@import url('https://fonts.googleapis.com/css2?family=Yatra+Oney=swap'); अनवरत

रविवार, 15 अगस्त 2010

चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश

तिरेसठ बरस पहले बर्तानियाई संसद का एक कानून इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट, 1947 लागू हुआ, और हम आजाद हो गए। हमारे देश पर अब बर्तानिया का नियंत्रण नहीं रह गया था। लेकिन हम दो देश बन गए थे। एक इंडिया और दूसरा पाकिस्तान। केवल एक गवर्नर जनरल छूट गया था। तकरीबन ढाई बरस में हमने अपना संविधान बना कर लागू किया और उसे भी अलविदा कह दिया। हम अब पूरी तरह आजाद थे। पूरी तरह खुदमुख्तार। हमने देश बनाना शुरू किया और आज तक बना ही रहे हैं। हमने जो कुछ बनाया है हमारे सामने है। महेन्द्र 'नेह' ने इन बारह दोहों में अपने बनाए देश की पड़ताल की है।
प भी गुनगुनाइये ये दोहे .......

महेन्द्र 'नेह' के बारह 'दोहे'
 तू बामन का पूत है, मेरी जात चमार
तेरे मेरे बीच में, जाति बनी दीवार।।
वो ही झाड़ू हाथ में, वही तगारी माथ।
युग बदले छूटा नहीं, इन दोनों का साथ।।


हरिजन केवल नाम है, वो ही छूत अछूत।
गांधी चरखे का तेरे, उलझ गया है सूत।।

अब मजहब की देह से, रिसने लगा मवाद।
इन्सानों के कत्ल का, नाम हुआ जेहाद।।


फिर मांदो में भेड़िये, फिर से बिल में साँप।
लोक-तंत्र में जुड़ रही, फिर पंचायत खाँप।।

घोड़े जैसा दौड़ता, सुबह शाम इंसान।
नहीं चैन की रोटियाँ, नहीं कहीं सम्मान।।

फुटपाथों पर चीखता, सिर धुनता है न्याय।
न्यायालय में देवता, बन बैठा अन्याय।।

सत्ता पक्ष-विपक्ष हैं, स्विस-खातों में दोय।
काले-धन की वापसी, आखिर कैसे होय।।

जिसने छीनी रोटियाँ, जिसने छीने खेत। 
वोट उसी को दे रहे, कृषक मजूर अचेत।।

कहने को जनतंत्र है, सच में है धन-तंत्र।
आजादी बस नाम की, जन-गण है पर-तंत्र।।
चिंदी-चिंदी बीनती, फिर भी नहीं हताश।
वह कूड़े के ढेर में, जीवन रही तलाश।।

चलो चलें फिर से करें, नव-युग का आगाज।
लहू-पसीने से रचें,  शोषण-हीन समाज।।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

दर्पण झूठ बोलता है

श्री रघुराज सिंह हाड़ा हाड़ौती के शीर्षस्थ गीतकारों में से एक हैं। वर्तमान में वरिष्ठतम भी। उन्हों ने हाड़ौती के साथ साथ ही हिन्दी में भी सुंदर गीतों की रचना की है। उन के गीत जीवन से निकलते हैं और जीवन की सचाइयों को उद्घाटित करते हैं। आज प्रस्तुत है उन का एक हिन्दी गीत..........'दर्पण झूठ बोलता है'
 







 दर्पण झूठ बोलता है
  • रघुराज सिंह हाड़ा
किस से बात करें दर्पण झूठ बोलता है
मन का भेद छुपा केवल प्रतिबिंब खोलता है।
................................. दर्पण झूठ बोलता है।।

लगता है हर दर्पण धुंध लपेटे होता है
चेतन को चुप कर केवल आकृतियाँ ढोता है
दिखने-होने का अन्तर तो मन टटोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

बातों के बोपारी बोलें तो जादू जागे
भीड़ चले पीछे वो माला पहन चलें आगे
सच-सवाल कर लो तो उन का खून खौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

ऐसा शहर बसा देखा जो दिखता सुंदर था
ऊपर आकर्षक था भीतर पूरा बंजर था
विज्ञापन का बाट मगर सच कहाँ तौलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई बार कुछ लोग सचाई से डर जाते हैं
(पर) मनगढ़ सपने दिखा उन्हें दर्पण बहलाते हैं
पर आत्म प्रवंचन तो जीवन में जहर घोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।।

कई कई समझौते मन समझाने आते हैं
सहमति को सुविधाओं का सुख सार बताते हैं
पर कबीर ओढ़े उसूल का कफन डोलता है।
................................ दर्पण झूठ बोलता है।। 
  • मोटर गैराज, झालावाड़, (राजस्थान)

बुधवार, 11 अगस्त 2010

बेटे-बेटी के घर आने का उत्सव

म्प्यूटर अनुप्रयोग में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर लेने के बाद बेटे वैभव ने कुछ सप्ताह घर पर बिताए। आरंभ से ही शिक्षा में उत्तम प्रथम श्रेणी प्राप्त करते रहने से उस की इच्छा थी कि काम भी उस के अनुरूप ही मिले। इस कारण से वह सूचना तकनीकीशियनों के लिए भारत में सब से बड़े और उत्तम बाजार बंगलुरू के लिए रवाना हो गया। वह दीपावली के ठीक बाद गया था और फिर ठीक होली के दिन ही वहाँ से लौटा। कुल चार माह का उस का अनुभव बहुत विचित्र था। उस ने इस बीच बहुत परीक्षाएँ और साक्षात्कार दिए। लेकिन पढ़ाई और ज्ञान एक चीज है और परीक्षाएँ पास करना और साक्षात्कार में सफल होना दूसरी बात। वह एक दो सीढ़ी तो पार कर लेता लेकिन उस से आगे असफल हो जाता। यह करते करते ही उस ने इस काम में भी अपने कौशल को विकसित करना आरंभ कर दिया। 
स से पहले कैंपस सैलेक्शन का उस का अनुभव बहुत बुरा रहा था। जब जब भी कैंपस में चुनाव के लिए कोई कंपनी आती उसे अपनी ट्रेनिंग छोड़ भिलाई से इंदौर की यात्रा करनी पड़ती। कैंपस सेलेक्शन में भी बहुत जुगाड़ थे पहले तो अपने ही कॉलेज के टीपीओ को पटा के रखो, फिर किसी माध्यम से आने वाली कंपनी के मानव संसाधन प्रबंधक को पटाओ। न पटे तो किसी स्थानीय ऐजेंसी से कुछ जुगाड़ बिठाओ। वह यह सब नहीं करना चाहता था। चाहता था कि अपनी योग्यता से उसे कुछ मिले। आखिर एक कंपनी ने उसका चुनाव कर लिया उसे सेवा के लिए प्रस्ताव मिल गया। लेकिन जब जोइनिंग का समय आया तो पता लगा कि कॉलेज में कैंपस चुनाव के लिए जितनी कंपनियाँ आई थीं सब की सब जाली थीं। जैसे-जैसे नौकरी में चढ़ने का वक्त आता जा रहा था उन कंपनियों के जाल-स्थल गायब हो चुके थे। उन में दिए गए पतों पर कुछ और ही था। आखिर उसने बंगलुरू की राह पकड़ी।  
होली के बाद जब वह बंगलुरू पहुँचा तो अब तक के अनुभव से उस ने चयन की तमाम सीढ़ियाँ पार करना सीख लिया था और मानव संसाधन साक्षात्कार के स्तर तक पहुँचने लगा। बस यहीं से सारी गड़बड़ आरंभ हो गई। वहाँ उसे पता लगता कि वे कंप्यूटर अनुप्रयोग के स्नातकोत्तरों को नहीं लेते, या ये पता लगता कि उन्हें केवल एक को ही लेना है या फिर ये कि उन के पास अभी डॉटनेट को परखने वाला कोई नहीं है। जैसे ही उपलब्ध होगा वे उसे फिर से बुलाएँगे। वह हर सप्ताह एक-दो साक्षात्कार देता रहा। इसी तरह चार माह और निकल गए। आखिर उसे भारत की एक बड़े सूचना तकनीक उद्योग ने नोएडा में साक्षात्कार के लिए बुलाया। वह ढाई दिन की रेल यात्रा के बाद दिल्ली पहुँचा। लिखित परीक्षा हो गई, ठीक उस के बाद मानव संसाधन प्रबंधक का संदेश मिला कि उन्हें भेंट के रूप में आधी पेटी से अधिक राशि देनी होगी, तभी साक्षात्कार आगे होंगे और गारंटी के साथ नौकरी दे दी जाएगी। बेटे ने गारंटी का प्रकार पूछा तो पता लगा वह सिर्फ मौखिक है। उस ने बोरिया-बिस्तर समेटे और जिस भी पहली ट्रेन में स्थान मिला कोटा के लिए रवाना हो गया। 
ल शाम वैभव कोटा पहुँचा तो हमारे लिए उत्सव जैसा था। आखिर बेटा चार माह बाद घर आया था। उस के मनपसंद आलू के पराठे बनाए गए। उस के बहाने से हमें भी मिले तो एक अधिक ही खा गए। आज की सुबह भी भोजन में महिनों बाद बैंगन की सब्जी दिखाई दी। बैंगन भी अच्छे और स्वादिष्ट थे। लेकिन दो समय अतिभोजन और उपर से बला की ऊमस दिन भर पसीने बहते रहे। जैसे-तैसे घर पहुँचा तो संदेश मिला कि पूर्वा बेटी भी आ रही है, फरीदाबाद से चल चुकी है। भाई के एक सप्ताह घर रहने की खबर जान कर वह भी तीन दिनों का अवकाश ले कर आ रही है। हमारा उत्सव तो दुगना हो गया। अगले सोमवार तक घर में पूरा उत्सव ही रहेगा। जब तक बेटे-बेटी घर में हैं। मैं और वैभव तुरंत उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन जाने की तैयारी में जुट गए।

अब खाएँ क्या? और पिएँ क्या?

ल  मेरे घर से कुछ ही दूर एक मकान में नकली घी निर्माण करते और ब्रांडेड सरस घी की पैकिंग में पैक करते हुए कुछ लोग पकड़े गए। यह ब्रांड राजस्थान सरकार द्वारा नियंत्रित सहकारी समिति का उत्पादन है। अब किस का विश्वास किया जाए? अब ब्रांड का भी विश्वास नहीं रहा। क्या है ऐसा जिस पर विश्वास किया जाए?
ल, सब्जियाँ, दूध, कोल्ड ड्रिंक, घी, खाद्य तेल, आटा, दाल, मसाले और मिठाई जो कुछ भी  हम खा रहे हैं, कुछ भी तो दुरुस्त नहीं। या तो वे नकली हैं या फिर मिलावटी। आमों में इस साल वैसा स्वाद नहीं था, सब के सब कैल्शियम कार्बाइड से पकाए हुए। नतीजा यह कि आम एक बार घर में आ गया तो एक सप्ताह तक दुबारा लाने की इच्छा तक नहीं होती। जाता है। कैल्शियम कार्बाइड में आंशिक रूप से आर्सेनिक और फास्फोरस  पाए जाते हैं। इस से एसिटिलीन गैस निकलती है, जो फलों को शीघ्रता से पका देती है। इस तरह पकाय हुआ फल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। केला सारे का सारा इसी से पकाया जा रहा है। अब उसे खाना भी बंद। गैस के प्रभाव में आकर फल को विकसित करने वाले हार्र्मोस तेजी से सक्रिय हो जाते हैं। कैल्शियम कार्बाइड का इस्तेमाल खाद्य पदार्थो में नहीं किया जाना चाहिए और इसे बच्चों की पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए। इसकी सहायता से पकाया जाने वाला फल आकर्षक लगता है और उस पर रंग भी खूब निखरता है।
मैं बचपन में दूध पिया करता था। घर में भैंस थी। उस का स्वाद अभी भूला नहीं गया है। लेकिन उस स्वाद को छोड़ उस के आसपास का दूध भी अब कहीं नहीं मिलता। हम हर तीसरे दिन घर से डेढ़ किलोमीटर दूर दशहरा मैदान में गूजरों के यहाँ जा कर अपने सामने भैंस दुहा कर तीन किलो दूध ले आते हैं। उसी से काम चलता है। यह बाजार के दूध से बेहतर है। बाजार के दूध का कुछ भरोसा नहीं कहीं वह सिंथेटिक न हो? यूरिया, डिटरजेंट और खाद्य तेल से बना हुआ। रोज सुबह जब सब्जी मंडी से आने वाले सब्जी बेचने वाले फेरी लगाते हैं तो यह सोच कर परेशानी होने लगती है कि क्या लिया जाए। भाव तो अपनी जगह हैं। उन की गुणवत्ता का कुछ पता नहीं। पिछले एक माह में केवल दो सब्जियाँ थीं जिन में कुछ स्वाद और गुणवत्ता महसूस हुई। एक कद्दू और दूसरा क्हुळींजरा। कद्दू अक्सर तोड़ कर रख लिया जाता है और जैसे जैसे पकता जाता है बिकता जाता है। क्हुळींजरा बरसात में खेतों में कचरे की तरह उगता है जिसे फसल बचाने के लिए किसान उखाड़ फैंकते हैं। बेकार की चीज होने से यह अभी अपनी मूल शक्ल में मिल जाता है। बस इस के पत्ते को उबाल-निचोड़ कर ही सब्जी बनाई जा सकती है। बाकी सारी सब्जियां कीटनाशकों की शिकार हो चुकी हैं। कहते हैं ताजा और आकर्षक दिखाने के लिए सब्जियाँ रसायनों के घोल से रंगी जाती हैं। अब तो यह भी सुना है कि सब्जियों का आकार बढ़ाने के लिए उनमें आक्सीटोसिन हार्मोस के इंजेक्शन भी लगाए जा रहे हैं।
कुल मिला कर हमें जो मिल रहा है वह वो नहीं जो हमें दिख रहा है। हम खरीदते कुछ हैं और मिल कुछ रहा है। ऐसे में पत्नी जी की पुरानी शैली का रहन-सहन बहुत याद आ रहा है। आटे के लिए साल भर के गेहूँ खरीद कर रखो औऱ हर महिने जरूरत के अनुसार साफ कर पिसाते रहो। बीच बीच में कुछ मोटा अनाज मक्का, ज्वार और बाजरा भी प्रयोग करो। दालों के साबुत बीज खरीदो और दल कर दाल बनाओ। मसाले हल्दी, मिर्च और धनिया फसल  के समय साल भर का खरीदो और पिसवा कर स्टोर करो। तेल सीधे मिल से मंगवाओ। और घी उसे तो खाने के लिए अब डाक्टर भी मना कर रहे हैं। फिर भी जो भैंस का दूध हम सामने दुहा कर लाते हैं। उस से जरूरत का निकल आता है। चाय और कॉफी जरूर ब्रांडेड ला रहे हैं और अभी तक उन के मामले में कोई शिकायत नहीं मिली है। यह तो मैं इस लिए कर पा रहा हूँ कि पत्नी इन कामों के लिए पूरा वक्ती कामगार बनी है। लेकिन यह सब सब के लिए संभव नहीं है। फिर सब का गुजारा कैसे हो?
ह सब सरकारों को नियंत्रित करना चाहिए। लेकिन सरकार ने तो सब कुछ मुनाफे की अर्थ व्यवस्था पर छोड़ दिया है। आखिर उस मुनाफे का एक अंश राजनैतिक दलों को भी तो मिलता है जिस से चुनाव लड़ा जाता है और जिस से सरकार बनती है। सरकार के पास इन सब को नियंत्रित करने के लिए मशीनरी है। इंसपेक्टर हैं। लेकिन वे सरकार के कम और इन मुनाफाखोरों के ज्यादा वफादार हैं। आखिर सरकार उन्हें सिर्फ वेतन देती है। ये लोग उसे वेतन के अलावा सब कुछ दे सकते हैं और उन की इच्छानुसार काम न करने पर किसी कालापानी जैसी जगह पर उस का तबादला करवा देते हैं जो सरकार का मिनिस्टर ही करता है।  इस मुनाफे की अर्थव्यवस्था को बिना नियंत्रण छोड़ दिया जाए तो यह ऐसा ही व्यवहार करने लगती है। इस पर कठोर नियंत्रण आवश्यक है। लेकिन हमारी व्यवस्था कठोर तो क्या मुलायम नियंत्रण कर पाने में भी असमर्थ है। 
ब फिर क्या इलाज है? क्या इस मुनाफे की अर्थ व्यवस्था को ही छोड़ दिया जाए? छोड़ा जाए तो अपनाने के लिए हमारे पास कौन सी अर्थव्यस्था है?

सोमवार, 9 अगस्त 2010

माफी गलती का हल नहीं, गलती के कारणों को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए

ल बोधि भाई का मेल मिला, उन्हों ने विनय पत्रिका पर अपने आलेख "बोलने पर जीभ और छीकने पर नाक काटने वाले शब्द हीन समाज में आपका स्वागत है" पढने का आग्रह किया था। मैं ने इस विषय पर लिखा बहुत पढ़ा है लेकिन मैं इस तरह के विवादों पर राय प्रकट करने से बचता रहा हूँ और उन से तब तक दूर रहने की कोशिश की है जब तक पानी सर से न गुजर जाए। हमेशा जुगाड़ों में विवादों की जड़ें छुपी रहती हैं। मैं कभी जुगाड़ी नहीं हो सका। पिता जी चाहते थे मैं नौकरी कर लूँ, वह भी सरकारी होनी चाहिए। पर जब राज्य सेवा जैसी नौकरी का वक्त आया तो घबरा गया कि यदि साक्षात्कार में किसी तरह चुन लिया गया तो नौकरी कैसे कर पाउंगा। जब न्यायिक सेवा में जाने का अवसर आया तो एक वरिष्ठ वकील साहब ने बैठ कर घंटे भर वक्तव्य दिया कि मैं कितनी भारी गलती कर रहा हूँ कि वकालत में मेरे जैसा कोई न होने पर भी मैं खुला मैदान छोड़ कर भाग रहा हूँ। मैं वकालत में बना रहा और वक्तव्य देने वाले वरिष्ठ वकील साहब कुछ माह बाद ही उच्च न्यायालय के जज हो गए। वकालत में भी मुझे सुझाव मिलते रहे कि मैं संस्थानिक वकालत करूँ। एक साथी की बदौलत जीवन बीमा निगम का वकील नियुक्त हुआ और आज तक अपने काम के आधार पर वहाँ टिका हूँ और इस लिए भी कि वहाँ जुगाड़ का कोई महत्व नहीं है। लेकिन यह जानता हूँ कि यदि मैं जरा भी जुगाड़ी होता और अपनी कमाई हुई शुल्क में से कुछ संस्थानिक अधिकारियों पर खर्च करने या फिर उन के साथ बांटने की चतुराई दिखाता तो बहुत सारे संस्थानों का सम्मानित वकील हो सकता था। ऐसे में जुगाड़ों का महत्व मैं अधिक जानता हूँ। विभूति जी आज जहाँ हैं जुगाड़ों के कारण हैं, यह वे भी जानते हैं और देश भी। वर्ना जहाँ वे हैं वहाँ होने के लायक और उन से बेहतर देश में दर्जनों व्यक्ति हैं। यदि वे जहाँ हैं वहाँ न होते तो उन का साक्षात्कार न तो नया ज्ञानोदय प्रकाशित करता और न ही प्रकाशन के उपरांत इतना हंगामा खड़ा होता। हो सकता था उन की कही बात का नोटिस भी न लिया जाता। 
मैं इस विवाद पर शायद चुप रहना चाहता हूँ। क्यों कि मुझे अभी तक यह समझ में नहीं आया है कि गलती से भी विभूति जी ने जिन लेखिकाओं को छिनाल कहा वह किस संदर्भ में कहा? और वे लेखिकाएँ कौन हैं? इस तरह से संदर्भ को छिपा कर उन्हों ने सभी लेखिकाओं पर कीचड़ उछाल डाला।  यह भी विचित्र बात है कि आप बिना संदर्भ बताए किसी को किसी उपाधि से विभूषित कर दें और फिर उसे गलती बता कर माफी मांग लें। मैं समझता हूँ कि ऐसी गलती तब तक नहीं हो सकती जब तक कि अवचेतन में कुछ कुसंस्कार न छुपे हुए हों या फिर आप इरादतन कुछ कहना चाहते हों।
मैं ने ऐसे बहुत लोग देखे हैं जो ईमानदारी के साथ वामपंथी हैं और बने रहना चाहते हैं, लेकिन अपने पारिवारिक सामंती संस्कारों से मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके हैं और यदा-कदा इन संस्कारों की झलक अपने व्यवहार में प्रदर्शित करते रहते हैं। जब उन्हें खुद पता लगता है कि वे क्या कर गए हैं? तो उस व्यवहार को छुपाने का प्रयत्न करते हैं। नहीं छुपा सकने पर गलती मान कर माफ कर देने को कहते हैं। ऐसे लोगों के पास प्रायश्चित के अलावा कोई मार्ग नहीं है। वे केवल प्रायश्चित कर के ही इन बीमारियों से छुटकारा प्राप्त कर सकते हैं।

विभूति जी ने गलती की, यह उन की समस्या है। उस गलती से बहुत सारी समस्याएँ खड़ी हो गई हैं, यह भी उन की समस्या है। उन्हों ने माफी मांग ली, इस से समस्या हल नहीं होती। उन्हें उस गलती के कारणों को खुद अपने अंदर तलाशना चाहिए, कि उन से गलती क्यों हुई?  क्या यह गलती उन के उन संस्कारों के कारण  हुई जिन्हें वे छोड़ना चाहते थे लेकिन नहीं छोड़ सके या फिर उन्होंने इरादतन किसी और इरादे से यह सब कहा था, यह तो वे ही बेहतर जानते हैं। उन्हें स्वयं आत्मालोचना करनी चाहिए औऱ गलती होने के कारण तलाश करना चाहिए। उस कारण से निजात पाने के लिए प्रायश्चित करना चाहिए।
हा सवाल इस बात का कि वे विश्वविद्यालय के कुलपति पद को छोड़ दें या उन्हें हटा दिया जाए तो इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। खुद पद छोड़ देने और हटा देने के बाद भी जुगाड़ी व्यक्ति हैं तो कुछ न कुछ ऐसा ही या इस से कुछ बेहतर जुगाड़ कर लेंगे। फिर उन के जाने के उपरांत विश्वविद्यालय में एक और कोई जुगाड़ी आ बैठेगा। हो सकता है आने वाला व्यक्ति अब सावधानी से व्यवहार करे और उन से निकृष्ठ होते हुए भी उन पर अपनी श्रेष्ठता साबित कर दे। वस्तुतः इस साक्षात्कार में की हुई गलतियों से जो कुछ उन्हों ने खोया है उस का शायद उन्हें या किसी अन्य को अनुमान भी नहीं है।
हाँ, एक बात विनम्रता पूर्वक मैं यह और कहना चाहता हूँ कि इतिहास में महान वे नहीं हुए जिन्हों ने कोई गलती नहीं की,अपितु वे हुए जिन्हों ने गलतियाँ कीं और पश्चताप की ज्वाला में जलते हुए खुद को कुंदन की तरह खरा बना लिया।

पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता?

आंधी थाने के के एक गाँव के रहने वाले राम अवतार जयपुर सेशन कोर्ट में वकील हैं। चार अगस्त को उन के साठ वर्षीय पिता जगदीश प्रसाद शर्मा को गांव के ही कुछ लोगों ने पीटा। उसी शाम जगदीश रिपोर्ट दर्ज कराने थाने पहुंचे तो थाना पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज नहीं की और कुछ घंटे थाने पर बिठा कर जगदीश को धक्के देकर बाहर निकाल दिया। बाद में उन का बेटा रामअवतार थाने गया और इस्तगासा करने की बात कही तो थाने पर बैठा एएसआई गोपाल सिंह गुस्सा हो गया। उसने दोनों को बाहर निकाल दिया। 
गले दिन पांच अगस्त को शाम करीब छह बजे थाने से जीप रामअवतार के घर आकर रूकी।  पुलिस ने बुजुर्ग जगदीश को घर से उठा लिया और थाने ला कर  बंद कर दिया। वकील बेटा रामावतार जब उनका हाल-चाल लेने थाने पहुंचा और अकारण वृद्ध को गिरफ्तार करने की बाबत जानकारी मांगी, तो थाने के सात पुलिस वालों ने मिल कर बाप-बेटे दोनों का हुलिया बिगाड़ दिया। थाना स्टाफ ने बेटे के कपड़े उतार कर उससे बुरी तरह मारपीट की।एएसआई गोपाल सिंह ने वकील रामअवतार को थाने के बाहर ले जाकर नंगा कर बुरी तरह पीटा और एक एक कर चार पुलिस वालों ने रामअवतार पर पेशाब किया। इतना करने पर भी जब पुलिस का जी नहीं भरा तो उन्होंने जलती सिगरेट से उसके हाथ पर वी का निशान बना दिया। बाद में उसे थाने से बाहर फेंक दिया।इस घिनौनी हरकत में एएसआई गोपाल सिंह, हेड कांस्टेबल लक्ष्मण सिंह, सिपाही देवी सिंह, राजकुमार, छीतर, रोशन और धर्मसिंह शामिल थे। राम अवतार ने आई जी को शिकायत की। उस के साथ जयपुर जिला बार के सभी वकीलों की ताकत थी। चारों पुलिसियों को तुरंत निलंबित कर दिया गया और वृत्ताधिकारी को मामले की जाँच सौंपी गई है।
राम अवतार वकील था इसलिए जल्दी सुनवाई हो गई। वर्ना यह मामला किसी न किसी तरह दब जाता। इस तरह के हादसे केवल राजस्थान में ही नहीं होते, देश के हर राज्य में हर जिले में कमोबेश होते रहते हैं। ये  मामले न केवल देश में पुलिस के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। अपितु हमारे देश की राजसत्ता के चरित्र को प्रदर्शित करते हैं। मैं जानता हूँ, जब किसी साधारण व्यक्ति को पुलिस में रपट लिखानी होती है तो उसे कई कई दिन तक पापड़ बेलने पड़ते हैं। ताकि यदि एक बार उस की रपट थाने में दर्ज हो भी जाए तब भी कम से कम जीवन में वह दुबारा रपट लिखाने का विचार तक अपने दिमाग में न लाए। यही रपट इलाके के जमींदार, साहूकार, किसी मिल मालिक को लिखानी हो तो खुद थाने का अधिकारी उस के लिए तैयार रहता है और रपट लिखाने वाले को गाइड करता है। बड़े अफसर और नेताजी फोन करते हैं कि ये एफआईआर तुरंत लिखनी है, और कि मुलजिमों के साथ क्या सलूक करना है? ऐसा सलूक कि सजा की एक किस्त तो अदालत में मामला पहुँचने के पहले ही पूरी कर ली जाए।
प्रश्न यह है कि पुलिस के इस चरित्र को आजादी के बाद लोकतंत्र स्थापित हो जाने के साठ बरस बाद भी बदला क्यो नहीं जा सका है? इसी माह हम आजादी की तिरेसठवीं सालगिरह मनाने जा रहे हैं। इस प्रश्न पर सोच सकते हैं कि पुलिस का चरित्र क्यों नहीं बदलता है? हो सकता है आप इस प्रश्न का उत्तर तलाश कर पाएँ। लेकिन मुझे जो उत्तर पता है उसे मैं आप लोगों को बताना चाहता हूँ। वास्तव में इस देश की राजसत्ता जो कि देश के पूंजीपतियों और जमींदारों की है, जो न के चाटुकारों की सहायता से कायम है, उसे पुलिस के इस चरित्र को बदलने की बिलकुल जरूरत नहीं है। वे इसी के जरीए तो अपनी हुकूमत चला रहे हैं। लेकिन;

लेकिन जनता को तो पुलिस के इस चरित्र को बदलने की जरूरत है, लेकिन क्या ये सभी पूंजीपति और जमींदार, राजनेता, पुलिस, फौज, गुंडे और खाकी-सफेद कपड़ो में ढके उन के चाटुकार इस चरित्र को बदलने देंगे? कदापि नहीं। जनता को राजसत्ता ही बदलनी होगी। कब और कैसे? यह तो जनता ही जानती है। 

शनिवार, 7 अगस्त 2010

"कल-युग-दर्शन" यादवचंद्र के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" का त्रयोदश सर्ग

यादवचंद्र पाण्डेय के प्रबंध काव्य "परंपरा और विद्रोह" के बारह सर्ग आप अनवरत के पिछले कुछ अंकों में पढ़ चुके हैं। अब तक प्रकाशित सब कड़ियों को यहाँ क्लिक कर के पढ़ा जा सकता है। इस काव्य का प्रत्येक सर्ग एक पृथक युग का प्रतिनिधित्व करता है। युग परिवर्तन के साथ ही यादवचंद्र जी के काव्य का रूप भी परिवर्तित होता जाता है।  इसे  आप इस नए सर्ग को पढ़ते हुए स्वयं अनुभव करेंगे। आज इस काव्य का त्रयोदस सर्ग "कल-युग-दर्शन" प्रस्तुत है ................ 
* यादवचंद्र *

त्रयोदश सर्ग
कल-युग-दर्शन 
 
मत बांध खुदा की फितरत को 
आजाद खुदई, कुदरत को
दोजख को, रोते जन्नत को
आदम की नादाँ जुर्रत को
                                             मत बांध
 
 
मत बांध  गँवार खदानों को 
बेवा खेतों, खलिहानों को 
साहिल पर हावी मौजों को
लावारिस मुर्दा फौजों को 
जाहिल मजहबी फसानों को
बेमतलब के भगवानों को 
                                         मत बांध
 मत छेड़ हसीन जवानी को
दो पैसे की कुर्बानी को 
शबनम में भींगे सपनों को
पहलू में सिमटे अपनों को
बे जुबाँ गरीब निगाहों को
माला पर फिरती आहों को
                                       मत छेड़
 
 
मत छेड़ हवा तूफानी जो
हर चीज कि है बेमानी जो 
मरती बेमौत बहारों को
बेहूदे सर्द 'सहारों' को
इन्साँ की बेबस हारों को
शेताँ के शोख इशारों को
                                       मत छेड़
 
 
मत बांध गीत के तालों को
दूरी को, बेसह चालों को
बर्फीली सिम-सिम चोटी को
खा गई ............ है गोटी जो 
वैसे बेजान जवानों को 
मजदूरों को, दहकानों को
                                             मत बांध
पर, बेलगाम को मैं लगाम दूंगा ही
दुनिया के मुहँ पर दो-टूक कहूँगा ही
आजाद भुजाओं का कम्पन
आजाद निगाहों का आंगन
आजाद कल्पना की पाँखें
आजाद जमाने की आँखें
आजाद तर्क तूफानी है
कलयुग का आँधी-पानी है
जो कुछ बाइबिल की काया है
वह सब मिट्टी की माया है
औ मैं धरती का बेटा हूँ
बल-बुद्धि सभी में जेठा हूँ
मैं क्यूरी, आर्क व न्यूटन हूँ 
गैलीलियो, स्टीफेंसन  हूँ
परियों के लहंगे बुनता हूँ
निर्झर से बिजली चुनता हूँ
सृष्टा मुझ से घबराता है
मेरा हर हुक्म बजाता है
 
खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
कुदरत की बे-सह चालों को
मुल्ला, पण्डित, पादरी अक्ल
पर पड़े पुराने तालों को 
बाँधूंगा मैं तो बाँधूंगा
बेहूदी हर आजादी को
उन आदमखोर खयालों को
उनस सेलम सत्यानासी को

खोलूंगा मैं तो खोलूंगा
हर भेद तिलस्मी फाटक का
हर बात पुरानी बुढ़िया की 
हर राज खुदाई नाटक का
मरे आवाज न अब दम ले
कलयुग के नारे बन चिल्ला
वह देख, पूँजी का मुल्ला
लोहे का पूज रहा अल्ला

यह भीषण भौतिक परिवर्तन, 
आया ले एक नया दर्शन
उत्पादन की लौ तेज हुई,
जीवन के हुए सुलभ साधन
गाँवों की किस्मत फूट गई,
धरती की छाती टूट गई
निर्जन के भाग उछल बैठे,
अब तो दुनिया दो-टूक हुई
 
 
ढेरों उत्पादन होता है
किस्मत को कमकर रोता है
जन्नत में दौलत हँसती है
दोजख में कमकर सोता है
अन्धेर खुदा क्या होता है!
खूँ की यह चाट भयानक है
पीछे अकाल मुँह खोल खड़ा
आगे शोषण का खन्दक है
चट्-चट् हड्डियाँ चटकती हैं
मिल में, अन्धेर खदानों में
 मजदूरों में मायूसी है
औ दहशत है दहकानों में

पूँजी रह - रह चिल्लाती है
'जीना भी अजी जरूरी क्या
आकाश - धरा की दूरी क्या
अब बढ़ने में मजबूरी क्या
शासन तो मेरा चाकर है
बाजार घेर लो हिकमत से
चाहे हो जैसे भी घेरो
मजहब से चाहे ताकत से'

चिमनी मुहँ फाड़ गरजती है
काला आकाश लरजता है
भूडोल रोकता है खुद को 
खुद को तूफान बरजता है

कानूनी पहरा फाटक पर
बेली नंगी हो नाच रही
यह राज-महल की डायन है
जो युग की किस्मत बाँच रही

दम रोक जमाना खड़ा, सूर्य
वो-काला पड़ता जाता है
संतरी गेट का सोच रहा
धुंधला हर ओर दिखाता है
 
 
चिमनियाँ धुआँ जो उगल रहीं
सीधी मीनार बनाती हैं
आसार सभी ये कहते हैं
यह आँधी कोई आती है
यादवचंद्र पाण्डेय