@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 10 जनवरी 2010

राजनीति और कूटनीति के सबक सीखती जनता

सुबह ग्यारह बजे कोर्ट परिसर के टाइपिस्टों की यूनियन के चुनाव थे। मुझे चुनाव में सहयोग करने के लिए ग्यारह बजे तक क्षार बाग पहुँच जाना था। लेकिन कई दिनों से टेलीफोन में हमिंग आ रही थी। दो दिनों से शाम से ही वह इतनी बढ़ जाती थी कि बात करना मुश्किल हो जाता था।  इसी लाइन पर ब्रॉडबैंड के पैरेलल एक टेलीफोन और था। जिस का उपयोग करने पर ब्रॉडबैंड का बाजा बज जाता था जो आसानी से बंद नहीं होता था। कल रात ही मैं ने शिकायत दर्ज करवा दी थी। सुबह साढ़े दस बजे जब क्षारबाग जाने के लिए निकलने वाला था तो टेलीफोन विभाग वालों का फोन आ गया। मैं ने यूनियन से अनुमति ली कि यदि मैं देरी से आऊँ तो चलेगा? उन्हों ने अनुमति दे दी। मैं ने दस वर्ष पहले मकान में बिछाई गई छिपी हुई लाइन का मोह छोड़ अपनी टेलीफोन लाइन टेलीफोन तक सीधी खुली प्रकार की लगवा दी और दोनों फोन उपकरण ब्रॉडबैंड के फिल्टर के बाद लगवा दिए।  दोनों उपकरण काम करने लगे। टेलीफोन को चैक किया तो हमिंग नहीं थी। मैं क्षार बाग चल दिया।

हाँ मत डालने का काम आरंभ हो चुका था। तीन बजे तक मत डालने का समय था। इस बीच आमोद-प्रमोद चलता रहा। पकौड़ियाँ बनवा कर खाई गईं। कुल 65 मतदाता थे। ढाई बजे तक सब ने मत डाल दिए। तो मतों की गिनती को तीन बजे तक रोकने का कोई अर्थ नहीं था। हमने मत गिने। तो जगदीश भाई केवल पंद्रह मतों से जीत गए। वे कम से कम पैंतालीस मतों से विजयी होने का विश्वास लिए हुए थे। वे कई वर्षों से अध्यक्ष चले आ रहे हैं। पर परिणाम ने बता दिया था कि परिवर्तन की बयार चल निकली है। 25 और 40 मतों का ध्रुवीकरण अच्छा नहीं था। किसी बात पर मतभेद यूनियन को सर्वसम्मत रीति से चलाने में बाधक हो सकता था। सभी मतदाताओं में राय बनने लगी कि 25 मत प्राप्त करने का भी कोई तो महत्व होना चाहिए। कार्यकारिणी में एक पद वरिष्ठ उपाध्यक्ष का और सृजित किया गया जिस पर सभी 65 मतदाताओं ने स्वीकृति की मुहर लगा दी। मैं चकित था कि अब राजनीति के साथ साधारण लोग भी कूटनीति को समझने लगे हैं।
स घटना ने समझाया कि कैसे किसी संस्था को चलाया जाना चाहिए। इस तरह अल्पमत वाले 25 लोग भी संतुष्ट हो गए थे। जिस से यूनियन के मामलों में सर्वसम्मति बनाने में आसानी होगी। क्षार बाग  किशोर सागर सरोवर की निचली ओर है। इस विशाल बाग के एक कोने में कोटा के पूर्व महाराजाओं की अंतिम शरणस्थली है जहाँ उन की स्मृति में कलात्मक छतरियाँ बनी हैं। यहीं कलादीर्घा और संग्रहालय हैं। इसी में  एक कृत्रिम झील  बनी है जो सदैव पानी से भरी रहती है। हम लोगों का मुकाम इसी झील के इस किनारे पर बने एक मंदिर परिसर में था जो बाग का ही एक भाग है। झील में पैडल बोटस्  थीं, बाग में घूमने वाले लोग उस का आनंद ले रहे थे। झील में 15 बत्तखें तैर रही थीं। कि किनारे पर एक कुत्ता आ खड़ा हुआ बत्तखों को देखने लगा। उसकी नजरों में शायद खोट देख कर सारी बत्तखें किनारे के नजदीक आ कर चिल्लाने लगीं। कुत्ता कुछ ही देर में वहाँ से हट गया। बत्तखें फिर से स्वच्छन्द तैरने लगीं। सभी इन दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि भोजन तैयार हो गया। मैं ने भी सब के साथ भोजन किया और घर लौट आया।

र लौट कर फोन को जाँचा तो वहाँ फिर हमिंग थी और इतनी गहरी कि कुछ भी सुन पाना कठिन था।  साढ़े चार बजे थे। मैं ने टेलीफोन विभाग में संपर्क किया तो पता लगा अभी सहायक अभियंता बैठे हैं। कहने लगे फोन उपकरण बदलना पड़ेगा। यदि संभव हो तो आप आ कर बदल जाएँ। कल रविवार का अवकाश है। मैं पास ही टेलीफोन के दफ्तर गया और कुछ ही समय में बदल कर नया उपकरण ले आया। उसे लाइन पर लगाते ही हमिंग एकदम गायब हो गई। उपकरण को देखा तो  प्रसन्नता हुई कि यह मुक्तहस्त भी  है। अब मैं काम करते हुए भी बिना हाथ को या अपनी गर्दन को कोई तकलीफ दिए टेलीफोन का प्रयोग कर सकता हूँ। शाम को कुछ मुवक्किलों के साथ कुछ वकालती काम निपटा कर रात नौ बजे दूध लेने गया तो ठंडक कल से अधिक महसूस हुई। वापसी पर महसूस किया कि कोहरा जमने लगा है। स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला कि शायद कल लगातार तीसरी सुबह फिर  अच्छा कोहरा देखने को मिलेगा। सुखद बात यह है कि कोहरा दिन के पूर्वार्ध में छट जाता है और शेष पूर्वार्ध में धूप खिली रहती है। जिस में बैठना, लेटना, खेलना और काम करना सुखद लगता है। आज की योजना ऐसी ही है। कल दोपहर के भोजन के बाद छत पर सुहानी धूप में शीत का आनंद लेते हुए काम किया जाए, और कुछ आराम भी।

चित्र  1- किशोर सागर सरोवर में बोटिंग, 2- क्षार बाग की छतरियाँ

शनिवार, 9 जनवरी 2010

कुहरे में लिपटा एक सर्द दिन


ब चार माह कुछ नहीं किया तो उस का कुछ तो वजन उठाना ही होगा। बृहस्पतिवार की रात एक मुकदमा तैयार करते 12 बज गए थे, तारीख बदल गई। फिर एक और काम को सुबह के लिए छोड़ना उचित न समझा, उसे निपटाते निपटाते सवा भी बज गए। फिर अनवरत पर टिपियाते हुए पौने दो। सुबह ही हो चुकी थी। ठंड से मुकाबले के लिए जीन्स थी पैरों में, लेकिन ठंड़ी इतनी हो गई थी कि पैरों को चुभने लगी थी। सोने गया तो सोचता रहा, कैसा बेवकूफ हूँ मैं भी, दफ्तर में ब्लोअर लगा है सिर्फ बटन चालू न कर सका। होता है, कभी कभी काम में यही होता है कि पैर दर्द कर रहा हो तो भी मुद्रा बदलने की तबियत नहीं करती, प्यास लगी हो तो पानी पीने के पहले सोचते हैं कि हाथ का काम निपटा लो। खैर, दो बजे सोने गए थे तो सुबह देर से उठना ही था। पर सात बजे ही उठ लिए। पत्नी ने कॉफी के लिए हाँक लगाई, तो हमने हाँ भर दी। वहीं बेड पर कॉफी पी गई। खिड़की से बाहर झाँका, तो सड़क पार पार्क की बाउंड्री और उस से लगे पेड़ धुंधले दिखाई दे रहे थे। पीछे कोहरे का महासागर लहलहारहा था। यह दृष्य कोटा के लिए तो अद्भुत ही है , जिस के दिखाई देने का अवसर साल में कुछ ही दिन होता है। इस बार तो कई सालों के बाद देखने को मिला।
चैनलों पर सुबह सुबह रोज दिल्ली दिखाई जाती है, कोहरे में डूबी हुई। हमें बिटिया की याद आने लगती है। वह फरीदाबाद में  पहली सर्दी झेल रही है, तीन सर्दियाँ मुम्बई की देखने के बाद। मुम्बई में उसे सिर्फ एक वर्ष एक कंबल खरीदना पड़ा था जो कुछ अधिक दिन काम न आया था।  सुबह कुछ काम आ गया तो घर से निकलते वही साढ़े ग्यारह बज चुके थे। कुहरा छंटा नहीं था। लेकिन कार चालीस की गति से चलाई जा सकती थी। पहली बार सड़क के किनारे अलाव दिखाई दिए, वह भी दिन में बारह के बजने के पहले। हवा ठंडी थी और नम भी। पान की दुकान के बाहर रिक्शे वाले गत्ते जला कर हाथ पैर गरम कर रहे थे। आज उन का माल ढोने का काम अभी नहीं लगा था।
क्षार बाग तालाब के पास से निकला तो सरोवर के बीचों-बीच रोज दिखाई पड़ने वाला जगमंदिर ऐसा दिखाई दे रहा था जैसे चित्रकार ने चित्र आरंभ करने के लिए केवल आउटलाइन बनाई हो। साफ-साफ दिखाई पड़ने वाला रामपुरा का इलाका कोहरे के पीछे गायब था। कोहरे में तालाब की सतह से कुछ ऊपर ठीक साईबेरिया तक से आए हुए पर्यटक पक्षी उड़ रहे थे। शायद कोहरे ने क्षुधा पूर्ति के लिए उन्हें अपने शिकार की तलाश में जल की सतह के बिलकुल नजदीक उड़ने को बाध्य कर दिया था। कैमरा पास न होने का अफसोस हुआ। होता तो कुछ दुर्लभ चित्र अवश्य ही मिलते।

दालत पूरी तरह से ठंडी थी। लोगों ने वहाँ भी जलाऊ कचरा तलाश लिया था और अलाव बनाए हुए थे। पहुँचते ही अदालत से बुलावा आ गया। कांम में लगे तो सर्दी हवा हो गई। कोहरा छंटने लगा। फिर एक बजते-बजते धूप निकल आई। जो धूप गर्मियों में शत्रु लगती है, आज उस का महत्व पता लग रहा था। अदालत परिसर में जहाँ जहाँ धूप थी वहाँ लोग खड़े नजर आ रहे थे। कुछ थे, जो  सर्दी को कोस रहे थे। शाम चार बजे एक अदालत में एक महिला जो मजिस्ट्रेट को बयान देने आई थी, बयान देने के पहले ही अचेत हो गई। एक और महिला उसे लगभग घसीट कर बाहर लाई। महिला वहाँ भी अचेत ही दीख पड़ी। मैं कहता कि शायद सर्दी से अचेत हुई है, तभी एक ने कहा कि पुलिस वाले कह रहे हैं कि नाटक कर रही है, बयान देने से बचने के लिए।  मेरे शब्द मेरे कंठ के नीचे ही दफ्न हो गए। फिर महिला पुलिस आ गई उसे उठा कर हवालात की तरफ ले गई। 
सुबह कलेवे में मैथी के पराठे और धनिया-टमाटर की चटनी थी, चटनी में ताजा गीली लाल मिर्च का इस्तेमाल होने से चिरमिराहट बढ़ गई थी। शाम के भोजन में मकई की रोटी और बथुई की कढ़ी और जुड़ गई। लगता है इस साल सर्दी बदन में लोहा भरने का काम कर रही है। हरी पत्ती भोजन में किसी बार गैर हाजिर नहीं होती। शाम का दफ्तर चला तो फिर तारीख बदल गया। आज पैरों में जीन्स के स्थान पर पतलून है। वह भी ठंडी हो चुकी है। अनवरत के लिए यह सब कुछ टिपियाना शुरू करने के पहले मैं ब्लोअर चला देता हूँ। पर इतना ही टिपियाने तक उस ने दफ्तर को इतना गर्म कर दिया है कि उसे बंद करने को उठना ही पड़ेगा। तो, मिलते हैं कल फिर से। अंग्रेजी कलेंडर में  दस नौ जनवरी की सुबह हो चुकी है।   आज सुबह दस बजे निकलना है। अदालत परिसर में बैठने वाले कोई अस्सी टाइपिस्टों ने यूनियन बना रखी है। उस के चुनाव होंगे। सोलह की कार्यकारिणी में से पन्द्रह निर्विरोध चुने जा चुके हैं। केवल अध्यक्ष के लिए चुनाव होने हैं। यह काम क्षार बाग में होगा। उसी  सरोवर के किनारे जहाँ जग मंदिर है और जहाँ आप्रवासी पक्षी सैंकड़ों की संख्या में डेरा जमाए हुए हैं।

शुक्रवार, 8 जनवरी 2010

दिन भर व्यस्त रहा, लगता है कुछ दिन ऐसे ही चलेगा

ज हड़ताल समाप्ति के दूसरे दिन मैं अदालत सही समय पर तो नहीं, लेकिन साढ़े ग्यारह बजे पहुँच गया था। कार को पार्क करने के लिए स्थान भी मिल गया। लेकिन अदालत में निराशा ही हाथ लगी। एक अदालत में एक ही प्रकृति के ग्यारह मुकदमे लंबित थे। अस्थाई निषेधाक्षा के लिए बहस होनी थी। लेकिन अदालत जाने पर पता लगा कि अदालतों में मुकदमों की संख्या का समानीकरण करने के लिए बहुत से स्थानांतरित किए गए हैं उन में वे सभी शामिल हैं। इन ग्यारह मुकदमों में से सात एक अदालत में और चार दूसरी अदालत में स्थानांतरित कर दिए गए हैं। नई अदालत में जा कर उन मुकदमों को संभाला। इस से एक दिक्कत पैदा हो गई कि अब या तो सारे ग्यारह मुकदमों को एक ही अदालत में स्थानांतरित कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत करना होगा। जिस में दो-चार माह वैसे ही निकल जाएंगे, या फिर दोनों अदालतों में मुकदमों अलग अलग सुनवाई होगी। इस से मुकदमों में भिन्न भिन्न तरह के निर्णय होने की संभावना हो जाएगी।। कुल मिला कर मुकदमों के निर्णय में देरी होना स्वाभाविक है।
श्रम न्यायालय का वही हाल रहा वहाँ लंबित तीन मुकदमों में तारीखें बदल गईँ। दो मुकदमे 1983 व 1984 से लंबित हैं। उन में तीन व्यक्तियों की सेवा समाप्ति का विवाद है। एक का पहले ही देहांत हो चुका है, शेष दो की सेवा निवृत्ति की तिथियां निकल चुकी हैं। प्रबंधन पक्ष के वकील के उपलब्ध न होने के कारण आज भी उन में बहस नहीं हो सकी। तीसरे मुकदमे में प्रबंधन पक्ष के वकील के पास उस की पत्रावली उपलब्ध नहीं होने से बहस नहीं हो सकी। श्रम न्यायालय ने एक सकारात्मक काम यह किया कि मुझे पिछले दस वर्षों में अदालत में आने वाले और निर्णीत होने वाले मुकदमों की संख्या का विवरण उपलब्ध करवा दिया। इस से सरकार के समक्ष यह मांग रखने में आसानी होगी कि कोटा में एक और अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। कल मिले कुछ ट्रेड यूनियन पदाधिकारी इस मामले को राज्य सरकार के समक्ष उठाने के लिए तैयार हो गए हैं। इस विषय पर आज अभिभाषक परिषद के अध्यक्ष से भी बात की जानी थी। पर वे उन की 103 वर्षीय माताजी का देहांत हो जाने के कारण अदालत नहीं आए थे। अब शायद पूरे बारह दिनों तक वे नहीं आ पाएंगे। कल उन के यहाँ शोक व्यक्त करने जाना होगा। संभव हुआ तो तभी उन से यह बात भी कर ली जाएगी।
अपने दफ्तर में व्यस्त मैं
दालत से घर लौटा तो पाँच बज चुके थे। घर की शाम की कॉफी का आनंद कुछ और ही होता है। उस के साथ अक्सर पत्नी से यह विचार विमर्श होता है कि शाम को भोजन में क्या होगा। हालाँकि हमेशा नतीजा यही होता है कि बनता वही है जो श्रीमती जी चाहती हैं। वे जो चाहती हैं वह सब्जियों की उपलब्धता पर अधिक निर्भर करता है। अक्सर मैं इस विचार-विमर्श से बचना चाहता हूँ। लेकिन बचने का कोई उपाय नहीं है।
शाम सात बजे से दफ्तर शुरू हुआ तो ठीक बारह बजे अपने मुवक्किलों से मुक्ति पाई है। फिर कल की पत्रावलियाँ देखने में एक बज गया। तब यह रोजनामचा लिखने बैठा हूँ। आज ब्लॉग पर कुछ खास नहीं लिख पाया। शाम को मिले समय में मुश्किल से अपने एक साथी का मुस्लिम विवाह पर नजरिया जो उन्होंने लिख भेजा था तीसरा खंबा पर अपलोड कर पाया हूँ। आज बहुत से ब्लाग जो पढ़ने योग्य थे वे भी पढ़ने से छूट गए। चार माह से हड़ताल कर बैठने के बाद अदालतों में काम आरंभ होने का नतीजा है यह। लगता है कुछ दिन और ऐसा ही सिलसिला बना रहेगा।

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

ह़ड़ताल समाप्ति के बाद का पहला दिन

रात को सोचा था  'अब हड़ताल खत्म हो गई है, कल बिलकुल समय पर अदालत के लिए निकलना होगा'। पत्नी शोभा ने पूछा था -कल कितने बजे अदालत के लिए निकलना है? तो मैं ने बताया था -यही कोई साढ़े दस बजे। शोभा ने चेताया दस बजे की सोचोगे तब साढ़े दस घर से निकलोगे।
सुबह पाँच बजे नींद खुली। शोभा सो रही थी। मैं लघुशंका से निवृत्त हुआ और पानी पी कर वापस लौटा तो ठंड इतनी थी कि फिर से रजाई पकड़ ली। जल्दी ही निद्रा ने फिर पकड़ लिया। इस बार शोभा ने जगाया -चाय बना ली जाए। मैं  ने रजाई में से ही कहा -हाँ, बिलकुल। कॉफी की प्याली आ जाने पर ही रजाई से निकला पानी पीकर वापस रजाई में, वहीं बैठ बेड-कॉफी पी गई।
शौचादि से निवृत्त हो नैट टटोला तो पता लगा रात को सुबह साढ़े पाँच के लिए शिड्यूल की हुई पोस्ट ड्राफ्ट ब्लागर ने ड्राफ्ट में बदल दी है औऱ प्रकाशित होने से रह गई है। उसे मैनुअली प्रकाशित किया। तभी शोभा ने आ कर पूछा कपड़े धोने हों तो बता दो, कल नहीं धुलेंगे। मैं ने कहा -खुद ही देख लो। मैं जानता था कि कपड़े अधिक से अधिक एक जोड़ा ही बिना धुले होंगे। मैं ने सोचा था कि नौ बजे बाथरूम में घुस लूंगा। तब तक अदालत का बस्ता जाँच लिया जाए कि फाइलें वगैरा सामान पूरा तो है न। यह काम निपटता इतने बिजली चली गई। अंदेशा इस बात का था कि अघोषित बिजली कटौती हो सकती है इस लिए पूछताछ पर टेलीफोन कर पूछा तो जानकारी दी गई कि किसी फॉल्ट को ठीक किया जा रहा है, कुछ देर में आ जाएगी। वाकई दस मिनट में बिजली लौट आई। लेकिन तब तक बाथरूम कब्जाया जा चुका था। मुझे वह साढ़े दस बजे नसीब हुआ। मैं तैयार हो कर निकला तब सुबह के भोजन में कुछ ही देरी थी। मैं ने यह समय कार की धूल झाड़ने और जूते तैयार करने में लगा दिया। मैं अदालत पहुँचा तो बारह बजने में कुछ ही समय शेष था। पार्किंग पूरी भर चुकी थी। आखिर पूरी अदालत का चक्कर लगाने के बाद स्थान दिखाई दिया, वहीं कार टिका कर अपनी बैठक पर पहुँचा।
 मैं वाकई बहुत विलंब से था।


अदालत में लौटती रौनक

ज लगभग सभी वकील मेरे पहले ही आ चुके थे। एक अभियुक्त नहीं आ सकता था उस की हाजरी माफी की दरख्वास्त पर दस्तखत कर एक कनिष्ट को अदालत में भेजा और मैं एक आए हुए मुवक्किल के साथ श्रम न्यायालय चला गया। कुल मिला कर आज के साथ मुकदमों में से छह में एक बजे तक पेशी बदल चुकी थी। एक अदालत के जज ने बहस करने को कहा - मैं तैयार था लेकिन? लेकिन एक दूसरे वकील साहब तैयार न थे, वे पहली बार अदालत में उपस्थति दे रहे थे। आखिर उस में भी पेशी बदल गई। अदालत का काम समाप्त हो चुका था। फिर बैठक पर कुछ वकील इकट्ठे हो गए। कहने लगे काम को रफ्तार पकड़ने में समय तो लगेगा। शायद सोमवार से मुकाम पर आ जाए। ठीक वैसे ही जैसे किसी दुर्घटना के बाद रुकी हुई गाड़ियाँ समय पर चलने में तीन-चार दिन लगा देतीं हैं। मध्यान्ह की चाय हुई, फिर मित्रों के बीच कुछ कानूनी सवालों पर विचार विमर्श चलता रहा। फिर एक मित्र के साथ कॉफी पी गई। तभी मुझे ध्यान आया कि मोबाइल बिल आज जमा न हुआ तो आउटगोइंग बार हो सकती हैं। एक सप्ताह बाहर रहने से वह जमा होने से छूट गया था। मैं तुरंत अदालत से निकल लिया और बिल जमा कराता हुआ घर पहुँचा।
ह बुधवार का दिन था और शोभा के व्रत था। वह आम तौर पर रात आठ बजे व्रत खोलती है। शाम की चाय के बाद कहने लगी -भोजन कितने बजे होगा। मैं ने कहा -जब तैयार हो जाए।  -मुझे भूख लगने लगी है। -तो बना लो। वह रसोई की ओर चल दी। इतने में उस के लिए फोन था। एक मित्र पत्नी का। खड़े गणेश चलने का न्योता था। शोभा रसोई छोड़ तुरंत चलने को तैयार होने लगी। कुछ ही देर में वे लोग आ गए। हम भी उन के साथ खड़े गणेश पहुँच गए।  कार पार्क कर हम मंदिर तक पैदल गए।  मित्र की पत्नी व बेटी  और शोभा  पीछे चल रही थी। पत्नी अपना ज्ञान बांटने में लगी थी -गुरूवार को केला भोग नहीं लगाया जाता।  मैं ने सवाल रखा  -गुरूवार को पूर्णिमा हो और सत्यनारायण का व्रत रखे तो क्या केले का भोग न लगेगा?  प्रत्येक  देसी कर्मकांडी की तरह पत्नी के पास उस का भी जवाब था। कहने लगी -वह तो गुरुवार का व्रत करने वालों और केले के पेड़ की पूजा करने वालों के लिए है, सब के लिए थोड़े ही है। मैं सोच रहा था कि स्त्रियाँ किस तरह समाज के टोटेम युग की स्मृतियों और रिवाजों को अब तक बचाए हुए हैं। वर्ना इतिहासकारों और दार्शिनकों के लिए सबूत ही नहीं बचते। गणेश तो बहुत बाद की पैदाइश हैं। आम तौर पर बुधवार को लंबी कतार होती है वहाँ। दो-दो घंटे लग जाते हैं दर्शन में। पर आज कतार बहुत छोटी थी। मैं कतार में लग गया। हम कोई आध घंटे में वहाँ से निपट कर वापस हो लिए। मैं ने रास्ते में पूछा -तुम्हें तो भूख लगी थी न? कहने लगी - वह तो अब भी लगी है पर यहाँ आने को मना कैसे करती।


खड़े गणेश 

भोजन तैयार होने में घंटा भर लगा होगा। पहले मैं बैठ गया और जब तक वह रसोई से निपट कर लौटती तब तक दफ्तर में लोग आने लगे थे। मुझे भी कुछ आश्चर्य हुआ कि जिस दफ्तर में तीन माह की शाम अक्सर मैं अकेला होता था उस में अदालत खुलते ही रौनक होने लगी। बिलकुल आश्चर्यजनक रूप से मैं दफ्तर से साढ़े ग्यारह पर छूटा हूँ। इस बीच कुछ लोगों से इस बात पर भी चर्चा हुई कि कोटा में पाँच बरस पहले एक अतिरिक्त श्रम न्यायालय स्थापित हो जाना चाहिए था, जिस के न होने से इस न्यायालय के न्यायार्थियों के लिए न्याय का कोई अर्थ नहीं रह गया है। हर वर्ष जितने मुकदमे निर्णीत हो रहे हैं उस से दुगने आ रहे हैं। इस गति से लंबित मुकदमे तो बीस साल भी नहीं निबट सकते। आखिर कुछ श्रम संगठनों ने इस के लिए सरकार को प्रतिवेदन भेजने का निर्णय किया और न सरकार के न मानने पर आंदोलन आरंभ करने का इरादा भी जाहिर किया। तो यूँ रहा आज का दिन। इतना लिखते लिखते तारीख बदल गई है।

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

संघर्ष विराम हुआ, चलो काम पर चलें ......


खिर 130 दिन की हड़ताल पर विराम लगा। आज हुई अभिभाषक परिषद की आमसभा में प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हुआ कि वर्तमान परिस्थितियों में संघर्ष को विराम दिया जाए। इस समय लगभग सभी राज्यों में हाईकोर्टों की बैंचें स्थापित किए जाने के लिए संघर्ष जारी है। अनेक राज्यों के अनेक संभागों के वकील अदालतों का बहिष्कार कर चुके हैं। कोटा के वकील भी पिछली 29 सितंबर से हड़ताल पर थे। इस बीच वकीलों ने अदालत में जा कर काम नहीं किया, जिस का नतीजा यह रहा कि अत्यंत आवश्यक आदेशों के अतिरिक्त कोई आदेश पारित नहीं किया जा सका। इन 130 दिनों में किसी मामले में कोई साक्ष्य रिकॉर्ड नहीं की गई। अदालतों का काम लगभग शतप्रतिशत बंद रहा।

स पूरे दौर में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मैं कोटा मे रहा होऊँ और अदालत नहीं गया होऊँ। हाँ यह अवश्य रहा कि आम दिनों में जैसे सुबह साढ़े दस-ग्यारह बजे अदालत पहुँचने की आदत थी वह खराब हो गई। दो माह तक तो स्थिति यह थी कि अदालत परिसर के द्वार साढ़े दस बजे वकील बंद कर उस पर ताला डाल देते थे। दो बजे तक कोई भी अदालत परिसर के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता था। वकील जो पहुँच जाते थे वे भी परिसर में प्रवेश नहीं कर पाते थे। उन्हें सड़क पर या आस पास के परिसरों में बैठ कर इंतजार करना पड़ता था।  अधिकांश वकील  मुंशी आदि एक बजे के पहले अदालत जाने से कतराने लगे थे। मुझे खुद अदालत जाने की को कोई जल्दी नहीं रहती थी। आज भी मैं एक बजे अदालत पहुँच पाया था जब परिषद की आमसभा आरंभ होने वाली थी। इन दिनों अदालत से घर लौटने की जल्दी भी नहीं रहती थी।  शाम को अपने कार्यालय में कोई काम नहीं होता था। अक्सर पाँच बजे तक हम अदालत में ही जमे रहते थे।

ज जब परिषद ने हड़ताल स्थगित करने का निर्णय लिया तो तुरंत ही वकीलों को कल से काम पर नियमित होने की चिंता सताने लगी। मैं भी साढ़े तीन बजे ही अदालत से चल दिया। चार बजे घऱ पर था। आते ही कल के मुकदमों की फाइलें संभालीं। इस सप्ताह के मुकदमों पर निगाह डाली कि किसी मुकदमे की तैयारी में अधिक समय लगना है तो उस की तैयारी अभी से आरंभ कर दी जाए। अब मैं कल से पुनः काम पर लौटने के लिए तैयार हूँ। हालाँकि जानता हूँ कि अभी काम अपनी गति पर लौटने में एक-दो सप्ताह लेगा। बहुत से लोग जिन की सुनवाई के लिए जरूरत है उन्हें सूचना होने में समय लगेगा।  
भिभाषक परिषद ने तय किया है कि जब तक कोटा में हाईकोर्ट की बैंच स्थापित नहीं हो जाती है तब तक वे सप्ताह के अंतिम दिन अर्थात शनिवार को काम नहीं करेंगे। इस तरह अब काम का सप्ताह केवल पाँच दिनों का रहेगा। पहले केवल अंतिम शनिवार को काम का बहिष्कार रहा करता था। इस हड़ताल के दौरान मिले समय में मैं ने एक काम यह किया कि तीसरा खंबा पर 'भारत का विधिक इतिहास' लिखना आरंभ किया जिस की तीस कड़ियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। इस तरह एक अकादमिक काम अंतर्जाल पर लाने का प्रयास आरंभ हो सका।

ब कल से काम पर जा रहे हैं। देखता हूँ अपनी ब्लागीरी के लिए कितना समय निकाल पाता हूँ।

रविवार, 3 जनवरी 2010

ख्वाब में आके वो सताने लगा

पिछले वर्ष के अंतिम सप्ताह में कोटा से गुजरने वाले अलाहाबाद को अहमदाबाद से जोड़ने के लिए बन रहे राष्ट्रीय उच्चमार्ग पर निर्माणाधीन हैंगिग ब्रिज पर हादसा हुआ और एक तरफ बना पुल का हिस्सा नदी में गिर पड़ा। काम कर रहे श्रमिक/इंजिनियर मलबे में जा दबे। अब तक 42 मृतकों के शव मिल चुके हैं। कुछ और शव अभी मलबे में हैं। तियालिसवीं मृत्यु अस्पताल में एक घायल की हुई। कुछ लापता लोगों के परिजन अब भी अपने प्रिय की तलाश में यहाँ चंबल किनारे बैठे हैं। भास्कर की यह खबर देखें ....

चंबल के तट पर पति का इंतजार


छह दिन से एक नवविवाहिता चंबल के तट पर बैठकर अपने पति का इंतजार कर रही है। उसका पति चंबल ब्रिज हादसे के बाद से लापता है। उसकी शादी चार माह पहले ही हुई है। रो—रोकर उसका बुरा हाल है और स्वास्थ्य भी गिरता जा रहा है। पश्चिम बंगाल के किशोर बिश्वास का विवाह चार माह पहले लिपि बिश्वास से हुआ था। शादी के कुछ दिन बाद ही किशोर कोटा आ गया। जनवरी में वो छुट्टी पर घर जाता। अभी लिपि की मेहंदी का रंग भी फीका नहीं पड़ा था और उसकी कई रस्में भी पूरी नहीं हुई थी कि चंबल ब्रिज हादसा हो गया। हादसे की सूचना मिलते ही लिपि अपने ससुर, ननद, ननदोई , मामा ससुर के साथ 26 दिसंबर को यहां आ गई। उसके बाद से वह चंबल के दूसरे तट पर हुंडई कंपनी के शिविर में रह रही है। उसकी हालत से परिजन भी चिंतित हैं। मामा अमोल बिश्वास ने बताया कि कोई भी शव मिलने की सूचना पर लिपि घबरा जाती है। पूरा परिवार ईश्वर से किशोर के सही सलामत मिलने की प्रार्थना कर रहा है।
 


अपनों को हादसों में खोने वालों को समर्पित है पुरुषोत्तम 'यक़ीन' की यह ग़ज़ल ....






ख्वाब में आके वो सताने लगा
  •  पुरुषोत्तम 'यक़ीन'

 जिस को चाहा वही सताने लगा
हाथ थामा तो छोड़ जाने लगा


उस की आँखों में कुछ चमक आई
उस का बेटा भी अब कमाने लगा


वो न आया तो फिर ख़याल उस का 
ज़हन में बार-बार आने लगा

धड़कनें उस का नाम रटने लगीं
दिल कभी जब उसे भुलाने लगा

वो नहीं था तो उस का चहरा हसीं
सामने आ के मुस्कुराने लगा

मुंतज़िर दीद की थकी आँखें 
नींद का भी ख़ुमार छाने लगा

उस से रुख़्सत का वक़्त आया तो 
दिल मेरा बैठ-बैठ जाने लगा

नींद आने लगी ज़रा तो 'यक़ीन' 
ख्वाब में आके वो सताने लगा

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(समाचार दैनिक भास्कर से साभार)

शनिवार, 2 जनवरी 2010

चांदनी चौक से इंडिया गेट

राठा गली में प्रवेश के पहले हम चांदनी चौक की मुख्य सड़क से गुजरे तो वह ट्रेफिक विहीन थी, और अधिकांश दुकानें बंद थीं। वह सोमवार का दिन था, दुकानें खुली हुई होनी चाहिए थीं। गौर किया तो पता लगा कि जितनी भी ज्वेलरी और सोने-चांदी के व्यवसाय से संबद्ध दुकानें थीं वे सब बंद थीं। बहुत सारे लोग सड़क पर एकत्र थे, जो दुकानदार लग रहे थे। उन में से एक के हाथ में माइक और गले में लटका हुआ पोर्टेबल लाउडस्पीकर था। वे नारे लगा रहे थे। उन के आसपास कुछ पुलिस वाले भी थे। लगता था किसी बात को ले कर दुकानदारों ने दुकानें बंद की थीं और वे इकट्ठा हो कर किसी पुलिस अधिकारी या प्रशासनिक अधिकारी से मिलने जा रहे थे। तभी भीड़ में से कुछ लोगों ने एक दुकान को बंद कराने की कोशिश में हल्ला किया तो दुकानदार ने तुरंत शटर गिरा दिया, शायद वह इस के लिए तैयार था। पुलिस वाले बीच में दखल देने के लिए दौड़े तो भीड़ में से ही कोई आगे आया और हल्ला करने वालों को चुप कराया कि वे शांति पूर्वक प्रदर्शन करें और अपनी बात अफसरों को कहने के लिए चलें। पता लगा वे किसी के हत्यारे को गिरफ्तार करने की मांग कर रहे थे। हत्या का शिकार जरूर कोई व्यवसायी रहा होगा।


म पराठा गली से बाहर आए तब तक प्रदर्शन निपट चुका था। दुकानें खुलने लगी थीं, मुख्य सड़क पर ट्रेफिक चलने लगा था। चांदनी चौक की सड़क पर फिर से रेलमपेल हो चली थी। हम लाल किला दूर से देख पाए। वहीँ से अजय झा को फोन लगाया तो वे गांव से वापसी की यात्रा के लिए ट्रेन में सफर कर रहे थे।  हम मेट्रो से सीधे सैंट्रल सेक्रेट्रियट पहुँचे। अब इंडिया गेट हमारा गंतव्य था ।  हम ने चाहा कि वहाँ से इंडिया गेट तक पहुँचने तक कोई साधन मिल जाए। लेकिन कोई रिक्षा या आटो रिक्षा दिखाई नहीं दिया, जो भी थे सब भरे हुए। पूछने पर पता लगा पैदल ही जाना होगा। हम पैदल चल दिए। कोई पचास कदम बाद हम राजपथ पर थे। एक और राष्ट्रपति भवन और दूसरी ओर इंडिया गेट दिखाई दे रहा था। हम इंडिया गेट की ओर बढ़ चले। पैदल चलते चलते थकान तो हो गई थी, पर कदम नहीं रुके। शोभा कह रही थी -हम कम से कम दो किलोमीटर तो चल ही लिए होंगे।


दम रुके तो सीधे इंडिया गेट जा कर। हम नजदीक जाते उस से पहले ही फोटोग्राफरों ने हमें घेर लिया और चित्रों के लिए अनुरोध करने लगे। हमने उन्हें अनदेखा किया और खुद चित्र लेने लगे। इंडिया गेट को ठीक से निहार कर पीछे बनी छतरी तक गए जिस के आसपास बने पार्क में खूबसूरत फूल खिले थे। एक लड़का जो शायद माली रहा होगा। तभी छतरी पर चढ़ा और वहाँ कुछ देखने लगा। मुझे बुरा लगा कि वह वहाँ था और बीच-बीच में बीड़ी के कश ले रहा था। यूँ तो ऐसे सार्वजनिक स्थल पर धुम्रपान वर्जित ही होना चाहिए। कानून कुछ भी क्यों न कहता हो। लेकिन ऐसे राष्ट्रीय स्मारक पर उस की देखभाल के लिए ही सही चढ़े होने पर तो धुम्रपान करने जैसी यह हरकत बहुत ही नागवार लग रही थी।  मुझे लगा वह पूरे देश का अपमान कर रहा था। मैं वापस पिछली ओर जहाँ ज्योति जल रही थी आ कर खड़ा हो गया। वहाँ एक अभिभावक बच्चे को समझा रहा था। ज्योति के सामने निश्चल खड़ा सैनिक कोई प्रतिमा नहीं अपितु जीता जागता जवान है। वह लगातार निश्चल खड़ा था। हम वहाँ घंटे भर रहे लेकिन इस बीच हम ने उसे हिलते हुए न देखा।


म पैरों को आराम देने के लिए पास ही पार्क में बैठ गए, वहाँ से वातावरण को निहारते रहे। हम ने वहीँ कॉफी पी और  पूर्वा व शोभा के कुछ चित्र लिए जो मोबाइल से लिए जाने के बावजूद बहुत अच्छे निकले। सूरज इंडिया गेट के पीछे डूब रहा था। हम चल दिए। एम्स जाने वाली बस के लिए पूछताछ की जो पास ही यूपीएससी स्टॉप पर मिल गई। एम्स से फरीदाबाद  के लिए सीधी बस मिल गई। हम रात को नौ बजे के पहले पूर्वा के आवास पर थे।