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मंगलवार, 13 सितंबर 2011

सारा मीडिया अपराधी और दोषी है

ज से श्राद्धपक्ष आरंभ हो गया है। उस के साथ ही तमाम मीडिया चाहे वे अखबार हों या टीवी चैनल श्राद्ध को महिमामंडित करने में जुट गया है। इस काम को करते हुए हिन्दी मीडिया की भूमिका किस तरह की है? हमें उस की जाँच करनी चाहिए कि वह जनपक्षीय है या जनविरोधी? वह किस तरह के विचारों को जनता के बीच प्रचारित कर रही है? रविवार को दैनिक भास्कर के सभी संस्करणों ने श्रीयुत राजेश साहनी ज्योतिषविद् एवं ज्योतिष सलाहकार का आलेख 'बुजुर्गो के प्रति श्रद्धा पितृ-दोष से मुक्ति' प्रकाशित किया है।  

श्रीयुत साहनी अपने आलेख के प्रारंभ में रामायण, पुराणों और गीता का उल्लेख करते हुए यह स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं कि  पूर्वजों द्वारा किए गए कर्मों का नतीजा उन के वंशजों को भुगतना पड़ता है, यही पितृदोष है। वे समाधान बताते हैं कि कर्मकांड पूर्वक श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न हो जाते हैं। पितरों के प्रसन्न होने से जीवन की समस्याओं का समाधान हो जाता है और पितृदोष से मुक्ति मिलती है।  श्रीयुत राजेश का सारा ध्यान यह समझाने पर है कि आज व्यवस्था के दोषों के कारण जनता जिस तरह का कष्टमय जीवन जी रही है उस का मूल कारण यह व्यवस्था नहीं, अपितु तुम्हारे पितरों द्वारा किए गए दुष्कर्म हैं। इसलिए तुम्हें व्यवस्था को दोष देने के स्थान पर श्राद्ध करने चाहिए।  श्रीयुत राजेश का यह कुतर्क कि पितरों को प्रसन्न करने से ग्रहों और देवताओं की कृपा होती है मेरे गले नहीं उतरा, शायद आप के गले उतर जाए। जो पितर स्वयं दुष्कर्म के दोषी थे उन के प्रसन्न हो जाने से ग्रहों और देवताओं को प्रसन्न करने की श्रीयुत राजेश की जुगत वैसी ही है जैसे किसी का पिता किसी अपराध के लिए जेल में बंद हो, तो जेल अधिकारियों को कुछ खिला-पिला कर पिता को सुविधाएँ पहुँचा कर प्रसन्न कर दिया जाए तो संतान उस अपराध के लांछन से मुक्त हो जाएगी?

श्रीयुत राजेश जी केवल शास्त्रों में ही दखल नहीं रखते, वे विज्ञान और खास तौर पर खगोल विज्ञान में भी महारत रखते हैं। उन्हें पितरलोक का पता भी मालूम है। वे कहते हैं  ...  चंद्रमा द्वारा पृथ्वी की एक परिक्रमा लगभग 27 दिन 7 घंटे 45 मिनट में पूर्ण होती है। उल्लेखनीय है कि चंद्रमा का एक भाग ही पृथ्वी की ओर रहता है, दूसरा भाग पृथ्वी की ओर कभी नहीं आता। चंद्रमा जितनी कालावधि में पृथ्वी की एक परिक्रमा पूर्ण करता है, उतने ही कालखंड में वह अपने अक्ष पर एक बार घूम जाता है, इस कारण चंद्रमा का एक भाग सदैव पृथ्वी की ओर होता है, तो दूसरा भाग अदृश्य। चंद्रमा का अदृश्य अंधकारमय भाग, जो पृथ्वी की ओर नहीं आता, उसे पितृलोक माना जाता है। 

मैं ने कुछ देर के लिए श्रीयुत राजेश की इस बात को मान लिया कि चंद्रमा का वह भाग जो कभी पृथ्वी की ओर नहीं आता वह पितरलोक है। पर उन की इस प्रस्थापना ने कि वह भाग अदृश्य है और अंधकारमय भी अपने भेजे में घुसने से मना कर दिया। एक तो अमावस के दिन वह भाग पूरी तरह प्रकाशित रहता है, इस तरह उसे अंधकारमय कहना गलत है। फिर वह अदृश्य भी नहीं है, अमावस के रोज उस पूरे भाग को चंद्रमा के पिछली ओर जा कर देखा जा सकता है।  अचानक श्रीयुत राजेश का मस्तिष्क तुरंत रोशन हो उठता है, और चंद्रमा के पृष्ठ भाग जिसे वे पितर लोक बता रहे हैं के लिए कहते हैं कि जब हमारे यहाँ (पृथ्वी पर) अमावस्या होती है तो पितरलोक में मध्यान्ह होता है और यह पितरों के भोजन का समय होता है। इसी कारण अमावस्या के दिन हम श्राद्धकर्म करते हैं। लेकिन श्रीयुत राजेश जी का मस्तिष्क जिस बत्ती के जलने से रोशन हो उठा था वह तुरंत ही बुझ जाती है, (वे चाहें तो इस के लिए बिजली सप्लाई कंपनी को दोष दे सकते हैं) वे तुरंत चंद्रमा के पृष्ठ भाग पर सदैव के लिेए अंधकार कर देते हैं। वे कहते हैं  ...   वैज्ञानिक मतानुसार भी चंद्रमा की नमीयुक्त सतह पर दिशा सूचक यंत्र कार्य नहीं करते तथा एक भाग सदैव अंधकार से आच्छादित रहता है, जो चंद्रमा पर पितृ-लोक संबंधी अवधारणाओं की पुष्टि करता है।

बेचारे वैज्ञानिक बरसों से चंद्रमा पर नमी तलाश रहे हैं, फोटू खींच-खींच कर परेशान हैं कि किसी तरह बूंद भर पानी का पता लग जाए। वे पता नहीं लगा पाए। उन्हें तुरंत श्रीयुत राजेश जी से संपर्क कर के उन वैज्ञानिकों का पता प्राप्त कर लेना चाहिेए जिन्हें चंद्रमा के नमीयुक्त भाग का पता मालूम है और जहाँ जा कर उन के दिशासूचक यंत्र फेल हो गए थे।  श्रीयुत राजेश जी विश्वास जल्दी ही डिग जाता है कि पाठक राजा दशरथ की कहानी पर विश्वास कर लेंगे।  पाठकों का विश्वास कायम रखने के लिए वे तुरंत अपनी फलित ज्योतिष को सामने ला खड़ा करते हैं। वे सूर्य, शनि, राहु, के साथ-साथ शुक्र और बृहस्पति को दोष देने लगते हैं कि वे किसी के जन्म के समय किसी खास स्थान पर क्यों थे? जल्दी ही अपने धंधे पर आ कर राशियाँ और पितृदोष से मुक्ति के शुद्ध भौतिक उपाय बताने लगते हैं। 

गभग सभी अखबार इस तरह के आलेख प्रकाशित कर रहे हैं, टीवी  चैनल्स पर तो यह काम चीख-चीख कर होता है। खास मेक-अप में खास लोग आ कर अदालत के हरकारे की तरह आवाज लगाते हैं ... मेष राशि वालों .............. ओं !!!!!!!!! मुझे हंसी चलती है, लेकिन पीड़ित लोग उसे ध्यान से सुनते हैं और उलझ जाते हैं। मुझे तुंरत यू. आर. अनंतमूर्ति की कृति और उस पर आधारित गिरीश कासरवल्ली की पहली फिल्म "घटश्राद्ध" स्मरण होने लगती है जो श्राद्ध के कर्मकांड के पाखंड और उस में फँस कर बिन जल मीन की तरह छटपटाते जन की कहानी उजागर करती है। इस तरह के आलेख जनता को उसी जाल में फँसाए रखना चाहते हैं जिस जाल में फँसे रहने के कारण इस देश की जनता को देशी-विदेशी सामंत और आक्रान्ता लूटते रहे। इस तरह वे आज के शोषक पूंजीवादी निजाम की रक्षा करते हैं।

नुष्य के जन्म से ले कर आज तक मानव जाति की जितनी पीढ़ियाँ गुजरी हैं, सभी पीढ़ियों के मनुष्य ने जीवन जीते हुए अनुभव अर्जित किए, संपत्ति अर्जित की जिसे वे आने वाली पीढ़ियों के लिेए छो़ड़ गए हैं। हमें उन के अनुभव शिक्षा के रूप में प्राप्त होते हैं। जिन के आधार पर हम पूर्वजों के आगे का विकसित जीवन जीते हैं। हम पर हमारे पूर्वजों का कर्ज है। लेकिन यह कर्ज ब्राह्मणों को भोजन करवा कर नहीं उतारा जा सकता। उसका तो सब से सही तरीका यही है कि हम अपना जीवन जीते हुए नए अनुभव अर्जित करें और पूर्वजों से प्राप्त शिक्षा में उनका योग करते हुए आगे आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा रुप में छोड़ जाएँ। श्राद्ध-पक्ष में हम परिवार और मित्रों सहित एकत्र हो कर अपने पूर्वजों का स्मरण करें, उस में कोई बुराई नहीं। लेकिन इस स्मरण को कर्मकांड, पितृदोष आदि से जोड़ कर देखना गलत है और दिखाना मनुष्यता के प्रति अपराध। हमारा सारा मीडिया इस अपराध का दोषी है।

शनिवार, 10 सितंबर 2011

समृद्धि और संयुक्त परिवार की संपत्ति में अधिकारों का दस्तावेज - रोट अनुष्ठान

'रोट', यह शब्द रोटी का पुल्लिंग है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि रोटी पहले अस्तित्व में आई अथवा रोट। दोनों आटे से बनाए जाने वाले खाद्य पदार्थ हैं। रोटी जहाँ रोजमर्रा के उपयोग की वस्तु है और कोई भी व्यक्ति एक बार में एक से अधिक रोटियाँ खा सकता है। वहीं एक रोट एक साथ कई व्यक्तियों की भूख मिटा सकता है। रोटी जहाँ उत्तर भारतियों के नित्य भोजन का अहम् हिस्सा है और उस के बिना उन के किसी भोजन की कल्पना नहीं की जा सकती। भोजन में सब कुछ हो पर रोटी न हो तो क्षमता से अधिक खा चुकने पर भी उत्तर भारतीय व्यक्ति स्वयं को भूखा महसूस करता है। लेकिन रोट वे तो जिन परिवारों में बनते हैं वर्ष में एक ही दिन बनते हैं ओर जिन्हें पूरा परिवार पूरे अनुष्ठान और आदर के साथ ग्रहण करता है। यह रोट अनुष्ठान खेती के आविष्कार से संबद्ध इस पखवाड़े का अहम् हिस्सा है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में यह अभी तक हिन्दू व जैन परिवारों में प्रचलित है। इस विषय पर मैं मैं तीन चिट्ठियाँ गणपति का आगमन और रोठ पूजा, सब से प्राचीन परंपरा, रोट पूजा, ऐसे हुई और समृद्धि घर ले आई गई मैं अनवरत पर लिख चुका हूँ। इस अनुष्ठान को जानने की जिज्ञासा रखने वालों को ये तीनों पोस्टें अवश्य पढ़नी चाहिए।
कुल देवता (नाग) के लिए बना लगभग चौदह इंच व्यास और सवा इंच मोटाई का रोट
रोट अनुष्ठान भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी से आरंभ हो कर भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तक चलता है। हर परिवार या समूह के लिए इन सोलह दिनों में से एक दिन निर्धारित है। हर परिवार इस दिन अपने कुल देवता या देवी या टोटेम की पूजा करता है और रोट बना कर उन्हें भेंट करता है। हर परिवार की पद्धति में कुछ भिन्नता है। लेकिन मूल तत्व एक जैसे हैं। स्त्रियाँ इस अनुष्ठान का आरंभ करती हैं। वे अनुष्ठान के दिन से एक दिन पहले ही पूरे घर की सफाई कर चुकी होती हैं। रोट बनाने के लिए अनाज (गेहूँ) को साफ कर उन की धुलाई कर सुखा लिया जाता है। फिर वे ही घर पर उस की पिसाई करती हैं। आटा मोटा पीसा जाता है। आज कल घरों पर चक्कियाँ नहीं रह गई हैं। इस कारण से बाजार की चक्की पर इसे पिसा लिया जाता है। चक्की वाला उस के लिए एक दिन निर्धारित कर अपने ग्राहकों को सूचित कर देता है। उस दिन के पहले की रात को चक्की धो कर साफ कर ली जाती है और उस दिन उस पर केवल रोट का ही आटा पीसा जाता है। सुबह सुबह रसोई और बरतनों को साफ कर स्त्रियाँ पूजा करती हैं और रोट के आटे की निश्चित मात्रा ले कर उन के निर्माण का संकल्प करती हैं। मसलन मेरे यहाँ सवा किलो आटा कुलदेवता के लिए, सवा किलो आटा प्रत्येक सुहागिन स्त्री के लिए, सवा किलो उस के पति के लिए और सवा किलो परिवार की बहनों और बेटियों के लिए संकल्पित किया जाता है। 

शोभा रोट बनाते हुए, प्रत्येए लोए से एक रोट बनना है।
 संकल्पित आटे की मात्रा का यह अनुपात मुझे प्राचीन काल में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में उस के सदस्यों की सहभागिता के अनुरूप मालूम होता है। इस से यह अनुमान किया जा सकता है कि परिवार की संयुक्त संपत्ति में परिवार के प्रत्येक विवाहित पुरुष के का एक भाग, उस की पत्नी का एक भाग और विवाहित और अविवाहित बहनों-बेटियों का कुल मिला कर एक भाग तथा कुल देवता के लिए एक भाग जिस पर परिवार के पुरुषों का संयुक्त अधिकार है। उस का उपभोग करने के भी नियम हैं। कुलदेवता के लिए संकल्पित आटे का एक ही बड़ा मोटा रोट बनाया जाता है। इस का उपभोग परिवार के वे पुरुष ही कर सकते हैं जो किसी एक पूर्वज के पुरुष वंशज हैं। उन के अतिरिक्त कोई भी उन का उपभोग नहीं कर सकता। विवाहित स्त्री-पुरुष का के दो भाग परिवार का कोई भी सदस्य उपभोग कर सकता है। लेकिन बहिन-बेटियों के हिस्से के एक भाग को केवल बहन-बेटियाँ ही उपभोग कर सकती हैं, परिवार का कोई पुरुष या उस की पत्नी नहीं।

रोट बेल दिया गया है, और मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सेके जाने के लिए तैयार है
नुष्ठान के दिन केवल रोट और खीर ही बनाई जाती है, कुछ परिवारों में कोई खास सब्जी भी बनाई जाती है। खाद्य तैयार हो जाने पर परिवार के पुरुष कुल देवी या कुल देवता या टोटेम की पूजा करते हैं। कुछ परिवारों में यह पूजा भी स्त्रियाँ ही करती हैं। फिर परिवार के सभी सदस्य समृद्धि की कामना के साथ पूज्य का स्मरण कर भोजन ग्रहण करते हैं। गणेश चतुर्थी के दूसरे दिन 2 सितम्बर को मेरे यहाँ यह अनुष्ठान हुआ। पूरा दिन इसी में निकल गया। बच्चे भी उसी में व्यस्त रहे। तीन वर्ष पूर्व मेरी पोस्टों पर यह आग्रह हुआ था कि रोट के चित्र भी अवश्य प्रस्तुत करने चाहिए थे। वे चित्र इस बार मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ।

दायीं और उलटे रखे गए मिट्टी के तवे (पोवणी/उन्हाळा) पर सिकता रोट





एक तरफ से पोवणी पर सिक जाने के बाद अब इसे ओवन में सेका जाएगा
अब एक ओवन में है और दूसरा पोवणी पर सेका जा रहा है
कोयले को दूध में बुझा कर घिस कर बनाई गई स्याही से दीवार पर पूजा के लिए बनाया गया कुल देवता (टोटेम-नाग) का चित्र, सामने रखे रोट और खीर, दो रोटों पर दीपक जल रहे हैं।



पत्नी/पति के भाग का रोट

बहन-बेटियों के भाग का रोट

पत्नी शोभा जिस ने कुल परंपरा को सहेजने और उस की निरंतरता बनाए रखने का दायित्व वैवाहिक जीवन के 36 वें वर्ष में भी निभाया







देवी पूजा और गणपति

वैसे तो यह पूरा पखवाड़ा कृषि उपज और समृद्धि से संबंध रखने वाले त्यौहारों का है, जिन के मनाए जाने वाले उत्सवों में मनुष्य के आदिम जीवन से ले कर आज तक के विकास की स्मृतियाँ मौजूद हैं। बेटी-बेटा पूर्वा-वैभव दोनों ईद के दिन ही पहुँचे थे। सारे देश के मुसलमान उस दिन भाईचारे, सद्भाव और खुशियों का त्योहार ईद मना रहे थे तो उसी दिन देश की स्त्रियों का एक बड़ा हिस्सा हरतालिका तीज का व्रत रखे था जिस में पति के दीर्घायु होने की कामना से देवी माँ की उपासना की जाती है। हाडौती अंचल में इस दिन अनेक परिवार रक्षाबंधन भी मनाते हैं। कहा जाता है कि जिन परिवारों में भूतकाल में राखी के दिन किसी का देहान्त हो गया हो वे परिवार श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन को अशुभ मानते हुए हरतालिका तीज को रक्षाबंधन मनाते हैं। मेरे ससुराल में रक्षाबंधन इसी दिन मनाया जाता है। दोनों बहिन-भाई रक्षाबंधन पर नहीं मिल पाये थे और उस के बाद इसी दिन आपस में मिल रहे थे। मेरे साले का पुत्र भी कोटा में ही अध्ययन कर रहा है, उस के लिए तो वह राखी का ही दिन था वह भी आ गया और हमारे घर पूरे दिन रक्षाबंधन की धूम रही। ईद के दिन मैं अपने मित्रों से ईद मिलने जाता हूँ, लेकिन उस दिन घर में ही मंगल होने से नहीं जा सका। 

गला दिन गणेश चतुर्थी का था। वे समृद्धि के देवता कहे जाते हैं। समृद्धि के साथ स्त्रियों का अभिन्न संबंध रहा है। जब तक मनुष्य अपने विकास क्रम में संपत्ति संग्रह करने की अवस्था तक नहीं पहुँच गया था, तब तक समृद्धि का अर्थ केवल और केवल मात्र एक नए सदस्य का जन्म ही था। एक नए सदस्य को केवल स्त्री ही जन्म दे सकती थी। वनोपज के संग्रह काल में वनोपज को संग्रह करने का काम भी स्त्रियाँ ही किया करती थीं। पौधों के जीवनचक्र को उन्हों ने नजदीक से देखा था, जिस का स्वाभाविक परिणाम यह हुआ था कि उन्हों ने ही सब से पहले कृषि का आरंभ किया था। वर्षाकाल के आरंभ में बोये गये बीजों से पौधों का भूमि से ऊपर निकल आना और वर्षा ऋतु के उतार पर उन में फूलों और फलों का निकल आना निश्चय ही समृद्धि का द्योतक था। ऐसे काल में समृद्धि के लिए किसी नारी देवता का अनुष्ठान एक स्वाभाविक बात थी। लेकिन हरतालिका तीज पर देवी पूजा के अगले ही दिन एक पुरुष देवता गणपति की पूजा करना कुछ अस्वाभाविक सा लगता है। लेकिन यदि हम ध्यान से अध्ययन करें तो पाएंगे कि गणपति वास्तव में पुरुष कम और स्त्री देवता अधिक है। (इस संबंध में आप अनवरत के पुरालेख गणेशोत्सव और समृद्धि की कामना और क्या कहता है गणपति का सिंदूरी रंग और उन की स्त्री-रूप प्रतिमाएँ? अवश्य पढ़ें।)

च्चे सुबह से ही कह रहे थे कि मम्मी इस साल गणपति घर ला कर बिठाने वाली है। मेरी उत्तमार्ध शोभा ने मुझ से इस का उल्लेख बिलकुल नहीं किया था। लेकिन मैं ने इस काम में कोई दखल दिया। सोचता रहा कि लाए जाएंगे तब देखा जाएगा। पर दुपहर तक का समय बच्चों से बतियाते ही गुजर गया। गणेश चतुर्थी से अगला दिन ऋषिपंचमी का है, और उस दिन मेरे यहाँ रोट बनते हैं। यह अनुष्ठान भी खेती और उस की उपज से उत्पन्न समृद्धि की कामना से जुड़ा है। इस दिन खीर बनती है। घर में चार सदस्य थे, इस कारण से कम से कम तीन किलो दूध की खीर तो बननी ही थी और दूध की व्यवस्था करनी थी। शाम को शोभा और मैं दोनों गूजर के यहाँ जा कर सामने निकाला हुआ भैंस का तीन किलो दूध ले आए और तीन किलो सुबह लेने की बात कह आए। जब वापस लौट रहे थे तो मार्ग में मूर्तिकार के यहाँ से गणपति की प्रतिमाएँ लाने वाले गणेश मंडलों के जलूस मिले। तब मैं ने शोभा से पूछा तो उस ने बताया कि उस की गणपति लाने की कोई योजना नहीं थी और वह वैसे ही बच्चों से बतिया रही थी। (रोट के बारे में कल चित्रों सहित ...)

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

गए आठ दिन

तारीख बदलने के साथ ही महीने का आठवाँ दिन भी निकल चुका है, और इस माह में यहाँ एक भी चिट्ठी नहीं लिख पाया हूँ। कारणों में मैं नहीं जाना चाहता, बताने लगूंगा तो ऐसा लगेगा जैसे कोई मौसम विज्ञानी मौसम की भविष्यवाणी के लिए आवश्यक कारक गिना रहा है। रक्षाबंधन पर बेटी पूर्वा आ गई थी। उसे सुविधा है कि यदि वह दो दिन पहले भी कोशिश करे तो उसे जन-शताब्दी में यात्रा के लिेए स्थान मिल जाता है। बेटा वैभव मुम्बई में है और भारतीय रेलवे ही घर आने का एक मात्र उपयुक्त साधन। किसी अवकाश का उपयोग करना हो तो तीन माह पहले आरक्षण खुलने के दिन ही चेता जाए। फिर भी आरक्षण मिल जाए तो यह समझना पड़ता है कि लॉटरी लग गई है। बहिन-भाई रक्षाबंधन पर चाह कर भी न मिल पाएँ तो मलाल रह ही जाता है। दोनों ने कोशिश की और उन्हें ईद के अवकाश के आसपास आने जाने के आरक्षण मिल गए। पूर्वा 30 अगस्त को और वैभव 31 अगस्त को घर पहुँच गया, हमारी तो ईद और रक्षाबंधन एक ही दिन हो गए। फिर 4 सितंबर दोपहर बाद वैभव, और 5 सितंबर की सुबह पूर्वा वापस अपने काम पर चल दिए। 
बेटी-बेटे घर आएँ तो घर स्वतः ही एक उत्सव स्थल बन जाता है। फिर इन चार-पाँच दिनों की अवधि में तो नित्य ही कोई न कोई उत्सव घर में घर किए रहा। दिन के लिए चौबीस घंटों का समय कम लगने लगा। लिखने को बहुत कुछ था, बस समय ही नहीं था। बहुत दिनों से लिखने के औज़ार भी तंग कर रहे थे। प्रिंटर ने जो स्केनर, कॉपियर और फैक्स का भी काम कर रहा था, वह पहले ही जवाब दे चुका था। उसे अस्पताल भेजा तो तीन दिन में लौटा, लेकिन काम नहीं कर सका। मेरा तो व्यवसायिक काम ही रुक गया। उसे वापस अस्पताल भेज कर नया 'कैनन 2900 लैसर' लाए। वह केवल प्रिेंट का ही काम कर सकता है, पर करता लाजवाब है। वह ऐसा उत्पाद निकालता है कि मन प्रसन्न हो जाता है। उस से दूसरा कोई काम नहीं लिया जा सकता। फैक्स का काम तो आजकल मेल से निकल जाता है, कॉपियर का काम वैसे भी बाजार से ही कराया जाता था। लेकिन स्केन, वह तो जरूरी है। उस के बिना तो बहुत काम अटक जाते हैं। 


कंप्यूटर ने 2003 में गृहप्रवेश किया था। सेलरॉन प्रोसेसर, 256 जीबी रैम और 40 जीबी हार्ड डिस्क वाले इस साथी ने बहुत साथ निभाया। कुछ परेशानी हुई तो तीन-चार बरस पहले रैम और हार्डडिस्क को दुगना कर लिया गया। लेकिन अब तो उस से काम ही चलाया जा रहा था। रोज ही स्थान रिक्त करना पड़ता था। पूर्वा-वैभव आए तो कहने लगे हमें तो इस पर काम करने में आलस आता है, बहुत इंतजार कराता है। आखिर उसे बदलना तय हुआ। अनेक ब्रांडों पर विचार करने के बाद तय हुआ कि अपने कंप्यूटर वाले को कहा जाए कि वह असेंबल ही कर दे, लेकिन पार्टस् सभी अच्छे हों। 3 सितंबर की रात को जब मैं एक आयोजन से वापस लौटा तो नया सीपीयू माउस, की-बोर्ड के साथ घर आ चुका था और पुराने मॉनीटर के साथ अच्छी संगत कर रहा था। मैं ने टेस्ट राइड की तो ऐसा लगा जैसे मैं साधारण यात्री गाड़ी छोड़ कर सीधे राजधानी एक्सप्रेस में आ बैठा हूँ।

पूर्वा-वैभव के जाने के बाद पाँच सितम्बर की सुबह मैं ने नए साथी से जान-पहचान आरंभ की। वह मेरे लिए लगभग अनजान था। मेरी सारी फाइलें पुराने के साथी के कब्जे में थीं। उन के बिना कोई भी काम कर सकना संभव नहीं था। अच्छा हुआ कि इस नए साथी के आने के पहले मैं सप्ताह भर के मुकदमों की दैनिक-सूची प्रिंट कर चुका था। नहीं तो मेरे लिए यह पता कर पाना भी कठिन हो जाता कि मुझे अदालत जा कर करना क्या है। समझ नहीं आ रहा था कि पुराने साथी से अपनी फाइलें ले कर इस नए साथी को कैसे सौंपी जाएँ। सीपीयू, माउस, की-बोर्ड दो-दो होने से क्या होता है? मॉनीटर भी तो दो होने चाहिए थे। दिन में अदालत में अपने सहायक से कहा तो शाम को वे अपना मॉनीटर दे गए। रात को फाइलों का स्थानांतरण आरंभ हुआ, पेन ड्राइव को मध्यस्थ बनाया गया। वकालत के लिए जरूरी फाइलें हस्तांतरित कर दी गईं। शेष काम अगले दिन के लिए छोड़ दिया गया। सुबह काम करने को बैठे तो पता लगा कि सब से जरूरी फोल्डर की बहुत सी फाइलें अभी भी पुराने साथी के पास ही रह गयी हैं। मुवक्किलों के फोन आने लगे। अदालत जाना पड़ा। शाम को शेष फाइलें भी हस्तांतरित कर ली गईं। देख भी लिया कि कुछ ऐसा तो नहीं छूट गया है जो काम का है। अब पिछले तीन दिनों से नए साथी के साथ काम कर रहा हूँ। नए साथी ने मुझे न समझने की कसम ले रखी है। कहता है कि मेरे साथ काम करना है तो मुझे ही समझना पड़ेगा। कंप्यूटर और इंसान में यही फर्क है। इंसान एक दूसरे को समझ लेते हैं, कंप्यूटर तो इंसान को ही समझना पड़ता है।

ब मॉनीटर पुराना पिक्चर ट्यूब वाला रह गया है, बड़ा और भारी-भरकम सा। दिल कर रहा है इस भारी-भरकम को भी विदा कर के नया स्लिम वाला ले लिया जाए। वैसे भी चाहे पच्चीस हजार से जेब हलकी कर के इसे छोड़ कर सब कुछ नया कर लिया हो, पर इसे देख कर सभी सोचते हैं कि मैं अभी भी पुराने पर ही काम कर रहा हूँ। उधर स्केनर के बिना भी परेशानी है। मैं ने कंप्यूटर वाले को कहा है कि वह सब कुछ पुराना ले जाए और एक नया बीस इंची टीएफटी दे दे। स्केनर की मैं कीमत अदा कर दूंगा। वह कह कर गया है कि कोई ग्राहक देखता हूँ शायद जुगाड़ बैठ जाए!

बुधवार, 31 अगस्त 2011

राज में बहुत पोल है तो तुम भी किसी पोल में घुस जाओ

ल आंदोलन के बाद के पहले दिन का उल्लेख आधा ही कर पाया। राजस्थान में अदालतों में दोपहर का भोजनावकाश 1.30 से 2.00 बजे तक का होता है। लेकिन हाथ में काम को तुरंत तो छोड़ा नहीं जा सकता। इस लिए कभी कभी अदालत से मुक्त होने में 1.45 तक का समय हो जाता है। जब अदालत देर से उठती है तो फिर 2.00 बजे फिर से बैठ नहीं पाती। अक्सर जज को अदालत में आने में ढाई बज जाते हैं। हम लोग भी दोपहर की चाय पर पोने दो बैठते हैं तो फिर उठने तक सवा दो हो जाते  हैं और अदालत तक पहुँचने में हमें भी ढाई बज जाते हैं। अदालत में काम ढाई बजे ही आरंभ हो पाता है। कल भी यही हुआ मुझे एक अदालत से निकलते निकलते 1.40 बज गए। परिसर के मुख्य द्वार पर एक नेताजी उर्फ सेवानिवृत्त सरकार समर्थक कर्मचारी यूनियन के नेता मिल गए। सारे जीवन कर्मचारियों से पैसा खर्च कराते और उन के छोटे मोटे काम कराते रहे।
मुझे देखते ही नेताजी ने जोरदार नमस्ते किया। मैं ने भी उन्हें जवाब दिया। वे किसी के साथ भ्रष्टाचार की समस्या पर बात कर रहे थे। बिलकुल सरकारी पार्टी के सांसदों जैसी भाषा बोल रहे थे। कह रहे थे "साहब भ्रष्टाचार मिट सकता है क्या?  दो चार दिन गुब्बारा फूला रहेगा, फिर इस की हवा निकल जाएगी। गुब्बारे में फिर से हवा भरी जाएगी तो फिर निकल जाएगी। कब तक हवा भरते रहेंगे? एक दिन गुब्बारा बेकार हो जाएगा।" मैं ने उन्हें तसल्ली से सुना। फिर उन्हें एक किस्सा सुनाने लगा, जिसे मैं ने पैंतीस बरस पहले पढ़ा था। बताया जाता है कि यह सच्चा किस्सा है। होगा तो ग्वालियर से संबंधित कोई न कोई ब्लागर इस की ताईद भी कर देंगे। अब आप को भी वह किस्सा संक्षेप में बता ही देता हूँ।

हुआ यूँ कि ग्वालियर राज्य का एक ब्राह्मण युवक  राज दरबार में अच्छा पद प्राप्त करने की इच्छा लिए काशी से विद्या अध्ययन कर लौटा। राजा के दरबार में पहुँचना आसान न था। वहाँ हर किसी की पहुँच न थी। युवक ने किसी तरह जुगाड़ किया और राजा के सामने उपस्थित हो गया। राजा को उसने अपना परिचय दिया और कहा कि आप तो विद्वानों की पहचान रखते हैं इस लिए वह उपस्थित हुआ है कि उसे उस की योग्यता के अनुरूप दरबार में कोई काम मिल जाएगा। लेकिन राजा ने उस से पूछा कि वह दरबार तक कैसे पहुँचा? यहाँ तो हर कोई पहुँच नहीं सकता। युवक ने उसे बताया कि आप के राज में बड़ी पोल (छिद्र) है। राजा ने उसे कहा कि वह भी किसी पोल में घुस ले। युवक ने राजा को कहा कि आप के राज में वह आप की आज्ञा के बिना किसी पोल में कैसे घुस सकता है? उसे राजाज्ञा दे दी जाए। राजा ने आदेश लिखवाया "युवक कहता है कि ग्वालियर के राज में बड़ी पोल है, इस लिए उसे आज्ञा दी जाती है कि वह किसी पोल में घुस जाए।" राजाज्ञा पर राजा की मुहर अंकित कर दी गई, युवक उसे ले कर दरबार से चला आया। 

युवक ने ग्वालियर पहुँचने वाले मार्गों में से एक पर नगर के बाहर उस ने एक पेड़ पर रस्सी बांधी और सड़क के दूसरी ओर रस्सी का दूसरा सिरा पकड़ कर बैठ गया। कोई भी वाहन आता तो वह रोक लेता और राजाज्ञा होने की बात कह कर उस से महसूल वसूल करता। कुछ दिनों में उस के पास पैसा इकट्ठा हो गया। उस ने कुछ कर्मचारी रख लिए। उन से काम कराने लगा, खुद निगरानी रखता। कोई छह माह बाद उस ने कर्मचारियों से कहा कि अब राजा ग्वालियर से बाहर जाएँ और जब वापस आएँ तो उनका वाहन रोक दिया जाए। कर्मचारियों ने एक दिन राजा का वाहन रोक दिया। राजा को आश्चर्य हुआ कि उस का वाहन कौन रोक सकता है। उसने अपने अंगरक्षकों से पूछताछ करने को कहा। अंगरक्षकों ने पूछताछ करने पर बताया कि एक पंडित है जो कहता है कि यहाँ राजाज्ञा से हर वाहन पर महसूल लगता है राजा को भी देना होगा। राजा ने महसूल दे कर वाहन को नगर प्रवेश कराने का आदेश दिया और कहा कि पंडित को दरबार में हाजिर किया जाए।

गले दिन पंडित दरबार में हाजिर हुआ तो उस से पूछा गया कि वह महसूल किस हक से वसूल करता है। तो उस ने कहा कि वह राजाज्ञा से करता है। राजा ने राजाज्ञा बताने को कहा तो पंडित ने वही आदेश सामने कर दिया जिस में किसी भी पोल में घुसने का आदेश दिया गया था। राजा ने स्वीकार किया कि उस के राज में पोल है। राजा ने राजस्व विभाग में एक नगर प्रवेश राजस्व का विभाग स्थापित कर दिया और पंडित को उस का मुखिया नियुक्त किया। अब ग्वालियर प्रवेश के सभी मार्गों पर चुंगी नाके स्थापित कर दिए गए और नगर प्रवेश शुल्क वसूल किया जाने लगा। 

मैं ने उक्त किस्सा नेताजी को सुना कर कहा कि भ्रष्टाचार भी इसी तरह की पोल में घुस जाने की राजाज्ञाओं से चलता है। यदि उसे मिटाना है तो राजा पर चोट करनी होगी। नेता जी ने तुरंत हाँ भर दी। कहने लगे -वही तो मैं कह रहा हूँ कि भ्रष्टाचार ऐसे नहीं मिटेगा, उस के लिए तो पूरी व्यवस्था ही बदलनी होगी। मैं ने घड़ी देखी तो दो बजने को थे। यदि मैं दो बजने तक चाय पर नहीं पहुँचा तो साथी मुझ पर दंड कर सकते थे। मैं ने नेताजी को अलविदा कहा और तेजी से केंटीन की ओर कदम बढ़ा दिए।

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

आन्दोलन के पहले चरण के उपरान्त पहला दिन

न्ना अस्पताल में हैं। खबर है कि पहले उन का भार लगभग 500 ग्राम प्रतिदिन की दर से कम हो रहा था। अब जो कुछ तरल खाद्य वे ले रहे हैं उस से यह गिरावट 200 ग्राम प्रतिदिन रह गई है। दो दिन में वह स्थिति आ जाएगी कि उन का भार गिरना बंद हो जाएगा और उस के बाद उन्हें फिर से अपना वजन बढ़ाना होगा। आखिर अभी तो संघर्ष का आरंभ है। परिवर्तन की इस बयार को बहुत दूर तक जाना पड़ेगा। 

आंदोलन के बाद आज अदालत का पहला दिन था। अन्ना के अनशन के दौरान अदालतों में जरुरी काम ही हो पा रहे थे। लोगों को जिन में न्यायार्थियों से ले कर वकील, वकीलों के लिपिक, टंकणकर्ता, न्यायाधीश और न्यायालयों के कर्मचारी सभी सम्मिलित हैं, इस आंदोलन ने कमोबेश प्रभावित किया था। आज जब मैं अदालत पहुँचा तो कार को पार्क करने के लिए मुश्किल से स्थान मिला। वहीं मैं समझ चुका था कि आज अदालत में लोगों की संख्या बहुत होगी। होनी भी चाहिए थी। पिछले 12 दिनों से काम की गति मन्थर जो हो चली थी। इस सप्ताह में फिर ईद और गणेश चतुर्थी के अवकाश हैं। कुल तीन दिन काम के हैं। इस कारण से जिन लोगों के काम अटके हैं वे सभी आज अदालत अवश्य पहुँचे होंगे। मैं ने अपना काम निपटाना आरंभ किया तो 1.30 बजे भोजनावकाश तक केवल दो-तीन काम शेष रह गए थे। 

दालत में चर्चा का विषय था कि क्या भ्रष्टाचार कम या समाप्त हो सकता है? मेरा जवाब था कि कम तो हो ही सकता है, समाप्त भी हो सकता है। पिछले पाँच-छह वर्ष से वकालत कर रहे एक वकील का कहना था कि यह संभव ही नहीं है। यदि धन का लेन-देन बन्द हो जाएगा तो बहुत से काम रुक ही जाएंगे। मैं ने उस से पूछा कि तुम कौन से काम के लिए कह रहे हो? उस का उत्तर था, 'पेशी पर गैरहाजिर होने वाले मुलजिम की जमानत जब्त होने और उस का गिरफ्तारी वारंट निकल जाने पर वह जिस दिन जमानत कराने के लिए अदालत आता है तो हमें उस के मुकदमे की तुरंत पत्रावली देखने की आवश्यकता होती है। जिसे देखने का कोई नियम नहीं है। पत्रावली देखने के लिए निरीक्षण का आवेदन करना होता है और अगले दिन निरीक्षण कराया जाता है। जब कि कुछ रुपए देने पर बाबू तुरंत पत्रावली दिखा देता है। यह काम बाबू को पैसे दिए बिना क्यों करेगा? मैं ने कहा आवेदन प्रस्तुत करने पर पत्रावली निरीक्षण का नियम है। समस्या केवल इतनी है कि यह तुरंत नहीं हो सकता। यह प्रबंध करने का दायित्व न्यायाधीश का है। हम अदालत के न्यायाधीश से निवेदन कर सकते हैं। यदि वहाँ संभव न हो तो जिला न्यायाधीश से अधिवक्ता परिषद का प्रतिनिधि मंडल मिल कर अपनी यह परेशानी बता सकता है। यह निर्धारित किया जा सकता है कि किन कामों के लिए तुरंत पत्रावली देखा जाना आवश्यक है और उन कामों को सूचीबद्ध किया जा सकता है। सूचीबद्ध कामों के लिए पत्रावली निरीक्षण हेतु तुरंत उपलब्ध कराए जाने का सामान्य निर्देश जिला न्यायाधीश सभी न्यायालयों को भेज सकते हैं। वैसी स्थिति में फिर किसी पत्रावली को देखने के लिए बाबू को घूस देने की आवश्यकता नहीं होगी। 

स उदाहरण से समझा जा सकता है कि यदि हमें व्यवस्था को भ्रष्टाचार से मुक्त बनाना है तो हमें हर क्षेत्र में बहुत से ऐसे नियम बनाने होंगे और स्थाई आदेश जारी करने होंगे जिस से आवश्यक और उचित कामों के लिए घूस नहीं देनी पड़े। लेकिन इस काम के लिए हर क्षेत्र के लोगों को समस्याएँ प्रशासकों के सामने रखनी होंगी जिस से उन के लिए नियम बनाए जा सकें या स्थाई आदेश जारी किए जा सकें।

रविवार, 28 अगस्त 2011

ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ?

न्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देश भर में जिस तरह का समर्थन प्राप्त हुआ वह अद्भुत था। लेकिन इस के पीछे उन हजारों कार्यकर्ताओं का श्रम भी था, जो गाँव गाँव, नगर नगर और गली गली में सक्रिय थे। ये वे कार्यकर्ता थे जो किसी न किसी रूप में अन्याय का लगातार विरोध करते रहे थे और जिन का एक न्याय संगत व्यवस्था की स्थापना में विश्वास था। महेन्द्र 'नेह' ऐसे ही एक कार्यकर्ता थे। जिन्हों ने न केवल इस आंदोलन में एक सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका अदा की अपितु आंदोलन की कोटा इकाई को नेतृत्व प्रदान करने में प्रमुख रहे। उन के इस सक्रिय योगदान के साथ साथ उन के गीतों ने भी इस आंदोलन के लिए चेतना की मशाल जगाने का काम किया। कल मैं ने उन का एक गीत यहाँ प्रस्तुत किया था जो इन दिनों आंदोलन के बीच बहुत लोकप्रिय हुआ। आज मैं एक और गीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह गीत चालीस-बयालीस वर्ष पहले रचा गया था। शायद तब जब लोकपाल बिल का विचार सब से पहले पैदा हुआ था। समय समय पर इसे लोकप्रियता मिली और आज इस आंदोलन के बीच फिर से लोकप्रिय हो उठा।


ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ? 
  • महेन्द्र 'नेह'
 
ये कैसा देश है भला ये कैसा आशियाँ 
भूखों को यहाँ गोलियाँ प्यासों को बर्छियाँ!

है पैसा बड़ा, आदमी छोटा बहुत यहाँ
इन्सान से दस्तूर है खोटा बहुत यहाँ 
मलबा समझती आदमी को ऊँची हस्तियाँ!

मेहनत यहाँ दौलत के शिकंजों में कसी है
जनता यहाँ महंगाई के जबड़ों में फँसी है
बालू के ढेर पर तड़पती जैसे मछलियाँ!

घर-घर से उभरती है  मुफलिसी की कहानी
सड़कों में भटकती है परेशान जवानी
कैंसर से सिसकती हैं यहाँ बीमार बस्तियाँ!

कर्जे के मकाँ में उम्मीदें क़ैद हैं यहाँ 
डण्डा लिए दरोगाजी मुस्तैद हैं यहाँ 
हैं आदमी पे हावी यहाँ खाकी वर्दियाँ!

जनतंत्र नाम का यहाँ गुण्डों का राज है
इन्सानी खूँ के प्यासे दरिन्दों का राज है 
ज़िन्दा चबा रहे हैं आदमी की बोटियाँ!

बदलेंगी उदास ये तारीक फ़िजाएँ
होंगी गरम ये धमनियाँ ये सर्द हवाएँ
लाएंगी रंग एक दिन ये सूखी अँतड़ियाँ!

उट्ठेंगे इस ज़मीन से जाँबाज जलजले
मिट जाएंगे जहान से नफरत के सिलसिले
जीतेगा आदमी जलेंगी मोटी कुर्सियाँ!