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गुरुवार, 12 नवंबर 2009

भाजपा की गुटबाजी और अंतर्कलह के कारण के कारण काँग्रेस की पौ-बारह

ल जैसे ही नामांकन का दौर समाप्त हुआ। मौसम बदलने लगा। अरब सागर से उत्तर की ओर बढ़ रहे तूफान का असर कोटा तक पहुँच ही गया। बादल तो सुबह से थे ही, शाम को बूंदा-बांदी आरंभ हो गयी। रात को भी कम-अधिक बूंदा-बांदी होती रही। सुबह उठा तो बाहर नमी और शीत थी, साथ में हवा थी। मैं अखबार ले कर दफ्तर में बैठा तो दरवाजा खुला रख कर बैठना संभव नहीं हुआ। उसे बंद करना ही पड़ा। मेरे अपने वार्ड से एक वकील साथी ज्ञान यादव को काँग्रेस से टिकट मिला है। मैं ने अखबार में नाम देखना चाहा तो वहाँ मेरे  वार्ड से पर्चे भरने वाले काँग्रेस प्रत्याशी का उल्लेख ही नहीं था। और भी कुछ वार्डों के प्रत्याशियों के नाम गायब थे। इतने में ज्ञान टपक पड़े। मुझ से मोहल्ले की स्ट्रेटेजी समझने के लिए। मैं  ने अपने हिसाब से उन्हें सब कुछ बताया। मैं ने उन से सोलह तारीख तक मुक्ति मांग ली कि मैं बाहर रहूँगा।

सबूतों पर चटका लगाएँ
महापौर के लिए अरूणा-रत्ना मैदान में

अंतिम दिन के पहले तक सब से बड़ा सस्पैंस इस बात का रहा कि महापौर पद की उम्मीदवार कौन होंगी। आखिर सुबह के अखबारों से खबर लगी कि घोषणा करने की पहल काँग्रेस ने की। उस ने नगर की एक महिला चिकित्सक रत्ना जैन को अपना उम्मीदवार बनाया। उम्मीदवार होने तक वह पार्टी की साधारण सदस्या भी नहीं थी। जब उसे बताया गया कि उसे चुनाव लड़ना है तो वह अपने अस्पताल में मरीज देख रही थी। कोई पूर्व राजनैतिक जीवन नहीं होने के कारण उस की छवि स्वच्छ है। अपना स्वयं का अस्पताल होने से प्रशासन का अनुभव भी है। अस्पताल सस्ता है और निम्न से मध्यम वर्ग के लोगों को उत्तम चिकित्सा प्रदान करता है। स्वयं उन के और उन के बाल रोग विशेषज्ञ पति के लोगों के प्रति विनम्र और सहयोगी व्यवहार के कारण वे नगर में लोकप्रिय हैं। काँग्रेस ने अपने सदस्यों के स्थान पर उन्हें महापौर का प्रत्याशी बना कर पहले ही लाभ का सौदा कर लिया है। भाजपा ने अपनी बीस वर्षों से सदस्या रही अरुणा अग्रवाल को अपना प्रत्याशी बनाया है। लोग उन्हें जानते हैं। लेकिन राजनैतिक जीवन के अतिरिक्त उन की कोई अन्य उपलब्धि नहीं रही है। वे बीस वर्षों में अपना कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं बना सकीं। इस कारण वे डॉ. रत्ना जैन से उन्नीस ही पड़ती हैं। यदि उन्हें जीतना है तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ेगी। इन दो उम्मीदवारों के अलावा चार और भी महापौर के पद के लिए उम्मीदवार हैं जिन में एक बसपा की हैं।

गता है कि इस बार भाजपा राष्ट्रीय स्तर से ले कर स्थानीय स्तर तक गुट युद्ध की शिकार है। अंतिम समय पर महापौर और पार्षदों के प्रत्याशी चुने जाने का नतीजा यह हुआ कि भाजपा प्रत्याशी की चुनावी रैली फीकी रही। बहुत से महत्वपूर्ण व्यक्ति उन की रैली से गायब रहे और गुटबाजी का सार्वजनिक प्रदर्शन हो गया। प्रमुख नेताओं ने यहाँ तक कह दिया कि जिन ने टिकट दिया है वही प्रत्याशी को जिता ले जाएंगे। 
सबूतों पर चटका लगाएँ 



पैदल निकाली नामांकन रैली, बडे नेता रहे गायब
चतुर्वेदी समर्थकों का वर्चस्व
 इस सारी परिस्थिति ने काँग्रेस को उत्साह से भर दिया है। उन के सांसद ने भाषण दिया कि 'जीत के लिए करें पूरी मेहनत' लेकिन फिर भी नहीं थमा बगावत का दौर  दोनों दलों के कुल मिला कर 79 बागी चुनाव मैदान में उतर ही गए। लेकिन भाजपा के बागी तो लगभग हर एक वार्ड में मौजूद हैं, जब कि काँग्रेस के केवल सोलह में।
चुनाव प्रचार का आरंभ आज से हो जाना था। लेकिन सुबह से हो रही बरसात ने उस को बाहर न आने दिया। अदालत में जिस तंबू में वकीलों का क्रमिक भूख हड़ताल करने वालों का दल बैठता था वह बरसात में तर हो गया। भूख हड़तालियों को अदालत के अंदर जा कर टीन शेड के नीचे शरण लेनी पड़ी। एक तो हड़ताल और ऊपर से बरसात। अदालत में कोई नजर नहीं आया। हमने अपने मित्रों को अदालत में न पाकर फोन किए तो पता लगा वे घरों से आए ही नहीं थे। दिन भर की बरसात ने सरसों और गेहूँ की खेती करने वालों के चेहरों पर रौनक पैदा कर दी है। मैं सोच रहा हूँ कि कल सुबह तक तो बरसात रुकेगी और सुबह घनी धुंध हो सकती है। पर दोपहर तक धूप निकल आए तो अच्छा है। परसों सुबह आरंभ होने वाली मेरी यात्रा ठीक से हो सकेगी।

चित्र में डॉ. रत्ना जैन अपने समर्थकों के बीच, चित्र  दैनिक भास्कर से साभार

बुधवार, 11 नवंबर 2009

कोटा निगम में महिलाओं का बाहुल्य होगा





वैसे तो कोटा संभाग के वकील हड़ताल पर हैं, लेकिन अदालत तो रोज ही जाना होता है। कोटा में स्टेशन से नगर को जाने वाले मुख्य मार्ग के एक और जिला अदालत परिसर है और दूसरी ओर कलेक्ट्रेट परिसर। बहुत सी अदालतें कलेक्ट्रेट परिसर में स्थित हैं। रोज हजारों लोगों का इन दोनों परिसरों में आना जाना लगा रहता है। पिछले 75 दिनों से वकीलों की हड़ताल के कारण लोगों की आवाजाही बहुत कम हो गयी है। आकस्मिक और  अत्यंत आवश्यक कामो के अतिरिक्त कोई नया काम नहीं हो रहा है। पुराने मुकदमे जहाँ के तहाँ पड़े हुए हैं। यहाँ तक कि सुबह 10.30 बजे से दोपहर 2.00 बजे तक तो जिला अदालत परिसर के दोनों द्वार आंदोलनकारी बंद कर उन पर ताला डाल देते हैं और एक तीसरे दरवाजे के सामने उन का धरना लगा होता है। जिस से कोई भी न तो अदालत परिसर में प्रवेश कर पाता है और न ही बाहर निकल पाता है। वकील धरने पर होते हैं या फिर सड़क पर या कलेक्ट्रेट परिसर की चाय-पान की दुकानों पर। दोपहर दो बजे के बाद ही अदालतें आकस्मिक और आवश्यक कामों का निपटारा कर पाती हैं। इस से पहले वे पुराने मुकदमों की तारीखें बदलने का काम करती हैं। इन 75 दिनों में पेशी पर हाजिर न हो पाने के लिए किसी मुलजिम की जमानत जब्त नहीं की गई है और न ही कोई वारंट जारी हुआ है। नए पकड़े गए मुलजिमान की जमानतें अदालतें अपने विवेक और कानून के मुताबिक ले लेती हैं या नहीं लेती हैं। न्यायिक प्रशासन ठप्प पड़ा है, लेकिन सरकार को कोई असर नहीं है। उस के लिए समाज में न्याय न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता।

स क्षेत्र में हडताल के कारण छाए इस सन्नाटा पिछले तीन दिनों से टूटा है। अब यहाँ सुबह 10 बजे से ढोल बजते सुनाई देते हैं। लोग गाते-नाचते, नारे लगाते प्रवेश करते हैं। एक तरह का हंगामा बरपा है। लगता है जैसे नगर में कोई उत्सव आरंभ हो गया है। राजस्थान के 46 नगरों में आरंभ हुआ यह उत्सव नगर के स्थानीय निकायों के चुनाव का है। इन में राज्य के 4 नगर निगम, 11 नगर परिषद एवं 31 नगर पालिकाएँ सम्मिलित हैं।  जिन के लिए 1 हजार 612 पार्षद चुने जाएँगे। अब तक किसी भी निकाय के लिए चुने गए पार्षद ही उन के महापौर या अध्यक्ष का चुनाव करते थे लेकिन नगरपालिका कानून में संशोधन के उपरांत अब महापौर और अध्यक्ष को सीधे जनता चुनेगी। इस तरह  के लिए चुनाव कराए जाएंगे। राज्य में जयपुर के अतिरिक्त कोटा, जोधपुर, एवं बीकानेर के नगर निगमों के चुनाव होने जा रहे हैं।


कोटा में 60 वार्डों के लिए पार्षदों के पदों के लिए नामांकन भरना परसों आरंभ हुआ था। लेकिन दोनों प्रमुख दलों काँग्रेस और भाजपा द्वारा प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं किए जाने के कारण पहले दिन कोई तीन-चार लोगों ने ही नामांकन दाखिल किया। दूसरे दिन भी सुबह तक प्रत्याशियों की सूची अंतिम नहीं हुई इस कारण गति कम ही रही। लेकिन तीसरे और अंतिम दिन तो जैसे ज्वार ही आ गया था। इन तीन दिनों के लिए शहर से स्टेशन जाने वाली मुख्य सड़क पर यातायात पूरी तरह रोक दिया गया था। सारा  यातायात पास वाली दूसरी सहायक सड़क से निकाला जा रहा था। लेकिन आज तो स्थिति यह थी कि उस सड़क को भी दो किलोमीटर पहले के चौराहे से यातायात के लिए बंद कर दिया था। केवल छोटे वाहन जा सकते थे। शेष यातायात एक किलोमीटर दूर तीसरी समांनान्तर सड़क से निकाला जा रहा था। वैसे इस मार्ग के लिए नगर में चौथी कोई सड़क उपलब्ध भी नहीं है।
 भीड़-भाड़ वाले माहौल को देख कर मैं एक बजे घर से रवाना हुआ था। लेकिन मुझे तीन चौराहों पर रोका गया और यह जानने के बाद ही कि मैं वकील हूँ और अदालत जाना चाहता हूँ मेरे वाहन को उस ओर जाने दिया गया। अदालत पहुँचा तो वहाँ चारों ओर कान के पर्दे फाड़ देने की क्षमता रखने वाले ढोल बज रहे थे। हर ढोल के साथ माला पहने कोई न कोई प्रत्याशी या तो पर्चा दाखिल करने जा रहा था या भर कर वापस लौट रहा था। रौनक थी, भीड़ थी और शोर था। इस बार नगर निकायों के चुनाव में महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण मिला है इस कारण से तीस पद तो महिलाओं के लिए आरक्षित हैं ही, कोटा में तो महापौर का पद भी महिला करे लिए आवश्यक है। इस तरह चुनी जाने वाला नगर निगम महिला बहुमत वाला होगा जिस में 31 महिलाएँ और 30 पुरुष होंगे। महिलाएँ तो अनारक्षित वार्डों से भी चुनाव लड़ सकती हैं। ऐसे में यह भी हो सकता है कि महिलाओं की संख्या और भी अधिक और पुरुष और भी कम हो जाएँ। हालांकि यह हो पाना अभी संभव नहीं है।
पर्चा दाखिल करने आई प्रत्येक महिला के साथ कम से कम पन्द्रह बीस महिलाएँ जरूर थीं। जिन में घरेलू महिलाओं की संख्या दो तिहाई से अधिक ही दिखाई दी। वे समूह में इकट्ठा चल रही थीं और पुरुषों की तरह भीड़ नहीं दिखाई दे रही थीं। वे अनुशासित लगती थीं। लगता था किसी समारोह के जलूस की तरह हों। जैसे विवाह में वे बासन लेने या माता पूजने के लिए समूह में निकलती हैं। महिलाएँ कम ही इस तरह सार्वजनिक स्थानो पर आती जाती हैं। लेकिन जब भी जाती हैं वे सुसज्जित अवश्य होती हैं। इन की उपस्थिति ने अदालत परिसर और कलेक्ट्रेट परिसर के बीच की चौड़ी सडक को रंगों से भर दिया था। तीन बजे बाद पर्चा दाखिल होने का समय समाप्त होने के बाद रौनक कम होती चली गई। चार बजते बजते तो वहाँ वही लोग रह गए जो रोज रहा करते हैं।

दोनों ही दलों के प्रत्याशियों की घोषणा से जहाँ कुछ लोगों को प्रसन्नता हुई थी वहीँ बहुत से लोग नाराज भी थे कि जम कर गुटबाजी हुई है। भाजपा में अधिक असंतोष नजर आया। भाजपा का नगर कार्यालय उस रोष का शिकार भी हुआ। वहाँ कुछ नाराज लोग ताला तोड़ कर घुस गए और सामान तोड़ फोड़ दिए जिन में टीवी, पंखे आदि भी सम्मिलित हैं। आज शाम को जब मैं दूध लेने बाजार गया तो पता लगा कि भाजपा के असंतुष्ट गुटों ने साठों वार्डों में अपने समानान्तर प्रत्याशी खड़े कर दिए हैं। अब नगर पन्द्रह दिनों के लिए चुनाव उत्सव के हवाले है। इन पन्द्रह दिनों में बहुत दाव-पेंच सामने आएँगे। आप को रूबरू कराता रहूँगा।

सोमवार, 9 नवंबर 2009

डरपोक एक 'लघुकथा'


'लघुकथा'
डरपोक
  • दिनेशराय द्विवेदी

ड़का और लड़की दोनों बहुत दिनों से आपस में मिल रहे थे। कभी पार्क में, कभी रेस्टोरेंट में, कभी चिड़ियाघर में, कभी म्यूजियम में कभी लायब्रेरी में तो कभी मंदिर में और कभी कहीं और। आखिर एक दिन लड़की लड़के से बोली 
- आई लव यू!
- आई लव यू टू! लड़के ने उत्तर दिया।
- अब तक तो तुमने कभी नहीं बताया, क्यों ? लड़की ने पूछा।
- मैं डरता था, कही तुम .................!
- मुझे तो तुम से कहते हुए कभी डर नहीं लगा।
- सच्च ! लड़के को बहुत आश्चर्य हुआ। 
- हाँ बिलकुल सच। पूछो क्यों।
- बताओ क्यों? 
- मैं ने तुम्हें झूठ बोला, इसलिए। मैं तुम्हें प्यार नहीं करती। मुझे डरपोक लोगों से घृणा है। और सुनो! आज के बाद मुझे कभी मत मिलना, अपनी सूरत भी न दिखाना। गुड बाय!
ड़की उठ कर चल दी। लड़का उसे जाते हुए देखता रहा। उस ने फिर कभी लड़की को अपनी सूरत नहीं दिखाई। कभी लड़की उसे नजर भी आई तो वह कतरा कर निकल गया।

शनिवार, 7 नवंबर 2009

कंप्यूटर के लिए पुराना रेमिंग्टन हिन्दी की-बोर्ड कहाँ मिलेगा?


ज की यह पोस्ट एक मित्र की जरूरत पर लिख रहा हूँ।  मेरे एक मित्र हैं जगदीश गुप्ता, उम्र है तिरेसठ वर्ष लेकिन अब भी बिलकुल जवान हैं। वे मेरे शहर के बेहतरीन हिन्दी टाइपिस्ट हैं और पिछले चालीस साल से अधिक से टाइप कर रहे हैं। अस्सी शब्द प्रति मिनट उन की टाइप करने की गति है। उन के पास लगभग चालीस साल पुराना ही मैकेनिकल रेमिंग्टन टाइपराइटर है। जिस में उस जमाने में चलने वाला की बोर्ड बना हुआ है। वे उसी पर काम करते आ रहे हैं। पिछले कुछ बरसों से हम उन के पीछे पड़े थे कि अब तो कंप्यूटर ले लो। वे कंप्यूटर का लगातार मजाक उड़ाते रहे। लेकिन आखिर उन को सद्बुद्धि आ ही गई और पंद्रह दिन पहले एक अदद कंप्यूटर उन्हों ने खरीद लिया। कंप्यूटर भी हम ने ही खरीदवाया।


ब उन की मुसीबत मेरे सर आ गई है। वे चाहते हैं कि उन के पुराने रेमिंग्टन टाइपराइटर पर जो ले-आउट है उस का कोई हिंदी फोंट मिल जाए या इन्स्क्रिप्ट टाइपिंग के लिए कोई की-बोर्ड मिल जाए। ऐसा सुना है कि कुछ फोंट उस की बोर्ड के लिए बनाए भी गए हैं। हम उस फोंट/या की-बोर्ड को तलाश कर रहे हैं, लेकिन अभी तक असमर्थ रहे हैं। यदि कोई साथी बता सके कि यह फोंट कहाँ मिल सकता है? या यह की-बोर्ड कहाँ बन सकता है और कितने खर्च पर तो न केवल हमारे जगदीश जी को सुविधा होगी और वे तुरंत कंप्यूटर पर हिन्दी टाइप कर सकेंगे, अपितु कंप्यूटर पर अधिकतम गति से टाइप करने वाला एक साथी तुरंत मिल जाएगा।

रेमिंग्टन का पुराना हिंदी की-बोर्ड ले-आउट इस प्रकार है ....





पुराना रेमिंग्टन की बोर्ड


वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे

सुबह खबर मिली कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। बहुत बुरा महसूस हुआ। ऐसा कि कुछ रिक्तता हो गई है वातावरण में। जैसे हवा में कुछ ऑक्सीजन कम हो गई है और साँस तेजी से लेना पड़ रहा है। मैं सोचता हूँ, आखिर मेरा क्या रिश्ता था उस आदमी से? आखिर मेरा क्या रिश्ता है ऑक्सीजन से?

ब मैं जवान हो रहा था और पत्रकार होने की इच्छा रखता था, तो शहर में शाम की उल्टी गाड़ी से एक ही अखबार आता था नई दुनिया। उसे पढ़ने की ललक होती थी। उसी से जाना था उन्हें। फिर बहुत बरस बाद जब अपना शहर छोड़ कोटा आ गया और पत्रकार होने की इच्छा छोड़ गई तो दिल्ली से एक विशिष्ठ हिन्दी अखबार आने लगा जनसत्ता। वहाँ उन को बहुत पढ़ा। उन की कलम जनता की बात कहती थी। सही को सही और गलत को गलत कहती थी। वह एक बात और कहती थी कि राजनीति के भरोसे मत रहो खुद संगठित होओ। जहाँ जनता संगठित हो कर अपने निर्णय खुद करती और संघर्ष में उतरती वहाँ कोई नेता नहीं पहुँचता था लेकिन प्रभाष जी पहुँचते थे। वे पत्रकार थे लेकिन उन का जनता के साथ रिश्ता था।  कुछ असहमतियों के बावजूद शायद यही रिश्ता मेरा भी उन के साथ था।

कोटा में उन्हें कई बार देखने, सुनने और उन का सानिध्य पाने का अवसर मिला, । उन्हें यहाँ पत्रकारिता के कारण चले मानहानि के मुकदमे में एक मुलजिम के रूप में अदालत में घूमते भी देखा। हर बार वे अपने से लगे। ऐसे लगे जैसा मुझे होना चाहिए था। मुझे क्रिकेट अच्छी लगती है। उन्हें भी अच्छी लगती थी। मुझे गावस्कर अच्छे लगते थे, कपिल अच्छे लगते थे, श्रीकांत अच्छे लगते थे।  लेकिन जब पहली बार डेबू करते सचिन को देखा तो उस बच्चे के खेल पर मुझे भी प्यार आ गया था। जैसे जैसे उस का खेल मंजता गया उस पर प्यार बढ़ता गया फिर एक दिन वह प्यारा क्रिकेटर बन गया जो आलोचना का उत्तर अपने बल्ले से देता था। यही हाल प्रभाष जी का था। वे वही कहते थे जो सचिन के बारे में मैं सुनना चाहता था। हमारा विश्वास एक ही था कि सचिन जरूर अपनी आलोचनाओँ का उत्तर अपने बल्ले से देगा। उन्हों ने अंतिम बार उसे अपनी आलोचनाओं का उत्तर बल्ले से देते हुए देखा। प्रभाष जी ने कभी बल्ला उठाया या नहीं मुझे नहीं पता लेकिन वे कलम उठाते थे और अपनी आलोचनाओं का उत्तर कलम से देते थे। मैं भी यही करना चाहता हूँ।
प्रभाष जी की स्मृतियाँ रह गईं। लेकिन वे कलम के सच्चे खिलाड़ी थे जो कलम देशवासियों के लिए चलाते थे। उन्हें विनम्र प्रणाम!

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

नूरा कुश्ती!

उद्धव ठाकरे!
भाग्यशाली हैं!

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अनपेक्षित असफलता ने उन्हें बे-काम कर दिया था।
'जमीयत उलेमा ए हिंद' द्वारा वंदेमातरम् को इस्लाम के खुदा के अतिरिक्त किसी की वंदना न करने के सिद्धांत के विपरीत घोषित करने के निर्णय ने उन्हें काम दे दिया है। 

अब महाराष्ट्र में वंदे मातरम् के बोर्ड लगेंगे।

वंदे मातरम् तो मराठी भाषा में नहीं है।

राज ठाकरे कैसे बर्दाश्त कर पाएँगे?

फिर नूरा कुश्ती की तैयारी है,
देखते हैं आगे आगे होता है क्या?

बुधवार, 4 नवंबर 2009

रेलवे प्लेटफॉर्म पर ठण्ड में सात घंटे

बेटा वैभव की एमसीए पूरी हुए चार माह हो चुके हैं उस का कैंपस चयन हुआ था। लेकिन प्लेसमेंट के लिए पहले कॉलेज वाले अक्टूबर का समय दे रहे थे। जब अक्टूबर नजदीक आने लगा तो उन्हों ने जनवरी-फऱवरी का समय दे दिया। उस के लिए बैठा रहना कठिन हो गया। अनेक लोगों ने सलाह दी कि उसे बंगलूरु जाना चाहिए। वहाँ उसे इस से पहले भी नियोजन मिल सकता है। आखिर उस ने रेल में आरक्षण करवा लिया। उस की गाड़ी 2 नवम्बर को 22:50 पर थी। लेकिन जयपुर में इंडियन ऑयल कारपोरेशन के डिपो में लगी आग ने जयपुर-कोटा मार्ग को बाधित कर दिया। हमने जानकारी की तो पता चला कि गाड़ी अजमेर-चित्तौड़गढ़ होते हुए 3 नवम्बर को एक बजे कोटा पहुँचेगी। हमें अनुमान था कि गाड़ी में और देरी हो सकती है। इस कारण नेट पर जानकारी लेनी चाही तो वहाँ केवल यह जानकारी उपलब्ध थी कि गाड़ी को जयपुर-कोटा के बीच दूसरे मार्ग पर डाल दिया गया है। टेलीफोन कोई उठा नहीं रहा था। आखिर मैं और पत्नी शोभा रात्रि सवा बारह घर से निकल लिए और करीब पौन बजे स्टेशन पहुँचे। कार पार्क कर के जैसे ही प्लेटफॉर्म टिकट लेने पहुँचे तो पता लगा गाड़ी तीन बजे आने की संभावना है।

म असमंजस में थे कि दो घंटा यहाँ प्रतीक्षा की जाए या 12 किलोमीटर वापस घर जाया जाए? फिर वहीं प्लेटफॉर्म पर प्रतीक्षा करना उचित समझा। प्लेटफार्म पर बहुत सी सवारियाँ गाड़ी के इंतजार में थीं। हम ने भी एक बैंच खाली देख कर वहाँ अपना अड्डा़ जमाया। यह स्थान प्लेटफार्म के एक कोने में था और चारों ओर से खुला था। वहीं एक महिला भी इसी गाड़ी की प्रतीक्षा में थी। वह झारखंड से आयी थी यहाँ कोचिंग ले रही अपनी बेटी से मिल कर बंगलूरु जा रही थी। उसे छोड़ने के लिए तीन लड़के आए थे जो उस की बेटी के सहपाठी थे। कुछ ही देर में हमारे लिए सर्दी बढ़ गई हवा चलती तो लगता आज जरूर बीमार हो लेंगे। सब लोग सर्दी का कुछ न कुछ इंतजाम किए थे। मैं सफारी में और शोभा साधारण साड़ी ब्लाउज में चले आए थे, वैभव भी केवल टी-शर्ट पहने था। कोटा में दो तरह के इलाके हैं, तालाब के दक्षिण में मौसम गर्म होता है और उत्तर  में कम से कम तीन चार डिग्री ठंडा। हमारे निवास पर ठंड़ी बिलकुल नहीं थी।  यहाँ हवा हलकी सी भी चलती तो कंपकंपी छूटने लगती। अधिक चली तो वैभव को तो उस के बैग में से जरकिन निकलवा कर पहनवा दी, हालांकि वह मना करता रहा था। मुझे सर्दी का इलाज यही नजर आया कि बैंच पर बैठने के बजाय प्लेटफार्म पर चहल कदमी करते रहा जाए।

यपुर की ओर से आने वाली तमाम गाड़ियाँ पाँच से आठ घंटे देरी से चलना बताया जा रहा था। शेष सभी गाडियाँ समय पर थीं। यहाँ तक कि एक गाड़ी तो समय से करीब 35 मिनट पहले ही प्लेटफार्म पर आ गई और समय से पाँच मिनट पहले ही चल भी दी। हर घंटे चार-पांच गाड़ियाँ स्टेशन से छूट रही थीं। मुझे पहली बार इस बात का अहसास हुआ था कि कोटा इतना व्यस्त स्टेशन हो गया है। इस बीच पत्नी के सुझाव पर हम पिता-पुत्र ने एक बार कॉफी पी जो केवल गर्म थी वरना उसे कॉफी कहना कॉफी का अपमान होता। पत्नी कुछ परेशान दिखी पूछा तो पता लगा उसे शौच जाने की जरूरत है। स्टेशन के शौचालय पहुँचे तो वहाँ बड़े खूबसूरत रात्रि में चमकने वाले पट्ट पर अंकित था कि स्नानघर का एक रुपए में, शौचालय का 50 पैसे में और मूत्रालय का निशुल्क प्रयोग किया जा सकता था। मैं सोच में पड़ गया कि इसे 50 पैसे कैसे दूंगा। वह सिक्का तो कोटा के लिए कभी का अजनबी हो चुका है और रुपया ही इकाई हो चला है। शोभा को शौचालय का प्रयोग करना था। चौकीदार इतनी गहरी नींद में था कि उसे अच्छी तरह हिलाने पर भी वह फिर से सो गया। पत्नी निपट कर बाहर निकली तो मैं ने उसे पैसे देने के लिए जगाने लगा तो पास बैठा एक होमगार्ड ने कहा -पाँच रुपए? मैंने उसे कहा -वहाँ तो 50 पैसा लिखा है। उस ने बताया कि वह बोर्ड तो बाबा आदम के जमाने का है। मैं ने सोचा शायद तब का हो जब ज्ञानदत्त जी इस स्टेशन पर पदस्थापित रहे हों। मेरे पास पांच-दस का नोट-सिक्का न था। मैं ने सौ का नोट पकड़ाया तो होमगार्ड को लड़के को जगाना पड़ा। सौ का नोट पकड़ते ही उस की नींद तत्काल उड़ गई। उस ने टेबल की दराज में लगा ताला खोला और मुझे 95 रुपए वापस दिए। उस से पूछा कि उसे इतनी नींद कैसे आ रही है? तो बताने लगा कि वह चौबीस घंटे का नौकर है और उसे 2000 रुपए मात्र हर महिने मिलते हैं और ठेकेदार को कम से कम आठ सौ रुपए रोज की उगाही देनी होती है। इस से कम हो तो तनख्वाह में से काट लेता है। वह चौबीसों घंटे स्टेशन पर रहता है। बस दिन में दो-चार बार इस स्थान से इधर-उधऱ होता है तो स्टेशन का कोई भी कर्मी उस की जिम्मेदारी देख लेता है। वहीं कुर्सी टेबल पर ही वह नींद भी निकाल लेता है।

म वापस बैंच पर आ गए थे। तीन बजने को ही थे कि घोषणा हुई कि ट्रेन अब पाँच बजे आएगी। हवा तेज हो चली थी, ठंड बढ़ गई थी। उसी मात्रा में रेल पर गुस्सा आने लगा था कि क्या रेल वाले गाड़ी की देरी का अनुमान लगा कर नहीं बता सकते कि वह कितनी लेट हो सकती है। कम से कम यात्री तब तक अपने ठिकानों पर तो रह सकते थे। मैं फिर प्लेटफार्म पर लेफ्ट-राइट करने लगा। दीगर गा़ड़ियाँ आती-जाती रहीं। पाँच भी बज गए लेकिन गाड़ी अब भी नदारद थी। पास की महिला कंबल में सिकुड़े बैठी थी। अब देरी उस की भी बर्दाश्त के बाहर जा रही थी। उसे छोड़ने आए लड़कों को उस ने विदा कर दिया था।  उस ने बोला -भाई साहब जरा इन्क्वाइरी से तो पूछ आओ कि ट्रेन कब आएगी? आएगी भी कि नहीं?

मैं और वैभव पुल पार कर पूछताछ पर आए तो वहाँ पहले ही चार-पाँच  पूछताछ करने वाले थे और जवाब देने वाले एक स्त्री और एक पुरुष। स्त्री बुरी तरह झल्लाई हुई और गुस्से में थी और तीन चार पूछताछ वालों को बेवकूफ कह रही थी। जब सब लोगों ने पूछताछ कर ली तो मैं ने अपनी गाड़ी के बारे में पूछा तो उस का जवाब था -वहाँ डिस्प्ले बोर्ड पर देखो। मैं ने उसे कहा कि वहाँ तो तीन बार समय बढ़ चुका है। मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूँ कि यह अब इतना ही रहेगा या और दो चार-बार आगे बढ़ाया जाएगा? इस सवाल पर महिला और झल्ला गई बोली -जयपुर में पाँच दिन से आग लगी है वह तो बुझाई नहीं जा रही है। हम से गाड़ियों के बारे में पूछते हैं। आएगी तभी आएगी। मैंने उसे इतना ही कहा कि रेलवे को इधर से निकलने वाली गाड़ियों के बारे में सब पता है। वे इतना तो अनुमान कर ही सकते हैं कि कौन सी गाड़ी निकलने में कितना समय लेगी? वही बता दें। उस में घंटा आध घंटा देरी हो जाए तो कोई बात नहीं। वह फिर बोल उठी -हमारे पास जो सूचना आती है वह बता देते हैं। आप उद्घोषणा पर ध्यान रखिए। उस से अधिक कुछ पूछना ठीक न था। उसे कुछ  भी अनुमान न था। मैं ने डिस्प्ले बोर्ड पर निगाह दौड़ाई तो वहाँ हमारी गाड़ी पौने छह बजे आने की संभावना रोशन हो रही थी।

मैं ने वापस आ कर उस महिला को बताया कि वहाँ पौने छह के लिए लिखा है, पर यह केवल संभावना है। साढ़े पाँच बजे अचानक गाड़ी के कोच दर्शाने वाले बोर्डों पर हमारी गाड़ी का नंबर दिखा तो हम आशान्वित हो उठे कि अब गाड़ी पोने छह नहीं तो छह तक तो आ ही लेगी। हमने बैंच त्याग दी और जहाँ हमारा डिब्बा दिखाया जा रहा था वहाँ आ खड़े हुए। छह बजे तक कोच स्थिति दिखाई जाती रही। फिर बोर्ड बुझ गए। कुछ देर बाद गाड़ी आती दिखाई दी तो हम बिलकुल तन कर खड़े हो गए। पास आने पर पता लगा वह कोई अन्य पैसेंजर गाड़ी थी। वह आधे घंटे खड़ी रह कर चल दी। फिर पौने सात बजे फिर कोच स्थिति दिखने लगी। राम-राम करते गाड़ी पौने सात प्लेटफार्म पर लगी। वैभव को बैठाया। गाड़ी ने सात बीस पर स्टेशन छोड़ा तो हम ने वापस घर की तरफ प्रस्थान किया। तब तक सूरज बहुत ऊपर आ चुका था। ठंड से पैर और पीठ अकड़ चुकी थी। प्लेटफार्म पर टहलने के कारण पिंडलियाँ बुरी तरह दर्द कर रही थीं। शोभा से पूछा तो उस का भी यही हाल था। मैं ने उसे बताया कि घर पहुँचते ही अदरक वाली गर्म कॉफी पिएंगे उस के बाद एकोनाइट-200 की एक-एक खुराक खा कर सोएँगे। घर पहुँचने पर यह सब किया, फिर गृहणी तो घर संभालने में लगी। मैं ने दिन के काम की रूप रेखा देखी और पीछे के कमरे में कंबल ओढ़ कर सो गया। मुश्किल से दो घंटे सोया उस में भी चार बार फोन घनघनाहट ने व्यवधान किया लेकिन हमने उस की उपेक्षा की। अभी भी लग रहा है कि हम दोनों को सामान्य होने में एक-दो दिन लगेंगे। रात साढे़ ग्यारह पर वैभव ने फोन पर बताया कि गाड़ी दो घंटे और पीछे हो गई है और नागपुर के पहले किसी छोटे अनजान स्टेशन पर खड़ी है।