@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

सोमवार, 21 नवंबर 2016

सिकुड़न

कविता



____________ दिनेशराय द्विवेदी





अहा!
वह सिकुड़ने लगा

लोग उसे आश्चर्य से देख रहे हैं
वे भी जो अब तक
उसे सिर पर उठाए हुए थे

कुछ लोग तलाश रहे हैं
कहाँ से पंक्चर हुआ है
वे पकड़ कर
उसे तालाब के पानी में
डूबोना चाहते हैं
देख सकें कि हवा
निकल कहाँ से रही है

वह तालाब में घुस ही नहीं रहा है
सारे लोगों की ताकत कम पड़ गई है
बस सिकुड़ता जा रहा है

उन्हों ने उसे तालाब मे घुसेड़ने
की कोशिश छोड़ दी है

आखिर सिकुड़ते सिकुड़ते एक दिन
हो ही जाएगा पिचका हुआ गुब्बारा
तब बच्चे फुलाएंगे उस की छोटी छोटी चिकोटियाँ
और फिर
मुक्का मार कर फोड़ देंगे

अहा!
वह सिकुड़ने लगा है।

ईमान का उत्सव

कविता 

__________  दिनेशराय द्विवेदी


एक शाम उस ने कहा
कि उसे वे रंग पसंद नहीं है
आधी रात से ये रंग कानून से खारिज
अगले दिन अवकाश रहा
तीसरे दिन से सारा देश लाइन में खड़ा है
कि शहंशाह के रंग के चंद
कागज के टुकड़े मिल जाएँ
कुछ चहेतों को मिले
बाकी अभी भी लाइन में खड़े हैं

देश में अमीर भले ही हों
पर देश तो अमीर नहीं है, इसलिए
लाइन में केवल गरीब खड़े हैं
लाइन में खड़े खड़े मरने वालों
का अर्धशतक कभी का बन चुका है
शतक की तैयारी है
सारे अमीर कहाँ हैं?
किसी को पता नहीं

सरकार झूठ बोल रही है कि
चेस्ट भरे पड़े हैं
पासबुक और चैक बेकार हो गए हैं
बैंकों के पास देने को नोट नहीं हैं
बैंक हैं ये कोई इन्सान होता तो
अब तक दिवालिया घोषित हो जाता
चाहत पर नोट उगलने वाली मशीनें खामोश हैं
पता नहीं उन्हें कब्ज हुआ है या आनाह
वैद्य लोग इलाज में मशरूफ हैं

शहंशाह की पसंद के रंग कागज
लोगों के हाथ में पहुँचने के पहले ही
रिश्वत देते पकड़े जा रहे हैं
बस एक रंग वे ही चमक रहे हैं
जिन पर शहंशाह की नजर
अभी पड़ी नहीं है
लेकिन कौन बता सकता है
शहंशाह की नजर कब उन पर पड़ जाए?
शायद शहंशाह भी नहीं

नए रंगों के अभाव में
कारखाने बंद हो गए हैं
लेकिन खेत और बगीचे
तो बंद नहीं हो सकते
उन में उग रही हैं सब्जियाँ
फल और फसलें
उन का कोई खरीददार नहीं है
उन के लिए बीज, खाद
और कीटनाशक खरीदने को
नए रंग के कागज नहीं हैं
फल और सब्जियाँ
पेड़ और पौधों पर सूख रहे हैं
या फिर मंडियों गोदामों में सड़ने लगे हैं
मासूम लोग अचानक
अपराधी नजर आने लगे हैं
नए रंगों के कागज
काला बाजार घूम रहे हैं

शहंशाह के धमकी भरे फरमान
कुछ घरों पर पहुँचे हैं
वहाँ मातम है
पूरी गली, मुहल्ले
गाँव के गाँव
शहर के शहर
सहमे पड़े हैं
पता नहीं कब, किस के घर
आ जाए फरमान

दरबारी नाच रहे हैं
अथक अनवरत
पूरी तरह होश खो देने तक
या फिर होश में आने तक
शंहशाह ईमान का उत्सव
मना रहा है

शनिवार, 19 नवंबर 2016

अब की बार झूठी सरकार

ज शनिवार है, अदालत में सिर्फ एक मुकदमा था। साथी के भरोसे छोड़ा और अदालत नहीं गया। मेरे पास नकदी सिर्फ दो-तीन सौ के आसपास रह गयी थी। सोचा था पुराने 500-1000 वाले नोट जमा करवा आउंगा और जितनी नकदी मिल जाएगी उतनी लेता आऊंगा। बैंक गया तो वहाँ बाहर कुछ सीनियर सिटीजन खड़े बतिया रहे थे। दरवाजे पर ही चौकीदार से पूछा नकदी का क्या हाल है? उस ने बताया कि नकदी है ही नहीं। सिर्फ पुराने नोट जमा करने का काम चल रहा है।

अंदर गया तो मैनेजर सीट पर नहीं थे। पता लगा नकदी के इन्तजाम में गये हैं। मैं ने पुराने नोट जमा करा दिए। पूछा तो बताया कि कुछ नकदी मिल जाएगी तो उपस्थित ग्राहकों को देंगे। मुझे एक लिफाफा रजिस्टर्ड डाक में डालना था तो पास के पोस्टआफिस चला गया। वहाँ हर काउंटर पर कम से कम 20 से 30 लोग लाइन में खड़े थे। मैं ने पूछा रजिस्टर्ड डाक का काउंटर कौन सा है? तो जो लाइन बताई गयी उस में 28 लोग थे। उस में नोट एक्सचेंज वाले लोग भी थे। पूछने पर पता लगा सभी काउंटर अपने अपने काम के साथ साथ नोट एक्सचेंज का काम भी कर रहे हैं। अपनी तो एक रजिस्ट्री के लिए इत्ती देर लाइन में खड़े रहने की हिम्मत नहीं थी। बस पोस्ट आफिस से बैरंग लौट आया।

भी याद आया चैक बुक भी नहीं है। इस दुष्काल में चैक बुक तो होनी चाहिए। मैं वापस बैंक आया जिस से चैक बुक के लिए आवेदन दर्ज करवा सकूँ। तब तक बैंक मैनेजर आ चुके थे। मैं उन से बतियाने लगा। उन्होंने बताया कि चार दिन से सिर्फ चार पाँच लाख रुपया मिल रहा था। हम एक्सचेंज वालों के साथ अपने ग्राहकों को खाते से भी दो दो हजार ही दे रहे थे। जिस से अधिक से अधिक लोगों को राहत मिल सके। पर आज तो मैं पाँच बैंकों में हो कर आ गया हूँ। केवल चेस्ट वाली कुछ ब्रांचोंं के पास कैश नहींं है।

बैंक की यह शाखा नगर विकास न्यास परिसर में है। न्यास के कर्मचारियों को वेतन भी यहीं से मिलता है। न्यास ने वेतन तो बैंक को दे दिया है और बैंक ने कर्मचारियों के खाते में डाल दिया है। लेकिन बैंक के पास इतना कैश नहीं कि वह सब को वेतन दे सके। उन्हें भी वही दो दो हजार मिले हैं। इस से कैसे कर्मचारी काम चलाएँ उन की समझ में नहीं आ रहा है। एक कर्मचारी नेता ने बैंक मैनेजर से बैंक के किसी उच्चाधिकारी का फोन नंबर लिया और ऊंची आवाज में फोन पर बात करने लगा।

खिर पता लगा कि समस्या का कोई हल नहीं है। रिजर्व बैंक तक में नकदी नहीं है। छपेगी तब आएगी। खबर ये है कि नकदी छापने के लिए स्याही और कागज भी नहीं है। देश आने वाले दिनों में कैसे चलेगा? इस का पता किसी को नहीं है। सरकार स्पष्ट कुछ नहीं बता रही है। चेस्ट भरे पड़े होने की वित्त मंत्री की बात भी मिथ्या ही प्रतीत होती है। कोटा में तो चेस्ट खाली हैं। मुझे तो लगता है "अब की बार झूठी सरकार" आ गयी है। 
 

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

ईमानदारी का पर्व

मुझे बहुत कम ही बैंक जाना पड़ता है। बैंक नोट भी मेरे पास अधिक नहीं रहते हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं ज्यादा नोट संभाल सकता हूँ तो चार पाँच हजार रुपयों के नोट भी बहुत कम अवसरों पर मेरे पास होते हैं। पर्स में अक्सर हजार पन्द्रह सौ से अधिक रुपया नहीं रहता। कभी पर्स घर भूल भी जाता हूँ तो मुझे कभी परेशानी नहीं होती। दिन निकल जाता है। अभी भी मेरे पर्स में दो पाँच सौ के नोट हैं पुराने वाले। उस के अलावा कुछ सौ पचास के नोट हैं।

अधिकतर बिल्स में ऑनलाइन चुकाता हूँ। कुछ स्थाई क्लाइंट मेरा भुगतान मेरे खाते में करते हैं। उस से वे बिल चुकते रहते हैं। शेष क्लाइंट नकद भुगतान करते हैं तो पर्स में रख लेता हूँ, अक्सर उन्हे मैं घर पर उत्तमार्ध को सौंप देता हूँ। अगली सुबह पर्स में फिर वही उतने नोट होते हैं कि जरूरत पड़ जाए तो कार में पेट्रोल डलवा लूँ और छोटा मोटा खर्च कर सकूँ। उत्तमार्ध मेरी बैंक है। इस बैंक में कित्ते रुपए मेरे खाते में हैं? जब भी पूछता हूँ तो वह खाली बताया जाता है। फिर भी मुझे अपनी जरूरत के मुताबिक रुपया हमेशा वहाँ से मिल जाता है। मेरी ये जरूरत हजार के आसपास से कभी कभार ही अधिक होती है।

ब से नोट बंदी हुई है मेरे पास फीस जमा कराने कोई नहीं आ रहा है। नतीजा ये है कि एक बार दस हजार रुपये निकलवा कर लाया था जो अब खत्म होने को हैं। एक दो दिन में ही बैंक से रुपया निकलवाना पड़ेगा। लाइन में खड़ा होना मेरे लिए संभव नहीं है। पिछली बार बैंक मैनेजर ने मुझे खड़ा न होने दिया था। लेकिन इस बार मुझे चिन्ता लगी है। कि कहीं वह मेरी मदद ही न कर पाए तो।

मेरे पास जो दो नोट पाँच सौ वाले पुराने हैं उन्हें तो कभी भी पेट्रोल भराने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए बदलने की कोई जल्दी नहीं है। उत्तमार्ध जी अभी नोट बदलवाने को कह नहीं रही हैं। पर कभी तो कहेंगी। मैं ने उन्हें कह दिया है कि जितने भी होंगे उन्हें मैं अपने खाते में जमा करवा कर उतने ही वापस निकलवा कर उन के हवाले कर दूंगा। बस उन्हें मुझ से मुगल काल के धनिकों की तरह यह भय हो सकता है कि मुझे उन के बैंक की माली हालत पता नं लग जाए। उस वक्त शहंशाह मृत्यु के बाद सब कुछ जब्त कर लेता था वारिसों को उन की जरूरत के मुताबिक ही देता था। नतीजे में वे अपने मकान तक अच्छे न बनवाते थे और धन को जमीन में गाड़ कर रखते थे। लगता है जमीन में धन धातु वगैरा के रूप में गाड़ने का प्रचलन वापस आने वाला है।

बुरा यह लग रहा है कि आजकल बैंक साहुकार से भी बुरी स्थिति में हैं। बेचारे तभी तो देंगे जब उन के पास रुपया आएगा। रुपया तो रिजर्व बैंक देगा। खबर ये है कि जितना रुपया छापा गया था वह तो खत्म हो चुका है। बाकी तब आएगा जब वह छपेगा। खबर ये भी है कि कागज और स्याही खत्म होने को है और नए टेंडर नहीं किए गए हैंं। वह भी शायद इसलिए कि गोपनीयता भंग न हो। यह गोपनीयता ही जान की मुसीबत हो गयी है। मैं जिन्हें काले धन वालों के रूप में जानता हूँ उन में से कोई भी चिन्तित नहीं नजर आ रहा है। लगता है मुझे ही गलतफहमी थी कि वे कालाधन वाले हैं। वे तो पूरे सफेद दिखाई दे रहे हैं। मुझे तो यही समझ नहीं आ रहा है कि काला धन इस देश में था भी कि नहीं? या वह केवल अफवाह थी। भ्रष्टाचार में कोई कमी भी नहीं दिख रही है। अंडरग्राउंड सौदोें की खबरें वैसी ही हैं जैसी पहले थीं। बस भक्तगण जरूर नशे में हैं और ईमानदारी का पर्व मना रहे हैं।

रविवार, 30 अक्टूबर 2016

दीपावली : मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य का त्यौहार




नाजों में ज्वार और धान की फसलों में बीज पक चुके हैं। बस फसलों को काट कर तैयार कर घर लाने की तैयारी है। फसल घर आने के बाद लोगों के पास वर्ष भर का खाद्य होगा और भोजन की चिन्ता वैसी नहीं रहेगी जैसी कृषि आरंभ होने के पहले हुआ करती थी। जब हमें (मनुष्य) को फल संग्रह, शिकार और पशुपालन पर निर्भर रहना पड़ता था। उस अवस्था में मनुष्य लगभग खानाबदोश होता था। उसे हमेशा ऐसे इलाके की तलाश होती थी जहां पशुओं के लिए चारा बहुतायत में हो और अन्य खाद्य व उपयोगी पदार्थों की प्राकृतिक उपज सहज मिल जाती हो। संभवतः इन्हीं की तलाश में मनुष्य अफ्रीका में पैदा हो कर दुनिया के कोने कोने तक पहुँचा। पर कृषि का आविष्कार ही वह महत्वपूर्ण मंजिल साबित हुई जिस ने उसे एक स्थान पर घर और बस्तियाँ बसा कर रहने लायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कीं। वर्षा ऋतु के अवसान पर जब फसलें खेतों में लहलहा रही हों। फसलों की नयनाभिराम हरितिमा सुनहरे रंग में परिवर्तित हो रही हो। तब मन अचानक ही उमग उठे, कोई ढोली अचानक ढोल पर थाप दे और ताल सुन कर नर-नारियों के पैर थिरक उठे यह स्वाभाविक ही है। खेतों में इकट्ठा हुए इस स्वर्ण को घर लाने के पहले उस के स्वागत में गांवों के लोग दीपमालाएँ सजा कर गांवों को जगमगा दें यही दीवाली पर्व है।

दीवाली मनुष्य की भौतिक समृद्धि का त्यौहार है, यह भौतिक समृद्धि किसी अतीन्द्रीय शक्ति की देन नहीं है अपितु वर्षों के श्रम और अनुभव के योग से मनुष्य ने स्वयं प्राप्त की है। खेतों से घर लाई जा रही इस समृद्धि के स्वागत के लिए हम बरसात से खराब हुए घरों  को हम साफ करते हैं, संवारते हैं, सजाते हैं। एक व्यवस्था बनती है जिस में ढंग से रहने और फसलों को संग्रह कर सुरक्षित करने के प्रयास सम्मिलित है। यह मनुष्य के श्रम की विजय का त्यौहार है जो उस के जीवन से अंधकार को दूर करता है। यह समृद्धि जो घर लाई जा रही है वह उस के श्रम से उत्पन्न हुई है। वही लक्ष्मी है, लक्ष्मी का एक नाम श्रमोत्पन्ना है।

जैसे जैसे मनुष्य की सामुहिक चेतना ने धार्मिक रूप ग्रहण किया। वैसे वैसे समृद्धि के इस त्यौहार के साथ घटनाएँ और मिथक जुड़ते चले गए। ऐतिहासिक रूप से देखें तो दीवाली सब से पहले भगवान महावीर के निर्वाण दिवस के रूप में जैन मनाने लगे। जैन पद्धति पूरी तरह नास्तिक पद्धति थी, उस का किसी आस्था या अतीन्द्रीय शक्ति से कोई संबंध न था। महावीर जिन्हों ने अपने कर्म से भगवान का दर्जा प्राप्त किया था उन की विदाई एक दुखद घटना के रूप में भी स्मृति में रखी जा सकती थी। लेकिन वे एक जीवन शैली निर्धारित कर गए थे। इस घटना को समृद्धि के त्यौहार के दिनों में एक दुखद घटना के रूम में मनाना मनुष्यों को न भाया जैन उसे प्रकाश पर्व के रूप में मनाने लगे। उस के कई वर्षों बाद जब सम्राट अशोक ने बोद्ध धर्म अंगीकार किया तो यह वही दिन था जब महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया। बौद्ध धर्म अंगीकार करना अशोक का एक अंधकार से प्रकाश की और पदार्पण करना था। 56 ईस्वी पूर्व में हिन्दू राजा विक्रमादित्य का राज्याभिषेक हुआ  और वह दिन दीपमालिका के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा प्रतीत होता है कि दीपमालिका का आरंभ तभी से हुआ है।

ह काल ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का काल था। रामायण व महाभारत जैसे महाकाव्य इसी काल में लिपिबद्ध हुए। उस के बाद पुराणों की रचना हुई जो लगभग 600 ईस्वी तक चलती रही। तब राम के अयोध्या लौटने, बलि पर वामन की विजय, लक्ष्मी का विष्णु के साथ वरण, पाण्डवों का माता कुन्ती और पत्नी द्रौपदी के साथ वनवास और गुप्तवास से हस्तिनापुर वापस लौटने, नरकासुर पर विजय, देवताओं की रक्षा के लिए दुर्गा का विकराल काली रूप धारण करने आदि के मिथक इस त्यौहार के साथ जुड़ते चले गए। 

म यदि दीपावली पर होने वाली लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती, काली व अन्य देवताओं की पूजा के विवरण में जाएँ तो हमें स्वयं ज्ञात हो जाएगा कि यह फसलों को घर लाने वाला समृद्धि का त्यौहार ही है। बाद में सिखों के तीसरे गुरू अमरदास जी द्वारा सिख पंथ को संस्थागत रूप देने, छठवें गुरू हरगोविंद जी की अन्य राजाओं के साथ मुक्ति और अमृतसर के स्वर्ण मंदिर के शिलान्यास के दिन  भी इसी त्यौहार के साथ जुड़ गए। 

नुष्य के खेती का आविष्कार कर लेने से उत्पन्न भौतिक समृद्धि को घर लाने का यह त्यौहार धीरे धीरे अनेक कथाओं कहानियों को स्वयं के साथ जोड़ता चला गया और एक प्रकार से यह भारतीय उपमहाद्वीप की विविधता को एक पर्व में समेट लेने के अद्भुत त्यौहार के रूप में हमारे बीच विद्यमान है। इस त्यौहार पर किसी एक धर्मावलंबियो का अधिकार नहीं है। यह भारत में जन्मे लगभग सभी धर्मों के अनुयायियों का त्यौहार है। हर त्यौहार एक बड़ी आर्थिक गतिविधि भी होता है, इस तरह मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि अन्य भारतीय धर्मावलंबी भी इस त्यौहार से इस कदर जुड़ चुके हैं कि उन के योगदान के बिना इस त्यौहार को पूरा कर पाना संभव ही लगता है। यह त्यौहार जितना धार्मिक विश्वासियों का है उतना ही अपितु उस से अधिक उन अविश्वासियों का है जिन्हें हम नास्तिक के रूप में पहचानते हैं। मनुष्य की भौतिक समृद्धि में नास्तिकों का भी उतना ही योगदान है जितना कि आस्तिकों का। वे किसी देवता या ईश्वर को नहीं मानते, वे किसी तरह की अतीन्द्रीय शक्तियों की पूजा करने में विश्वास नहीं रखते लेकिन वे मनुष्य के श्रम का आदर करते हैं, उस की शक्ति को पहचानते हैं। समृद्धि के इस त्यौहार से वे कैसे अलग और अछूते रह सकते हैं। भारतीय महाद्वीप की अनेकता में एकता के इस रूप में वे भी शामिल हैं। वे मनुष्य के सामुहिक श्रम और मेधा की विजय और प्रकृति के साथ उस के सामंजस्य के त्यौहार के रूप में उसे मना सकते हैं, बल्कि उन्हें मनाना चाहिए।

शनिवार, 17 सितंबर 2016

अनन्त चौदस पर क्यों डुबोए जाते हैं गणपति?


गणपति उत्सव को सर्वप्रथम शुरू करने वाले बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणपति बिठाया। दस दिन तक सभा और सम्मेलनों को संबोधित किया। बिठाये गये गणपति की दसवें दिन फेरी निकाली। गणपतिका दर्शन सभी के लिए खुला रखा था। मौके का भरपूर फायदा उठाते हुये एक चमार ने मूर्ति के दर्शन करने के क्रम में उसे छू ही डाला।


गणपति को अपवित्र कर डाला! गणपति अपवित्र हो गया! कहते हुये सभी प्रकार के ब्राह्मणों में भयानक खलबल मच गयी। सभी तिलक को गरियाते हुये कहने लगे कि देखा! गणपति को सार्वजनिक किया तो इस प्रकार धर्म डूब गया। कौन ब्राह्मण इस मूर्ति को अपने घर में रखेगा? तब तक फेरी पुणे के बाहर और मुला-मुठा नदी तक आ चुकी थी। तभी आराम से तिलक ने कहा चिल्लाते क्यों हो.? शांत रहो ....मैं धर्म को डूबने कैसे दूंगा! धर्म को डुबाने की अपेक्षा हम इस अपवित्र मूर्ति को ही डूबा देते हैं।

... और इस प्रकार गणपति को डूबा दिया गया। तभी से प्रत्येक वर्ष 10 दिन तक तमाम अछूतों द्वारा अपवित्र हुये गणपति को डुबा दिया जाता है। जिसे कलम कसाई विसर्जन कहते हैं।

रविवार, 24 अप्रैल 2016

ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?


मारे गाँवों में बस्ती के नजदीक खलिहान होते थे। फसल काट कर लाने और तैयार करने के वक्त सिवा यही खलिहान दूसरे दूसरे कामों में आते थे। मसलन, बच्चों के खेलने की जगह और शादी-मुंडन वगैरा समारोहों के लिए। हर गाँव में चरागाह हुआ करती थी मवेशियों को चरने के लिए। इस के अलावा पगडंडियाँ और बैलगाड़ियों के चलने के लिए गडारें हुआ करती थीं। हर गाँव के पास कम से कम अपना एक तालाब, कुछ तलैयाँ और पोखर हुआ करते थे।


इन में से अधिकांश अब सिरे से गायब हैं। खलिहानों तक गाँव पसर चुके हैं, वहाँ बढ़ती आबादी के लिए घर बन गए हैं। चरागाह पर खेतीहरों ने कब्जे कर लिए हैं। तालाब हाँक दिए गए हैं, तैलायाएँ पाट दी गयी हैं, वे या तो खेतों में शामिल हैं या फिर उन पर निर्माण हो चुके हैं। अधिकांश पगडंडियाँ गायब हैं और गडारें भी ज्यादातर खेतों में शामिल हो गयी हैं। अब खाली जगह कहीं नहीं।


तालाब, तलैयाएँ और पोखर बरसात के पानी को जमा करते थे। जो साल में कभी दस माह तो कभी बारह माह तक काम आता था। इस के अलावा इन से भूगर्भ भी चार्ज होता रहता था और वातावरण में नमी रहती थी। भूगर्भीय जल का उपयोग केवल पीने के पानी के लिए अथवा तब होता था जब तालाब, तलैयाएँ और पोखर पूरी तरह सूख जाते थे। इन सब के साथ साथ पेड़ भी गायब हुए हैं। कोई अब अपने खेत की मेढ़ पर पेड़ को रहने नहीं देता, जहाँ छाया पड़ती है वहाँ फसल कम होती है या नहीं होती।


अब हमारे पास ट्यूबवेल हैं। घरों में भी और खेतों में भी। हम साल भर उन से पानी खींचते हैं, बरबाद करते हैं। धरती के पेट में पानी असीमित नहीं है। वह नीचे जाता जाता है और अंततः हमें सूखा पेट मिलता है। गर्मियाँ बाद में शुरू होती हैं हैण्डपंप पहले बजने लगते हैं।


पानी कहीं जाता नहीं है। वह जमीन में रहता है, हवा में उड़ जाता है या नदियों से बह कर समंदर तक पहुँच जाता है। एक बरसात की प्रक्रिया है जो इस सारे पानी का आसवन करती है। समंदर के पता नहीं क्या क्या मिले पानी को सूरज की गर्मी के सहारे हवा सोखती है और नम हो कर धरती पर घूम घूम कर बरसात कराती है।


हवा की बरसात कराने की क्षमता भी सीमित है, पर इतनी सीमित भी नहीं कि वह धरती के बच्चों की जरूरत पूरी नहीं कर सके। बच्चे ही नालायक हों बरसात के पानी को साल भर सहेजने का उद्यम करने से बचते रहें, जो कुछ शैतान बच्चे हैं वे पहले तो सहेजने के साधन नष्ट करें, फिर धरती के पेट में जमा पानी पर कब्जा कर उस का बाजार लगा कर मुनाफा कमाएँ तो ये हवा, ये सूरज, ये समन्दर, ये बरसात क्या करे?

... दिनेशराय द्विवेदी