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सोमवार, 18 अप्रैल 2011

गैता का नगर राज्य और महाराज की बगीची

गैंता राज का पाईपेपर और
उस पर राजा का चित्र
गैंता ठिकाना 25° 34' 60 उत्तरी अक्षांश तथा 76° 17' 60 पूर्व देशान्तर पर चम्बल नदी के पूर्व में कोई पचास वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थापित था। इसे एक नगर राज्य जैसा कहा जा सकता है। क्यों कि गैंता नगर के अतिरिक्त शायद ही कोई बस्ती या गाँव इस  की सीमा में आता हो। इस की सीमा में बस नगर था, कृषिभूमि और मामूली जंगल था। ठिकाने के लगभग सभी निवासी इसी नगर में निवास करते थे। जनसंख्या भी दो हजार के आसपास रही होगी। नदी किनारे होने से यह बंदरगाह का काम करता था। ठिकाने से लगे हुए अन्य ठिकानों के क्षेत्रों में बाहर से आने वाला सारा माल नदी से ही आता था।  इन ठिकानों से बाहर जाने वाला माल भी नदी के रास्ते ही बाहर जाता था। गैंता ठिकाने से हो कर गुजरने वाले माल में से केवल कुछ मालों पर नाम मात्र का कर था। जिस के कारण नगर व्यापार का केंद्र अवश्य बन गया था। यही व्यापार इस की संपन्नता का आधार भी था। व्यापार का केंद्र होने के कारण नित्य ही व्यापारिक सौदे होते थे। इन सौदों में विवाद उत्पन्न होने पर उन्हें सुलझाने और कानून व्यवस्था बनाए रखने के  लिए एक सक्षक्त पुलिस और न्यायप्रणाली होना आवश्यक था। इसी की स्थापना के लिए ठिकाने की अपनी  पुलिस और न्याय व्यवस्था थी। राजा सत्ता का केंद्र था।  

गैंता राज का आठ आने का कोर्ट फी स्टाम्प
ह सारी व्यवस्था कैसी रही होगी? इस का निश्चय करने के लिए गढ़ को देखना और वहाँ के निवासियों से बात करने की इच्छा होना स्वाभाविक था। इस के लिए कम से कम एक-दो दिन यहाँ रुकना आवश्यक था। लेकिन हमें तो तुरंत ही लौटना था। इस काम को अगली यात्रा के लिए स्थगित किया। इस से अधिक मेरी रुचि इस बात में थी कि मैं बगीची को अवश्य देखूँ। बगीची नगर के परकोटे के बाहर नगर के पूर्वी द्वार से लगभग तीन सौ मीटर दूर स्थित है। इस बगीची में एक संत निवास करते थे। सब लोग उन्हें महाराज चेतनदास जी के नाम से जानते थे और संक्षेप में उन्हें महाराज कहते थे। महाराज को गैंता राज्य के राजा से भी अधिक सम्मान प्राप्त था। इस का कारण उन का ज्ञान और जनसेवा थी। वे संस्कृत, संगीत, गणित और वैद्यक के विद्वान थे। उन के पास से कोई खाली हाथ न जाता था। बीमार की बीमारी की चिकित्सा होती थी, कुछ दवा से कुछ उन के विश्वास से। निराश को आशा प्राप्त होती थी। कोई गरीब व्यक्ति यदि यह कह देता कि बेटी का ब्याह सर पर है और घर में कानी कौड़ी भी नहीं, अब तो आप का सहारा है। तो महाराज कह देते कि जा चिंता न कर सब हो जाएगा। महाराज इस बात को राजा और नगर के सेठों तक पहुँचाते तो उस की बेटी का ब्याह हो जाता। होनहार बालकों को वे अपनी बगीची में ही शिक्षा प्रदान करते। अपने इन गुणों के कारण महाराज चेतनदास जी को उन के जीवनकाल में ही चमत्कारी मान लिया गया था। ग्रीष्म काल में जब फसलें आ जाने के उपरांत घर अन्न से भरे होते तो महाराज एक पखवाड़े तक रामलीला का आयोजन करते। बगीची में रौनक हो जाती। रामलीला करने वाले बालकों को पूरे पन्द्रह दिन बगीची में ही रहना होता। वहीं दिन में रामलीला का अभ्यास होता वहीं भोजनादि। मेरे पूर्वजों का इस बगीची से गहरा संबंध रहा था।

मेरे दाहजी (दादाजी) पं. रामकल्याण शर्मा स्वयं संस्कृत, गणित तथा ज्योतिष के विद्वान, कर्मकांडी गृहस्थ   ब्राह्मण थे और महाराज  ब्रह्मचारी संन्यासी। लेकिन दोनों एक दूसरे का सम्मान करते। पिताजी का बचपन तो बगीची में ही गुजरा। पिताजी सात वर्ष के हुए तो दाहजी ने उन का प्रवेश इटावा के विद्यालय में करवा दिया। वहाँ दाहजी के दूर के रिश्ते के एक भाई अध्यापक और छात्रावास के अधीक्षक थे। अब पिताजी को पढ़ने के लिए इटावा में ही रहना था। पिताजी को इटावा छोड़ कर वापस गैंता पहुँचे तो महाराज ने दाहजी की खूब खबर ली। इतने छोटे बालक को दूर के विद्यालय में रख दिया, अकेला कैसे रह पाएगा? क्या मैं यहाँ उसे न पढ़ाता था? पर दाहजी ने उन्हें समझाया कि नए जमाने में नई शिक्षा आवश्यक है, गुरुकुल की पढ़ाई से काम न चलेगा। फिर भी पिताजी जब भी गैंता लौटते उन का अधिकांश समय बगीची में गुजरता। वहाँ उन्हें जीवन की शिक्षा मिलती। वहीं पिताजी को चिकित्सा, संगीत और संस्कृति की शिक्षा मिली। गर्मियों की रामलीला में पूरा परिवार ही बगीची मे इकट्ठा हो जाता। रामलीला में दाहजी विश्वामित्र, उन के छोटे भाई जनक, पिताजी राम और चाचा जी भरत के चरित्रों का अभिनय करते। पिताजी बताते थे कि महाराज चिलम पिया करते थे। लेकिन  जैसे ही हम लोग अपना मेकअप कर के राम, लक्ष्मण आदि के रूप में आ जाते तो हमें उच्चासन पर बैठाते, कभी चिलम न पीते, और अपने आराध्य जितना मान देते। महाराज रामलीला में स्वयं परशुराम का अभिनय करते और सदैव दर्शकों के बीच हाथ में कपड़े का बुना कोड़ा लिए उसे फटकारते हुए प्रवेश करते। जैसे ही उन का प्रवेश होने को होता दर्शक अपने बीच दस फुट चौड़ी गैलरी बना देते थे। दर्शकों को भय लगता था कि परशुराम का कोड़ा किसी को लग न जाए। 
गूगल मैप में दिखाई देती गैंता में महाराज की बगीची
बाराँ में एक बार चार वर्ष की छोटी बहिन मेले से एक बाँसुरी खरीद लाई और दिन भर उस में फूँक मार कर पेंपें किया करती। मैं ने भी उस पर कोशिश की पर मैं भी बहिन से अधिक अच्छी कोशिश न कर सका। दो-दिन बाद पिताजी घर लौटे तो अचानक बांसुरी ले कर झूले पर बैठ गए और बजाने लगे। मैं उन का बाँसुरी वादन देख कर चकित था कि वे इतनी सुंदर बाँसुरी भी बजा सकते हैं। पूछने पर उन्हों ने बताया की कभी महाराज के सानिध्य में सीखी थी। मैं ने उस के पहले कभी पिताजी को बाँसुरी बजाते न सुना था और बाद में भी मुझे कभी इस का अवसर न मिला। पिता जी और दादा जी अक्सर ही गैंता में बिताए अपने समय के बारे में बातें किया करते थे। उन की बातों में हर बार महाराज चेतनदास जी उपस्थित रहते। इसी से मेरे मन में महाराज चेतनदास जी के प्रति  बहुत सम्मान औऱ बगीची के प्रति आकर्षण बन गया था। बगीची मैं ने अब तक कल्पना में ही देखी थी।  लेकिन मेरी इस छोटी सी यात्रा में मैं बगीची अवश्य ही जाना चाहता था। ... 

.....अब की बार चलेंगे महाराज की बगीची में

रविवार, 17 अप्रैल 2011

पूर्वजों के गाँव में ...

मेरा जन्म बाराँ (अब राजस्थान का स्वतंत्र जिला मुख्यालय) में हुआ, लेकिन यहाँ जन्म लेने वाला मैं परिवार का पहला सद्स्य था। शेष सभी की यादें गैंता से जुड़ी हुई थीं। पिता जी, दाहजी, छोटे दाहजी, बुआ और दोनों चाचा वहीं जन्मे थे। दाहजी के पिता जी, मेरे परदादा अवश्य गैंता में खेड़ली से आए थे। दो-ढाई वर्ष की उम्र में मुझे शायद एक बार गैंता ले जाया गया था। तब की केवल इतनी स्मृति थी कि वहाँ मकान में कुछ कमरे बनाने के लिए नींवे खोदी जा रही थीं, और सब बड़ों को कान में जनेऊ चढ़ा कर मूत्रत्याग करते देख मुझे ऐसा ही करने की धुन सवार हुई थी और मैं ने घर में कहीं से जनेऊ तलाश कर पहन ली थी और उसे कान पर चढ़ा कर मूत्रत्याग कर के देखा था कि इस से क्या फर्क पड़ता है। उस के बाद कोई पैंतीस वर्ष पहले किसी काम से वहाँ जाना पड़ा था और मैं इटावा से 9 किलोमीटर पैदल गया था। चलते-चलते अंधेरा हो चुका था और कुछ सूझ नहीं रहा था। तब पीछे से एक ट्रेक्टर ने मुझे लिफ्ट दी थी जो इतनी कारगर सिद्ध हुई थी कि केवल सौ मीटर में ही गैंता का प्रवेशद्वार आ गया था। तभी की कुछ स्मृतियाँ मन में थीं। इस बार वैसे ही इटावा से डूंगरली जाते समय बच्चों से पूछा था कि गैंता देखोगे? बच्चों के मौन को स्वीकृति समझ अपने मन की पूरी करने वापसी में इटावा से कार का रुख गैंता की ओर मोड़ लिया था। कार चली जा रही थी। नौ किलोमीटर में बीच में कोई गाँव नहीं पड़ा था, सब सड़क से दूर थे। मैं सोचता जा रहा था कि वहाँ जाते ही कहाँ जाया जाए? 

गैंता ग्राम पश्चिम में बहती चंबल नदी 
मुझे अचानक गणपत काका के बड़े भाई काका लक्ष्मीचंद का स्मरण हुआ, वही तो गैंता में हमारा निकटतम पड़ौसी था। मैं  ने गैंता के प्रवेशद्वार के बाहर पूछा कि क्या कार को काका लक्ष्मीचंद के घर तक ले जाया जा सकता है? जवाब हाँ में मिलने पर मैं आगे बढ़ गया। बाजार में जहाँ से घर की ओर रास्ता जाता है उस से कुछ पहले एक दुकान पर रास्ता पूछा तो वहाँ से एक बुजुर्ग काका लक्ष्मीचंद के घर के लिए कार में बैठ गए। ठीक घर की बगल में कार रुकी तो काका का घर पहचान में आ गया। लेकिन वहाँ मैदान मिट्टी का था जहाँ हमारा घर हुआ करता था। काका घर पर नहीं सोसायटी के गोदाम पर थे, काका की लड़की बाहर आई, पीछे पीछे घूंघट निकाले काकी थी। दोनों ने हमें न पहचाना। मैं ने काका से फोन पर बात करने के लिए मोबाइल का नंबर पूछा तो काका की बेटी ने कहा उन को तो मैं बुला दूंगी, पर पहले यह तो पता लगे कि आप कौन हैं। मैं तब तक अपने पूर्वजों के घर की मिट्टी ही देख रहा था। मैं ने कहा यहाँ किस का मकान था? इतना कहते ही साथ आए बुजुर्ग ने मुझे पहचान लिया -तो आप वकील साहब हैं, नन्द किशोर जी के लड़के? ... जी, हाँ! मैं ने कहा। 



काकी हमें अंदर ले गई। कमरे में बिठाया। बिजली गई हुई थी, पंखा नहीं चल रहा था। पर कमरा ठंड़ा था। फिर बातें होने लगी। घर को किसी ने नहीं संभाला और गिर गया। लकड़ी का सामान आप का हाली अपने घर ले गया। जमीन बँटाई से होती है। बँटाई पर लेने वाला खुद ही बाराँ चला जाता है और छोटे चाचा से बँटाई तय कर पैसा उन्हें ही दे आता है। छोटे चाचा या उन के लड़कों को गाँव आए कई वर्ष हो चुके हैं। बाजार में दो दुकानें हैं, वे भी लावारिस पड़ी हैं। अभी तो उन्हें खरीदने वाले हैं। गिर जाएंगी तो जितने पैसे अभी आ रहे हैं उतने फिर नहीं आएंगे। मैं उदास सा सब सुनता रहा। पिताजी की बाराँ नौकरी लग जाने के बाद दाहजी सारे परिवार सहित बाराँ चले आए थे। गाँव की सारी सम्पत्ति छोटे दाहजी संभालते रहे। दाहजी, पिताजी, चाचाजी वगैरह ने उस संपत्ति के बारे में सोचना बिलकुल छोड़ दिया। आज उस संपत्ति की दुर्दशा सुन कर मुझे अजीब सा लग रहा था। इतने में काका लक्ष्मीचंद आ गए, साथ आए बुजुर्ग उन के ताऊ थे वे कोटा ही रहते थे और किसी काम से गाँव आए थे। वे वापस दुकान की ओर चले गए। हम ने वहाँ चाय पी। चाचा और चाची अपने अपनी आप बीती सुनाने लगे।

फिर मुझे गाँव देखने की इच्छा हुई तो काका हमें बाजार तक लाए। बाजार लगा था। सभी तरह की दुकानें थीं और सड़क पर सब्जीमंडी लगी हुई थी। ताजा सब्जियाँ देख पत्नी का मन मचल गया, उस ने ढेर सी सब्जी खरीद ली। हर कोई हमें देख जानना चाहता था कि हम कौन हैं, गाँव में चार नए चेहरे एक साथ दिखने पर यह तो होना ही था। एक को काका लक्ष्मीचंद ने दाहजी का हवाला दे कर बताया तो वे समझ गए। कुछ ही देर में कानों कान सब को पता लग गया कि हम कौन हैं। बाजार की सभी दुकानें सौ से दो सौ वर्ष पुरानी थीं। उन्हें देख लगता था कि किसी जमाने में इस बाजार में रौनक रहा करती होगी। बाजार में तीन-चार मंदिर भी थे, आगे चौपड़ थी। जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते निकलते थे। एक रास्ता गढ़ की ओर जाता था, जहाँ गैंता के पूर्व महाराजा के वंशज रहते थे। यह बस्ती जो अब गाँव कहलाती है, कभी न केवल नगर था, अपितु कोटा रियासत का एक ठिकाना (जागीर) थी। इस जागीर का मुखिया वंश परम्परा से होता था जो महाराजा कहा जाता था। जागीर को रियासत को निश्चित मात्रा में वार्षिक शुल्क (नजराना) देना होता था। जागीर अपने यहाँ शासन चलाने में स्वतंत्र थी, जिस की अपनी पुलिस और कचहरी थी। जागीर का महाराजा कचहरी के लिए कोर्ट फीस स्टाम्प और पाई पेपर जारी करता था। मेरी घूम कर गाँव देखने की इच्छा थी, लेकिन उस के लिए कम से कम एक रात तो गाँव में रुकना ही पड़ता। अभी इस का अवसर नहीं था। लेकिन मैं बगीची अवश्य जाना चाहता था। हम वापस काका के घर लौट आए, एक बार और शीतल जल पिया। काका को कार में बिठाया और बगीची तक ले चलने को कहा। .......

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

बाकी पूजा तू झेल

हुत दिनों से ये कहा जा रहा था कि डूंगरली और इंद्रगढ़ जाना है। पर मौका ही नहीं मिल रहा था। इस बार नवरात्र के अंत में यह मौका आ गया। बेटे को बंगलूरू से भोपाल तक किसी आवश्यक काम से आना पड़ा और वह वहाँ से कोटा चला आया। उस के आने का समाचार मिलते ही बेटी भी अवकाश ले कर शनिवार की रात्रि को घर आ पहुँची।  रविवार की सुबह हम अपनी आठवें वर्ष में चल रही मारूती-800 से डूंगरली के लिए रवाना हुए। डूंगरली कोटा जिले की पीपल्दा तहसील का एक छोटा सा गाँव है, और पंचायत मुख्यालय भी। इस गाँव का कोई बड़ा महत्व नहीं। इस के पास ही कोई दो किलोमीटर दूर एक अन्य छोटा गाँव है 'खेड़ली बैरीसाल' इस गाँव  में मुझ से पाँचवीं पीढ़ी और उस के पहले कोई दो-तीन पीढ़ी तक के पूर्वज रहा करते थे।  डूंगरली में गाँव के बाहर एक ऊंचे गोल चबूतरे पर एक चौकोर चबूतरा इस पर एक आदमकद हनुमान मूर्ति स्थापित है। इस के बारे में यह किवदन्ती प्रचलित है कि हनुमान मूर्ति पहले लकड़ी की थी, गाँव वाले उन्हें बहुत मानते थे और हनुमान जी गाँव के रक्षा करते थे। कभी चोरी चकारी तक न होती थी। फिर एक रात कोई चोर गाँव में घुस आया तो हनुमान जी ने उसे ठोक-पीट कर अपने दाहिने पैर के नीचे दबा लिया। गाँव वालों की नींद खुली तो चोर मूर्ति के नीचे दबा मिला। पर इस ठोक-पीट में लकड़ी की मूर्ति क्षतिग्रस्त हो गई। गाँव वालों ने वहाँ प्रस्तर मूर्ति बनवा कर लगा दी। इस किवदंती के कारण इस मूर्ति की मान्यता हो गई। हमारे पूर्वजों ने भी इसी मूर्ति में अपने इष्ट को देखा और हर काम में उन का दखल स्थापित हो गया। शादी हो, संतान जन्म हो तो हनुमान जी को ढो़कना जरूरी। पहली पुरुष संतानों के केशों का प्रथम मुंडन यहीं होने लगा। मेरा भी प्रथम मुंडन पाँच वर्ष की उम्र में यहीं हुआ था। 

हाड़ौती में हाड़ा राजपूतों का राज्य स्थापित होने के पहले लंबे समय तक ब्राह्मण राज्य करते रहे। बाद में यह ब्राह्मण राज्य नष्ट होने पर राजवंश के लोगों को चित्तौड़ राज्य में शरण लेनी पड़ी। कुछ सौ वर्षों तक वहाँ रहने के बाद उन के वंशज पुनः हाड़ौती में लौट आए। यहाँ के निवासियों से उन्हें सम्मान मिला, राजा तो वे हो नहीं सकते थे। लेकिन वे वापस लौट कर जहाँ भी बसे वहाँ तुंरत ही ग्राम-गुरु हो गए और हाड़ा सामंतों से भी उन्हें सम्मान मिला। पूर्वजों के राजा होने का स्वाभिमान शायद उन में अब भी शेष था। इस लिए यदि कभी किसी सामंत से टकराहट हो जाती तो वे गाँव छोड़ दिया करते थे। यही कारण हमारे पूर्वजों का खेड़ली ग्राम को छोड़ने का रहा। उन्हों ने सामंत से अपने रिश्ते न तोड़े लेकिन गाँव छोड़ दिया। मेरे दादा जी कहा करते थे कि उन के पिताजी खेड़ली छोड़ कर गैंता आ गए थे और कहते थे कि खेड़ली जाना तो सही पर कभी रात वहाँ न रुकना। गैंता कोटा राज्य का भाग होते हुए भी काफी स्वतंत्र था। वहाँ किसी तरह के व्यापार पर कोई टैक्स न था। चंबल के किनारे होने के कारण नदी में चलने वाली नावों से माल गैंता आता और इलाके के लोग वहीं से माल खरीदते। इस तरह गैंता व्यापारिक केंद्र होने से बहुत संपन्न था। आज उसे भले ही गाँव की संज्ञा दी जाती हो, पर सत्तर-अस्सी वर्ष पहले तक वह एक नगर की भाँति ही रहा होगा। 

पारिवारिक कामों से मैं बचपन से ही डूंगरली जाता रहा। वहाँ जो मूर्ति अब स्थापित है वह मुझे आकर्षित करती रही। इस मूर्ति में हनुमान जी के बाएँ पैर के नीचे एक शत्रु दबा हुआ है, दायाँ पैर नीचे भूमि पर है, दायाँ हाथ मुड़ कर कमर पर टिका हुआ है और बायाँ हाथ सिर के ऊपर है। यह एक नृत्य मुद्रा है। जैसे हनुमान जी शत्रु को परास्त कर उस की छाती पर पैर रख कर नृ्त्य कर रहे हों। किवदन्ती को बचपन में मैं सही मानता था। लेकिन धीरे-धीरे उस पर से विश्वास समाप्त हो गया और मैं उस मूर्तिकार का प्रशंसक होता चला गया जिस ने उस मूर्ति को गढ़ा था। उस ने शत्रु को परास्त करने के बाद के उल्लास को उस मूर्ति में व्यक्त करने का प्रयत्न किया था। बाद में मुझे यह भी पता लगा कि इस रूप की यह मूर्ति अकेली नहीं है। भीलवाड़ा जिले में एक प्राचीन स्थान मैनाल में और जयपुर के जौहरी बाजार के प्रसिद्ध हनुमान जी की मूर्तियाँ भी इसी मूर्ति की प्रतिकृति हैं, जैसे एक ही मूर्तिकार ने इन तीनों मूर्तियों को गढ़ा हो।  

कोटा से कोई बीस किलोमीटर चले होंगे कि आगे एक कार और दिखाई दी। उसे देख पत्नी जी कहने लगी ये भी कहीं पूजा करने जा रहे हैं, कार में पीछे माला दिखाई दे रही है। मैं ने कार की ओर ध्यान दिया तो पता लगा वह चाचा जी के लड़के राकेश की कार है। कोई पाँच किलोमीटर तक मैं उस कार के पीछे-पीछे चलाता रहा। पर वह अत्यन्त धीमी चाल से चल रही थी। आखिर मैं ने अपनी कार आगे निकाल ली। रास्ते में इटावा में रुक कर हमने पान लिए। यह पान की दुकान मेरे एक मित्र की होती थी, लेकिन वह या उस के परिवार का कोई दुकान पर दिखाई न दिया। पूछने पर पता लगा कि मित्र इटावा छोड़ कर श्योपुर रहने लगा है, दुकान किराए पर दे दी है। इटावा से ही एक सड़क गैंता तक जाती है। गैंता में हमारे पूर्वजों चार पीढ़ियों ने निवास किया है। अभी भी वहाँ परिवार की कुछ कृषि भूमि, मकान और दो दुकानें मौजूद हैं। मैं ने पत्नी और बच्चों को उकसाया। गैंता देखना हो तो वापसी में चल चलेंगे। उन में से किसी ने कभी इस गाँव में कदम भी न रखा था। वे कहने लगे चले चलेंगे। 

म डूंगरली मंदिर पर पहुँचे तो जैसी मुझे आशा थी हनुमान मूर्ति पर श्रृंगार किया हुआ था। लेकिन इस से मूर्ति के दोनों हाथ दब गए थे और दिखाई ही नहीं पड़ रहे थे। इस श्रृंगार ने मूर्ति के उस स्वाभाविक सौन्दर्य और भाव को नष्ट कर दिया था जिस के लिए मूर्तिकार ने उसे गढ़ा था। मेरा मन श्रृंगारिकों के प्रति निराशा से भर गया। पहले जब हम आते थे तो कई दिनों से मूर्ति का श्रंगार नहीं हुआ होता था। हम मूर्ति को स्नान करवा कर उस पर चमेली के तेल और सिंदूर चढ़ाते थे। फिर सफेद और रंगीन पन्नियों से इस तरह सजाते थे कि मूर्तिकार का भाव सौन्दर्य द्विगुणित हो जाए। लेकिन जिस तरह का श्रंगार किया हुआ था उस पर ऐसी गुंजाइश न थी। हम ने दर्शन किए। पत्नी जी ने पूजा की सामग्री दी जिस से पूजा कर दी गई। तेल की पूरी शीशी मूर्ति में हनुमान के पैरों तले दबे शत्रु पर उड़ेल दी गई, फिर वहीं कुछ सिंदूर पोत कर चांदी वर्क चढ़ा दिया गया। शेष पूजा भी वहीं शत्रु पर समर्पित हो गई। कुछ ही देर में चाचा जी, राकेश, राकेश की पत्नी और पुत्र व राकेश के छोटे भाई का पुत्र भी वहाँ पहुँच गए। उन की पूजा आरंभ हो गई। यह पूजा भी पूरी तरह शत्रु को ही झेलनी पड़ी।   मैं हनुमान की शत्रु पर हुई कृपा पर मुस्कुरा उठा। लगता था हनुमान जी भी अपने सैंकड़ों भक्तों द्वारा बार-बार की जा रही पूजा से तंग आ गए हों और पैर के नीचे दबे शत्रु से कह रहे हों भाई तेरी वजह से मुझे इतना महत्व मिला है, मुझे तो इसी श्रंगार में रहने दो, मैं सदियों से नृत्य मुद्रा में खड़े-खड़े थक भी गया हूँ, अब अधिक पूजा मुझ से झेली नहीं जाती, बाकी की पूजा तू ही झेल! चाचा जी भोजन तैयार कर लाए थे। हम से बहुत आग्रह किया कि हम भी भोजन करें। लेकिन हम चल दिए, हमें गैंता भी जाना था। 

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

हमद सिराज फ़ारूक़ी एम.ए. (उर्दू) हैं, लेकिन यहाँ कोटा में अपना निजि व्यवसाय करते हैं। जिन्दगी की जद्दोजहद के दौरान अपने अनुभवों और विचारों को ग़ज़लों के माध्यम से उकेरते भी हैं। 'विकल्प' जनसांस्कृतिक  मंच कोटा द्वारा प्रकाशित बीस रचनाओं की एक छोटी सी पुस्तिका उन का पहला और एक मात्र प्रकाशन है। अपने और अपने जैसे लोगों के सच को वे किस खूबी से कहते हैं, यह इस ग़ज़ल में देखा जा सकता है .......

'ग़ज़ल'

इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

  • हमद सिराज फ़ारूक़ी

बढ़ी है मुल्क में दौलत तो मुफ़लिसी क्यूँ है
हमारे घर में हर इक चीज़ की कमी क्यूँ है

मिला कहीं जो समंदर तो उस से पूछूंगा
मेरे नसीब में आख़िर ये तिश्नगी क्यूँ है

इसीलिए तो है ख़ाइफ ये चांद जुगनू से 
कि इस के हिस्से में आख़िर ये रोशनी क्यूँ है

ये एक रात में क्या हो गया है बस्ती को
कोई बताए यहाँ इतनी ख़ामुशी क्यूँ है

किसी को इतनी भी फ़ुरसत नहीं कि देख तो ले
ये लाश किस की है कल से यहीँ पड़ी क्यूँ है

जला के खुद को जो देता है रोशनी सब को
उसी चराग़ की क़िस्मत तीरगी क्यूँ है

हरेक राह यही पूछती है हम से 'सिराज' 
सफ़र की धूल मुक़द्दर में आज भी क्यूँ है



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रविवार, 10 अप्रैल 2011

दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

अखिलेश 'अंजुम'
    खिलेश जी वरिष्ठ कवि हैं। मैं उन्हें 1980 से जानता हूँ। काव्य गोष्ठियों और मुशायरों में जब वे अपने मधुर स्वर से तरन्नुम में अपनी ग़ज़लें प्रस्तुत करते हैं तो हर शैर पर वाह! निकले बिना नहीं रहती। मैं उन का कोई शैर कोई कविता ऐसी नहीं जानता जिस पर मेरे दिल से वाह! न निकली हो। उन्हों नें ग़जलों के अतिरिक्त गीत और कविताएँ भी लिखी जिन्हों ने धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नवनीत जैसी देश की महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाया। वे सदैव साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े रहे। वे आज भी विकल्प जनसांस्कृतिक मंच के सक्रिय पदाधिकारी हैं। आठ अप्रेल 2011 की शाम इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन के संबंध में नगर की गैरराजनैतिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की बैठक में अखिलेश जी मिले। उन्हों ने अपने एक गीत का उल्लेख किया। मैं यहाँ वही गीत आप के लिए प्रस्तुत कर  रहा हूँ। 

    दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों

    • अखिलेश 'अंजुम'


    आम आदमी का क़त्ल खेल हो न जाए
    लोकतंत्र देश में मखौल हो न जाए
    और देश फिर कहीं ये जेल हो न जाए
    न्यायपालिका कहीं रखैल हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    ये प्रवाह रोकना पड़ेगा दोस्तों।

    बढ़ रहा है छल-कपट-गुनाह का चलन
    और बदल रहा है ज़िन्दगी का व्याकरण
    प्रहरियों का हो गया है भ्रष्ट आचरण 
    भ्रष्टता को राजनीति कर रही नमन

    क़ायदे-नियम यहाँ पे अस्त-व्यस्त हैं
    मंत्रियों में कातिलों के सरपरस्त हैं
    देश इनकी दोस्तों जागीर हो न जाए
    और ये हमारी तक़दीर हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    दुर्ग इनका तोड़ना पड़ेगा दोस्तों।

    धर्म जिसने जोड़ना सिखाया था हमें
    रास्ता उजालों का दिखाया था हमें
    आज वो ही धर्म है सबब तनाव का
    जिसने कर दिया है लाल रंग चुनाव का

    आदमी की जान है तो ये जहान है
    धर्म है, चुनाव और संविधान है
    मज़हबों के नाम  पर न तोड़िए हमें
    राह पर गुनाह की न मोड़िए हमें

    तोड़ने की साज़िशों का काम हो न जाए
    धर्म, राजनीति का गुलाम हो न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों
    कुछ निदान खोजना पड़ेगा दोस्तों।

    चाह आज जीने की बबूल हो गई 
    हर खुशी हमारी आज शूल हो गई
    बोझ से दबी हुई हर एक साँस है
    आज आम आदमी बड़ा उदास है

    जानकर कि दुश्मनों के साथ कौन हैं
    जानकर कि साजिशों के साथ कौन हैं
    अब सितम का हर रिवाज़ तोड़ने उठो
    अब सितम की गर्दनें मरोड़ने उठो 

    चेतना का कारवाँ ये थम कहीं न जाए
    धमनियों का ख़ून जम कहीं न जाए

    आप को ही सोचना पड़ेगा दोस्तों 
    आँसुओं को पोंछना पड़ेगा दोस्तों। 

    शनिवार, 9 अप्रैल 2011

    भ्रष्टाचार के विरुद्ध वातावरण का निर्माण करेंगे


    ल शाम की बैठक में सौ से कुछ अधिक लोग अपने संगठनों के प्रतिनिधि के रूप में एकत्र हुए थे। इसलिए कि जन-लोकपाल-विधेयक के लिए चल रही लड़ाई में कोटा का क्या योगदान हो। तरह तरह के सुझाव आए। सभी अपना अपना तरीका बता रहे थे। आखिर अगले तीन दिनों का कार्यक्रम तय करने के लिए एक पाँच व्यक्तियों की समिति बना ली गई। सुबह साढ़े नौ बजे गांधी चौक पर एकत्र हो कर विवेकानंद सर्किल तक एक जलूस निकाला जाना तय हुआ। कुछ नौजवान तुरन्त ही आमरण अनशन पर बैठने को उतारू थे। लेकिन उन्हें समझाया गया कि इस की अभी आवश्यकता नहीं है। यदि आवश्यकता होने पर अवश्य ही उन्हें यह काम करना चाहिए। सब लोग अलग अलग संगठनों से थे लेकिन एक बात पर सहमति थी कि जो कुछ भी किया जाए वह अनुशासन में हो और लगातार गति बनी रहे। 

    स बैठक में यह आम राय थी कि जन-लोकपाल-विधेयक बन जाने से बदलाव आ जाएगा, इस बात का उन्हें कोई भ्रम नहीं है। वस्तुतः देश में बदलाव के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ेगी, जनता को संगठित करना पड़ेगा। इस के साथ ही लोगों में जो गलत मूल्य पैदा हो गए हैं उन्हें समाप्त करने और सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए सतत संघर्ष चलाना पड़ेगा। इस सतत संघर्ष के लिए सतत प्रयासरत रहना होगा। बैठक समाप्त होने के उपरान्त जैसे ही मैं घर पहुँचा टीवी से पता लगा कि सरकार और इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बीच समझौता होने वाला है। देर रात जन्तर-मन्तर पर विजय का जश्न आरंभ हो चुका था।

    सुबह लोग गांधी चौक पर जलूस के लिए एकत्र हुए। लेकिन संघर्ष का जलूस अब एक विजय जलूस में परिवर्तित हो चुका था। नौजवान लोग पटाखे छुड़ाने को उतारू थे। लेकिन पूछ रहे थे कि क्या वे इस जलूस में पटाखे छुड़ा सकते हैं। समिति ने तुरंत अनुमति दे दी। पटाखे छूटने लगे, जश्न मनने लगा। जब जलूस अपने गंतव्य पर पहुँचा तो लोगों ने अपने अपने विचार प्रकट किए। सभी का विचार था कि देश में बदलाव के लिए संघर्ष का एक युग आज से आरंभ हुआ है। इस कारण कल जिस एकता का निर्माण हुआ है उसे भविष्य के संघर्ष के लिए आगे बढ़ाना है। हर मुहल्ले में जनता को संगठित करना है और भ्रष्टाचार के विरुद्ध वातावरण का निर्माण करना है।  

    जीत का जश्न मनाएँ! अपनी एकता और संघर्ष को जीवित रखें और आगे बढ़ाएँ!!

    भ्रष्टाचार के विरुद्ध जन लोकपाल बिल अब सपना नहीं रहा है। सरकार को अण्णा हजारे के अनशन को लगातार मिल रहे और बढ़ रहे जन समर्थन के सामने झुकना पड़ा है। अण्णा हजारे द्वारा जन लोकपाल बिल को कानून की शक्ल देने के लिए जरूरी सभी मांगों को केन्द्र सरकार ने स्वीकार कर लिया। सुबह दस बजे के पहले तक इस पर सरकार का आदेश जारी होने की संभावना है। अण्णा ने सुबह साढ़े दस बजे अपना अनशन समाप्त करने की घोषणा कर दी है। जन्तर-मन्तर नई दिल्ली पर हजारों की संख्या में लोग जुटे हैं और जनता की इस जीत का जश्न मनाने में लगे हैं। असली जश्न तो सुबह सारा देश मनाएगा तब जब कि अन्ना अपना अनशन समाप्त करेंगे।अनशन समाप्त करने की घोषणा करने के पहले अण्णा हजारे ने स्पष्ट कर दिया था कि यह लड़ाई यहाँ समाप्त नहीं हुई है। यह देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने और देश की जनता की समस्याओं की समाप्ति तक जारी रहेगी। जितने लोग इस आंदोलन में साथ थे उन का नजरिया स्पष्ट था कि संघर्ष जारी रहेगा।
    सारा देश भ्रष्टाचार से त्रस्त था। उसे मार्ग ही नहीं मिल रहा था। मार्ग निकला जन-लोकपाल-बिल के प्रस्ताव और उस पर संघर्ष से। जैसे ही अण्णा हजारे ने अपना अनशन आरंभ किया देश भर में लोग एकजुट होना आरंभ हो गए। हर किसी ने अपनी भूमिका अदा करना आरंभ कर दिया। जिस तेजी से लोग जन्तर-मन्तर की ओर दौड़ने लगे उसी तेजी से देश भर में भी इस आंदोलन के समर्थन में लोगों की बैठकें होने लगीं, देश को जोड़ने का अभियान सा देश भर में आरंभ हो गया। इस आंदोलन का समय भी बहुत सटीक था। एक और देश ने एक  दिवसीय क्रिकेट विश्वकप जीता ही था, जिस से देश भर की भावनाएँ एक जुट थीं।  दूसरी ओर सरकार और राजनेताओं के सामने कुछ राज्यों के चुनाव सामने खड़े थे। ऐसी परिस्थितियों में कोई भी सरकार या राजनैतिक दल किसी भी तरह जनता को नाराज नहीं करना चाहता था। चुनाव पूर्व का समय ही ऐसा होता है जब राजनैतिक दल और उन के नेता सब से कमजोर स्थिति में होते हैं। इन सब परिस्थितियों का लाभ भी इस आन्दोलन को प्राप्त हुआ। लेकिन सारी परिस्थितियाँ अनुकूल होते हुए भी सब कुछ ठीक नहीं होता। उस समय एक धक्का पर्याप्त होता है तंत्र को मनचाही दिशा में ले जाने के लिए वही यहाँ हुआ। अण्णा के अनशन और देशवासियों के व्यापक जन समर्थन ने उसे दिशा दे दी जिस से देश की जनता को यह उपलब्धि हासिल हुई। हमें इस से यह सबक लेना चाहिए कि परिस्थितियाँ बने तो उन का लाभ व्यापक जनता के हित में किए जाने के लिए जनता को संगठित और तैयार रहने की आवश्यकता है। 
    स आन्दोलन में उन सैंकड़ों-हजारों जन संगठनों की भूमिका के महत्व से नकारा नहीं जा सकता जिन्हों ने रातों-रात इस आंदोलन का समर्थन किया और इस के लिए जन-समर्थन जुटाने के लिए रात-दिन एक किया। ये वे ही संगठन थे जो कि छोटे-छोटे स्तरों पर वर्षों से सक्रिय थे। इस से जो सबक हम सीख सकते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है। जनता को हर स्तर पर संगठित रहना चाहिए। किसी भी जीत का लाभ भी जनता को तभी मिल सकता है जब कि वह संगठित रहे। एक अकेला व्यक्ति टूट जाता है। लेकिन जब लोग सामुहिक हितों के लिए इकट्ठा हो जाते हैं तो व्यक्ति-व्यक्ति में आत्मविश्वास का पौधा अंकुराने लगता है।  हम लोकपाल कानून अस्तित्व में आ जाने के बाद भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने की मुहिम लगातार चलानी पड़ेगी और वह तभी संभव है जब जनता संगठन में रहे। हमें अपने आस-पास के जन संगठनों को मजबूत करना चाहिए और जहाँ संगठन नहीं हैं वहाँ संगठनों का निर्माण करना चाहिए। इन संगठनों को चुनावी राजनीति और चुनावी राजनेताओं से दूर रखना चाहिए। 

    देश की सारी जनता को इस जीत पर अशेष बधाइयाँ। 
    म सभी को संकल्प करना चाहिए कि हम अपने निजि जीवन में भ्रष्टाचार को न अपनाएँ, जहाँ भी वह नजर आए उसे नष्ट करने के लिए व्यक्तिगत और सामाजिक संघर्ष चलाएँ। एकता और संघर्ष-संघर्ष और एकता ही सफलता की कुंजी है।