@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

शनिवार, 31 जुलाई 2010

नहीं मना सका मैं, मुंशी प्रेमचंद जी का जन्मदिन

ज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। वे भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने भारतीय जन जीवन, उस की पीड़ाओं को गहराई से जाना और अभिव्यक्त किया। उन की कृतियाँ हमें उन के काल के उत्तर भारतीय जीवन का दर्शन कराती हैं। 
न का बहुत सा साहित्य अन्तर्जाल पर उपलब्ध है। लेकिन उन का एक महत्वपूर्ण आलेख 'महाजनी सभ्यता' अभी तक अंतर्जाल पर उपलब्ध नहीं है। मैं ने सोचा था कि उन के इस जन्मदिन पर मैं इसे अंतर्जाल पर चढ़ा दूंगा। लेकिन जब कल तलाशने लगा तो वह आलेख जिस पुस्तक में उपलब्ध था नहीं मिली। मुझे उस पुस्तक के न मिलने का भी बहुत अफसोस हुआ, मैं ने उसे करीब पिछले तीस वर्षों से सहेजा हुआ था। 
मुझे कुछ तलाशते हुए परेशान होते देख पत्नी शोभा ने पूछा -क्या तलाश रहे हो? मैं ने बताया कि कुछ किताबें और पत्रिकाएँ नहीं मिल रही हैं। रद्दी में तो नहीं दे दीं? तब उस ने कहा कि कोई किताब और पत्रिका रद्दी में नहीं दी गई है। हाँ, दीपावली पर सफाई के वक्त कुछ किताबें ऊपर दुछत्ती में जरूर रखी हैं। मैं तुरंत ही दुछत्ती से उन्हें निकालना चाहता था। लेकिन वहाँ पहुँचने का एक मात्र साधन स्टूल टूट कर चढ़ने लायक नहीं रहा है। खैर महाजनी सभ्यता को इस जन्मदिन पर अंतर्जाल पर नहीं चढ़ा पाया हूँ। लेकिन जैसे ही वह पुस्तक मेरे पल्ले पड़ी इसे अविलंब चढ़ाने का काम करूंगा। प्रेमचंद जी के अगले जन्मदिन का इंतजार किए बिना।

नक्सलवाद से निपटने का चिदम्बरम बाबू का नया फार्मूला

चिदम्बरम् बाबू ने फिर कहा है कि वे तीन साल में नक्सलवाद पर काबू पाएंगे। लेकिन कैसे? इस के खुलासे में उन्हों ने अपना नया फार्मूला पेश किया है वह बिलकुल दिलासा देने काबिल नहीं है। उन का कहना है कि वे विकास और सुरक्षा उपायों के माध्यम से इस पर काबू पाएंगे। 'विकास' और 'सुरक्षा ' इन दो शब्दों का अर्थ चिदम्बरम बाबू के लिए कुछ हो सकता है और जनता के लिए कुछ। यह भी हो सकता है कि नक्सलवादियों के लिए उस का अर्थ कुछ और हो। 
म जनता तो सुरक्षा के नाम पर नगरों और कस्बों में कायम 'आरक्षी केन्द्रों' को जानती है। उन में तैनात पुलिस तो जनता की सुरक्षा कर नहीं पाती अपितु कहीं अकेले में कोई व्यक्ति किसी पुलिस वाले के पल्ले पड़ जाए तो खुद को असुरक्षित महसूस करने लगता है। पिछले दिनों मेरे स्वयं के पास कुछ मामले ऐसे आए हैं जहाँ पुलिस ने सुरक्षा करने के स्थान पर जनता की सुरक्षा की भावना को पलीता लगा दिया। किसी मोटर सायकिल वाले का चालान किया गया। उस के पास जुर्माना भरने को पैसा नहीं था तो उस की बाइक ही जब्त कर ली गई। अदालत से उसे वापस पाने का आदेश लेकर जब वह बाइक लेने 'आरक्षी केंद्र' पहुँचा तो पता लगा कि उस की मोटर सायकिल का छह महिने पहले डलवाया गया नया टायर एक पुराने और घिसे हुए टायर से बदल दिया गया है। पुलिस टायर बदलने का इल्जाम लगा कर उसे कोई आफत तो मोल लेनी नहीं थी। जब टायर बदलवाने बाजार पहुँचा तो उसे पता लगा कि छह महिने में टायर की कीमत में 80 % का इजाफा हो चुका है। जो टायर पहले 800 रुपए का था अब 1500 रुपये में मिल रहा था। ऐसी ही एक घटना का कोई बीस बरस पहले मैं खुद शिकार हो चुका हूँ। गलती से मेरी मोपेड को टक्कर मारने वाले के विरुद्ध मैं ने रिपोर्ट दर्ज करवा दी। मेरी मोपेड को मुआयने के लिए जब्त किया गया। बताया गया कि टेक्नीकल रिपोर्ट लिखने वाले को सौ-पचास देना बनता है। मैं ने नहीं दिया। नतीजे में अदालत के आदेश से जब मोपेड वापस ले ने पहुँचा तो आधी टंकी पेट्रोल होने के बाद भी वह स्टार्ट नहीं हुई। मिस्त्री को दिखाने पर पता लगा कि उस में पेट्रोल की जगह पानी भरा हुआ था। अब चिदम्बरम बाबू इस पुलिस के भरोसे कैसे अपना सुरक्षा तंत्र चलाएँगे? ये तो वही बता सकते हैं। 
हाँ तक बात विकास की है, जनता अब तक विकास के नाम पर सिर्फ सड़कें देखती आई है। जो चुनावों के ठीक पहले चमचमाती हैं और सरकारें बनने के बाद उन के उखड़ने का सिलसिला तुरंत शुरू हो जाता है। इस के अलावा जनता तमाम नेताओं और उन के कुनबे को फलता फूलता देखती है। दूसरी और जनता का जीवन और दूभर होता जाता है। पिछले दिनों महंगाई ने जो कमर तोड़ी है उस के सीधे होने के आसार दूर दूर तक नजर नहीं आते। उस पर शरद पंवार जैसे बयान-बाज के बयान दुखते नंगे घावों पर नमक और छिड़क जाते हैं। चिदम्बरम बाबू किस विकास के माध्यम से नक्सलवाद की हवा खिसकाना चाहते हैं? जरा उसे परिभाषित तो कर दें। 
क्सलवाद आज जंगलों में अपनी जड़ें जमाए बैठा है। उस की वजह है  कि जंगलों की आबादी को उन्हीं जंगलों में बेशकीमती खनिजों का खनन करने वालों ने उजाड़ा है, बरबाद और बेइज्जत किया है। नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का तो मुझे प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है लेकिन इतना जानता हूँ कि राजस्थान के गिने चुने जंगलों में जितनी खानें सरकारी कागजों में दिखाई गई हैं उस से संख्या में दुगनी से भी अधिक खानें वास्तव में चल रही हैं। वन नष्ट हो रहे हैं। उन के साथ ही वनवासी और उन का जीवन नष्ट हो रहा है। यह नक्सलवादी प्रचार कि सरकार जंगलों को देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हवाले कर देना चाहती है, जनता को सच लगता है। क्यों नहीं चिदम्बरम बाबू इस का जवाब इस तरह देते कि जंगलों में कोई भी नया खनन तब तक नहीं होगा जब तक उस इलाके के वनवासी उस से सहमत नहीं होते। पुराने खनन क्षेत्रों की जाँच की जाएगी और यदि यह पाया गया कि इस से वन और वनवासी जीवन को हानि पहुंच रही है तो उसे रोक दिया जाएगा। चिदंबरम बाबू आप घोषणा करें और इस ओर पहला कदम उठा कर तो देखें। और फिर उस का चमत्कार देखें। पर आप कैसे ऐसा कर पाएंगे? किया तो अपने आकाओं को क्या मुहँ दिखाएँगे?

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

जज के पिता और भाई की हत्या - राजस्थान में बिगड़ती कानून और व्यवस्था

राजस्थान में कानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति का इस से बेजोड़ नमूना और क्या हो सकता है कि एक पदासीन जज के वकील पिता और वकील भाई की दिन दहाड़े गोली मार कर हत्या कर दी गई। गोली बारी में जज की माँ और उस का एक अन्य वकील भाई और उस की पत्नी गंभीर रूप से घायल हैं। 
ह घटना भरतपुर जिले के कामाँ कस्बे में गुरुवार सुबह आठ बजे घटित हुई। कुछ नकाबपोशों ने घर में घुस कर गोलीबारी की जिस में बहरोड़ में नियुक्त फास्ट ट्रेक जज रामेश्वर प्रसाद रोहिला के वकील पिता खेमचंद्र और वकील भाई गिर्राज की हत्या कर दी गई। जज के एक भाई राजेन्द्र और उस की पत्नी व जज की माँ इस घटना में गंभीर रूप से घायल हो गई हैं। इस घटना का समाचार मिलते ही कस्बे में कोहराम मच गया और भरतपुर जिले में वकीलों में रोष व्याप्त हो गया जिस से समूचे जिले में अदालतों का कामकाज ठप्प हो गया।  हा जा रहा है कि ये हत्याएँ जज के पिता खेमचंद और उस के पड़ौसी के बीच चल रहे भूमि विवाद के कारण हुई प्रतीत होती हैं।
दि यह सच भी है तो भी हम सहज ही समझ सकते हैं कि राज्य में लोगों का न्याय पर से विश्वास उठ गया है और वे अपने विवादों को हल करने के लिए हिंसा और हत्या पर उतर आए हैं। इस से बुरी स्थिति कुछ भी नहीं हो सकती। जब राज्य सरकार इस बात से उदासीन हो कि राज्य की जनता को न्याय मिल रहा है या नहीं, इस तरह की घटनाओं का घट जाना अजूबा नहीं कहा जा सकता। राज्य सरकार आवश्यकता के अनुसार नयी अदालतें स्थापित करने में बहुत पीछे है। राजस्थान में अपनी आवश्यकता की चौथाई अदालतें भी नहीं हैं। जिन न्यायिक और अर्ध न्यायिक कार्यों के लिए अधिकरण स्थापित हैं और जिन का नियंत्रण स्वयं राज्य सरकार के पास है वहाँ तो हालात उस से भी बुरे हैं। श्रम विभाग के अधीन जितने पद न्यायिक कार्यों के लिए स्थापित किए गए हैं उन के आधे भी अधिकारी नहीं हैं। दूसरी और कृषि भूमि से संबंधित मामले निपटाने के लिए जो राजस्व न्यायालय स्थापित हैं उन में प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किए जाते हैं। उन पर प्रशासनिक कार्यों का इतना बोझा है कि वे न्यायिक कार्ये लगभग न के बराबर कर पाते हैं। राजस्व अदालतों की तो यह प्रतिष्ठा जनता में है कि वहाँ पैसा खर्च कर के कैसा भी निर्णय हासिल किया जा सकता है।  
दि राज्य सरकार ने शीघ्र ही प्रदेश की न्यायव्यवस्था में सुधार लाने के लिए कड़े और पर्याप्त कदम न उठाए तो प्रदेश की बिगड़ती कानून व्यवस्था और बिगड़ेगी और उसे संभालना दुष्कर हो जाएगा। इस घटना से प्रदेश भर के वकीलों और न्यायिक अधिकारियों में जबर्दस्त रोष है और शुक्रवार को संभवतः पूरे प्रदेश में वकील काम बंद रख कर अपने इस रोष का इजहार करेंगे।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

पूछा था अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट, मुझे कसाई याद आता रहा .....

ट्रेक्टर दुर्घटना में वह घायल हुआ है। उस की छाती स्टेयरिंग के नीचे दब गई थी।  उस की सारी पसलियाँ टूटी हुई हैं और नीचे का जबड़ा अलग हो कर लटक गया है। फिर जब क्रेन ट्रेक्टर को निकालने आई तो उस ने ट्रेक्टर को गड्ढे से बाहर निकालने के लिए उठाया और ट्रेक्टर छिटक गया। वह भी ट्रेक्टर के साथ ही नीचे गिरा, उस के साथ ही फिर से उछला, फिर गिरा। उसे फिर से क्रेन ने उठा कर बाहर निकाला। उसे जिले के सरकारी अस्पताल लाया गया। यह मेडिकल कॉलेज से संबद्ध अस्पताल है। 
से प्राथमिक चिकित्सा दी गई। डाक्टर ने देखा तो बताया कि जबड़ा यदि तुरंत बांधा नहीं गया तो हमेशा के लिए ऐसा ही रह जाएगा। जबड़ा बांधने की राशि दस हजार मांगी गई। उस के पिता के पास पैसा कहाँ था। उस ने डाक्टर से अनुनय-विनय की, गिड़गिड़ाया। डाक्टर ने रकम पाँच हजार कर दी। पर पिता के पास तो देने को वे भी नहीं थे। उस ने कहा सरकारी अस्पताल में तो मुफ्त में इलाज होना चाहिए। डाक्टर ने कहा करते हैं मुफ्त में इलाज। डाक्टर ने जबड़े को सुन्न कर उस के एक सिरे पर सुए से तार डाला  सुआ वापस निकाल कर उसे प्लास जैसे किसी औजार से पकड़ा। तार का दूसरा सिरा लड़के के पिता को पकड़ा दिया। कहा इसे कस कर पकड़े रहना। डाक्टर ने तार को जोर से खींचा। इतना जोर से कि तार जबड़े को चीरता हुआ बाहर आ गया। खून बहने लगा। डाक्टर झल्ला गया था। एक तो उसे मजदूरी नहीं मिली थी, दूसरे उस से जोर ज्यादा लग गया था।
उस ने दुबारा पास ही एक और स्थान पर यही क्रिया दोहराई। इस बार तार बाहर तो न आया। लेकिन कहीं दांत में अटक गया और उस ने एक दाँत को जबड़े से अलग कर दिया। तब तक डाक्टर की झल्लाहट कम हो चुकी थी। लेकिन लड़का खून से तरबतर था और पिता का खून सूख चुका था।
खैर डॉक्टर ने तीसरे प्रयास में जैसे-तैसे जबड़े को बांध दिया। लड़के को ले कर उस का पिता वापस वार्ड में आ गया। दूसरे दिन उसे डिस्चार्ज कर दिया। पिता कहने लगा। अभी तो इस की सारी पसलियाँ टूटी पड़ी हैं। इसे कैसे घर ले जाऊँ? कम्पाउंडर ने कहा-भाई वे तो ठीक होते ही होंगी, हम तो जितना कर सकते थे कर चुके।
..... असल में आज मैं ने अपने एक सहायक वकील से पूछा था कि कोई अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट बताओ। तो उस ने यह किस्सा सुनाया। फिर बोला -अब अच्छा कैसे बताऊँ, लड़के का पिता दस हजार दे देता तो वही अच्छा ऑर्थोपेडिस्ट हो जाता। मुझे उस डाक्टर के साथ कसाई याद आता रहा। हालांकि मैं ने कभी कोई कसाई देखा नहीं है। उस के बारे में सुनता और पढ़ता ही रहा हूँ।

‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’

ज सुबह 7.07 बजे सावन का महिना आरंभ हो गया। सुबह सुबह इतनी उमस थी कि जैसे ही कूलर की हवा छोड़ी कि पसीने में नहा गए। लगा आज तो बारिश हो कर रहेगी। इंटरनेट पर मौसम का हाल जाना तो पता लगा 11 बजे बाद कभी भी बारिश हो सकती है। तभी बाहर बूंदाबांदी आरंभ हो गई। धीरे-धीरे बढ़ती गई। फिर कुछ देर बंद हुई तो मैं तैयार हो कर अदालत पहुँचा। बरसात एक अदालत से दूसरी में जाने में बाधा बन रही थी। लेकिन बहुत लंबी प्रतीक्षा के बाद आई इस बरसात में भीगने से किसे परहेज था। भीगते हुए ही मैं चला अपने ठिकाने से अदालत को। चमड़े के नए जूतों के भीगने की परवाह किए बिना पानी को किसी तरह लांघते गंतव्य पर पहुँचा। आज अधिकतर काम एक ही अदालत में थे। दोपहर के अवकाश तक लगभग सभी कामों से निवृत्त हो लिया। हर कोई सारी पीड़ाएँ भूल खुश था कि बरसात हुई। गर्मी कुछ तो कम होगी। कूलरों से मुक्ति मिलेगी। चाय-पीने को बैठे तो बरसात तेज हो गई। पुलिस अधीक्षक के दफ्तर के बाहर पानी भर गया। हमने एक तस्वीर ले ली।   
ज पहली बरसात हुई है। कल गुरु-पूर्णिमा पर परंपरागत रीति से वायु परीक्षण किया गया। नतीजा अखबारों में था कि अगले चार माह बरसात होती रहेगी। बरसात के चार माह बहुत होते हैं। इस पूर्वानुमान के सही निकलने पर हो सकता था कि बहुतों को बहुत हानि हो सकती थी। पर फिर भी हर कोई यह चाह रहा था कि यह सही निकले। कम से कम पानी की कमी तो पूरी हो। प्यासे की जब तक प्यास नहीं बुझती, वह पानी के भयावह परिणामों को नहीं देखता।  शाम को बरसात रुकी, लोग बाहर निकले। यह सुखद था, लेकिन लोग इस सुख को नहीं चाहते थे। उन का मन तो अभी भी सूखा था। इस बार शायद जब तक उस से आजिज न आ जाएँ तब तक उसे भीगना भी नहीं है। मैं ने अभी शाम को फिर मौसम की तस्वीर देखी। बादल अभी आस पास हैं। यदि उत्तर पश्चिम की हवा चल निकली तो रात को या सुबह तक फिर घनी बरसात हो सकती है। चित्र में गुलाबी रंग के बादल सब से घने, सुर्ख उस से कम, पीले उस से कम और नीले उस से भी कम घने हैं। उस से कम वाला सलेटी रंग तो दिखाई नहीं पड़ रहा है। मैं भी चाहता हूँ कि कम से कम यह सप्ताह जो बरसात से आरंभ हुआ है। बरसातमय ही रहे।
ल महेन्द्र नेह के चूरू में हुए कार्यक्रम की रिपोर्ट में जर्मनी में रह रहे राज भाटिया जी की टिप्पणी थी .....

महेन्द्र नेह जी से एक बार मिलने का दिल है, बहुत कवितायें पढी आप के जरिये, और आज का लेख और जानकारी पढ कर बहुत अच्छा लगा, कभी समय मिले तो यह गजल जरुर अपने किसी लेख में लिखॆ....
‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ जिस गजल की पहली लाईन इतनी सुंदर है वो गजल कैसी होगी!!!
धन्यवाद आप का ओर महेंद्र जी का.....

तो भाटिया जी, इंतजार किस बात का? महेन्द्र जी ने आप की फरमाइश पर यह ग़ज़ल मुझे फोन पर ही सुना डाली। वैसे यह ग़ज़ल का पहला नहीं आखिरी शेर था। आप भी इसे पढ़िए ......

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
  • महेन्द्र 'नेह' 

जान मुश्किल में आ गई होगी
एक दहशत सी छा गई होगी

भेड़ियों की जमात जंगल से
घुस के बस्ती में आ गई होगी

सुर्ख फूलों को रोंदने की खबर
कोई तितली सुना गई होगी

उन की आँखों से टपकती नफरत
हम को भी कुछ सिखा गई होगी

एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ
बाज से तंग आ गई होगी
राज भाटिया जी! 
अगली भारत यात्रा में कोटा आने का तय कर लीजिए। महेन्द्र नेह के साथ-साथ शिवराम, पुरुषोत्तम 'यकीन' और भी न जाने कितने नगीनों से आप की भेंट करवाएंगे।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता...

24 जुलाई को राजस्थान साहित्य अकादमी व प्रयास संस्थान के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित ‘लेखक से मिलिए’ कार्यक्रम में चूरू राजस्थान के श्रोताओं का साक्षात्कार हुआ कोटा के जन कवि महेंद्र नेह से। उन्हों ने इस कार्यक्रम में एक से बढकर एक कविता, गीत और गजलों के जरिए वर्तमान व्यवस्था और समय की विद्रूपताओं पर करारा प्रहार करते हुए श्रोताओं का मन मोह लिया। अपनी पहली कविता ‘कल भिनसारे में उठकर चिड़ियाओं की चहचहाट सुनूंगा’ से उन्हों ने वर्तमान में भौतिकवाद की दौड़ में अंधे मनुष्य की अधूरी स्वप्निल आंकाक्षाओं को स्वर दिए तो ‘क्या सचमुच तुम्हारे पास सुनाने के लिए कोई अच्छी खबर नहीं’ से इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और मीडिया की सनसनीधर्मिता पर करारा प्रहार किया। नेह ने ‘चिनगी-चिनगी बीनती फिर भी नहीं हताश, वह कूड़े के ढेर में जीवन रही तलाश’ जैसे अपने दोहों पर भी श्रोताओं की खूब दाद पाई। उन की ‘जान मुश्किल में आ गई होगी’, ‘अंधी श्रद्धा में प्रण नहीं होता’, ‘सच के ठाठ निराले होंगे’ और ‘हम दिले नादान को समझा रहे हैं दोस्तों’ जैसी गजलों को श्रोताओं ने मुक्तकंठ से सराहा। ‘एक चिड़िया के हाथों कत्ल हुआ, बाज से तंग आ गई होगी’ और ‘जहर सुकरात पी गए होंगे, हमसे यूं आचमन नहीं होता’ जैसे शेरों पर श्रोता मंत्र मुग्ध हुए और उन के मुहँ से निकलने वाली 'वाह-वाह’ की ध्वनियाँ थमते ही न बनी। नेह जी ने नई भाव-भूमि और जनवादी पृष्ठभूमि पर रचे गए अपने गीतों ‘हम सर्जक हैं समय सत्य के’, ‘सड़क हुई चौड़ी मारे गए बबुआ’, ‘थाम लो साथी मशालें’, ‘महाविपत्ति के रंगमंच में’ से वर्तमान समाज और राजनीति की विसंगतियों पर चोट करते हुए ‘क्षार-क्षार होंगे सिंहासन, बिखरेंगे सत्ता के जाले’ के जरिए क्रांति का आह्वान कर सभागार में मौजूद हर एक को सोचने पर मजबूर कर दिया।
स मौके पर महेंद्र नेह ने कहा कि सृजन कभी अंधानुकरण नहीं हो सकता। हमें चीजों को एकांगी रूप में नहीं, बल्कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए और उनमें अंतर्निहित सच्चाइयों की तह में जाना चाहिए। किसी भी व्यवस्था में सब कुछ अच्छा या सब कुछ बुरा नहीं होता। लेकिन एक साहित्यधर्मी को गलत के खिलाफ हमेशा डटे रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि जिन बातों और चीजों के असर से हम मर मिटने को तैयार हो जाते हैं, वे ही हमारे जीवन की सबसे अनमोल चीजें होती हैं। सत्ता और व्यवस्था के दमन चक्र ने हमेशा स्वाभिमानी साहित्यधर्मियों को ठुकराया है लेकिन सृजनधर्मियों को इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। हमें यह मानते हुए कि परंपरा में सब कुछ अनुकरणीय और श्रेष्ठ नहीं है, तर्कसंगत ज्ञान का अवधारण करना ही होगा। वर्गों में बंटे समाज में हमें फैसला करना ही होगा कि हम वास्तव में किसकी तरफ हैं। समाज में प्रत्येक चीज का निर्माण श्रमजीवी करता है लेकिन दो वक्त की रोटी तक को मोहताज रहता है। महेन्द्र नेह ने इस बात पर जोर दिया कि रचनाकारों के लिए कलात्मकता जरूरी है, लेकिन अपनी स्पष्ट विचारधारा और उसके प्रति आग्रह उससे भी अधिक जरूरी है।
मारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार भंवर सिंह सामौर ने कहा कि महेंद्र 'नेह' की कविता और जिंदगी एक दूसरे में रमे हुए हैं। उन्होंने कहा कि नेह ने आम आदमी की व्यथा को बखूबी व्यक्त किया हैं और उनके शब्दों में गजब की सामर्थ्य है। विशिष्ट अतिथि शिक्षाविद सोहनसिंह दुलार ने कहा कि नेह ने अपनी रचनाओं में वर्तमान की विद्रूपताओं पर कड़ा प्रहार किया है और उनके रचना संसार में आने वाले समय को लेकर उम्मीदें गहराती हैं। अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि प्रदीप शर्मा ने कहा कि नेह समय के सत्य के कवि हैं जिन्होंने अपनी लेखनी से व्यवस्था पर सटीक व्यंग्य और करारी चोट की है। समीक्षक सुरेंद्र सोनी, वरिष्ठ पत्रकार माधव शर्मा, दूलदान चारण, बाबूलाल शर्मा, अरविंद चूरूवी आदि ने नेह के रचना-संसार पर प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें आम आदमी का प्रतिनिधित्व करने वाला सृजनधर्मी बताया।
मारोह में साफा बांधकर तथा शॉल व श्रीफल भेंट कर महेंद्र नेह का सम्मान किया गया। आरंभ में प्रयास संस्थान के संरक्षक वयोवृद्ध बैजनाथ पंवार ने स्वागत भाषण दिया। सहायक जनसंपर्क अधिकारी एवं साहित्यकार कुमार अजय ने सम्मानित साहित्यकार का परिचय दिया। प्रयास संस्थान के अध्यक्ष दुलाराम सहारण, रामगोपाल बहड़, शेरसिंह बीदावत, ओम सारस्वत, उम्मेद गोठवाल अतिथियो ंका माल्यार्पण कर स्वागत किया। संचालन साहित्यकार कमल शर्मा ने किया। साहित्यकार दुलाराम सहारण ने आभार जताया। इस मौके पर नगरश्री के श्यामसुंदर शर्मा, हिंदी साहित्य संसद के शिवकुमार मधुप, कादंबिनी क्लब के राजेंद्र शर्मा, शोभाराम बणीरोत, सुरेंद्र पारीक रोहित, रामावतार साथी, शंकर झकनाड़िया सहित बड़ी संख्या में शहर के प्रबुद्ध साहित्यप्रेमी मौजूद थे। 
......... रिपोर्ट और चित्र श्री दूला राम सहारण, चूरू (राजस्थान) के सौजन्य से 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

"श्रम का निर्वासन"यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का द्वादश सर्ग


यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के ग्यारह सर्ग पढ़ आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। इस तरह उन के इस काव्य के प्रथम खंड का समापन हो चुका है। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का द्वादश सर्ग "श्रम का निर्वासन" प्रस्तुत है ................ 
* यादवचंद्र *

द्वादश सर्ग

श्रम का निर्वासन

इतिहास नया वे गढ़ते हैं
भूगोल नया वे पढ़ते हैं
पहने जो सदा लंगोटी हैं
छीनते सिन्धु से मोती हैं
पड़ जाते उन के जहाँ कदम
बन जाते हैं   जै रू से ल म 

काफिला न दम वह लेता है
सागर को चीरे देता है
युग भी रुकते थर्राता है
पथ छोड़ आल्प्स हट जाता है
विस्तृत दुनिया का हर कोना
उन चरणों का जादू - टोना

यूरप के निर्जन सुप्त भाग
दर्शन कर उन के रहे जाग
अफ्रीका बलाएँ लेता है
अमरिका सलामी देता है
न्यूजी का फाटक खुलता है 
वेरिंग का चामर डुलता है
रूढ़ियाँ खड़ी अकुलाती हैं
सीमाएँ सिकुड़ी जाती हैं

कडि़याँ खुल रही दिशाओं की
द्वीपों - देशों - दरियाओं की
सागर - उपकुल - गुफाओं की 
पश्चिम की हवा, बहावों की
शापित बेड़े लहराते हैं
आगे जो बढ़ते जाते हैं
ज्वारों में अलख जगाते हैं
झंझा से आँखें लड़ाते हैं
प्लावन उन को नहलाते हैं
सूरज आरती सजाते हैं
चांदनी पावड़े बिछाती है
जल परियाँ गीत सुनाती हैं
युग-परिवर्तन भीषण यह है
चौपड़ का एक नया सह है
पर अन्तिम बात न भूलूंगा
तेरा सच तुझ से कह दूंगा



?
जब मातृ भूमि लंजिका बनी
मुझ पर युग की तलवार तनी
तब भूमि विदेशी अपनी बन
पय पिला किया मेरा पोषण
कहता जो धरा विभाजित है
वह माँ-घाती है, नास्तिक है


जो राष्ट्र !राष्ट्र ! चिल्लाता है
वह अपना स्वार्थ जुगाता है
मानव की कोख लजाता है
हिंसा को ठोक जगाता है
भू के सम्पूर्ण कलषु कुत्सित
इस राष्ट्र प्रेम में हैं संचित
यह सब बनिकों की माया है
शोषक की छलना, छाया है
यह प्रकृति-सनातन धर्म नहीं 
यह मनुज-सहज-कृत कर्म नहीं
यह राष्ट्र-व्यष्टि का पाप सघन
सबलों की पूजा, स्तुति वंदन
निर्बल का पी कर खून पला
यह राष्ट्र-घिनौना कोढ़ गला



मानवता मूढ़. अपंग बनी
जब कभी युद्ध की आग जली
फासिस्तवाद हूँकार उठा
जब राष्ट्र खींच, तलवार उठा
बलि चढ़ने लगी जवानों की 
बूढ़ों-बच्चों-नादानों की 
गाँवों-खेतों-खलिहानों की
आँचल में बँधे फसानों की
सबलों का वर्ग बढ़ा आगे
निर्बल घर छोड़ सदा भागे
संस्कृति-सभ्यता-कला-चिन्तन
सिर पर रख तृण मांगे जीवन

यह राष्ट्र मनुज का भक्षक है
यह इंद्रपुरी का तक्षक है
यतह गोरखधंधा, त्राटक है
यह एक घिनौना नाटक है
साम्राजी अघ की टट्टी है
कमजोर ईंट की भट्टी है
यूरप में बढ़ी तिजारत जो 
उस से उठ गई इमारत जो
उस में पुतलियाँ झमकती  जो
रेशम की डोर चमकती जो
सुन लो, क्या कह चिल्लाती है
किस की वह टेर बुलाती है
'उत्पादन तेज करो, दौड़ो
मारो औ मरो-बढ़ो, दौड़ो
उत्कर्ष चतुर्दिक होता है'
कुनबे में कर्मकर रोता है
बनियों का दशादर्श जगा
घर छोड़ श्रमिक परदेश भगा


X  X  X  X  X  X  X  X  

परदेशी का कोई 
राष्ट्र नहीं होता है प्यारे 
श्रम उन्नायक सारी 
धरती का नेता है प्यारे
वह जो छू दे माटी
सोना बन जाती है प्यारे
उस की एक फूँक से 
अलका घबड़ाती है प्यारे
विजन अमरिका कल ही
नन्दन बन जाएगा
बात दूसरी, उस को
वह भोग नहीं पाएगा

किन्तु उसे क्या गम है
चिनगारी जहाँ उड़े
जले फ्रांस और जर्मन
जारों से लपक भिड़े
सन सत्तावन की लौ
भभके औ भभक पड़े
गिरे चीन पर बिजली
कुमितांगो शीश जड़े
जान बचा कर अपनी 
हटे पूर्व-पश्चिम से
मिहनतकश का दुश्मन
उत्तर से दक्षिण से

श्रमिक वर्ग का एका
जिन्दाबाद रहेगा
बँटे धरा पर वह तो
ध्रुव अविभाज्य रहेगा
राष्ट्रवाद का घेरा धरा-गगन क्या बांधे
क्षुद्र स्वार्थ का साधक महा साध्य क्या साधे

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यादवचंद्र पाण्डेय