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रविवार, 19 जून 2011

शहीद भगत सिंह दोजख में?

ज तक हम इस बात का निर्णय नहीं कर पाए कि जब इंसान पैदा होता है तो वह नास्तिक होता है या आस्तिक?  मेरे विचार से इस दुनिया के तमाम इंसानों का बड़ा हिस्सा आज आस्तिक है। अर्थात किसी न किसी रुप में वह ईश्वर, अल्लाह या गोड में विश्वास करता है। एक ऐसी शक्ति में, जिस ने इस दुनिया को बनाया है और कहीं बैठा इस दुनिया का संचालन करता है। बहुत कम और इने-गिने लोग इस दुनिया में नास्तिक होंगे जो यह विश्वास नहीं करते। फिर भी कुछ आस्तिकों को इस बात का भय लगा रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग नास्तिक होते जाएँ और इस दुनिया में आस्तिक कम रह जाएँ। वे हमेशा कुछ न कुछ ऐसा अवश्य करते हैं जिस से वे ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते रहें। दुनिया में जिन लोगों की रोजी-रोटी ईश्वर के अस्तित्व से ही जुड़ी हुई है, उन लोगों की बात तो समझ में आती है कि वे उस के होने की बात का प्रचार करते रहते हैं। क्यों कि यदि लोग ईश्वर में विश्वास करना बंद कर दें तो दुनिया भर के पंडे, पुजारियों, मुल्लाओं, काज़ियों, पादरियों आदि का तो अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए। इस के अलावा भी दुनिया भर में लाखों-करोडों संगठन इस बात के लिए ही बने हैं कि वे ईश्वर के होने को लगातार सिद्ध करते रहें। दुनिया भर की किताबों की यदि श्रेणियाँ बनाई जाएँ तो शायद सब से अधिक पुस्तकें इसी श्रेणी की मिलेंगी जो किसी न किसी तरह से ईश्वर के अस्तित्व को बचाने में लगी रहती हैं। बहुत से संगठन तो ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए मरने मारने को तैयार रहते हैं। इतना धन, इतनी श्रमशक्ति ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करने में लगातार खर्च की जाती है कि यदि उसे मानव कल्याण में लगा दिया जाए तो शायद यह दुनिया ही स्वर्ग बन जाए। इतना होने पर भी न जाने क्यों इस बात का भय लोगों को बना रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग ईश्वर को मानने से मना कर दें? ये सारे तथ्य किसी भी विचारवान आस्तिक इंसान को यह सोचने को बाध्य कर देते हैं कि वाकई ईश्वर है भी या नहीं?

ज एकाधिक ब्लागों पर इसी तरह की चर्चा की गई। एक स्थान पर यह लिखा था कि इतनी बड़ी दुनिया है तो अवश्य ही उसे बनाने और चलाने वाला कोई होगा। मैं ने उस पर ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गया। यह तर्क इतनी बार दिया जा चुका है कि पहली नजर में ही सब से लचर लगता है। वस्तुतः यह तर्क है ही नहीं। यह तर्क  सब से पहले तो इस मान्यता पर आधारित है कि कुछ भी, कोई भी चीज किसी के बनाने से ही अस्तित्व में आती है और किसी न किसी के चलाने से चलती है। इस मान्यता का अपने आप में कोई सिर पैर नहीं है। दुनिया में बहुत से चीजें हैं जो न किसी के बनाने से बनती हैं और न किसी के चलाने से चलती हैं। वे अपने आप से अस्तित्व में हैं और अपने आप चलती हैं। किसी स्थान को बिलकुल निर्जन छोड़ दें वह कुछ ही वर्षों में या तो जंगल में तब्दील हो जाता है, या फिर मरुस्थल में। उन्हें कोई नहीं बनाता। इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान अवश्य देता है कि कोई निर्जन स्थल जंगल  या मरुस्थल में क्यों बदल जाता है।  लेकिन फिर भी लोग इसे ईश्वर का कोप या मेहरबानी सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। 

दि यह मान भी लिया जाए कि कुछ भी किसी के बनाए बिना अस्तित्व में नहीं आता और किसी के चलाए बिना नहीं चलता। इस आधार पर हम यह मान लें कि जितनी भी जीवित या निर्जीव वस्तुएँ इस दुनिया में अस्तित्व में हैं उन्हें बनाने और चलाने वाला कोई ईश्वर है तो फिर यह प्रश्न हमारे सामने आ कर खड़ा हो जाएगा कि फिर ईश्वर को किसने बनाया। हमें अपने उसी लचर तर्क के आधार पर यह मानने को बाध्य होना पड़ेगा कि उसे फिर किसी उस से बड़े ईश्वर ने बनाया होगा और अंत में हमें यह बात माननी होगी कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है। यदि हमें अंत में जा कर यह मानना ही था कि कोई चीज ऐसी है जो बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में है और स्वतः चलायमान है तो फिर इतनी कवायद और कसरत करने तथा कल्पना करने की आवश्यकता क्या है कि इस विश्व को बनाने वाला और चलाने वाला कोई है। हम इस विश्व को ही बिना किसी के बनाए भी अस्तित्व में होना और स्वतः चलायमान होना क्यों नहीं मान लेते? इस तरह इस तर्क का दम अपने ही कर्म से टूट जाता है।

क मित्र ने ईश्वर को अपने लाभ हानि से जोड़ दिया है कि ईश्वर को मानने में फायदा ही फायदा है और न मानने में नुकसान ही नुकसान। वे लिखते हैं ...

मान लो यदि कोई खुदा नहीं तो यह इंसान जिसने  अल्लाह के बताए  रास्ते पे चलते हुई ज़िंदगी गुजारी उसका क्या नुकसान हुआ?  यही कि जीवन मैं थोडा सा कष्ट सहा और शराब नहीं पी,  बलात्कार नहीं किया, झूट नहीं बोला, गरीबों कि मदद कि , नमाजें पढी ,रोज़ा रखा इत्यादि और जिसने  इश्वर  को नहीं माना उसने क्या पाया ? यही कि नमाज़ नहीं पढनी पडी, दुनिया मैं जिस चीज़ का मज़ा चाहा लेता रहा,जैसे दिल चाहा जीता रहा. बाकी दोनों को मरना था सो मर गए. सब ख़त्म. 
अब मान लो कि अल्लाह , इश्वेर है और दोनों के मरने पे हिसाब किताब हुआ तो जिसने अल्लाह के होने से इनकार  किया था उसका क्या होगा? नरक मिलेगा और वो भी ऐसी सजा कि जिस से बचना संभव ना होगा और यह सजा दुनिया मैं नमाज़, रोज़ा, और सत्य बोलने से अधिक कष्ट दायक  होगी. अक्लमंद इंसान के लिए अल्लाह के वजूद को मान ने कि बहुत सी दलीलें हैं और अगर कोई फाएदे और नुकसान कि ही बोली समझता है तो अल्लाह  को मानने मैं ही फ़ाएदा नजर आता है. 

यानी मनुष्य सच की खोज छोड़ दे और अपने लाभ और हानि से इस बात को तय करे कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं? गोया ईश्वर न हुआ कोई दुनियावी सौदा हो गया। सभी भारतवासियों के दिलों में सम्मान पाने वाले क्रांतिकारी शहीद भगतसिंह ने फाँसी की सजा होने के बाद भी यह घोषणा की कि वे नास्तिक हैं  और यह भी बताया कि वे नास्तिक क्यों हैं? उन का यह आलेख यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। 

ब हम इन मित्र की बात को सही मान लें तो हमें यह भी मानना पड़ेगा कि शहीद भगतसिंह मरने के बाद दोजख (नर्क) में भेजे गए होंगे और वहाँ अवश्य ही उन्हें यातनाएँ दी जा रही होंगीं। क्या आप इस तथ्य को स्वीकार कर पाएंगे? 

शुक्रवार, 17 जून 2011

ख़ौफ तारी था उसका


'कविता'

ख़ौफ तारी था उसका 
  •  दिनेशराय द्विवेदी

उस के नाम से डरा कर, माताएँ
सुलाती थीं अपने बच्चों को

उस के शहर का रुख़ करने की खबर से
खड़े हो जाते थे रोंगटे
शहरवासियों के

उसे देखा जाता था
सिर्फ चित्रों, और वीडियो में
सुनी जा सकती थी उस की आवाज
सिर्फ रिकॉर्ड की हुई।

ख़ौफ तारी था उस का
सारे जहाँ में
जहाँ जहाँ बस्तियाँ थीं
जहाँ जहाँ इन्सान थे

कुछ भी कर सकता था वह
कोई भी हो सकता था
उस का निशाना, बस शर्त इतनी थी
कि इन्सानों पर ख़ौफ तारी रहे

तलाश जारी थी उस की
सारी जहाँ में
जंगलों में, वीरान पहाड़ियों में
हर उस जगह, जहाँ छुप सकता था
इन्सान की निगाहों से बचाकर खुद को

बरसों की तलाश के बाद मिला
इंसानों की एक बस्ती में
एक बंद घर में सुरक्षा की दीवारों के बीच
जवान बीबी के साथ

डरता हुआ अपने ही बुढ़ापे से
जवानी बरकरार रखने वाली
दवाइयों की खेप के बीच
अपनी ही तस्वीरें देखते हुए

मिनटों में हो गया तमाम
कहते हैं ... ठेला था जिन्होंने
उसे इस रास्ते पर
उन्होंने ही ठेल दिया उसे
समंदर की गहराइयों में

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बुधवार, 15 जून 2011

'हाँ' या 'ना' ... ? ... ? ... ?

जनता! 
ओ, जनता!!
तुम तो जानती ही हो, ये जनतंत्र है। हम हर पाँच बरस में तुम्हारे पास आते हैं। तुम्हारे लिए पलक पाँवड़े बिछाते हैं। घर-घर जाते हैं, हाथ जोड़ते हैं, पाँव पड़ते हैं। किसी को दो रुपए किलो चावल दिलाते हैं। किसी को बिजली मुफ्त में। फिर भी कसर रह जाती है तो दारू की थैलियाँ बँटवाते हैं। कहीं कहीं तो नोट तक बाँट देते हैं। फिर वोट पड़ता है तो चुनाव आयोग की सारी पाबन्दियों के बाद भी तुम्हारे घर मोटर कार, जीप वगैरा भेज कर वोट के लिए ढो कर लाते हैं। घर से तुम्हें उठाने से ले कर वापस पहुँचाने तक का नाश्ते पानी का सारा जिम्मा उठाते हैं। भला ऐसा किसी और तंत्र में हो सकता था? इसी को जनतंत्र कहते हैं। इस से बड़ा और भला कोई जनतंत्र हो सकता है?
तुम तो अच्छी तरह जानती ही हो कि हम तुम्हारी चिरौरी करने के लिए क्या क्या नहीं करते? कुछ गलत लोग हैं जो तुम्हें बरगलाते हैं। वे किसी भी तरह तुम्हें चैन से नहीं जीने देना चाहते। हम जानते हैं कि तुम हमें ही चाहती हो। इस लिए वे तुम्हें वोट भी नहीं देने देना चाहते। इसी लिए जहाँ जहाँ वे ऐसा करने की नीयत रखते हैं, वहाँ वहाँ हम वोट की पेटी ले कर भाग निकलते थे और जहाँ जहाँ तुम ठप्पा मारना चाहती थी वहाँ तुम्हारी तरफ से हम ही ठप्पा मार कर पेटी वापस कर देते थे। कई जगह तो हम उन्हें वोट के तबेले तक पहुँचने ही नहीं देते। वे पहुँच जाते तो तुम्हें परेशान करते। हम ने तुम्हारी परेशानी दूर करने के लिए  क्या क्या इंतजाम नहीं किए? अब तुम्हें क्या बताना? तुम तो खुद ही सब जानती हो। 

ब देखो ना! ये लोग कितने बेहया हैं? तुमने हमें जिताया, जीतने वाले कम पड़े तो हमने कुछ और लोगों को पटाया। पर राज बनाया। हमने तुमसे वादा किया था कि पूरे पाँच साल टिकेंगे। तुमने रोशनी मांगी थी हम ने परमाणु समझौता कर के एटमी बिजली के कारखाने बनाने के लिए अपनी और देश की नाक कटवा कर भी समझौता किया। आखिर क्यों न करते? हमने रोशनी का वायदा जो किया था। वो बाईँ बाजू वाले बहुत पीछे पड़े। उन्हों ने तमाम घोड़े खोल लिए, दाएँ बाजू वालों से मिल गए, हमारे खिलाफ वोट दिया। लेकिन क्या हुआ? हम ने फिर भी अपने लिए वोट कबाड़ ही लिए। हमें कुछ भी करना पड़ा। पर तुम से किया वायदा निभाया। इस से बढ़िया और कौन हो सकता है? जो हर हाल में वायदा निभाए। 

ये कुछ नए लोग उग आए हैं। हमने बड़ी मुश्किल से तो एक महात्मा से निजात पायी थी। ये एक सफेद कुर्ता-धोती पहने एक और न जाने कहाँ से पैदा हो गया? तुम्हें बरगलाने को। बाप-बेटा वकील उन के साथ लग गए। एक पुलिस अधिकारिणी और कुछ और लोग साथ लग लिए। अब ये आठ दस लोग कर क्या सकते हैं। भूख हड़ताल कर के तुम्हें बरगलाना चाहते हैं। पहली बार तुम समझ नहीं पायी थी इन की हरकतें। वो इंटरनेट और मीडिया के चकमे में आ कर उन्हें महात्मा की टोली समझ कर उन के साथ लग गई थी।  हमें मजबूरी में मानना पड़ा कि जैसा वे कहते हैं वैसा कानून बनवा देंगे। देखो हमने वायदा निभाया, उन के साथ बैठकें करीं कि ना करीं। नहीं तो ऐसा कोई करता है। कोई तु्म्हारा चुना हुआ, कभी तु्म्हारे अलावा किसी के सामने घुटने टेकता है? हमने भी नहीं टेके। हम टिका देते तो अपमान होता, वह भी तुम्हारा। हम उसे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं। तुम चक्कर में मत आना इन के। ये तुम्हें कहीं का नहीं रखेंगे। हम ने भी कह दिया है कि हम तुम्हारे द्वारा चुनी हुई संसद और उस के द्वारा चुने हुए परधान मंत्री को और अदालतों के हाकमों को इस से अलग रखेंगे। अब हमने कह दिया तो कह दिया। अब झुकेंगे तो तुम्हारा अपमान हो जाएगा। तुमने हमें चुन कर जो भेजा है। हम ये कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं?

क वो, केसरिया लंगोटी-अंगोछा पहने कसरतें सिखाता सिखाता तुम्हें सिखाने निकल गया। जैसे पहले के जमाने में जवानी बरकरार रखने की दवाएँ सड़क किनारे मजमा लगा कर बेचा करते थे। ऐसे मजमा लगाया। कुछ लोग उस के दवा ऐजेंट क्या बन गए कि सोचने लगा देश की हालत बदल देगा। आखिर हमारे होते वह ऐसा कैसे कर लेता। हमने क्या निपटाया उसे। दुनिया को मजबूत बनाने की नसीहत देने वाला बहुत कमजोर निकला। पहले तो इधर उधर से खबरें भेज कर उसे डराया, चिट्ठी लिखाई, तुम्हें बताई तो डर गया। जरा सी पुलिस देखी कि डर कर मंच से कूद कर भागा। कैसे भेस बदला? अब क्या बताएँ अपने मुख से बताते शर्म आती है। तुम्हें तो सब पता ही है। तुम ने तो सब लाइव देखा ही है। अब देखो आठ दिन में ही टें बोल गया। अस्पताल से छूटा तो लगता था बरसों से बीमार है। देखा हमने जोगी का जोग निकाल दिया। 

ब उस का जोग निकाला है, तो इस का भी निकाल देंगे। पहले तो हम समझते थे जोगी का हाल देख महात्मा मैदान छोड़ भागेगा। उस ने नाटक तो किया, पर भागा नहीं। फिर डट गया। पर डटने से क्या होता है? हम कोई ऐसे ही तो उस की बात नही मान लेंगे? हम भी उसे तपाएंगे। उसे माननी पड़ेगी हमारी बातें। हम ने उस की दुकान पर तलाशी लेने भेज दिया है अपनी टीम को। वैसे तो हमारे कानून ऐसे हैं कि कोई उन की कमी पूरी कर ही नहीं सकता। हम चाहें तो हर किसी को फँसा लें। लेकिन वहाँ अगर कुछ न भी मिला तो हमारी टीम वाले क्या कम हैं कुछ तो हेराफेरी कर के कुछ न कुछ तो निकाल ही देंगे। 

ये भी कोई बात हुई कि प्रधानमंत्री को भी दायरे में लाओ। हम ले भी आएँ। पर जिसे तुमने ही दायरे से बाहर कर दिया हो, उसे दायरे में कैसे ले आएँ। मान ली बात  कि सारी जमात को ट्रेन में टिकट ले कर सफर करना चाहिए।  पर कम से कम एक तो बिना टिकट होना ही चाहिए। ये क्या ट्रेन चलाने वाले ड्राइवर को भी टिकट लेना पड़ेगा क्या? हम ने उन से कह दिया है, या तो हमारी बात माननी पड़ेगी नहीं तो हम तुम्हारे-हमारे दोनो के फोटो मंत्रालय को भेज देंगे। मंत्रालय खुद फैसला कर लेगा। मंत्रालय में कोई और थोड़े ही बैठा है? वहाँ भी हम ही तो हैं। वह तो वैसा ही करेगा जैसा हम चाहेंगे। तो जनता देख लो। ये लोग तु्म्हारे नाम पर तुम्हारी पग़ड़ी उछालना चाहते हैं। पर हम ऐसा नहीं होने देंगे। पक्का वादा है तुमसे, हम मरते मर जाएंगे पर ऐसा नहीं होने देंगे। हम डरते हैं तो तुमसे ही डरते हैं, वो भी पाँच बरस में एक बार। अब बार बार डरना पड़े तो जनतंत्र कैसे चला पाएँगे? ये समझते ही नहीं पाँच बरस से पहले ही हमें वापस बुलाने का अधिकार चाहते हैं। पर ऐसा हम कैसे होने दे सकते हैं। हम तो पाँच बरस में एक बार तुम्हें कष्ट देते हैं वही बहुत है। हमारा बस चले तो जीते जी तुम्हें कष्ट दें ही नहीं। एक बार पूछ लिया वही क्या बहुत नहीं है, जीवन भर के लिए? अच्छा तो अब चलते हैं। फिर मिलेंगे। तुम तो तान खूँटी सोओ, आराम करो। ऐसे वैसों की सुनने की जरूरत ही नहीं है। 


(अब तुम्हें कैसे बताऊँ कि हमारी जान निकली जा रही है, कि ये सफेद टोपी वाला बुड्ढा ये न कह दे कि मतभेद के मुद्दों पर जनता से 'हाँ' या 'ना' में चुनाव [रेफरेंडम] करा लिया जाए)

शिवराम की कविता ... जब 'मैं' मरता है

शिवराम केवल सखा न थे। वे मेरे जैसे बहुत से लोगों के पथ प्रदर्शक, दिग्दर्शक भी थे। जब भी कोई ऐसा लमहा आता है, जब मन उद्विग्न होता है, कहीं असमंजस होता है। तब मैं उन की रचनाएँ पढ़ता हूँ। मुझे वहाँ राह दिखाई देती है। असमंजस का अंधेरा छँट जाता है। आज भी कुछ ऐसा ही हुआ। मैं ने उन की एक किताब उठाई और कविताएँ पढ़ने लगा। देखिए कैसे उन्हों ने अहम् के मरने को अभिव्यक्त किया है - 



'कविता'
जब 'मैं' मरता है*
  • शिवराम

हमें मारेंगी
हमारी अनियंत्रित महत्वाकांक्षाएँ

पहले वे छीनेंगी
हमसे हमारे सब
फिर हम से 
हमें ही छीन लेंगी

बचेंगे सिर्फ मैं, मैं और मैं
'मैं' चाहे कितना ही अनोखा हो
कुल मिला कर होता है एक गुब्बारा
जैसे-जैसे फूलता जाता है
तनता जाता है
एक अवस्था में पहुँच कर 
फूट जाता है

रबर की चिंदियों की तरह
बिखर जाएंगे एक दिन
जो न उगती हैं न विकसती हैं
मिट्टी में मिल जाती हैं 
धीरे-धीरे

बच्चे रोते हैं
जब फूटता है उन का गुब्बारा
जब 'मैं' मरता है, कोई नहीं रोता
हँसते हैं लोग, हँसता है जमाना


*शिवराम के कविता संग्रह 'माटी मुळकेगी एक दिन' से

शनिवार, 11 जून 2011

अब तो अंगोछा मेरा है

दालतों में अपने काम निपटा कर अपनी बैठक पर पहुँचा तो वहाँ एक जवान आदमी मेरे सहायक से बात कर रहा था। पैंट शर्ट पहनी हुई थी उस ने लेकिन गले में एक केसरिया रंग का गमछा डाल रखा था। वह सहायक से बात करने के बीच में कभी कभी उस से अपना पसीना पोंछ लेता था। केसरिया रंग के गमछे से पसीना पोंछना मुझे अजीब सा लगा। उधर बाहर सड़क पर पिछले चार दिनों से एक टेंट में बाबा रामदेव के अनुयायियों ने धरना लगा रखा है। वहाँ की दिनचर्या नियमित हो चली है। रात को तो इस टेंट में केवल तीन-चार लोग रह जाते हैं। उन का यहाँ रहना जरूरी भी है। वर्ना टेंट में जो कुछ मूल्यवान सामग्री मौजूद है उस की रक्षा कैसे हो? सुबह नौ बजे से लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। दस बजे तक वे दस पन्द्रह हो जाते हैं। फिर टेंट में ही यज्ञ आरंभ हो जाता है। लाउडस्पीकर से मंत्रपाठ की आवाज गूंजने लगती है। इस आवाज से दर्शक आकर्षित होने लगते हैं। सड़क के एक ओर अदालतें हैं और दूसरी ओर कलेक्ट्री, दिन भर लोगों की आवाजाही बनी रहती है। टेंट में आठ-दस कूलर लगे हैं इस लिए गर्मी से बचने को न्यायार्थी भी वहाँ जा बैठते हैं।  इस से दिन भर वहाँ बीस से पचास तक दर्शक  बने रहते हैं।
कोई आधे घंटे में यज्ञ संपूर्ण हो जाता है। इसे उन्हों ने सद्बुद्धि यज्ञ का नाम दिया है। यह किस की सद्बुद्धि के लिए है, यजमान की या किसी और की, यह स्पष्ट नहीं है। हाँ आज अखबार में यह खबर अवश्य है -"बाबा रामदेव व आचार्य बालकृष्ण के स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ सद्बुद्धि यज्ञ" यहाँ अखबार की मंशा का भी पता नहीं लग रहा है। खैर जिसे भी जरूरत हो उसे सद्बुद्धि आ जाए तो ठीक ही है। यज्ञ संपूर्ण होते ही कुछ लोगों के ललाट पर तिलक लगा कर मालाएँ पहना कर मंच पर बैठा दिया जाता है। ये लोग क्रमिक अनशन पर बैठते हैं। शाम को पांच बजे उन का अनशन समाप्त हो जाता है। लोग बिछड़ने लगते हैं। छह बजे तक वही चार-पाँच लोग टेंट में रह जाते हैं। दिन में कोई न कोई भाषण करता रहता है। इस से बहुत लोगों की भाषण-कब्ज को सकून मिलता है। भाषण दे कर टेंट से बाहर आते ही उन का मुखमंडल खिल उठता है और वे पूरे दिन प्रसन्न रहते हैं और अगले दिन सुबह अखबार में अपना नाम और चित्र तलाशते दिखाई देते हैं।   

सुबह दस बजे की चाय पी कर हम लौट रहे थे तो टेंट पर निगाह पड़ी। रात को तेज हवा, आंधी के साथ आधे घंटे बरसात हुई थी। कल तक तना हुआ टेंट आज सब तरफ से झूल रहा था। लगता है यदि किसी ने उसे ठीक से हिला दिया तो गिर पड़ेगा। सुबह का यज्ञ संपन्न हो चुका था। शाम तक के लिए लोग अनशन पर बिठा दिए गए थे। किसी तेजस्वी वक्ता का भाषण चल रहा था। किसी ने टेंट को तानने की कोशिश नहीं की थी, टेंट सप्लायर की प्रतीक्षा में। तभी एकनिष्ठता से संघ और भाजपा के समर्थक हमारे चाय मित्र ने हवा में सवाल उछाल दिया -आखिर ये नाटक कब तक चलता रहेगा?  मैं ने मजाक में कहा था -शायद नागपुर से फरमान जारी होने तक। उस ने मेरे इस जवाब पर त्यौरियाँ नहीं चढ़ाई, बल्कि कहा कि बात तो सही है। वह शायद संघ के पुराने अनुयायियों के स्थान पर नए-नए लोगों को इस तरह के आयोजनों में तरजीह पाने से चिंतित था।

मैं ने सहायक से बात कर रहे उस के मुवक्किल से पूछा -ये केसरिया अंगोछा किस का है, बजरंग दल या शिवसेना का?  वह हँस पड़ा, बोला- अब तो ये मेरा है, और पसीना पोंछने के काम आता है। मैं ने फिर सवाल किया -कोई और रंग का नहीं मिला? उस का कहना था कि उस के पैसे लगते, यह तो ऐसे ही एक जलूस में शामिल होने के पहले पहचान के तौर पर गले में लटकाए रखने के लिए आयोजकों ने दिया था। जलसे के बाद वापस लिया नहीं। अब इस का उपयोग पसीना पोंछने के लिए होता है? उस के उत्तर पर मुझ से भी मुस्काए बिना नहीं रहा गया। मैं ने इतना ही कहा कि ये केसरिया अंगोछा भ्रम पैदा करता है, पता ही नहीं लगता कि कौन सी सेना है, बजरंगी या बालासाहबी। अब तो संकट और बढ़ने वाला है बाबा ने सेना बनाने की ठान ली है, वहाँ भी ये ही अंगोछे नजर आने वाले हैं।

शुक्रवार, 10 जून 2011

उत्तमार्ध को जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएँ!!!

३६ वर्ष का साथ कम नहीं होता, आपसी समझ विकसित करने के लिए। लेकिन पता नहीं क्यों? जैसे जैसे समय गुजरता जाता है, वैसे वैसे मतभेद के मुद्दे बदलते रहते हैं। साथ का ये ३६वाँ वर्ष तो बिलकुल वैसा ही था जैसे इन अंकों की शक्ल है। मतभेदों की चरम सीमा थी वह। शायद इन अंकों का ही प्रताप रहा हो। पर आपसी समझ भी ऐसी कि मतभेदों के बावजूद साथ गहरा होता गया।  जैसे ही अंक बदल कर ३७ हुआ कि मतभेद न्यूनतम स्तर पर आ गए। हालांकि अब ऐसा भी नहीं कि बरतन खड़कते न हों और आवाजें न होती हों। वे होती हैं, लेकिन शायद उतना होना यह सबूत पैदा करने के लिए भी जरूरी है कि हमारे बीच पति-पत्नी का वैधानिक रिश्ता कायम है।

मैं अपने बहुत खुशकिस्मत हूँ कि मुझे ऐसी जीवनसाथी मिली। न पहले की कोई जान पहचान, न देखा-दाखी। बस एक दूसरे के परिजनों ने तय किया और हमें बांध दिया गया, ऐसी मजबूत डोर से जो जीवन भर साथ निभाएगी। वह आज का वक्त होता तो ये बांधा जाना कानून की निगाह में अपराध होता। मैं बीस का भी नहीं और शोभा, सत्रह की हुई ही थी। पर तब यह सब अपराध नहीं था। मेरी तो बी.एससी. की परीक्षा हुई थी, एक प्रायोगिक परीक्षा शेष भी थी। समझता था, कि यह जल्दी सही नहीं, उसे टालने का अपनी बिसात भर प्रयत्न भी किया था, लेकिन तब कहाँ चल सकती थी, न चली। इतना संकोच था कि अपने सहपाठियों तक को बताया नहीं, बुलाया भी नहीं। केवल घनिष्ट मित्र ही साथ थे। बारात जैसे ट्रेन से वापस उतरी तो एक दम उस से अलग बुक स्टॉल पर जा खड़ा हुआ, पत्रिकाएँ देखने लगा। एक सहपाठी ने ट्रेन से उतरते देख पूछ भी लिया -कहाँ से आ रहे हो? मैं ने तपाक से उत्तर दिया था -बारात में गया था। उस ने घूंघट में दुल्हन को उतरते देखा तो फिर पूछा ये दुल्हन उसी बारात की दिखती है शायद। मैं ने उत्तर में हाँ कहा। सहपाठी जल्दी में था, सरक लिया और मुझे साँस में साँस आई। उस कॉलेज का अंतिम वर्ष था, उस से कई महिनों बाद मुलाकात हुई तो कहने लगा -शादी के मामले में भी हमें उल्लू बना दिया। 

दुल्हन का घूंघट मुझे कभी नहीं भाया। सप्ताह भर बाद ही जब हम बैलगाड़ी की सवारी करते हुए गाँव जा रहे थे, साथ में अम्मा भी थी, शोभा घूंघट लिए बैठी थी। मैं ने माँ से सवाल किया। जब मैं इस के साथ अकेला होता हूँ तो यह घूंघट में नहीं होती जब तुम्हारे साथ होती है तब भी नहीं। लेकिन जब हम दोनों सामने होते हैं तो घूंघट डाल लेती है और बोलती भी नहीं, क्यों? इस का कोई जवाब अम्मां के पास नहीं था। कम से कम अम्मां के सामने तो घूंघट से निजात मिली। परिवार में बाद में आने वाली बहुओं के लिए आसानी हो गई।

शादी के बाद शुरु हुआ प्रेम पनपने का सिलसिला। मैं कानून की पढ़ाई के लिए अक्सर शहर के बाहर रहता और शोभा वर्ष में कम से कम आधे समय अपने मायके में। मोबाइल तो मोबाइल टेलीफोन तक की सुविधा नहीं थी। बस डाक विभाग का सहारा था। हर सप्ताह कम से कम एक पत्र का आदान प्रदान अनिवार्य था। यूँ तीन-चार भी हुए कई सप्ताहों में। यूँ ही प्रेम गहराता गया और ऐसा रंग चढ़ा की कहा जा सकता है, चढ़े न दूजो रंग। कानून की पढ़ाई पूरी हुई। एक वर्ष बाद ही वकालत के लिए गृह नगर छो़ड़ कर तब के जिला मुख्यालय आ गया। वकालत में स्थापित होने के संघर्ष का दौर। आमदनी में खर्च चलाने की विवशता। फिर बच्चे हुए, घर में चहल पहल ह गई, रहने के मकान भी बना। बच्चे बड़े हुए तो अध्ययन के लिए बाहर चले गए। अध्ययन पूरा हुआ तो रोजगार ने उन्हें घर न टिकने दिया। एक उत्तर में तो दूसरे को दक्षिण जाना पड़ा। वे आते हैं तो बरसात की बदली की तरह। हमारे जीवन में कुछ नमी बढ़ा जाते हैं और चल देते हैं। साथ फिर हम दोनों ही रह जाते हैं। इस बीच कोई समय ऐसा नहीं था जब  बावजूद तमाम मतभेदों के हम दोनों मुसीबत और उल्लास के मौके पर साथ नहीं रहे हों। हमारे बीच मतभेद अब भी हैं, उन में से कुछ ऐसे भी हैं जो जीवन भर न सुलझाए जा सकेंगे, लेकिन साथ तब भी बना रहेगा। शायद यही सहअस्तित्व का सब से अनुपम उदाहरण है।  अब तो लगता ही नहीं हैं कि हम दो अलग-अलग अस्तित्व हैं। लगता है दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं, दोनों मिल कर ही एक हैं।    

प सोच रहे होंगे कि आज ऐसा क्या है जो मैं अपनी उत्तमार्ध शोभा का उल्लेख इस तरह कर रहा हूँ? ... तो बता ही देता हूँ। आज उस का जन्मदिन है। उसे जन्म दिन की बधाई और असंख्य शुभकामनाएँ!!! हमारा साथ ऐसा ही बना रहे।

बुधवार, 8 जून 2011

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

कुमार शिव
नवरत पर आप ने कुमार शिव की कुछ रचनाएँ पढ़ी हैं। उन के गीतों, ग़ज़लों और कविताओं में रूमानियत का रंग सदैव दिखाई देता है। सही बात तो यह है कि बिना रूमानियत के कोई नया काम संभव ही नहीं। यहाँ तक कि रूमानियत से भरी रचनाओं को अनेक अर्थों के साथ समझा जा सकता है। भक्ति काल का सारा काव्य रूमानियत से भरा पड़ा है। निर्गुणपंथी कबीर की रचनाओं में  हमेशा रूमानियत देखी जा सकती है। यह रूमानियत ही है जो उन्हें परिवर्तनकामी बनाती है। कुमार शिव की ऐसी ही एक ग़ज़ल यहाँ प्रस्तुत है ...


सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है

  •  कुमार शिव

आँसुओं का हिसाब भेजा है
उस ने ख़त का जवाब भेजा है

जिस को मैं जागते हुए देखूँ

उस ने कैसा ये ख़्वाब भेजा है

 
तीरगी दिल की हो गई रोशन
ख़त नहीं आफ़ताब भेजा है

खुशबुओं के सफेद कागज पर

हुस्न को बेनक़ाब भेजा है

होठ चस्पा किए हैं हर्फों पर

सुर्ख उस ने गुलाब भेजा है।