सावधानियाँ स्मरण करता रहा जो इस मौसम में बरतने को बुजुर्ग कहा करते थे। अदालत में काम शेष न रहा तो आलस सा आने लगा, कुछ उबासियाँ भी आईं। मैं ने विचारा कि अब वापस घर के लिए प्रस्थान करना चाहिए। तभी मुझे अपना कनिष्ठ पुष्पेंद्र मिल गया। वह भी घर लौटने को था। हम दोनों अदालत से बाहर निकल अपने अपने वाहनों की ओर जा ही रहे थे कि वहाँ हमें एक पुस्तक प्रदर्शनी वाहन दिखाई दिया। पुष्पेंद्र ने सुझाव दिया कि कुछ पुस्तकें देखी जाएँ।
म दोनों वाहन में घुसे। यह नेशनल बुक ट्रस्ट का वाहन था। पुष्पेंद्र ने पूरे वाहन में चक्कर लगाया। वह कोई पुस्तक चुन नहीं पा रहा था। मेरे हाथ में एक पुस्तक थी जिस में आजादी की लड़ाई के मुकदमों का उल्लेख था। उस ने उसे ही चुन लिया फिर एक और पुस्तक चुनी और वह वाहन से नीचे उतर गया। कुछ पसंदीदा पुस्तकें मुझे दिखाई दीं, लेकिन वे मेरे पास पहले ही थीं। आखिर मैं ने कुल चार पुस्तकें चुनीं। विपिन चंद्रा की 'साम्प्रदायिकता' एक प्रवेशिका', 'अलबरूनी-भारत', 'बर्नियर की भारत यात्रा' और 'चीनी यात्री फाहियान का यात्रा विवरण'। पुस्तकों के दाम चुका कर वाहन से नीचे उतरा तो पुष्पेंद्र गायब था। आखिर मैं भी अपने वाहन से घर चला आया। रास्ते भर सोच रहा था कि इन चार पुस्तकों की खरीद की सूचना को यहाँ अपने ब्लाग पर छोड़ कर मैं अपने ब्लाग लेखन में आए विराम को तोड़ सकता हूँ।
पिछले अगस्त से ही अनवरत पर ब्लाग लेखन कुछ धीमा हुआ था। इस का कारण मेरी अतिव्यस्तता रही। लेकिन दिसंबर आते आते तो उस पर विराम ही लग गया जब मुझे अचानक 'हर्पीज जोस्टर' का सामना करना पड़ा। बीमारी का यह सिलसिला ऐसा चला कि अभी तक न रुक सका है। तीन सप्ताह हर्पीज का सामना किया। बाद में तेज जुकाम सर्दी हुई, फिर दाँत का दर्द और अब कोई बीस दिनों पहले अचानक अपनी ही गलती से बाएँ पैर के घुटने के पास स्थित मीडियल कोलेट्रल लिगामेंट चोटिल हो गया। यह एक गंभीर चोट है। मुख्य चिकित्सा कम से कम एक माह का पूर्ण विश्राम। पर एक सामान्य भारतीय के लिए यह कहाँ संभव है. फिर वकील के लिए तो बिलकुल संभव नहीं। वह इतना विश्राम करे तो वह तो शायद जीवित बच जाए, लेकिन उस के मुवक्किलों के तो प्राण ही निकल जाएँ। तो बंदा भी नित्य ही अपने घुटने पर मल्हम और आयोडेक्स लगा, पट्टी बांध, ऊपर एक नी-गार्ड चढ़ा कर, कम से कम एक गोली दर्द निवारक पेट के हवाले कर अदालत जा रहा है। वापस लौटने पर कम से कम एक डेढ़ घंटा बिस्तर पर बिताने के बाद ही इस हालत में आता है कि वह कुछ और काम कर सके। फिर भी इतना तो कर ही सकता है कि कुछ पढ़ लिख सके और ब्लाग पर आप से बतिया सके। तो आज से तय कर लिया है कि नित्य नहीं तो दो दिन में कम से कम एक दिन तो ब्लाग पर बातचीत होगी ही।

रविवार, 1 जनवरी 2012

शक्ति, जिस से लुटेरे थर्रा उठें

अनवरत के सभी पाठकों और मित्रों को नव वर्ष पर शुभकामनाएँ!!!
नया वर्ष आप के जीवन में नयी खुशियाँ लाए!!

भारतीय जनगण को इस वर्ष निश्चित रूप से विगत वर्षों की अपेक्षा अधिक शुभकामनाओं की आवश्यकता है। ऐसी शुभकामनाओं की जो उन्हें आने वाली विकट परिस्थितियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करें। विगत वर्ष हम ने भारतीय जनगण के बीच उठता एक ज्वार देखा। इस ज्वार का उभार अप्रत्याशित तो नहीं था लेकिन वह था अद्भुत। देश की राजधानी की सड़कों पर लहलहाते हुए सैंकड़ों हजारों तिरंगे। हर कोई भारत माता की जय और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारे लगाता हुआ। ऐसा लगता था यह उभार सब कुछ बदल डालेगा। एक और नामी गिरामी लोग भ्रष्टाचार के आरोप में जेल की चारदिवारी के भीतर थे तो दूसरी ओर जनता एक छोटे कद के गांधी टोपीधारी वृद्ध के पीछे चलती दिखाई देती थी। ऐसा लगता था जैसे इस देश से भ्रष्टाचार को समूल उखाड़ फेंका जाएगा। उस वृद्ध में एक दृढ़ता दिखाई देती थी। जीवन में किए गए संघर्षों और उन से प्राप्त सफलताओं की दृढ़ता। और उस दृढ़ता का नमूना हमें दिखाई भी दिया। सरकार उस वृद्ध की दृढ़ता, उस के पीछे उमड़ते जन सैलाब के सामने झुकती दिखाई दी। संसद ने एक संकल्प पारित किया कि वह जल्दी ही भ्रष्ट लोगों को पहचानने, उन्हें अभियोजित कर दंडित करने के लिए मजबूत कानून बनाएगी। 

सैलाब सिमट गया। जनता के प्रारूप पर विचार करते करते उसे एकदम गायब कर दिया गया और फिर एक सरकारी विधेयक संसद के सामने लाया गया जो एकदम सरकारी था। ठीक वैसा ही सरकारी जैसा होता है। सरकारी विधेयक के साथ जो प्रस्तावना और उद्देश्य जुड़े होते हैं कानून बनने के बाद अक्सर उस उद्देश्य के विपरीत परिणाम देने लगता है। मैं ठेकेदार श्रम (उन्मूलन) अधिनियम 1970 की याद दिलाना चाहता हूँ। जिस का उद्देश्य था कि वह उद्योगों में स्थाई प्रकृति के कामों की पहचान के लिए मशीनरी बनाएगा जिन में ठेकेदारी श्रम का उन्मूलन किया जाए। लेकिन हुआ उस का बिलकुल उलट। इस कानून ने ठेकेदारी श्रम को एक कानूनी जामा पहना दिया। यहाँ तक कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भी अधिक से अधिक स्थाई प्रक्रियाएँ ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। फिर सीधे सीधे वे क्षेत्र भी जद में आ गए जहाँ कभी ठेकेदार श्रमिक थे ही नहीं। यहाँ तक कि बड़े बड़े नगरों के निगमों से लेकर छोटी छोटी नगर पालिकाएँ नगरों की सफाई के लिए ठेकेदारों के हवाले कर दी गईं। अब जिन श्रमिकों को वहाँ नियोजित किया जाता है उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं मिलता। मिले भी कैसे न्यूनतम वेतन की दर पर तो ठेके दे दिए जाते हैं। फिर टैक्स, अफसरों और नेताओं को खिलाया जाने वाला धन ठेकेदार उसी में से निकालता है। जितने श्रमिक कागजों पर नियोजित किए जाते हैं उस से आधे श्रमिक भी वास्तव में नियोजित नहीं किए जाते। इस से एक लाभ तो यह होता है कि सरकार को बेरोजगारी की दर को कम दिखाने में सुभीता होता है और दूसरे नेताओं तथा अफसरों के घर काला धन आसानी से एकत्र होता रहता है। नगरों में गंदगी के ढेर लगे होते हैं। जिन के बीच जनता जीती रहती है। 

ठीक इसी तर्ज पर एक विधेयक आया और फिर स्थाई संसदीय समिति के वर्कशाप में डिजाइन करने को भेज दिया गया। कुछ महिनों बाद संसद ने वर्कशाप से डिजाइन हो कर आया हुआ विधेयक संसद के निचले सदन ने पारित कर दिया लेकिन उपरी सदन में बहुमत के चक्र में ऐसा पड़ा कि सरकार बचाना मुश्किल हो गया। आधी रात तक सदन चलाने के बाद सदन को स्थगित कर सरकार बचाई गई और ठीकरा विपक्ष के मत्थे थोप दिया गया। अब प्रधानमंत्री का बयान आ रहा है कि सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने को कटिबद्ध है। वह संसद के अगले सत्र में एक मजबूत कानून बनाएगी। संसद में चल रही इस बहस के बीच एक बुरी बात यह हुई कि मजबूत कानून की मांग करने वाले वृद्ध और उस की टीम बीच मैदान में जनता विहीन हो गयी। मैदान खाली पड़ा रहा। फिर वृद्ध की सेहत की आड़ में आंदोलन स्थगित हो गया। आखिर राजधानी की सड़कों पर तिरंगे लहराने वाली जनता अचानक क्यों अपने घरों में वापस चली गई थी। 

नता कभी गलत फैसले नहीं करती। वह जान रही है कि भ्रष्टाचारियों को दंडित कराने के लिए कोई भी मशीनरी कोई भी कानून सफल नहीं हो सकता। अभी तो कानून बनने में पेच हैं, फिर उसे लागू करने में पेच होंगे उस के आगे फिर अदालती पेच-ओ-खम भी देखने होंगे। अर्थात यह सारा खेल बहुत लंबा है। फिर जिन्हों ने इस के पीछे आंदोलन करने का बीड़ा उठाया वे ही जब ये कहने लगें कि कानून भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकेगा केवल उसे साठ प्रतिशत तक कम कर सकता है। कम हुए भ्रष्टाचार से जनता को राहत क्या मिलेगी? क्या महंगाई कम हो सकेगी? क्या पेट्रोल के दाम किसी स्तर पर बढ़ने से रुक जाएंगे। क्या बेरोजगारों को काम मिलने लगेगा? क्या बच्चों की पढ़ाई महंगी होना बन्द हो जाएगा? क्या न्यूनतम मजदूरी में कोई अपना पेट भर सकेगा और पेट भरने के बाद यदि बीमार हुआ तो क्या इलाज करवा सकेगा? क्या देश के सब लोगों को तन ढकने को पर्याप्त कपड़ा और रात को सोने के लिए छत मिल सकेगी? क्या उन्हें मरने के पहले अदालतों से न्याय मिल सकेगा? ऐसे ही बहुत से प्रश्न हैं जिन से जनगण रोज जूझता है। उसे आशा थी कि एक भ्रष्टाचार पर काबू पाने की कोई मशीनरी आ जाएगी तो उसे थोड़ी राहत मिलेगी। लेकिन पिछले छह माह में कानून पर बहस के दौरान जितने पेच-ओ-खम उस ने देखे हैं। उसे निराशा हुई है। वह जानने लगी है कि भ्रष्टाचार मिटाने की इस कानूनी किताब से उस के कष्टों में कोई कमी नहीं होने वाली है। यही कारण था कि जनगण फिर से अपने कामों में जुटा दिखाई देने लगा है।
नगण जानने लगा है कि कोई एक सूत्र है जो दिखाई नहीं देता है और इन सब बिन्दुओं को आपस में जोड़े रखता है। जब तक किसी भी आंदोलन के कार्यक्रम से जनता के सारे कष्टों में कमी के सूत्र आपस में जुड़ते न दिखाई देने लगें वह उस के साथ न जुड़ेगी। वह यह भी जानती है कि जब तक श्रमजीवी जनगण की संगठित मजबूत शक्ति ऐसी किसी भी लड़ाई के पीछे नहीं होगी वह लड़ाई उस का भाग्य बदलने की लड़ाई नहीं हो सकती। श्रमजीवी जनगण की मजबूत संगठित एकता का निर्माण स्वयं जनगण को ही करना होगा। हम जो लोग इस एकता की ताकत को समझ चुके हैं वे किसी न किसी स्तर पर इस के निर्माण के लिए भी जुटे हैं। तो देर किस बात की जो भी इस सूत्र पर विश्वास करता है वह आज से ही अपने घर, मुहल्ले, गांव, नगर, कार्य स्थल पर इस एकता के निर्माण में क्यों न जुट जाए? आज नव वर्ष पर जनगण के लिए सब से बड़ी और श्रेष्ठ शुभकामना  यही है कि इस वर्ष में जनगण अधिक से अधिक एकता का निर्माण करे और अधिक बड़ी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आए। ऐसी शक्ति कि जिस से लुटेरे थर्रा उठें।