@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

बुधवार, 17 जून 2009

कहाँ से आते हैं? विचार!

सांख्य विश्व की सब से प्राचीन दार्शनिक प्रणाली है। हमें इस बात का गर्व होना चाहिए कि वह हमारे देश में पैदा हुई और हम उस के वारिस हैं।  किन्तु जब मैं मूल सांख्य की खोज में निकला तो मुझे यह क्षोभ भी हुआ कि मूल सांख्य को लगभग नष्ट कर दिया गया है।  आज सांख्य का मूल साहित्य विश्व में उपलब्ध नहीं है।  प्राचीन काल में सर्वाधिक लोकप्रिय इस दर्शन की समझ भारतीय जनता में इतनी गहरी है कि आज बहुत से ग्रामीण बुजुर्गों के पास उस का ज्ञान परंपरा से उपलब्ध मिल जाता है।

इस संबंध में मुझे राजस्थान के वरिष्ठ गीतकार हरीश भादानी जी का सुनाया एक संस्मरण याद आ रहा है। उन्होंने प्रोढ़ शिक्षा के क्षेत्र में राजकीय प्रयासों के साथ भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। उसी के दौरान वे प्रौढ़ शिक्षा के महत्व के बारे में बताने के लिए राजस्थान के किसी ग्राम में पहुँचे। वहाँ प्रोढ़ों और बुजुर्गों की एक बैठक बुलाई गई। ग्राम में कोई भी स्थान उपयुक्त न होने से यह बैठक किसी व्यक्ति द्वारा बनाए गए एक कमरे की इमारत की छत पर हुई जिसे धर्मशाला कहा जाता था। इस इमारत का रख-रखाव ग्रामसभा के जिम्मे था और यह सार्वजनिक कामों में ही आती थी। बैठक में भादानी जी के बोलने के उपरांत जब ग्राम के बुजुर्गों को बोलने को कहा गया तो उन में से एक 60 वर्षीय वृद्ध खड़ा हुआ और शिक्षा के महत्व पर धाराप्रवाह बोलने लगा। करीब एक घंटे के भाषण  में उस ने सांख्य दर्शन की जो सहज व्याख्या की उस से भादानी जी सहित सभी श्रोता चकित रह गए।  भादानी जी को उन दिनों व्याख्यान देने वालों को मानदेय़ देने का अधिकार था। उन्हों ने उन बुजुर्ग को प्रस्ताव दिया कि उन्हों ने सब की सांख्य की जो क्लास ली है उस के लिए वे मानदेय देना चाहते हैं।  कुछ ना नुकुर के बाद  बुजुर्ग ने वह मानदेय लेना स्वीकार कर लिया।  उन को धन दिया गया जिसे बुजुर्गवार ने तुरंत उस धर्मशाला के रखरखाव की मद में दान कर दिया।  हरीश जी ने अपने लिपिक को उस धन की रसीद बना कर हस्ताक्षर कराने को कहा। रसीद बन गई और जब बुजुर्गवार से हस्ताक्षर करने को कहा तो उन्हों ने प्रकट किया कि वे तो लिखना पढ़ना नहीं जानते। अगूठा करेंगे।


सांख्य प्राचीन भारत में इतना लोकप्रिय था कि श्रीमद्भगवद्गीता में गीताकार ने एकोब्रह्म का प्रतिनिधित्व कर रहे श्रीकृष्ण से यह कहलवाया कि मुनियों में कपिल मैं हूँ।  यही कपिल मुनि सांख्य के प्रवर्तक माने जाते हैं। मूल सांख्य तो खो चुका है, उसे हमारे ही लोगों ने नष्ट कर दिया। वह कहीं मिलता भी है तो उन के आलोचकों के ग्रन्थों के माध्यम से, अथवा दूसरे ग्रंथों में संदर्भ के रूप में।  मुनि बादरायण (कृत) ने ब्रह्मसूत्र (के शंकर भाष्य) में कपिल की आलोचना करते हुए कपिल के जगत-व्युत्पत्ति संबंधी सूत्र को इस प्रकार अंकित किया (गया) है .....
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्! -कपिल
अर्थात् - कपिल कहते हैं कि अचेतन आदि-पदार्थ (प्रधान) ही स्वतंत्र रूप में जगत का कारण है।

इस तरह हम देखते हैं कि सर्वाधिक प्राचीन, लोकप्रिय, भारतीय दार्शनिक प्रणाली जगत की व्युत्पत्ति का कारण स्वतंत्र रूप से अचेतन आदि पदार्थ को मानती है। अर्थात सब कुछ उस आदि अचेतन पदार्थ की देन है। विचार भी।  विचार को धारण करने के लिए एक भौतिक मस्तिष्क की आवश्यकता है।  इस भौतिक मस्तिष्क के अभाव में विचार का अस्तित्व असंभव है।  मस्तिष्क होने पर भी समस्त विचार चीजों, लोगों, घटनाओं, व्यापक समस्याओं, व्यापक खुशी और गम से अर्थात इस भौतिक जगत और उस में घट रही घटनाओं से उत्पन्न होते हैं।  उन  के सतत अवलोकन-अध्ययन के बिना किसी प्रकार मस्तिष्क में कोई विचार उत्पन्न हो सकना संभव नहीं। कोई लेखन, कविता, कहानी, लेख, आलोचना कुछ भी संभव नहीं; ब्लागिरी? जी हाँ वह भी संभव नहीं। 


हरीश भादानी जी का एक गीत...
सौजन्य ...harishbhadani.blogspot.com/

कल ने बुलाया है...

मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
खामोशियों की छतें
आबनूसी किवाड़े घरों पर
आदमी आदमी में दीवार है
तुम्हें छैनियां लेकर बुलाया है
सीटियों से सांस भर कर भागते
बाजार, मीलों,
दफ्तरों को रात के मुर्दे,
देखती ठंडी पुतलियां
आदमी अजनबी आदमी के लिए
तुम्हें मन खोलकर मिलने बुलाया है!
बल्ब की रोशनी रोड में बंद है
सिर्फ परछाई उतरती है बड़े फुटपाथ पर
जिन्दगी की जिल्द के
ऐसे सफे तो पढ़ लिये
तुम्हें अगला सफा पढ़ने बुलाया है!
मैंने नहीं
कल ने बुलाया है!
  • हरीश भादानी

मंगलवार, 16 जून 2009

'कविता' प्यास

प्यास
  • दिनेशराय द्विवेदी
 असीम है जीवन 
उस की संभावनाएँ भी

हम चाहते हैं पूरा
मिलता है बहुत कम
शायद असीम का
करोड़, करोड........करोडवाँ अंश

प्यास तो रहेगी शेष
हमेशा ही
वह कभी नहीं बुझेगी

प्यास चिरयौवना है
अमर है
प्रेम का असीम स्रोत है

चाहता हूँ 
बनी रहे,
अनंत तक, 
प्यास
मेरे साथ
सब के साथ 

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रविवार, 14 जून 2009

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या : पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की ग़ज़ल

रविवार के अवकाश में आनंद लीजिए पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की  एक ग़ज़ल का 
 

ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या
  • पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
बात होठों पे चली आए ज़रूरी है क्या
दिल में तूफान ठहर जाए ज़रूरी है क्या

कितने अंदाज़ से जज़्बात बयाँ होते हैं
वो इशारों मे समझ जाए ज़रूरी है क्या

क्या वो करते हैं? कहाँ जाते? कहाँ से आते
तुम से हर बात कही जाए ज़रूरी है क्या

नाव टूटी है तो क्या खेना नहीं छोड़ूंगा
नाव लहरों में ही खो जाए ज़रूरी है क्या

मुश्किलें देख के तू परेशाँ क्यूँ है
ज़िन्दगी यूँ ही गुज़र जाए ज़रूरी है क्या

कह दिया उस को जो कहना था समझ जाओ 'य़कीन'
बार-बार आप को समझाएँ ज़रूरी है क्या


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शुक्रवार, 12 जून 2009

रोशनी जो चराग़ रखता है

 पुरुषोत्तम 'यक़ीन' मेरे एक दोस्त ही नहीं, दिल के करीबी भी हैं।  उन की बहुत ग़ज़लें अनवरत पर मैं ने पेश की हैं। कभी उन का चित्र और परिचय आप के सामने नहीं रखा।  आज उन से मिलिए -

'यक़ीन' वैयक्तिक जीवन में पुरुषोत्तम स्वर्णकार नाम से जाने जाते हैं पिता श्री शंकरलाल स्वर्णकार और श्रीमती कलावती देवी के घर  21 जून, 1957 ईस्वी को ग्राम गढ़ीबाँदवा जिला क़रौली (राज.), में जन्मे और बी. एससी. करने के बाद आयुर्वेद ‘रत्न’, साहित्य ‘रत्न’, बी. जे. एम. सी. (जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातक). की उपाधियाँ हासिल कीं। कोटा के एक उद्योग में करीब तीन वर्ष तक ऑपरेटर की नौकरी की और छंटनी के शिकार हुए।  इस के बाद चंबल स्टूडियो के नाम से अपना फोटो स्टूडियो स्थापित किया। इसी स्टूडियो में पहली बार उर्दू सीखना आरंभ हुआ तो उस में सिद्धहस्तता प्राप्त की। 
उन के अंदर के कलाकार ने उर्दू के माध्यम से आकार प्राप्त करना आरंभ किया तो ऐसा कि पाँच ग़ज़ल संग्रह  “हम चले, कुछ और चलने” ( 1994 ई.). “झूठ बोलूँगा नहीं” (1997 ई.),  “रात अभी बाक़ी है” ( 2000 ई.),  “सूरज से ठनी है मेरी” ( 2001 ई.), “चहरे सब तमतमाये हुए हैं” ( 2004 ई.), और एक राजस्थानी काव्य संग्रह  “पीर परायी नें कुण जाणैं” (2004 ई.) देवनागरी लिपि में प्रकाशित हुए हैं। एक काव्य संग्रह “सोज़े-पिन्हाँ”  उन के  उर्दू ख़ुदख़त में प्रकाशित हुआ है। उर्दू, हिन्दी, राजस्थानी, ब्रज व अंग्रेज़ी भाषा की सरकारी, ग़ैर-सरकारी संस्थाओं एवं भाषा अकादमियों द्वारा प्रकाशित राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, संकलनों, ग़ज़ल-विशेषांकों, कहानी-संकलनों आदि में उन की लघुकथाऐं, गीत, ग़ज़लें, नज़्में, दोहे, तज़्मीनें, माहिया, आलेख, पुस्तक-समीक्षाऐं, रिपोर्ताज आदि गद्य व पद्य रचनाऐं प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।  
उन्हों ने ‘अभिव्यक्ति’, ‘विकल्प’, ‘कदम्बगंध’, कोटा के प्रकाशनों के अलावा कुछ अन्य लेखकों की पुस्तकों का मित्रवत सम्पादन किया है।  ग़ज़ल, अभिनय, संगीत(वाद्य), चित्रकारिता, फोटोग्राफी उन की रुचियाँ हैं।  वे कोटा नगर की विभिन्न क्रियाशील सामाजिक, साहित्यिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के एक सक्रिय व्यक्ति हैं।
 उन की एक ग़ज़ल का आनंद लीजिए...

'ग़ज़ल'

रोशनी जो चराग़ रखता है

  •  पुरुषोत्तम ‘यक़ीन’


दिल में वो दुख का राग़ रखता है
आत्मा पर न दाग़ रखता है

ये न समझो कि वो न समझेगा
वो भी कुछ तो दिमाग़ रखता है

देता है रोशनी भी तेज़ उतनी
आग जितनी चराग़ रखता है

यूँ तो काँटों से भर गया है मगर
गुंचा-ओ-गुल भी बाग़ रखता है

उस से कुछ तो धुआँ भी उट्ठेगा
रोशनी जो चराग़ रखता है

उस को समझा के कौन आफ़त ले
वो ज़ियादा दिमाग़ रखता है

बेख़बर ख़ुद से हो मगर वो ‘यक़ीन’
दुनिया भर का सुराग़ रखता है


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बुधवार, 10 जून 2009

उद्यम भी श्रम ही है

उद्यमैनेव सिध्यन्ति कार्याणि, न मनोरथै।
नहि सुप्तस्य सिंहस्य: प्रविशन्ति मुखे मृगा:॥   

हिन्दी के सक्रियतम ब्लागर (चिट्ठा जगत रेंक) श्री ज्ञानदत्त जी पाण्डेय ने उक्त श्लोक अपनी आज की पोस्ट उद्यम और श्रम में उदृत किया है।  इस श्लोक का अर्थ है कि कार्य  मात्र  मनोरथ से नहीं अपितु उद्यम से सिद्ध होते हैं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग प्रवेश नहीं करता।  सिंह को अपने लिए आहार जुटाने के लिए किसी पशु को आखेट का उद्यम करना होता है।  क्षुधा होने पर सिंह का शिकार का मनोरथ बनता है। तत्पश्चात उसे पहले शिकार तलाशना होता है। फिर उचित अवसर  देख उस का शिकार करना पड़ता है। बहुधा उसे शिकार का पीछा कर के उसे दबोचना पड़ता है, मारना पड़ता है और फिर उसे खाना पड़ता है।
सिंह की शारीरिक आवश्यकता से मनोरथ उत्पन्न होता है, लेकिन इस मनोरथ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के श्रम करने की जो श्रंखला पूरी करनी होती है उसे ही उद्यम कहा गया है।   हम पाते हैं कि श्रम उद्यम का अनिवार्य घटक है।  उस की दो श्रेणियाँ हैं।  पहली शारीरिक और दूसरी मानसिक।  सिंह की शारीरिक अवस्था उस में मनोरथ उत्पन्न करती है, अर्थात शिकार का विचार सिंह की भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। फिर भौतिक परिस्थितियों में किए गए अनुभव के आधार पर मानसिक श्रम और अपने भौतिक बल के आधार पर शारीरिक श्रम करना पड़ता है।
उक्त उद्धरण संस्कृत भाषा के साहित्य से लिया गया है।  वामन शिवराम आप्टे के संस्कृत हिन्दी शब्दकोष में उद्यम और श्रम से संबंधित शब्दों के अर्थ निम्न प्रकार बताए गए हैं-
उद्यमः  [उद्+यम्+घञ्] = 1.उठाना, उन्नयन 2. सतत् प्रयत्न, चेष्टा, परिश्रम, धैर्य।
उद्यमिन्  [उद्+यम्+णिनि] = परिश्रमी, सतत प्रयत्नशील।
उद्योगः  [उद्+युज्+घञ्] प्रयत्न, = चेष्टा, काम धंधा।
उद्योगिन् [उद्+युज्+घिणुन्] प्रयत्न, = चुस्त, उद्यमी, उद्योगशील।
श्रम् = 1.चेष्ठा करना, उद्योग करना, मेहनत करना, परिश्रम करना,  2.तपश्चर्या करना। 3. श्रांत होना, थकना, परिश्रान्त होना।
श्रमः [श्रम् + घञ्] 1.मेहनत, परिश्रम, चेष्टा, 2.थकावट, थकान, परिश्रांति 3. कष्ट, दुःख, 4. तपस्या, साधना 5. व्यायाम, विशेषतः सैनिक व्यायाम,  6. घोर अध्ययन। 
उक्त सभी शब्दों के अर्थों के अध्ययन से स्पष्ट है कि श्रम उद्यम का अविभाज्य अंग है। उस की उपेक्षा करने से उद्यम संभव नहीं है। मनोरथ की पूर्ति के लिए शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम के संयोग को ही उद्यम कहा गया है।
ज्ञान जी ने उक्त आलेख में जिस तरह से श्रम को पूंजी के साथ वर्णित किया है,  उस का प्रभाव यह है कि श्रम तुच्छ है और श्रमिक को अपने हक की मांग नहीं करनी चाहिए, उसे उचित हक दिलाने वाले कानून नहीं होने चाहिए और उसे अपने साथ होने  वाले अन्याय के प्रति संगठित नहीं होना चाहिए। इस  का यह भी प्रभाव है कि आलेख को पढ़ने वाला व्यक्ति श्रम से कतराने लगे।  श्रम को उचित सम्मान नहीं देने और उसे एक निकृष्ठ मूल्य के रूप में स्थापित किए जाने से ही समाज में अकर्मण्यता की उत्पत्ति होती है।   आज यह मूल्य स्थापित हो गया है कि काम को ईमानदारी से करने वाला गधा है, उस पर लादते जाओ और जो काम न करे उस से  बच कर रहो। ज्ञान जी द्वारा प्रस्तुत उदाहरण केवल एक व्यक्ति के श्रम के बारे में है और एक बली और सशक्त पशु से उठाया गया है।  जहाँ केवल प्रकृति जन्य साधनों से जीवन यापन किया जा रहा है।  इस उदाहरण की तुलना में मनु्ष्य समाज अत्यधिक जटिल है।  मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो प्रकृति से वस्तुओं को प्राप्त कर उन पर श्रम करते हुए उन का रूप परिवर्तित करता है उस के बाद उन्हें उपभोग में लेता है।
आज कल श्रम को एक श्रेष्ठ मूल्य मानने और उसे स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने के विचार को लगातार निम्न कोटि का प्रदर्शित करने का फैशन चल निकला है जो लगातार श्रमशील  लोगों में हीन भावना उत्पन्न करता है।  का प्रयास  इस में उन लालझंडा धारी लोगों का भी योगदान है जिन्हों ने पथभ्रष्ट हो कर श्रम के मूल्य को समाज में स्थापित करने के नाम पर इस मूल्य के साथ बेईमानी की है।  इसी मूल्य के नाम पर उन्हों ने श्रम जगत के साथ घोर विश्वासघात किया है।  लेकिन इस विश्वासघात से श्रम के एक श्रेष्ट मूल्य होने में कोई बाधा नहीं पड़ती।  किसी के कह देने से हीरा कोयला नहीं हो जाता, आग को शीतल कह देने से उस की जलाने की क्षमता पर कोई असर नहीं पड़ता। 
ज्ञान जी ने कोटा और सवाई माधोपुर के जो उदाहरण दिए हैं वे सही नहीं हैं।  संभवतः उन की जानकारी  इस मामले में वही रही जो उन्हें किसी से सुनने को मिली या जो माध्यमों द्वारा प्रचारित की गई।  इन दोनों  मामलों  के बारे में मेरे व्यक्तिगत अनुभव हैं और जो तथ्य हैं वे खुद उन उद्योगों के मालिकों द्वारा अपनी बैलेंसशीटस् से उद्भूत हैं।  इन मामलों के निपटारे में अदालतों में देरी भी प्रबंधकों द्वारा की गई है। जिस से जितना माल खिसकाया जा सके खिसका लिया जाए। फिर कंपनी बंद, श्रमिक किस से अपनी मजदूरी और लाभ प्राप्त करेंगे।  इन मामलों को अपने ब्लाग के माध्यम से उजागर करने की मेरी इच्छा रही है।  लेकिन समय का अभाव इस में बाधक रहा है। बहुत से दस्तावेज अवश्य मेरे कम्प्यूटर के हार्ड ड्राइव में अंकित हैं जिन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी इस का अवसर हुआ तो अवश्य ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूंगा।
मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि कभी भी कोई उद्योग किसी यूनियन की हड़ताल के कारण बंद नहीं होता।  लेकिन  उसे प्रत्यक्ष रुप में कारण प्रचारित करने में बहुत धन खर्च किया जाता है। बहुधा वास्तविक कारण कम लाभ के उद्योग से पूंजी निकाल कर अधिक लाभ के उद्योगों में निवेश करना होता है।  सभी उद्योग पुराने होने के कारण जीर्ण हो कर बंद होते हैं, पर अधिकांश पहले कारण से जीर्णावस्था प्राप्त होने के पहले ही उद्योगपतियों द्वारा बंद कर दिए जाते हैं। जब उद्योग को बंद करना होता है तो सब से पहले उद्योगपति विभिन्न  प्रशासनिक खर्चे बता जितनी पूंजी को काला कर अपनी जेब के हवाले कर सकते हैं कर लेते हैं।  जिस से वह उद्योग घाटा दिखाने लगता है।  फिर बैंकों से लिए गए उधार में कटौती चाहते हैं।  पुनर्चालन (रिवाईवल) के नाम पर उधार में छूट प्राप्त कर लेते हैं।  फिर उद्योग को चलाने का नाटक करते हैं।  इस के लिए वे हमेशा किसी ऐसी कंपनी को चुनते हैं जिसे कबाड़ा बेचने का अनुभव हो।  वह धीरे धीरे अपना काम करता है और उद्योग की अधिकांश संपत्ति को ठिकाने लगा देता है।  कंपनी को न चलने योग्य घोषित कर दिया जाता है।  श्रमिकों के बकाया के चुकारे के लिए कुछ शेष छोड़ा ही नहीं जाता।  उद्योगों की भूमि हमेशा उद्योग की कंपनी के पास लीज पर होती है।  सरकार उसे अधिग्रहीत कर लेती है।  उसी समय नेतागण उसे हड़पने के चक्कर में होते हैं।  उद्योग के लिए आरक्षित भूमि सस्ते दामों पर नेता लोग हथिया लेते हैं और उसे बाद में आवासीय और व्यावसायिक भूमि में परिवर्तित कर करोडों का वारा न्यारा कर लेते हैं।  श्रमिकों को कुछ नहीं मिलता।  उन में से अनेक और उन के परिजन आत्महत्या कर लेने को बाध्य होते हैं।  शेष अपनी लड़ाई लड़ने में अक्षम हो कर नए कामों पर चले जाते हैं।  कुल मिला कर काला धन बनाने वाला उद्यमी सरकार, सार्वजनिक बैंकों की पूंजी और श्रमिकों सब को धता बता कर अपनी पूँजी आकार बढा़ता है। यदि यही उद्यम है तो इसे दुनिया से तुरंत मिट जाना चाहिए। 
यह सही है कि हमारा कानून दिखाने का अधिक और प्रायोगिक कम है। इसे वास्तविक परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाना चाहिए।  न्याय व्यवस्था को चाक-चौबंद और तीव्र गति से निर्णय करने वाली होना चाहिए।  लेकिन उस के लिए कितने लोग संघर्ष करते दिखाई देते हैं? श्रम कानून संशोधित किए जाने चाहिए और उन की पालना भी सुनिश्चित की जानी चाहिए।  बीस वर्ष पहले श्रम कानून श्रमिकों के पक्ष में दिखाई देते थे।  उन्हें बदलने के लिए 1987 में एक बिल भी लाया गया था। जिसे स्वयं उद्योगपतियों की पहल पर डिब्बे में बंद कर दिया गया। क्यों कि उस बिल की अपेक्षा श्रम कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी को पक्षाघात की अवस्था में पहुँचाना उन्हें अधिक उचित लगता था।  आज श्रम कानूनों की पालना नहीं हो रही है।  न्यायपालिका की सोच उसी तरह बदल दी गई है।  बिना एक भी कानून के बदले समान परिस्थितियों में जजों के निर्णय  श्रमिकों के पक्ष में होने के स्थान पर मालिकों के पक्ष में होने लगे हैं।  जजों की सोच को कंपनियों ने रिटायरमेंट के बाद काम देने का प्रलोभन दे दे कर बदल दिया है।

यह भी सही है कि उद्यम में पूंजी, श्रम और दिमाग सब लगते हैं।  दिमाग का काम भी श्रम ही है  और पूंजी भी संचित श्रम ही है। यदि उद्यमी को श्रम से प्रथक मानें तो भी प्रत्येक उद्यमी के साथ दसियों/ सैंकड़ों श्रमिक भी चाहिए। 
  आधुनिक श्रमजीवी (एक पूर्णकालिक सोफ्टवेयर इंजिनियर)
आमिर कसाब और अफजल गुरू वाला मामला भी न्याय प्रणाली के पक्षाघात का है।  उसे पक्षाघात से निकाला जाना जरूरी है।  यह तो कैसे हो सकेगा कि आप कुछ मामलों में चुन कर शीघ्र न्याय करें और शेष को  बरसों में निपटने के लिए छोड़ दें।  आमिर कसाब और अफजल गुरू को शीघ्र सजा दे कर भारतीय जनता के घावों को ठंडक अवश्य पहुँचाई जा सकती है,  लेकिन जनता के घावों को तो समूची न्याय प्रणाली को द्रुत और भ्रष्टाचारहीन बना कर ही किया जा सकता है।  जिस के लिए देश में सतत आंदोलन की आवश्यकता है।  अभी आमिर कसाब और अफजल गुरू के मामलों की रोशनी में दृढ़ इच्छा शक्ति के राजनैतिक दल या सामाजिक संस्थाएँ यह आंदोलन खड़ा कर सकती थीं।  लेकिन न्याय होने में किस की रुचि है?

मंगलवार, 9 जून 2009

जुगाड़ स्कूल -बस और शादी से वापसी

राजस्थान के  कोटा संभाग के बाराँ जिले का कस्बा अंता है जहाँ के हाट के चित्र आप ने कल देखे।  राष्ट्रीय राजमार्ग 76 पर कोटा से बाराँ-शिवपुरी की ओर चलने पर 45 किलोमीटर पर कालीसिंध नदी पार करने के चार किलोमीटरबाद यह कस्बा पड़ेगा।  राजस्थान का कोटा संभाग विद्युत उत्पादन में प्रमुख है यहाँ विद्युत उत्पादन का हर तरीका अपनाया जा रहा है।  रावतभाटा का परमाणु बिजलीघर चित्तौड़ जिले में है, लेकिन कोटा से 50 किलोमीटर पर स्थित होने से उस का जुड़ाव कोटा से अधिक और चित्तौड़गढ़ से कम है। जवाहर सागर में पनबिजलीघर है तो कोटा में कोयले से चलने वाले ताप बिजलीघर की सात इकाइयाँ स्थित हैं। अभी छबड़ा में एक इकाई और स्थापित की जा रही है।  राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (एनटीपीसी) का एक बिजलीघर  इसी अंता कस्बे से मात्र चार किलोमीटर दूर स्थित है।  कस्बे से दूर होने और सीधे कोटा से जुड़ाव के कारण इस बिजलीघर ने अंता कस्बे के विकास को विशेष प्रभावित नहीं किया।  लेकिन शिक्षा के प्रति रुचि का विकास अवश्य हुआ है।  15000 आबादी के इस कस्बे में अनेक निजि विद्यालय हैं। कुछ बहुत संपन्न तो कुछ विकास की अवस्था में हैं।

इन्हीं विद्यालयों में से एक श्रीनाथ शिक्षण संस्थान उसी धर्मशाला में संचालित होता है जिस में कल विवाह के भोजन की व्यवस्था थी।  कल आप ने भोजन के भंडार और रसोई के चित्र देखे थे।  हमने इसी धर्मशाला के बरांडों में बैठ कर भोजन किया।

भोजनोपरांत लोग सुस्ताने के लिए या तो कमरों में लगे कूलरों की शरण हो गए। वहाँ स्थान न रहने पर नीम के पेड़ों के नीचे गपशप में लीन हो गए। 

वहीं हमें इस जुगाड़ स्कूल-बस के दर्शन हुए।  ऐसी स्कूल बस जिस का कहीं कोई पंजीकरण नहीं। यह भी जरूरी नहीं कि उसे कोई लायसेंसधारी चालक चला रहा होगा।  विद्यालय को समुचित शुल्क देने वाले माता-पिता इस वाहन में अपने बच्चों को विद्यालय भेज रहे हैं।  फिलहाल विद्यालय गर्मी की छुट्टियों में बंद हैं और यह विद्यालय वाहन भी यार्ड में खड़ा है।  कोई इसे न छेड़े इस के लिए ड्राइवर सीट और सवारियों के बैठने के स्थान पर करीर के कांटों वाले झाड़ रख दिए गए हैं।  हाँ, इतना जरूर सोचा जा सकता है कि इस में बैठने वाले बच्चे अवश्य ही तमाम खतरों से अनजान इस अनोखे वाहन का आनंद अवश्य लेते होंगे।

 
 दूल्हे के नाना-मामा अपने पूरे परिवार सहित (माहेरा) ले कर आए थे।  
 
 
 
 
उन्हों ने अपनी बेटी को इस अवसर पर सुहाग के सब चिन्ह, चूनरी, गहने और कपड़े उपहार में दिए।  साथ ही बेटी के पूरे परिवार को भी कपड़े भेंट किए।  

हमारे मेजबान
 
दूल्हे के अध्यापक पिता

दूल्हे के चाचा और मेरे साढ़ू भाई

............... और इन से मिलना तो रह ही गया 
ये हैं दूल्हे मियाँ,  कम्प्यूटर प्रशिक्षक


चलते-चलते रात हो गई, कुछ देर बिजली भी चली गई

तब झाँका नीम के पीछे से चंदा, जैसे झाँकी हो दुलहिन......

सोमवार, 8 जून 2009

विवाह का मंडल, दोपहर का भोजन और साप्ताहिक हाट बाजार

घर से निकलते निकलते ग्यारह बज गए। रास्ते में पेट्रोल लिया, टायरों में हवा पूरी ली और चल दिए। कुल पचपन किलोमीटर, पौन घंटे में पहुँच लिए।  ब्याह वाले घर में मंडल का कार्यक्रम चल रहा था।  इसी के लिए तो हमारा आना निहायत जरूरी था। वधू के घर भांवर के एक दिन पहले या उसी दिन सुबह और वर के घऱ बारात रवाना होने के दिन या एक दिन पहले मंडल होता है। घर के चौक में मंडप बनाया जाता है जिस के नीचे बैठ कर वर या वधू जो भी हो उस के माता-पिता,और परिवार के सभी युगल सदस्य पूजा और हवन करते हैं। पूजा की समाप्ति पर परिवार की सभी बहुओं के नैहर के रिश्तेदार उन्हें कपड़े उपहार में देते हैं।   इस परंपरा का कारण तो पता नहीं पर शायद यह रहा हो कि कपड़े उपहार में देने के दायित्व के कारण अधिक से अधिक लोग विवाह में उपस्थित हों और विवाह की सामाजिकता बनी रहे।  एक लाभ और यह होता है कि बहुत सारे संबंधी जो बहुत दिनों से नहीं मिले होते हैं, यहां मिलने का अवसर पा जाते है और कुछ समय साथ बिता लेते हैं।

अब हमारी साली साहिबा, शोभा की छोटी बहिन वर की चाची थी। शोभा का उसे और दूल्हे को यह उपहार समय पर देना था  इस लिए हमारा मंडल के समापन के पहले पहुँचना आवश्यक था।   खैर, मंडल सम्पन्न होते ही सब को भोजन के लिए कहा गया। उस के लिए फर्लांग भर दूर स्थित एक धर्मशाला जाना था।  हम चल दिए। रास्ते में साप्ताहिक हाट लगी थी।  मुझे छोटे कस्बे की साप्ताहिक हाट देखे बहुत दिन हो गए थे।  मैं उसे निहारता चला।

हाट बाजार

धर्मशाला बनाम स्कूल

कच्चे-पक्के माल का भंडार

और भंडारी बने साले साहब

धर्मशाला एक बगीची जैसे स्थान में बनी थी। बहुत खुला स्थान था।  इमारत में तीन बड़े-कमरे थे। पास में शौचालय और स्नानघऱ थे। अनवरत पानी के लिए टंकियाँ रखी गई थीं। इमारत पर धर्मशाला और विद्यालय दोनों के नाम प्रमुखता से लिखे थे।  इमारत दोनों कामों में आती थी।   इमारत के एक और खुले स्थान में तंबू तान कर पाक शाला बना दी गई थी।  वहाँ शाम के लिए सब्जियाँ बनाई जा रही थीं और दोपहर के भोजन के लिए गरम गरम पूरियां तली जा रही थीं।  एक बड़े कमरे को भोजन का भंडार बना दिया गया था।  जिस में भोजन बनाने का कच्चा माल और तैयार भोजन सामग्री का संग्रह था।  मेरे बड़े साले साहब वहाँ जिम्मेदारी से ड्यूटी कर रहे थे।  बीच बीच में साढ़ू भाई आ कर संभाल जाते थे।  सुबह नाश्ता किया था, भूख अधिक नहीं थी। फिर भी सब के साथ मामूली भोजन किया। कच्चे आम की लौंजी बहुत स्वादिष्ट बनी थी।  दो दोने भर वह खाई। गर्मी के मौसम में पेट को भला रखने के लिए उस से अच्छा साधन नहीं था। 

 
 शाम की सब्जी की तैयारी के लिए कद्दू के टुकड़े

गर्म-गर्म पूरियाँ तली जा रही हैं
भोजन के घंटे भर बाद इसी धर्मशाला में वर के ननिहाल से आए लोगों द्वारा भात (माहेरा) पहनाने का कार्यक्रम था।  भोजन कर लोग वहीं  सुस्ताने लगे। हम साले साहब को भंडार से मुक्ति दिलवा कर बाजार ले चले कॉफी पिलवाने के बहाने।  हमें हाट जो देखनी थी। रास्ते में एक मुवक्किल मिल गए, वे हमें चाय की दुकान ले गए और बहुत शौक से न केवल कॉफी पिलाई, ऊपर से पान भी खिलाया।  वापसी में हमने हाट देखी और चित्र भी लिए। लीजिए आप खुद देख लें हाट की कुछ बानगियाँ।


 
प्याज और अचार के लिए कच्चे आम खरीदें, अच्छे हैं, पर जरा महंगे हैं 

 
 आंधी में झड़े कच्चे आम, सस्ते हैं, बस पाँच रुपए प्रति किलोग्राम

  
 और अचार के लिए मसाला यहाँ से खरीद लें
 
कच्चे आम को काटना भी तो होगा, कैरी कट्टा यहाँ लुहारियों से खरीद लें 

   मीठे के लिए गुड़ और तीखे के लिए हरी मिर्च भी तो चाहिए

 
 विकलांग होने का खतरा मत उठाइए, जरा शंकर जी के वाहन नन्दी से बचिए 

 
घर की सुरक्षा के लिए ताला लेना न भूलें

शादी में आई हैं तो नई काँच की चूड़ियाँ तो पहन लें
यह बहुत नहीं हो गया?                                                                          शेष अगली किस्त में.......